देखो जी इस पेड में कैसे घुसे खडे है, ये सिरफ़िरे मस्ताने जाट
सब ठीक दोपहर बारह बजे, पहले से तय आज की मंजिल सरेउलसर झील व उसके किनारे पर बने मंदिर देखने के लिये चल पडे। दुकान वाले ने बताया था कि लगभग पाँच किलोमीटर का मार्ग है, कोई खास कठिन नहीं है, लेकिन नीरज ने फ़िर भी अपना लठ साथ ले लिया था। इस मार्ग पर लगभग आठ सौ मीटर जाने पर सीधे हाथ नीचे की ओर कुछ टैंट लगे हुए थे, जो कि यहाँ आने वालों के लिये ही रहे होंगे। एक किलोमीटर तक मार्ग समतल सा ही है, उससे कुछ आगे जाने पर पूरे एक किलोमीटर तक उतराई-ही उतराई थी, इससे आगे जाने पर मार्ग कभी ऊपर की ओर व कभी नीचे की ओर जा रहा था, यानि पूरा उबड-खाबड मार्ग था। एक पचास साल के व्यक्ति जो हमारे से पहले पैदल चले हुए थे, हमें ढलान शुरु होते ही मिले थे, उनकी रफ़्तार इतनी तेज थी कि जब हम इस झील को देख कर वापस आ रहे थे तो ये हमें झील की ओर जाते हुए मिले थे, वो भी झील से आधा किलोमीटर पहले। इन महाशय का नामकरण किया गया "शामली एक्सप्रेस" जो इन पर पूरी तरह फ़िट बैठता था।
मैं व नितिन अपनी-अपनी बाइक ले कर, सबसे पहले जलोडी पास पर आ गये थे, समय हुआ था साढे ग्यारह। नीरज व विपिन बस में बैठ कर इस पास पर आये थे, जिस कारण उन्हे यहाँ आने में लगभग बीस मिनट ज्यादा लग गये थे। तब तक मैं व नितिन इस पास पर बनी गिनी-गिनाई चार-पाँच दुकानों में से एक पर कब्जा जमा कर बैठ गये थे, जैसे ही ये दोनों बस से आये तो हमने दुकान वाले को खाने के लिये मैगी बनाने का आदेश दे दिया। सब ने एक-एक मैगी खायी इस यात्रा के भाग 1 भाग 2 भाग 3 क्लिक करे
एक फ़ोटो यहाँ भी हुआ, इस स्वर्णिम चतुर्भुज का (गप्पू जी द्धारा दिया गया नाम)सब ठीक दोपहर बारह बजे, पहले से तय आज की मंजिल सरेउलसर झील व उसके किनारे पर बने मंदिर देखने के लिये चल पडे। दुकान वाले ने बताया था कि लगभग पाँच किलोमीटर का मार्ग है, कोई खास कठिन नहीं है, लेकिन नीरज ने फ़िर भी अपना लठ साथ ले लिया था। इस मार्ग पर लगभग आठ सौ मीटर जाने पर सीधे हाथ नीचे की ओर कुछ टैंट लगे हुए थे, जो कि यहाँ आने वालों के लिये ही रहे होंगे। एक किलोमीटर तक मार्ग समतल सा ही है, उससे कुछ आगे जाने पर पूरे एक किलोमीटर तक उतराई-ही उतराई थी, इससे आगे जाने पर मार्ग कभी ऊपर की ओर व कभी नीचे की ओर जा रहा था, यानि पूरा उबड-खाबड मार्ग था। एक पचास साल के व्यक्ति जो हमारे से पहले पैदल चले हुए थे, हमें ढलान शुरु होते ही मिले थे, उनकी रफ़्तार इतनी तेज थी कि जब हम इस झील को देख कर वापस आ रहे थे तो ये हमें झील की ओर जाते हुए मिले थे, वो भी झील से आधा किलोमीटर पहले। इन महाशय का नामकरण किया गया "शामली एक्सप्रेस" जो इन पर पूरी तरह फ़िट बैठता था।