सोमवार, 14 जुलाई 2014

Orccha- Kanchana Ghat bank of Betwa river ओरछा- बेतवा का कंचना घाट व प्राचीन दरवाजे

KHAJURAHO-ORCHA-JHANSI-08

आज के लेख में दिनांक 28-04-2014 को की गयी यात्रा के बारे में बताया जा रहा है। यदि आपको इस यात्रा के बारे में शुरु से पढना है तो नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे। इस यात्रा में अभी तक आपने पढा कि ओरछा में लाइट एन्ड साऊंड शो से आने के बाद मुकेश जी मुझे होटल छोडने आये और अपने आवास पर जाते हुए बोले कि संदीप जी सुबह उजाला होते ही हाजिर हो जाऊँगा। सुबह कहाँ का कार्यक्रम है? सुबह के समय बेतवा के किनारे घूमने चलेंगे। दिन में यहाँ के कई स्थल देखने लायक है। मुकेश जी आबकारी विभाग में निरीक्षक है। खाकी वर्दीधारी लोगों की दैनिक क्रिया भी बडी उलझन भरी होती है। 
इस यात्रा के सभी लेख के लिंक यहाँ है।01-दिल्ली से खजुराहो तक की यात्रा का वर्णन
02-खजुराहो के पश्चिमी समूह के विवादास्पद (sexy) मन्दिर समूह के दर्शन
03-खजुराहो के चतुर्भुज व दूल्हा देव मन्दिर की सैर।
04-खजुराहो के जैन समूह मन्दिर परिसर में पार्श्वनाथ, आदिनाथ मन्दिर के दर्शन।
05-खजुराहो के वामन व ज्वारी मन्दिर
06-खजुराहो से ओरछा तक सवारी रेलगाडी की मजेदार यात्रा।
07-ओरछा-किले में लाईट व साऊंड शो के यादगार पल 
08-ओरछा के प्राचीन दरवाजे व बेतवा का कंचना घाट 
09-ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर व राजा राम मन्दिर
10- ओरछा का जहाँगीर महल मुगल व बुन्देल दोस्ती की निशानी
11- ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी किले की ओर प्रस्थान
12- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का झांसी का किला।
13- झांसी से दिल्ली आते समय प्लेटफ़ार्म पर जोरदार विवाद
मुकेश जी के जाते ही मैं अपने कमरे में गया और सोने से पहले जमकर नहाया। डबल बैड के कमरे में अकेले सोने का अलग सुख है। ओरछा में रात के समय हल्की सी ठन्डक हो गयी थी। दिन में यहाँ काफ़ी गर्मी बतायी जाती है कल दिन भर यही रहना है तब यहाँ की गर्मी भी देखते है? ओरछा के बारे में कहा जाता है कि यहाँ के शैतान मच्छर रात को चैन से नहीं सोने देंगे। शुक्र रहा कि जिस कमरे में मैं सोया था वहाँ पहले से ही मच्छर भगाने वाली कोयल लगी थी। पहले कैमरा चार्ज किया उसके बाद मच्छर भगाने वाली कोयल को सोने से पहले चालू कर लिया था। सुबह उठने के मामले में अपनी आदत बहुत खराब है किसी भी समय सोना पडे लेकिन आँख सुबह 5 बजे के करीब खुल ही जायेगी। सुबह कुछ ऐसा हुआ कि मेरी आँखे चार बजे ही खुल गयी। नहा धोकर बाहर घूमने निकल गया।
मैंने मुकेश जी को सुबह छ: बजे मिलने के लिये कहा था। अभी तो एक घन्टा बाकि है। एक घन्टा तैयार होने के बाद कमरे में टिकना बहुत ज्यादा होता है। एक घन्टा वहाँ बैठकर खराब करने से बेहतर है कि मुकेश जी के ठिकाने की ओर चल दिया जाये। होटल से मुकेश जी का ठिकाना दो किमी दूरी पर था। होटल से कुछ दूर चलते ही राजा-महाराजाओ के काल का एक विशाल दरवाजा आता है। ओरछा आते समय मैंने सोचा था कि यहाँ पर इस तरह के दरवाजे बनाने की परम्परा रही होगी। रात को लाईट एन्ड साऊंड शो के दौरान पता लगा कि ओरछा के हर दरवाजे के बनाने के पीछे एक कहानी छिपी हुई है।
दरवाजे की कहानी के बारे में, मौका लगा तो आगे बताऊँगा। यहाँ इस प्रकार के दो दरवाजे है। एक का नाम गणेश दरवाजा है तो दूसरे का नाम दिवतीय दरवाजा है। सुबह का समय होने के कारण ओरछा में एक-दो इन्सान ही दिखायी दे रहे थे। मुझे पैदल चलने की धुन हमेशा सवार रहती है इसलिये जब कभी भी मौका मिलता है तो पैदल निकल पडता हूँ। ओरछा की सुहानी भोर ने मुझे पैदल चलने का मौका प्रदान कर दिया था। सुनसान सडक पर अकेले चलने का अलग ही मजा है। मैं अपनी धुन में ओरछा रेलवे स्टेशन की ओर बढता जा रहा था। एक जगह आकर मुकेश जी के कार्यालय की ओर जाने का चिन्ह बना हुआ था। वैसे मेरा इरादा आबकारी कंट्रोल रुम जाने का था लेकिन यहाँ तक आते-आते मेरा इरादा बदल गया।
मैंने मुकेश जी के पास जाने की जगह, उन्हे यह बताने के लिये फ़ोन करना चाहा कि मुकेश जी आप ओरछा से बाहर रेलवे स्टॆशन की ओर चले आना। मैं ओरछा की सीमा के बाहर बनी पत्थर की मोटी दीवार की ओर जल्द से जल्द पहुँचना चाहता था। कैमरा मेरे गले में ही लटक रहा था। जिस चीज का मन करता उसका फ़ोटो ले लेता था। मुकेश जी को फ़ोन लगाया तो मेरे होश उड गये। मैं लगातार कई बार फ़ोन मिलाता रहा लेकिन मुकेश जी ने फ़ोन नहीं उठाया। इस बात का अंदाजा मैंने सपने में भी नहीं लगाया था। मुकेश जी मेरा फ़ोन नहीं उठायेंगे। लगभग 9-10 बार फ़ोन मिलाया लेकिन मेरा फ़ोन नहीं उठाया तो मैंने सोचा कि हो सकता मुकेश जी फ़ोन कमरे पर छोड सुबह सवेरे कही निकल गये हो? हो सकता है रात को कही छापा मारने गये हो जिस कारण देर से सोये हो?
कारण कुछ भी हो सकता था। लेकिन जब तक कारण पता ना लगे, कुछ कहना जल्दबाजी होगी। मैंने कुछ पल सोचने के बाद आगे बढना, पुन: आरम्भ किया। सूर्योदय होने का समय हो रहा था। जब कैमरा पास हो तो फ़िर उसके फ़ोटो लेने से कौन रोक सकता है? पत्थर वाली मोटी दीवार के पास पहुँचकर आभास होने लगा था कि आसमान में सूर्य की लालिमा छाने लगी है। मोटी दीवार पार कर एक ऊँची जगह पहुँचकर सूर्योदय के फ़ोटो लिये। पत्थर वाली दीवार पर एक बोर्ड लगा हुआ है जिससे पता लगता है कि इसका नाम प्रथम प्राचीन दरवाजा है।
सूर्योदय देखने में कुछ समय लगा। जिस जगह खडो होकर सूर्योदय देखने का मौका मिला था। वहाँ जंगल काफ़ी घना था। ओरछा का जंगल देखकर हिमालय का जंगल याद आता है। हिमालय और ओरछा के जंगल में काफ़ी समानता है तो अन्तर भी साफ़ दिखायी देता है। यहाँ आकर मैंने मुकेश जी को एक बार फ़िर से फ़ोन मिलाया। लेकिन जैसा आधा घन्टा से हो रहा था अब भी ठीक वैसा ही हुआ। फ़ोन पर घन्टी बजती रही लेकिन मुकेश जी ने मेरा फ़ोन रिसीव नहीं किया तो मैंने सोच लिया कि मुकेश के मन में कुछ और है। घन्टे भर में इतने बार फ़ोन मिलाने से तो कोई भी फ़ोन उठा लेता या उसका जवाब दे देता लेकिन अब मुझे लगने लगा था कि कुछ ना कुछ गडबड तो जरुर है। हो सकता है मुकेश जी सोच रहे हो कि जान ना पहचान सिर्फ़ फ़ेसबुक के कारण संदीप पवाँर के चक्कर में पूरा दिन बर्बाद होगा। मैंने निर्णय कर लिया कि अब मुकेश जी के चक्कर में पडकर समय खराब नहीं करुँगा।
पत्थर वाली दीवार प्रथम दरवाजे से मेरा होटल तीन किमी के करीब तो होगा ही इसलिये मैंने सोचा कि वापसी में कोई ऑटो मिल जाये तो ओरछा में बेतवा किनारे पहुँचने में समय की काफ़ी बचत हो जायेगी। कुछ देर में एक शेयरिंग ऑटो आ गया। ओरछा शहर के अन्दर आने पर जो पहला दवार आता है। उसे गणेश दरवाजा कहते है। इसके बाद एक और दरवाजा है जिसे दूसरा दरवाजा कहते है। पहले दरवाजे के पास सरकारी मोटर वाला नल है जहाँ काफ़ी भीड मिली। आज के समय भी पानी के लिये लोग लाईन में लगकर काफ़ी समय खराब करते है। मैंने ऑटो वाले को कहा कि बस मुझे यही तक जाना है। मेरा होटल सामने ही था। ऑटो से उतरने के बाद मैंने एक बार फ़िर पैदल चलना शुरु किया। सबसे पहले बेतवा नदी किनारे पहुँचना चाहता था इसलिये मन्दिर वाले चौराहे को पार कर आगे बढता रहा। इस चौराहे से करीब आधा किमी आगे जाने पर बेतवा नदी जाती है। बेतवा नदी किनारे पहुँचकर एक अलग ही अनुभूति हुई।
बेतवा नदी को पार करने के लिये कोई बडा पुल नहीं बनाया गया है। नदी के ओरछा वाले किनारे को कंचना घाट के नाम से संवारा गया है। घाट पर स्नान करने के लिहाज से काफ़ी सुविधा प्रदान की गयी है। नदी किनारे मन्दिर जैसे दिखने वाले कई स्मारक भी है। मेरी दिलचस्पी स्मारकों में नहीं थी। घाट निहारने के बाद नदी पर काम चलाऊ पुल की ओर बढना आरम्भ किया। बेतवा पार करने के लिये जो पुल है उसे जुगाडु नाम दे तो ज्यादा बेहतर है। यहाँ पर बेतवा पार करने के लिये छोटे-मोटे नाले जैसा पुल बनाने की तर्ज पर लम्बा पुल बनाया गया है। इसे पुल की बजाय रपटा कहना ज्यादा उचित है।
जिस समय मैं यहाँ गया था उन दिनों बेतवा में ज्यादा पानी नहीं था जिस कारण लग रहा था कि मैं किसी छोटी सी धारा के ऊपर हूँ। यहाँ बने पुल के बारे में मुकेश जी ने बताया कि पुल पार करने के बाद जो जंगल है उसके कारण वहाँ वन विभाग सडक व पुल बनाने की मंजूरी नहीं दे रहा है। इस कारण बेतवा पर बडा पुल भी नहीं बनाया जा रहा है। बेतवा पार जो जंगल है उसपर वन्य जीव अभ्यारण/पार्क बनाया गया है। कंचना घाट को सजाने सवारने पर काफ़ी ध्यान दिया गया है। लेकिन यदि यहाँ के अफ़सरों को हरिदवार या गढ़ गंगा की सैर करवा दी जाये तो इन्हे समझ आ जायेगा कि इस स्थल में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकि है। घाट पर बनी सीढियों पर कुछ भक्त स्नान कर रहे थे।
मैं नदी पर बनाये जुगाडू पुल पर चलता हुआ बेतवा के उस किनारे पहुँच गया। यहाँ कुछ लोग स्नान करने में लगे थे। इस किनारे से जहाँगीर महल सहित कुछ अन्य स्थल भी दिखायी दे रहे थे। बेतवा का पानी शीशे जितना साफ़ था जिसमें नदी के तल पर सब कुछ दिखायी दे रहा था। ओरछा में बेतवा के किनारे काफ़ी उबड-खाबड पत्थर है जिस पर चलना बहुत मुश्किल है। बरसात के दिनों में यहाँ ज्यादा पानी आने के कारण यह पुल पानी में डूब जाता है जिस कारण इसके ऊपर यातायात बन्द कर दिया जाता है।
अगर भविष्य में इस पर बडा पुल बन जायेगा तो ओरछा से टीकमगढ जाने का छोटा मार्ग आम लोगों को उपलब्ध हो सकेगा। बरसात के दिनों में ज्यादा पानी आने के बाद यहाँ के लोगों को टीकमगढ जाने के लिये काफ़ी लम्बे मार्ग से होकर जाना पडता है। बेतवा के काम चलाऊ पुल पर वापिस आते समय एक बस आती दिखायी दी। बस को अपनी ओर आते देख लगने लगा कि बस से बचने के चक्कर में मुझे इस पुल से नीचे कूदना पडेगा। मुझसे आगे कुछ अन्य लोग भी पैदल जा रहे थे।
जब बस उनके सामने पहुँची तो रुक गयी। बस के आने से पुल पर बहुत कम जगह बची थी जिससे पैदल चलने वाले लोग पुल के किनारे खडे हो गये। जब पैदल चलने वाले लोग एक तरफ़ खडे हो गये तो बस चालक ने धीरे-धीरे बस आगे बढायी। बस चालक भी बस को धीरे-धीरे आगे बढा रहा था। अगर चालक से एक फ़ुट की भी चूक हो जाती तो बस पुल से नीचे गिर जाती। पुल पर रेलिंग बनाने का सोचा भी नहीं जा सकता है क्योंकि बारिश के दिनों में पानी इसके ऊपर से बहता है। बेतवा दर्शन के उपरांत ओरछा के अन्य स्थल भी देखने थे इसलिये वहाँ से चलने का फ़ैसला कर लिया। यहाँ से थोडा सा आगे चलते ही सीता मढी नामक जगह है।
सीता मढी महल नामक जगह पहुँचकर देखा कि यह जगह तो एक पुरानी हवेली जैसी है। यह जगह सडक से कुछ ऊँचाई पर बनी है। आजकल यह खण्डहर से ज्यादा कुछ नहीं है। इस हवेली के प्रांगण में देखकर लगता है कि यह जगह आवारा जानवरों के आवास के रुप में काम आती है। उस समय कई जगह जानवरों का गोबर फ़ैला हुआ था। मुझे वहाँ ऐसा कोई नहीं मिला जो मुझे इस स्थल के बारे में ज्यादा जानकारी दे पाता। वैसे भी इस स्थल की सरकारी उपेक्षा देखकर लगा कि इतिहास में इस स्थल की ज्यादा अहमियत नहीं होगी तभी तो इसे इस हालत में लावारिस छोड दिया गया है। इसे यही छोडकर मैं भी आगे चलता हूँ। अब मेरी मंजिल ओरछा के दो मुख्य मन्दिर है जिनका नाम चतुर्भुज मन्दिर व राम मन्दिर है। अगले लेख में इन्ही दोनों मन्दिरों की यात्रा करायी जायेगी। (यात्रा जारी है।)





















8 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

मुकेश पाण्डेय चन्दन ने कहा…

मेरे फोन न उठाने का कारण इसी पोस्ट में बता देते संदीप जी...वरना लोग सोचेंगे कि मझधार में छोड़कर भाग गया..खैर अगली पोस्ट में राज खुल ही जायेगा .

Ritesh Gupta ने कहा…

अच्छी जानकारी ..... राज जानने के लिए अगली पोस्ट का इंतजार कर लेंगे...

Ritesh Gupta ने कहा…

बढ़िया लेख.... अगली पोस्ट में राज खुलने का इंतजार करेगे,

Unknown ने कहा…

bahut achhe....sundar aalekh,laga ghum rahe hain....

Sachin tyagi ने कहा…

संदिप भाई यह जो फोटो मे मन्दिर दिखाई दे रहे है.यह मन्दिर नही है ओरछा मे पहले राजा अपने बाप,दादा के नाम पर महल मे मन्दिरनुमा बुर्ज बना देते थे.ये वही बुर्ज है.
अभी कल परसो ही TV पर ओरछा की यात्रा वर्णन आ रहा था यह बात उसमे बताई गई थी.
आपका लेख पढ कर मजा आ ग़या.

दर्शन कौर धनोय ने कहा…

bahut sunder--

अनुराग जगधारी ने कहा…

अगली पोस्ट पढ़ने तक आप विलेन बने रहेंगे।

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