शनिवार, 22 जून 2013

Train Journey- Nanded to Mumbai/Bombay (Neral) नान्देड़ से नेरल (मुम्बई/बोम्बे) तक ट्रेन यात्रा

EAST COAST TO WEST COAST-20                                                                   SANDEEP PANWAR
मैंने एक मौका लेने की सोचकर ट्रेन के साथ भागना आरम्भ किया, मुझे ट्रेन के साथ भागते देख कई लोग बोले छोड़ दे, अगली ट्रेन से चले जाना, पूरी ताकत लगाकर मैं भागा था मुझे दरवाजे के नजदीक आते देख, दरवाजे पर खड़े बन्दे वहाँ से पीछे हट गये। भागते-भागते मेरा ध्यान दरवाजे के पाइप के साथ सुरक्षा पर भी था। एक हाथ से खिड़की का पाइप पकड़कर मैंने कुछ कदम तय किये जब यह उम्मीद हुई कि अब सुरक्षित रुप से दरवाजे में प्रवेश किया जा सकता है तो मैंने अपने आप को दरवाजे से अन्दर धकेल दिया। दरवाजे से अन्दर घुसते समय मेरे सामने आगरा कैन्ट की एक घटना घूम गयी थी मुझे याद है जब मैं पहली बार ताजमहल देखने गया था तो वहाँ स्टेशन पर एक दुर्घटना घटित हुई थी जिसमें एक महिला ग्वालियर या झांसी नौकरी करने जाया करती थी, एक दिन ठीक मेरी तरह उसकी ट्रेन चल चुकी थी उस औरत ने ट्रेन पकड़ने के लिये ट्रेन के साथ दौड़कर दरवाजे का पाइप तो पकड़ लिया था लेकिन बदकिस्मती से वह दरवाजे में पैर रखते समय चूक गयी, जैसे ही उसने दरवाजे में पैर रखा तो उसका पैर फ़िसल गया। अगर उसने उसी समय दरवाजे पर पकड़ा हुआ पाइप छोड़ दिया होता तो वह प्लेटफ़ार्म पर गिर जाती लेकिन होनी-अनहोनी के आगे किसी की नहीं चलती। पाइप पकड़ने के कारण वह महिला ट्रेन के साथ घिसटती चली गयी जिससे वह ट्रेन व प्लेटफ़ार्म के बीच पिसती चली गयी। जब तक ट्रेन ने प्लेटफ़ार्म पार किया उस महिला की दर्दनाक दयनीय हालत हो चुकी थी। खैर ट्रेन कोई बस तो है नहीं जो चिल्लाने से रुक जाये जब गार्ड़ ने दुर्घटना देखी तो उसने ट्रेन रुकवायी लेकिन उस औरत की इतनी बुरी हालत हो चुकी थे कि वह कुछ देर में ही दम तोड़ गयी।




खैर मैं डिब्बे में सुरक्षित घुस चुका था। मैं चाहता तो पहले वाले डिब्बे में भी चढ सकता था लेकिन वह जनरल डिब्बा था इसलिये उसमें घुसकर ट्रेन में बैठा तो जा सकता था लेकिन टिकट चेकर को टिकट नहीं दिखाया जा सकता था इस कारण मुझे आरक्षित डिब्बे में ही घुसना था। इनसे पहले AC वाले डिब्बे थे उनमें भी चढ़ने पर जनरल डिब्बे वाली परेशानी पैदा होनी थी इसलिये मैंने 4-5 डिब्बे निकल जाने के बाद ही भागकर ट्रेन में घुसना उचित समझा था। इस भागम भाग में मेरे बैग में रखी पानी की बोतल उछल कर ऊपर आ चुकी थी जैसे ही मैं डिब्बे में अन्दर की ओर बढ़ा तो बोतल निकलकर बाहर गिर गयी, भीड़ के कारण मुझे पता नहीं लगा। एक लड़के ने मुझे आवाज देकर मेरी बोतल मुझे दी, उसका धन्यवाद देकर मैं अपनी सीट संख्या 23 की ओर बढ चला। ट्रेन में भीड़ कुछ ज्यादा ही थी जिस कारण ऐसा लग रहा था कि मैं जनरल डिब्बे में घुस आया हूँ। नान्देड़ में आसपास से नौकरी व काम धन्धे के लिये आने वाले दैनिक यात्री शाम होने के कारण अपने-अपने घरो को लौट रहे थे। कानूनन तो रिजर्वेशन वाले डिब्बे में पास वाले लोग नहीं बैठ सकते है लेकिन हमारे देश में जब कानून की माँ-बहिन एक करने में नेता सबसे आगे रहते है तो उसको वोट देने वाली आम जनता भला कब पीछे रहने वाली है? मैं अपनी सीट के सामने जा पहुँचा।


मैं सीट के सामने पहुँचकर कुछ सैकिन्ड़ खड़ा रहा तो एक बन्दा जो मेरी सीट पर बैठा हुआ था बोला भाई आगे निकल जाओ, यहाँ बैठने की जगह नहीं है। जब मैंने कहा कि चलो महाराज कम से कम सीट वाले को तो बैठने दो जिसके नाम सीट बोम्बे तक बुक है। मेरी इस बात को सुनकर मानो सीट पर बैठे पाँच बन्दों को साँप सूँघ गया हो। मैं हमेशा उस दिशा में चेहरा कर बैठता हूँ जिस दिशा में ट्रेन जा रही होती है मुझे आगे जाने के लिये कहने वाला बन्दा ठीक उसी जगह बैठा था जहाँ मैं बैठने वाला था। मैंने दो महिलाओ और एक पुरुष को कुछ नहीं कहा लेकिन मेरे बैठने व बैग रखने के लिये कम से कम दो बन्दे खड़े होने जरुरी थे। चलो महाराज सीट छोडो। तब जाकर उसने सीट छोड़ी। मैंने सीट पर बैठने के बाद दोनों महिलाओ से पूछा कि आप कहाँ तक जाओगी? उनका जवाब मिला औरंगाबाद तक। नान्देड़ से औरंगाबाद कम से कम 150 किमी दूर है। इस तरह मैंने अनुमान लगाया कि औरंगाबाद पहुँचने में ट्रेन को रात के 9 बजेंगे, अत: औरंगाबाद तक मुझे सीट पर लेटने की जगह मिलनी मुश्किल थी।

ट्रेन कहने को ही एक्सप्रेस लग रही थी जबकि उसकी गति सवारी रेलगाड़ी जैसी ही थी। पूर्णा पहुँचकर मुझे दो दिन पहले की ट्रेन यात्रा की याद हो आयी जब मैं परली बैजनाथ से ट्रेन में बैठकर पूर्णा होते हुए अकोला वाली लाइन पर बसमत तक गया था। पूर्णा से आगे चलकर ट्रेन परभणी में काफ़ी देर तक रुकी रही। यह वही स्टेशन है जहाँ से परली वाली लाइन अलग होती है। परभणी आकर हमारे डिब्बे में कुछ राहत अवश्य महसूस हुई। यह ट्रेन इस रुट की सबसे बेकार ट्रेन में गिनी जाती है। इस बारे में बोम्बे के पास बसई में रहने वाली दर्शन कौर धनौए ने भी मुझे बताया था। मेरे पास बैठी दैनिक सवारियाँ भी यही कह रही थी। लेकिन कुल मिलाकर रात को यात्रा करने के नान्देड़ से यह ट्रेन ठीक ही लगी क्योंकि यह ट्रेन बोम्बे सुबह मुँह अंधेरे पहुँच जाती है।

औरंगाबाद पहुँचने से दो-तीन किमी पहले पता नहीं क्या हुआ था कि ट्रेन एक फ़ाटक के पास आधा घन्टा खड़ी रही। वहाँ मौजूद सवारिया‘ आपस में बात करती हुई कह रही थी कि कम से कम स्टेशन पहुँचकर ही आधा घन्टा रुक जाता कम से कम अब तक घर तो पहुँच जाते। चूंकि रात व स्टेशन की दूरी कई किमी थी इसलिये किसी ने पैदल जाने की हिम्मत नहीं दिखायी। खैर जब ट्रेन औरंगाबाद जाकर रुकी तो 5-6 महीने पहले की गयी औरंगाबाद यात्रा याद हो आयी। उस यात्रा में मैंने तीन ज्योतिर्लिंग भीमाशंकर, त्रयम्बकेश्वर, घृष्णेश्वर के साथ औरंगाबाद के दौलताबाद का अजेय दुर्ग/किला भी देखा था जिसका वर्णन मैं पहली ही अपने ब्लॉग पर कर चुका हूँ। औरंगाबाद पहुँचने के बाद मेरी सीट पर सिर्फ़ एक बन्दा पैरो की तरफ़ बैठा हुआ था जिससे मैंने बैग सिर के नीचे लगाया और लम्बी तानकर लेट गया।

औरंगाबाद से अगल स्टेशन दौलताबाद आया यहाँ का दुर्ग यहाँ से दो-तीन किमी दूरी पर ही है। ट्रेन की गति यहाँ से चलने के बाद ठीक थी यहाँ नहीं मैंने ध्यान नहीं दिया। जब मनमाड़ आया तो मेरे पैरो के पास बैठे हुआ बन्दा भी उतर गया। यहाँ से आगे मुझे कुछ नहीं पता कि कब कहाँ ट्रेन पहुँची क्योंकि मुझे नीन्द आ गयी थी। सुबह मुझे कल्याण स्टेशन पर उतरना था कल्याण पहुँचने में ट्रेन को सुबह के चार बजने वाले थे, इतनी सुबह आँख खुले या नहीं इसलिये मोबाइल में चार बजे का अलार्म भी लगा दिया गया था। लेकिन सुबह तीन बजे ही शरीर की जैविक घड़ी ने मुझे नीन्द से जगा दिया। इसके बाद मैंने घन्टा भर सोने की असफ़ल कोशिश जरुर की थी।

जैसे ही कल्याण स्टेशन का बोर्ड़ दिखायी दिया तो मैंने अपना बैग उठाया और ट्रेन से बाहर निकल आया। ट्रेन से बाहर आने के बाद मुझे माथेरान वाली खिलौना रेलगाड़ी में जाने के लिये नेरल पहुँचना था नेरल जाने वाली ट्रेन सुबह 5:35 मिनट की थी इस तरह मेरे पास करीब घन्टे भर का समय बचा हुआ था। मैंने स्टेशन से बाहर जाकर नेरल तक का एक टिकट ले लिया। कल्याण से नेरल के रुट में बदलापुर नाम का स्टेशन भी आता है वही मुझे बोम्बे का घुमक्कड़ प्राणी विशाल राठौर मिलने वाला था। बोम्बे में दो तरह की लोकल रेल चलती है एक ट्रेन धीमी लोकल कहलाती है जबकि दूसरी तेज लोकल कहलाती है। दोनों की लाईन भी अलग-अलग होती है। रुकने के प्लेटफ़ार्म भी अलग-अलग होते है। तेज लोकल वाली लाइन पर लम्बी दूरी की ट्रेन भी निकाली जाती है।

बोम्बे में रेलवे ने पटरियों का ऐसा जाल बिछाया हुआ है कि मैं पहली बार तो इस झमेले को समझ ही नहीं पाया था विशाल ने मुझे पैदल पुल के ऊपर लेजाकर समझाया तब कही जाकर यह जाल मेरी खोपेड़ी में घुसा। लोकल ट्रेन अधिकतर समय ही चलती है मेरी लोकल जिससे मुझे नेरल जाना था ठीक समय पर पहुँच गयी थी। ट्रेन के कल्याण से चलने के बाद विशाल को फ़ोन करना था ताकि वह भी घर से चल दे। वैसे विशाल बोम्बे के गोरेगाँव में रहता है। जबकि बदलापुर जहाँ वह मुझे मिलने वाला था वहाँ उसकी ससुराल है। बदलापुर नेरल वाले रुट पर मैं पहले भी नेरल तक यात्रा कर चुका हूँ इसलिये बदलापुर से पहले ही मैं खिड़की पर खड़ा हो चुका था।

जैसे ही बदलापुर स्टेशन आया तो विशाल ने मेरा फ़ोटो ट्रेन के दरवाजे पर ही ले लिया। ट्रेन चलने से पहले ही हम ट्रेन के अन्दर आकर अपनी सीटो पर विराजमान हो चुके थे। सुबह का समय होने के कारण लोकल ट्रेन खाली थी लेकिन दिल्ली की तरह यहाँ भी वर्किंग घन्टों में लोकल ट्रेन में जबरदस्त मारामारी मचती है। बोम्बे घूमने के लिये कल का दिन सुरक्षित रखा हुआ था उसमें इस लोकल में ही कई बार चक्कर लगाना था। बोम्बे के कई लोकल रेलवे के स्टेशनों के नाम हिन्दी फ़िल्मों में सुने हुए है अब उन स्टेशनों को देखकर अच्छा लग रहा था। हमारी ट्रेन सुबह 6:30 मिनट पर नेरल स्टेशन पहुँच चुकी थी। बोम्बे से नेरल पहुँचने के लिये यह सुबह के समय की पहली ट्रेन है हम सोच रहे थे कि बोम्बे से माथेरान ट्राय ट्रेन में घूमने के लिये नेरल आने वाली काफ़ी सवारियाँ होंगी, जिससे नेरल के ट्राय ट्रेन काऊँटर पर भीड़ हो जायेगी। सबसे पहले पहुंचने के लिये उस ओर उतरा जाये जिस ओर से टिकट काऊटर जल्दी पहुँचा जा सकता है। जैसे ही ट्रेन नेरल रुकी तो हम दोनों बिना प्लेटफ़ार्म वाली दिशा में कूद गये। (क्रमश:) 
विशाखापटनम-श्रीशैल-नान्देड़-बोम्बे-माथेरान यात्रा के आंध्रप्रदेश इलाके की यात्रा के क्रमवार लिंक नीचे दिये गये है।
विशाखापटनम-श्रीशैल-नान्देड़-बोम्बे-माथेरान यात्रा के बोम्बे शहर की यात्रा के क्रमवार लिंक नीचे दिये गये है।















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