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सोमवार, 28 जुलाई 2014

Orccha -Raya Parveen Mahal and Jhansi ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी प्रस्थान

KHAJURAHO-ORCHA-JHANSI-11

इस यात्रा के सभी लेख के लिंक यहाँ है।01-दिल्ली से खजुराहो तक की यात्रा का वर्णन
02-खजुराहो के पश्चिमी समूह के विवादास्पद (sexy) मन्दिर समूह के दर्शन
03-खजुराहो के चतुर्भुज व दूल्हा देव मन्दिर की सैर।
04-खजुराहो के जैन समूह मन्दिर परिसर में पार्श्वनाथ, आदिनाथ मन्दिर के दर्शन।
05-खजुराहो के वामन व ज्वारी मन्दिर
06-खजुराहो से ओरछा तक सवारी रेलगाडी की मजेदार यात्रा।
07-ओरछा-किले में लाईट व साऊंड शो के यादगार पल 
08-ओरछा के प्राचीन दरवाजे व बेतवा का कंचना घाट 
09-ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर व राजा राम मन्दिर
10- ओरछा का जहाँगीर महल मुगल व बुन्देल दोस्ती की निशानी
11- ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी किले की ओर प्रस्थान
12- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का झांसी का किला।
13- झांसी से दिल्ली आते समय प्लेटफ़ार्म पर जोरदार विवाद

आज के लेख में दिनांक 28-04-2014 को की गयी यात्रा के बारे में बताया जा रहा है। यदि आपको इस यात्रा के बारे में शुरु से पढना है तो ऊपर दिये गये लिंक पर क्लिक करे। इस यात्रा में अभी तक आपने पढा कि खजुराहो के बाद ओरछा यात्रा में जहाँगीर महल देखने के बाद आगे चल दिये। बाहर आते ही रेल वाला अमेरिकी पेट्रिक मिला। हमारा फ़ोटो लेने के बाद वह जहाँगीर महल के अन्दर चला गया। हम राय प्रवीन देखने चल दिये। राय प्रवीण महल की कहानी भी काफ़ी मजेदार है। बुन्देल राज्य की सबसे होनहार गायिका, नृतिका व गीतकार का दर्जा इसी प्रवीण राय को प्राप्त था। राय प्रवीण की यही प्रसिद्दी इसकी मुसीबतों का कारण भी बन गयी। इनकी चर्चा मुगल बादशाह के कानों में भी पहुँची तो मुगल बादशाह ने ओरछा के राजा से कहा कि राय प्रवीण हमारे दरबार की शोभा बढायेगी। आखिरकार मुगल बादशाह ने राय प्रवीण को आगरा बुलवा लिया। यह गायिका राय प्रवीण भी पहुँची हुई चीज थी।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

Orccha-Raja Ram temple and Chaturbhuj Temple ओरछा-राम राजा मन्दिर व चतुर्भुज मन्दिर

KHAJURAHO-ORCHA-JHANSI-09

आज के लेख में दिनांक 28-04-2014 को की गयी यात्रा के बारे में बताया जा रहा है। यदि आपको इस यात्रा के बारे में शुरु से पढना है तो नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे। इस यात्रा में अभी तक आपने पढा कि मैं ओरछा में बेतवा किनारे बनाया गया कंचना घाट देखकर चतुर्भुज व राम मन्दिर देखने पहुँच गया। कंचना घाट से आते समय मुख्य सडक पर चतुर्भुज मन्दिर नजदीक पडता है। वैसे भी यह मन्दिर यहाँ ओरछा में सबसे ऊँचा है। यहाँ के राजा बडे चतुर थे जिस कारण यह मन्दिर बच गया नहीं तो औरंगजेब ने इसको मस्जिद बनाने का हुक्म दे दिया था। इस मन्दिर का शिखर इतना ऊँचा है कि यह आसपास के कस्बों व गाँवों से भी दिखायी देता है। इसे देख लगता है कि जैसे यह आसमान से मुकाबला कर रहा हो।
इस यात्रा के सभी लेख के लिंक यहाँ है।01-दिल्ली से खजुराहो तक की यात्रा का वर्णन
02-खजुराहो के पश्चिमी समूह के विवादास्पद (sexy) मन्दिर समूह के दर्शन
03-खजुराहो के चतुर्भुज व दूल्हा देव मन्दिर की सैर।
04-खजुराहो के जैन समूह मन्दिर परिसर में पार्श्वनाथ, आदिनाथ मन्दिर के दर्शन।
05-खजुराहो के वामन व ज्वारी मन्दिर
06-खजुराहो से ओरछा तक सवारी रेलगाडी की मजेदार यात्रा।
07-ओरछा-किले में लाईट व साऊंड शो के यादगार पल 
08-ओरछा के प्राचीन दरवाजे व बेतवा का कंचना घाट 
09-ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर व राजा राम मन्दिर
10- ओरछा का जहाँगीर महल मुगल व बुन्देल दोस्ती की निशानी
11- ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी किले की ओर प्रस्थान
12- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का झांसी का किला।
13- झांसी से दिल्ली आते समय प्लेटफ़ार्म पर जोरदार विवाद



मुख्य सडक से चतुर्भुज मन्दिर पहुँचने के कई मार्ग है लेकिन मुझे जो मार्ग दिखाई दिया उस पर शादी समारोह होने वाले कई मैरिज होम बने हुए मिले। उस दिन शादी का सीजन चल रहा था जिस कारण दो मैरिज होम में बारात विदाई की तैयारी भी हो रही थी। मुझे जिस गली नुमा सडक से होकर चतुर्भुज मन्दिर तक जाना पडा। उसके ऊपर शादी ब्याह में लगायी जाने वाली चमकनी लगी होने के कारण पूरी गली की छत चमचमाती हुई दिख रही थी। बाराती बारात घर के बाहर ही डेरा डाले हुए थे। यहाँ सुबह की चाय नाश्ता वाला दौर चालू था एक बार तो मेरा लालची मनवा भी डोलने लगा कि चलो नाश्ते पर हाथ साफ़ कर दिया जाये। लेकिन एक गडबड थी कि मन की मानता तो कैसे? एक तो मैं सुबह कुछ खाता पीता ही नहीं हूँ। दूसरा चाय का दौर चल रहा था जो मेरे किसी काम की नहीं थी। यदि दूध जलेबी होती तो सुबह होने के बावजूद कुछ खाया जा सकता था?
शादी के बारातियों को चाय नाश्ता करते छोड आगे बढता हूँ। सामने ही चतुर्भुज मन्दिर है। जैसे-जैसे मन्दिर नजदीक आता जा रहा है इसका शिखर ऊँचा होता प्रतीत होता जा रहा है। शुक्र है कि गर्मी के दिन है सर्दी के दिन होते तो सिर की टोपी भी सम्भालनी पड जाती। मन्दिर के बराबर में एक दो पुराने खण्डहर की दीवार भी खडी हुई है। इन्हे देखकर लगता है यह भी मन्दिर का ही हिस्सा रहे होंगे। आज भले ही कोई इन खण्डहरों को पूछने वाला नहीं है। मन्दिर में प्रवेश करने के लिये सीढियों से होकर जाना पडता है। मन्दिर तक पहुँचने के लिये दो-चार सीढियां नहीं है। मैंने गिनी तो नहीं थी लेकिन अंदाजे से कहता हूँ कि कम से कम सौ सीढियाँ तो रही होगी जिन्हे चढकर मन्दिर में प्रवेश करना होता है।
सीढियों के ठीक सामने कुछ दुकाने है। दुकाने पक्की नहीं है। तख्त पर सामान रखकर ठिया रुपी दुकान का रुप दे दिया गया है। यहाँ एक बोर्ड भी लगा हुआ था जिस पर ओरछा में घूमने लायक स्थलों के बारे में संख्या क्रम लिखकर नाम सहित बताया गया है। इस मन्दिर का निर्माण राजा मधुकर शाह व उनकी रानी कुवांरी गणेश बे अपने शासन काल में कराया था। राजा मधुकर की रानी गणेश कुवांरी ने अपने आराध्य देव राजा राम की स्थापना के लिये भले ही कराया था। लेकिन राम राजा की इस मन्दिर में पूजा ना हो सकी। राजा राम की कहानी आगे बतायी जा रही है। मन्दिर का निर्माण कार्य काफ़ी पहले आरम्भ हो चुका था। किन्तु पश्चिमी बुन्देलखन्ड पर मुगल आक्रमण में राजकुमार होरल देव की असमय मृत्यु के कारण निर्धारित समय में निर्माण पूर्ण नहीं हो पाया। इस कारण रानी ने राजा राम की प्रतिमा को अपने महल में ही रख लिया था। अगले महाराजा वीर सिंह के काल में इस मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। नागर शैली में बनाया गया यह विशाल मन्दिर काफ़ी भव्य है। आज इस मन्दिर को बने सैकडो वर्ष हो चुके है यदि इसका रखरखाव ठीक से किया जाये तो आने वाले वर्षों तक यह ऐसे ही खडा रह सकता है।
इस मन्दिर के बराबर में राजा राम का मन्दिर है। यहाँ से दो लम्बी मीनारे दिखायी दे रही थी जिनके बारे में पता लगा कि इनका नाम सावन-भादो है। ओरछा में जितनी भी इमारते है। उनके पीछे कोई ना कोई कहानी है। सावन भादो मीनार थोडी दूर है पहले चतुर्भुज मन्दिर देख लेता हूँ। सीढियाँ चढता हुआ मन्दिर के प्रवेश दरवाजे पर जा पहुँचा। मन्दिर का दरवाजा बन्द मिला। समय देखा, अभी सुबह के आठ भी नहीं बजे थे। हो सकता है कि ओरछा के मन्दिर देर से खुलते हो। राजा राम मन्दिर भी बराबर में ही है। चलो अब उसकी ओर चलता हूँ। लेकिन यह क्या हुआ? यह भी बन्द है। वहाँ तैनात सिपाही से पता किया कि मन्दिर खुलने में कितनी देर है? उसने कहा कि अभी एक घन्टा बाकि है। ठीक है तब तक ओरछा का किला देख आता हूँ। किला देखने के बाद वापिस आऊँगा तो मन्दिर भी खुला मिलेगा।
किले की ओर बढने से पहले मन में आया कि इन मन्दिरों की बाहरी दीवारों के कुछ फ़ोटो ही ले लिये जाये। वैसे भी मन्दिर के बाहर के ही फ़ोटो लिये जा सकते है अधिकांश मन्दिरों के अन्दर कैमरा लेकर जाने नहीं देते है। कैमरा लेकर जाने से मन्दिरों की पोल पटटी खुल सकती है। मेरे जैसा शैतान खोपडी का बन्दा तो पोल पट्टी खोलकर ही मानता है। मन्दिर के फ़ोटो लेते समय मेरी नजर मधु मक्खी के शहद वाले छत्तों पर गयी। यहाँ एक दो नहीं बहुत सारे शहद के छत्ते दिखाई दे रहे थे। उन छत्तों में नये व पुराने दोनों तरह के छत्ते दिखायी दे रहे थे। मन्दिर की दीवार पर ऊँचे छज्जे के नीचे लगे होने के चलते इनके साथ छेडछाड नहीं होती होगी। जिससे इनका ठिकाना यहाँ लगातार बनता जा रहा है। मन्दिर के ठीक पीछे जाने पर एक छोटा सा मन्दिर दिखाई दिया। मैं समय बीताने के इरादे से वहाँ मन्दिर के नजदीक ही बैठ गया। तभी थोडे-थोडे समय अन्तराल पर कई भक्त उस मन्दिर में प्रसाद लेकर गये। मेरा मन मन्दिर में अन्दर जाने का नहीं हुआ। जब बडे मन्दिर नहीं खुले तो छोटे मन्दिर में मुझे नहीं जाना है।
बीते लेख पर प्रतिक्रिया करते हुए भाई सचिन त्यागी, रितेश गुप्ता व दर्शन कौर जी ने कहा कि ओरछा के इतिहास के बारे में कुछ बता देते। लाईट एण्ड साऊंड शो में यहाँ के इतिहास की काफ़ी बाते पता लगी थी। चलो उसी से कुछ बाते आपके लिये निकाल लाया हूँ। यहाँ का मुख्य इतिहास यह है कि ओरछा मध्यकाल में परिहार राजाओं की राजधानी रहा है। परिहार राजाओं के बाद चन्देल राजाओं ने भी ओरछा पर पर राज्य किया। चन्देल राजाओं के बाद बुन्देल राजाओं का समय आया। ओरछा को अपना गौरव पुन: प्राप्त कराने में बुन्देल राजाओं का मुख्य योगदान रहा। बुन्देल राजाओं में ओरछा को पहचान दिलाने वालों मुख्य राजा मधुकर शाह थे जिनका मुगल हमलावार की निर्दयी औलाद अकबर से युद्द के मैदान में कई बार सामना हुआ। मुगलों ने भले ही पूरे भारत में अपना परचम लहराया होगा लेकिन मुगलों को बुन्देलखड के राजाओं (ओरछा के राजाओ) ने चैन से नहीं रहने दिया। जिस मुगल बादशाह ने बुन्देल राजाओं से पंगा लिया वह चैन से नहीं रह पाया।
सन 1501-1531 के मध्य ओरछा पर शासन करने वाले राजा रुद्रप्रताप ने ओरछा को बसाया था। ओरछा के किले को बनाने में 8 साल का समय लगा। ओरछा से पहले बुन्देल राजाओं की राजाओ की राजधानी गढकुन्डार हुआ करती थी। ओरछा में राजाओं के लिये महल सन 1539 में बनकर तैयार हुए। महल तैयार होते ही ओरछा राजधानी घोषित कर दी गयी। अकबर के काल में ओरछा राजाओं के साथ लडाईयाँ होती रहती थी। जब जहाँगीर (अकबर का लडका) ने अपने पिता से विद्रोह कर दिया तो उस मौके का जहाँगीर व बुन्देल राजा दोनों ने लाभ उठाया और जहाँगीर ने बुन्देल राजा से दोस्ती कर ली। यह दोस्ती भविष्य में बडे काम आयी।
जहाँगीर ने बुन्देल राजा वीरसिंहदेव के साथ जमकर दोस्ती निभायी। वीरसिंहदेव ने जहाँगीर से दोस्ती करने के बाद जहाँगीर के कहने पर अकबर के दरबारी अबुलफ़जल की हत्या तक करवा डाली थी। अकबर नहा धोकर ओरछा के राजाओं के पीछे पडा रहा लेकिन उसे सफ़लता ना मिल सकी। जब जहांगीर मुगल बादशाह बना तो उसने वीरसिंहजुदेव को पूरे ओरछा का राजा बना दिया था। इससे पहले वीरसिंह देव ओरछा राज्य की बडौनी जागीर के मालिक थे। बुन्देलखन्ड की लोक-कथाओं का नायक हरदौल वीरसिंह देव का छोटा पुत्र था। वीरसिंह देव का बडा लडका जुझार सिंह था। इतिहासकार कहते है कि जुझार सिंह ने शाँहजहाँ के साथ कई लडाईयाँ लडी। औरंगजेब काल में छ्त्रसाल ने बुन्देलखन्ड का नाम रोशन किया।
बुन्देल राजाओं के काल में ओरछा में कई इमारतों का निर्माण किया गया। इनमें जहाँगीर महल सबसे मुख्य है। जहाँगीर महल को वीरसिंह देव ने जहाँगीर के लिये बनवाया था लेकिन जहाँगीर इस महल में वीरसिंहदेव के जीवन काल में नहीं ठहर सका। आपको अगले लेख में इसी जहाँगीर महल का भ्रमण कराया जायेगा। ओरछा के राजकवि केशवदास का भवन, ओरछा की राज नृतकी व गायिका राय प्रवीण का भवन भी अगले लेख में ही दिखाया जायेगा। ओरछा के नजदीक कुंढार बुन्देलों कीए राजधानी जरुर रही लेकिन उसे इतनी शोहरत नहीं मिल पायी जितनी ओरछा को मिली।
अब बात मन्दिर की करते है। यहाँ के मन्दिरों के पीछे मजेदार कहानी है। यहाँ का चतुर्भुज मन्दिर भगवान राम की मूर्ति स्थापना के लिये ही बनवाया गया था। लेकिन राम की मूर्ति यहाँ ओरछा में लाने के बाद स्थापना तिथि से कुछ समय पहले मंगवा ली गयी थी। उस समय तक इस मन्दिर में कुछ काम बाकि था। जिस कारण राम जी की मूर्ति को रानी ने अपने महल में रखवा लिया। लेकिन जब मन्दिर बनकर तैयार हो गया तो यह मूर्ति यहाँ से ट्स से मस ना हो सकी जिस कारण मूर्ति वही रह गयी। कहते है भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता है। तभी तो राजा-रानी की इच्छा के विपरीत राम जी मूर्ति इस मन्दिर में ना आ सकी।
राम जी की यह मूर्ति राजा मधुकर शाह के शासन के दौरान उनकी रानी राम नगरी अयोध्या से लेकर आयी थी। राजा रानी का महल ही वर्तमान राम राजा मन्दिर या राजा राम मन्दिर कहलाता है। वैसे तो राम जी का जन्म अयोध्या में हुआ है लेकिन उनकी यहाँ भी उतनी ही मान्यता है। राम नवमी के दिन यहाँ हजारों लोग इकट्ठा होते है। यहाँ की राम मूर्ति के कारण राम को ही ओरछा का राजा माना जाता है। मूर्ति का चेहरा मन्दिर की ओर ना होकर महल की ओर होना भी इसका मुख्य कारण है। रानी ने चतुर्भुज मन्दिर को कुछ इस तरह बनवाया था जिससे कि रानी अपने महल के कक्ष से भगवान के दर्शन करती रहे।
अब राजा-रानी व मूर्ति की कहानी शुरु की जाये। ओरछा के राजा मधुकर की रानी रानी कुवंरी भगवान श्री राम की परम भक्त थी। जबकि राजा मधुकर राधा–श्रीकृष्ण भक्त थे। सही है यदि एक भगवान नाराज हो तो दूसरे को मना लिया जायेगा। राजा ने अपनी रानी से मजाक में कहा या चिढाने के इरादे से कि यदि तुम्हारे राम श्रीकृष्ण से ज्यादा महान है तो उन्हे ओरछा ले आओ। रानी को राजा की बात दिल पर लग गयी। अयोध्या जाने से पहले ही रानी ने राम जी के लिये चतुर्भुज मन्दिर भी बनवाना आरम्भ कर दिया था। जब मन्दिर का निर्माण अन्तिम चरण में था तो रानी भगवान राम को ओरछा लाने के लिये अयोध्या पैदल ही चली गयी।
अयोध्या पहुँचकर रानी ने सरयू नदी के लक्ष्मण घाट पर श्रीराम जी की तपस्या आरम्भ कर दी। जब तपस्या करते हुए काफ़ी दिन बीत गये लेकिन राम जी ने दर्शन ना दिये तो रानी कुवंरी गणेश ने सरयू नदी में प्राण त्यागने का निर्णय ले लिया। तभी भगवान राम बाल रुप में रानी की गोद में आकर बैठ गये। रानी ने राम जी को बालरुप में पहचान लिया और ओरछा चलने को कहा। बाल रुप राम जी ने रानी के सामने तीन शर्त बतायी कि यदि इन्हे मानो तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ। पहली शर्त यह थी कि ओरछा में जहाँ बैठ जाऊँगा वहाँ से नहीं उठूँगा। वहाँ का राज्य पाठ मुझे देना होगा। जिसका अर्थ है कि ओरछा का राजा तुम्हारे पति को नहीं मुझे मानना होगा। तीसरा मैं पुण्य नक्षत्र में ही वहाँ जाऊँगा। रानी ने तीनों शर्त मान ली तो राम जी बाल रुप में ओरछा की ओर चले गये।
ओरछा के पास पन्ना नामक स्थान पर राम जी ने रानी को श्रीकृष्ण रुप दिखाकर आश्चर्य चकित कर दिया था। राम जी बोले कि यहाँ मेरा जुगल किशोर नाम का स्थान सर्व पूज्य होगा। श्रावण शुक्ल तिथि पंचमी 1630 को अयोध्या से पुण्य नक्षत्र में ओरछा के लिये प्रस्थान किया गया। अयोध्या से ओरछा पहुँचने की तिथि चैत्र शुक्ल की नवमी थी। अयोध्या से ओरछा पहुँचने में 8 माह व 27 दिन का समय लिया गया। राम जी ने ऐसी माया रची कि रानी को बाल रुप भगवान राम जी को रानी वास/महल में ही रुकाना पडा। जबकि रानी चाहती थी कि रामजी की स्थापना चतुर्भुज मन्दिर में ही हो। कहते है कि जैसे ही बालरुप भगवान जमीन पर बैठे तो उसी समय बालरुप भगवान मूर्ति में बदल गये। उसी दिन से राजा-रानी के महल में अयोध्या के राम लला ओरछा के राजा राम बनकर विराजमान है। ओरछा का राज्य संचालन उसी समय से राम जी के नाम पर ही चलने लगा। यहाँ एक बात विचारणीय है कि राम जी बालरुप में अयोध्या से ओरछा आये थे जिस कारण जानकी सीता का निवास अयोध्या ही रहा। इसलिये राम जी दिन में ओरछा में वास करते है तो रात्रि में सोने के लिये अयोध्या लौट जाते है। ओरछा वासी आज भी राम जी को अपना राजा मानते है। इतिहास को पीछे छोडकर आगे चलते है।
अब थोडा आगे चलते है। सावन भादो मीनारे यहाँ का एक अन्य मुख्य आकर्षण है इनके बारे में कहते है कि यह वायु यंत्र है। इनके नीचे सुरंग बनी हुई बतायी जाती है। जिन्हे राज परिवार अपने आवागमन में उपयोग करता था। इन मीनारों के बारे में एक झूठ भी सुनने को मिला। बताया गया कि सावन के समाप्त होते व भादो के आरम्भ होते समय ये दोनों मीनारे आपस में जुड जाती थी। इस तरह की बाते केवल चर्चा में बने रहने के लिये लिये होती है। मीनारों के नीचे सुरंगों में जाने के मार्ग बन्द कर दिये है। सुंरग बन्द हो गयी तो क्या हुआ? ओरछा में जमीन के ऊपर देखने लायक बहुत कुछ है।
मुकेश जी का फ़ोन अभी तक नहीं आया। मैंने भी उम्मीद छोड दी थी। अब अकेला ही किला व जहाँगीर महल देखने चलता हूँ। उसके बाद देखता हूँ कि क्या करना है?
रात को यहाँ का किला देखा था दिन की रोशनी में देखता हूँ कैसा दिखता है? मैं महल की ओर बढता जा रहा था। मुख्य सडक पार कर बरसाती नाले का पुल पार कर किले के परिसर में पहुँचा ही था कि मुकेश जी फ़ोन आ गया। एक बार तो मन किया कि घन्टी बजने दूँ। लेकिन अगले पल सोचा कि चलो मुकेश जी की बात सुन कर देखू तो सही कि वे सुबह ना आने का क्या बहाना बनाते है?
मुकेश जी बोले संदीप जी कहाँ हो? रात वाली जगह पर ही हूँ। मुकेश जी बोले अभी होटल में ही हो। नहीं भाई, लाइट एन्ड साऊंड शो वाली जगह पर पहुँच गया हूँ। मेरी बात सुनते ही मुकेश जी बोले, आप वही ठहरो मैं 5 मिनट में पहुँचता हूँ। मैंने कहा, आप सुबह से कहाँ थे? आप अपने मोबाइल पर मेरी कॉल सुन भी नहीं उठा रहे थे। मुकेश जी ने बताया कि संदीप जी रात को देर से कोई दो बजे सो पाया था। जिस कारण सुबह जल्दी आँख ही नहीं खुली। मोबाइल की घन्टी बन्द थी उसका पता ही ना चला। वर्दीधारी लोगों को इतनी भयंकर निन्द्रा की आदत नहीं होनी चाहिए। चलो जी मुकेश का इन्तजार करके देखते है कि सुबह ना आने की कमी अब कैसे पूरी कर पायेंगे? अगले लेख में मुकेश जी ने देर से आने की कमी जहाँगीर महल में दोस्त कम गाइड बनकर बारीक से बारीक जानकारी बताकर पूरी की। (यात्रा जारी है।)





















सोमवार, 14 जुलाई 2014

Orccha- Kanchana Ghat bank of Betwa river ओरछा- बेतवा का कंचना घाट व प्राचीन दरवाजे

KHAJURAHO-ORCHA-JHANSI-08

आज के लेख में दिनांक 28-04-2014 को की गयी यात्रा के बारे में बताया जा रहा है। यदि आपको इस यात्रा के बारे में शुरु से पढना है तो नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे। इस यात्रा में अभी तक आपने पढा कि ओरछा में लाइट एन्ड साऊंड शो से आने के बाद मुकेश जी मुझे होटल छोडने आये और अपने आवास पर जाते हुए बोले कि संदीप जी सुबह उजाला होते ही हाजिर हो जाऊँगा। सुबह कहाँ का कार्यक्रम है? सुबह के समय बेतवा के किनारे घूमने चलेंगे। दिन में यहाँ के कई स्थल देखने लायक है। मुकेश जी आबकारी विभाग में निरीक्षक है। खाकी वर्दीधारी लोगों की दैनिक क्रिया भी बडी उलझन भरी होती है। 
इस यात्रा के सभी लेख के लिंक यहाँ है।01-दिल्ली से खजुराहो तक की यात्रा का वर्णन
02-खजुराहो के पश्चिमी समूह के विवादास्पद (sexy) मन्दिर समूह के दर्शन
03-खजुराहो के चतुर्भुज व दूल्हा देव मन्दिर की सैर।
04-खजुराहो के जैन समूह मन्दिर परिसर में पार्श्वनाथ, आदिनाथ मन्दिर के दर्शन।
05-खजुराहो के वामन व ज्वारी मन्दिर
06-खजुराहो से ओरछा तक सवारी रेलगाडी की मजेदार यात्रा।
07-ओरछा-किले में लाईट व साऊंड शो के यादगार पल 
08-ओरछा के प्राचीन दरवाजे व बेतवा का कंचना घाट 
09-ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर व राजा राम मन्दिर
10- ओरछा का जहाँगीर महल मुगल व बुन्देल दोस्ती की निशानी
11- ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी किले की ओर प्रस्थान
12- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का झांसी का किला।
13- झांसी से दिल्ली आते समय प्लेटफ़ार्म पर जोरदार विवाद
मुकेश जी के जाते ही मैं अपने कमरे में गया और सोने से पहले जमकर नहाया। डबल बैड के कमरे में अकेले सोने का अलग सुख है। ओरछा में रात के समय हल्की सी ठन्डक हो गयी थी। दिन में यहाँ काफ़ी गर्मी बतायी जाती है कल दिन भर यही रहना है तब यहाँ की गर्मी भी देखते है? ओरछा के बारे में कहा जाता है कि यहाँ के शैतान मच्छर रात को चैन से नहीं सोने देंगे। शुक्र रहा कि जिस कमरे में मैं सोया था वहाँ पहले से ही मच्छर भगाने वाली कोयल लगी थी। पहले कैमरा चार्ज किया उसके बाद मच्छर भगाने वाली कोयल को सोने से पहले चालू कर लिया था। सुबह उठने के मामले में अपनी आदत बहुत खराब है किसी भी समय सोना पडे लेकिन आँख सुबह 5 बजे के करीब खुल ही जायेगी। सुबह कुछ ऐसा हुआ कि मेरी आँखे चार बजे ही खुल गयी। नहा धोकर बाहर घूमने निकल गया।
मैंने मुकेश जी को सुबह छ: बजे मिलने के लिये कहा था। अभी तो एक घन्टा बाकि है। एक घन्टा तैयार होने के बाद कमरे में टिकना बहुत ज्यादा होता है। एक घन्टा वहाँ बैठकर खराब करने से बेहतर है कि मुकेश जी के ठिकाने की ओर चल दिया जाये। होटल से मुकेश जी का ठिकाना दो किमी दूरी पर था। होटल से कुछ दूर चलते ही राजा-महाराजाओ के काल का एक विशाल दरवाजा आता है। ओरछा आते समय मैंने सोचा था कि यहाँ पर इस तरह के दरवाजे बनाने की परम्परा रही होगी। रात को लाईट एन्ड साऊंड शो के दौरान पता लगा कि ओरछा के हर दरवाजे के बनाने के पीछे एक कहानी छिपी हुई है।
दरवाजे की कहानी के बारे में, मौका लगा तो आगे बताऊँगा। यहाँ इस प्रकार के दो दरवाजे है। एक का नाम गणेश दरवाजा है तो दूसरे का नाम दिवतीय दरवाजा है। सुबह का समय होने के कारण ओरछा में एक-दो इन्सान ही दिखायी दे रहे थे। मुझे पैदल चलने की धुन हमेशा सवार रहती है इसलिये जब कभी भी मौका मिलता है तो पैदल निकल पडता हूँ। ओरछा की सुहानी भोर ने मुझे पैदल चलने का मौका प्रदान कर दिया था। सुनसान सडक पर अकेले चलने का अलग ही मजा है। मैं अपनी धुन में ओरछा रेलवे स्टेशन की ओर बढता जा रहा था। एक जगह आकर मुकेश जी के कार्यालय की ओर जाने का चिन्ह बना हुआ था। वैसे मेरा इरादा आबकारी कंट्रोल रुम जाने का था लेकिन यहाँ तक आते-आते मेरा इरादा बदल गया।
मैंने मुकेश जी के पास जाने की जगह, उन्हे यह बताने के लिये फ़ोन करना चाहा कि मुकेश जी आप ओरछा से बाहर रेलवे स्टॆशन की ओर चले आना। मैं ओरछा की सीमा के बाहर बनी पत्थर की मोटी दीवार की ओर जल्द से जल्द पहुँचना चाहता था। कैमरा मेरे गले में ही लटक रहा था। जिस चीज का मन करता उसका फ़ोटो ले लेता था। मुकेश जी को फ़ोन लगाया तो मेरे होश उड गये। मैं लगातार कई बार फ़ोन मिलाता रहा लेकिन मुकेश जी ने फ़ोन नहीं उठाया। इस बात का अंदाजा मैंने सपने में भी नहीं लगाया था। मुकेश जी मेरा फ़ोन नहीं उठायेंगे। लगभग 9-10 बार फ़ोन मिलाया लेकिन मेरा फ़ोन नहीं उठाया तो मैंने सोचा कि हो सकता मुकेश जी फ़ोन कमरे पर छोड सुबह सवेरे कही निकल गये हो? हो सकता है रात को कही छापा मारने गये हो जिस कारण देर से सोये हो?
कारण कुछ भी हो सकता था। लेकिन जब तक कारण पता ना लगे, कुछ कहना जल्दबाजी होगी। मैंने कुछ पल सोचने के बाद आगे बढना, पुन: आरम्भ किया। सूर्योदय होने का समय हो रहा था। जब कैमरा पास हो तो फ़िर उसके फ़ोटो लेने से कौन रोक सकता है? पत्थर वाली मोटी दीवार के पास पहुँचकर आभास होने लगा था कि आसमान में सूर्य की लालिमा छाने लगी है। मोटी दीवार पार कर एक ऊँची जगह पहुँचकर सूर्योदय के फ़ोटो लिये। पत्थर वाली दीवार पर एक बोर्ड लगा हुआ है जिससे पता लगता है कि इसका नाम प्रथम प्राचीन दरवाजा है।
सूर्योदय देखने में कुछ समय लगा। जिस जगह खडो होकर सूर्योदय देखने का मौका मिला था। वहाँ जंगल काफ़ी घना था। ओरछा का जंगल देखकर हिमालय का जंगल याद आता है। हिमालय और ओरछा के जंगल में काफ़ी समानता है तो अन्तर भी साफ़ दिखायी देता है। यहाँ आकर मैंने मुकेश जी को एक बार फ़िर से फ़ोन मिलाया। लेकिन जैसा आधा घन्टा से हो रहा था अब भी ठीक वैसा ही हुआ। फ़ोन पर घन्टी बजती रही लेकिन मुकेश जी ने मेरा फ़ोन रिसीव नहीं किया तो मैंने सोच लिया कि मुकेश के मन में कुछ और है। घन्टे भर में इतने बार फ़ोन मिलाने से तो कोई भी फ़ोन उठा लेता या उसका जवाब दे देता लेकिन अब मुझे लगने लगा था कि कुछ ना कुछ गडबड तो जरुर है। हो सकता है मुकेश जी सोच रहे हो कि जान ना पहचान सिर्फ़ फ़ेसबुक के कारण संदीप पवाँर के चक्कर में पूरा दिन बर्बाद होगा। मैंने निर्णय कर लिया कि अब मुकेश जी के चक्कर में पडकर समय खराब नहीं करुँगा।
पत्थर वाली दीवार प्रथम दरवाजे से मेरा होटल तीन किमी के करीब तो होगा ही इसलिये मैंने सोचा कि वापसी में कोई ऑटो मिल जाये तो ओरछा में बेतवा किनारे पहुँचने में समय की काफ़ी बचत हो जायेगी। कुछ देर में एक शेयरिंग ऑटो आ गया। ओरछा शहर के अन्दर आने पर जो पहला दवार आता है। उसे गणेश दरवाजा कहते है। इसके बाद एक और दरवाजा है जिसे दूसरा दरवाजा कहते है। पहले दरवाजे के पास सरकारी मोटर वाला नल है जहाँ काफ़ी भीड मिली। आज के समय भी पानी के लिये लोग लाईन में लगकर काफ़ी समय खराब करते है। मैंने ऑटो वाले को कहा कि बस मुझे यही तक जाना है। मेरा होटल सामने ही था। ऑटो से उतरने के बाद मैंने एक बार फ़िर पैदल चलना शुरु किया। सबसे पहले बेतवा नदी किनारे पहुँचना चाहता था इसलिये मन्दिर वाले चौराहे को पार कर आगे बढता रहा। इस चौराहे से करीब आधा किमी आगे जाने पर बेतवा नदी जाती है। बेतवा नदी किनारे पहुँचकर एक अलग ही अनुभूति हुई।
बेतवा नदी को पार करने के लिये कोई बडा पुल नहीं बनाया गया है। नदी के ओरछा वाले किनारे को कंचना घाट के नाम से संवारा गया है। घाट पर स्नान करने के लिहाज से काफ़ी सुविधा प्रदान की गयी है। नदी किनारे मन्दिर जैसे दिखने वाले कई स्मारक भी है। मेरी दिलचस्पी स्मारकों में नहीं थी। घाट निहारने के बाद नदी पर काम चलाऊ पुल की ओर बढना आरम्भ किया। बेतवा पार करने के लिये जो पुल है उसे जुगाडु नाम दे तो ज्यादा बेहतर है। यहाँ पर बेतवा पार करने के लिये छोटे-मोटे नाले जैसा पुल बनाने की तर्ज पर लम्बा पुल बनाया गया है। इसे पुल की बजाय रपटा कहना ज्यादा उचित है।
जिस समय मैं यहाँ गया था उन दिनों बेतवा में ज्यादा पानी नहीं था जिस कारण लग रहा था कि मैं किसी छोटी सी धारा के ऊपर हूँ। यहाँ बने पुल के बारे में मुकेश जी ने बताया कि पुल पार करने के बाद जो जंगल है उसके कारण वहाँ वन विभाग सडक व पुल बनाने की मंजूरी नहीं दे रहा है। इस कारण बेतवा पर बडा पुल भी नहीं बनाया जा रहा है। बेतवा पार जो जंगल है उसपर वन्य जीव अभ्यारण/पार्क बनाया गया है। कंचना घाट को सजाने सवारने पर काफ़ी ध्यान दिया गया है। लेकिन यदि यहाँ के अफ़सरों को हरिदवार या गढ़ गंगा की सैर करवा दी जाये तो इन्हे समझ आ जायेगा कि इस स्थल में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकि है। घाट पर बनी सीढियों पर कुछ भक्त स्नान कर रहे थे।
मैं नदी पर बनाये जुगाडू पुल पर चलता हुआ बेतवा के उस किनारे पहुँच गया। यहाँ कुछ लोग स्नान करने में लगे थे। इस किनारे से जहाँगीर महल सहित कुछ अन्य स्थल भी दिखायी दे रहे थे। बेतवा का पानी शीशे जितना साफ़ था जिसमें नदी के तल पर सब कुछ दिखायी दे रहा था। ओरछा में बेतवा के किनारे काफ़ी उबड-खाबड पत्थर है जिस पर चलना बहुत मुश्किल है। बरसात के दिनों में यहाँ ज्यादा पानी आने के कारण यह पुल पानी में डूब जाता है जिस कारण इसके ऊपर यातायात बन्द कर दिया जाता है।
अगर भविष्य में इस पर बडा पुल बन जायेगा तो ओरछा से टीकमगढ जाने का छोटा मार्ग आम लोगों को उपलब्ध हो सकेगा। बरसात के दिनों में ज्यादा पानी आने के बाद यहाँ के लोगों को टीकमगढ जाने के लिये काफ़ी लम्बे मार्ग से होकर जाना पडता है। बेतवा के काम चलाऊ पुल पर वापिस आते समय एक बस आती दिखायी दी। बस को अपनी ओर आते देख लगने लगा कि बस से बचने के चक्कर में मुझे इस पुल से नीचे कूदना पडेगा। मुझसे आगे कुछ अन्य लोग भी पैदल जा रहे थे।
जब बस उनके सामने पहुँची तो रुक गयी। बस के आने से पुल पर बहुत कम जगह बची थी जिससे पैदल चलने वाले लोग पुल के किनारे खडे हो गये। जब पैदल चलने वाले लोग एक तरफ़ खडे हो गये तो बस चालक ने धीरे-धीरे बस आगे बढायी। बस चालक भी बस को धीरे-धीरे आगे बढा रहा था। अगर चालक से एक फ़ुट की भी चूक हो जाती तो बस पुल से नीचे गिर जाती। पुल पर रेलिंग बनाने का सोचा भी नहीं जा सकता है क्योंकि बारिश के दिनों में पानी इसके ऊपर से बहता है। बेतवा दर्शन के उपरांत ओरछा के अन्य स्थल भी देखने थे इसलिये वहाँ से चलने का फ़ैसला कर लिया। यहाँ से थोडा सा आगे चलते ही सीता मढी नामक जगह है।
सीता मढी महल नामक जगह पहुँचकर देखा कि यह जगह तो एक पुरानी हवेली जैसी है। यह जगह सडक से कुछ ऊँचाई पर बनी है। आजकल यह खण्डहर से ज्यादा कुछ नहीं है। इस हवेली के प्रांगण में देखकर लगता है कि यह जगह आवारा जानवरों के आवास के रुप में काम आती है। उस समय कई जगह जानवरों का गोबर फ़ैला हुआ था। मुझे वहाँ ऐसा कोई नहीं मिला जो मुझे इस स्थल के बारे में ज्यादा जानकारी दे पाता। वैसे भी इस स्थल की सरकारी उपेक्षा देखकर लगा कि इतिहास में इस स्थल की ज्यादा अहमियत नहीं होगी तभी तो इसे इस हालत में लावारिस छोड दिया गया है। इसे यही छोडकर मैं भी आगे चलता हूँ। अब मेरी मंजिल ओरछा के दो मुख्य मन्दिर है जिनका नाम चतुर्भुज मन्दिर व राम मन्दिर है। अगले लेख में इन्ही दोनों मन्दिरों की यात्रा करायी जायेगी। (यात्रा जारी है।)





















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