अमृतसर-अमरनाथ-श्रीनगर-वैष्णों देवी यात्रा-02 SANDEEP PANWAR
स्वर्ण मन्दिर से जलियावाला बाग पहुँचने में हमें मुश्किल से एक मिनट का समय भी नहीं लगा होगा। जहाँ से इस बाग में प्रवेश किया जाता है। वहाँ पर बहुत छोटा सा प्रवेश मार्ग है। इस बाग में आने व जाने के लिये केवल और केवल यही एकमात्र मार्ग आज भी उपलब्ध है। 13 April सन 1919 में जिस दिन यहाँ पर अंग्रेजों के अफ़सर ड़ायर ने भारतीय पर गोली चलवाकर सैंकड़ों निहत्थे लोगों की हत्या करवायी थी उस दिन भी यही एकमात्र मार्ग हुआ करता था। उस दिन ज्यादा मौत होने की असली वजह भी यह एकमात्र दरवाजा बना था। अंग्रेजों ने इसी दरवाजे के पास खड़े होकर इस बाग में गोलियाँ चलवायी थी। गोलियों से बचने के लिये लोग कही नहीं भाग सके थे। आज इतने सालों बाद भी इस बाग की चारदीवारी में बने घरों की दीवारों पर गोलियों के निशान साफ़ देखे जा सकते है। इस बाग में एक कुआँ भी हुआ करता था। वैसे कुआ तो आज भी है लेकिन उस दिन के बाद उस कुएँ का पानी पीने लायक नहीं रहा था। यह कुआँ आज पूरी तरह ढ़क दिया गया है। गोलियों से बचने के लिये लोग इस कुएँ में कूदते चले गये थे। इस यात्रा में मेरे पास रील वाला कैमरा था। इसलिये फ़ोटो सीमित ही मिलेंगे।
जलिया वाला बाग
जलियावाला बाग देखने के बाद अपना काफ़िला पार्किंग में खड़ी अपनी बस की ओर चल पड़ा। बस के पास पहुँचकर पाया कि वहाँ तो गर्मागर्म नमकीन चावल बनाये जाने की महक आ रही है। कुछ लोग इसे पुलाव कहते है कुछ लोग इसे बिरयानी भी कहते है। नमकीन चावल को बिरयानी तभी कहा जाता होगा जब उसमें मीट या ऐसा ही कुछ मांसाहार मिला दिया जाता होगा। नमकीन चावल एकदम मस्त बने थे इस कारण भूख से ज्यादा खा लिये गये। खा पीकर हमारा अगला लक्ष्य भारत-पाकिस्तान की सीमा वाघा बार्ड़र पर लगने वाला दो घन्टे का प्रतिदिन लगने वाला मेला देखने का था। मैं इसे मेला इसलिये बोल रहा हूँ क्योंकि यहाँ जाने वाले अधिकतर लोग सिर्फ़ मौज मस्ती के लिये ही यहाँ चले आते है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या कोई बता सकता है कि सेना के जवान लगातार मरते रहने पर भी इस तरह के मेले परेड़ को बनाये रखना कहाँ का औचित्य है? लेकिन जो जवान मरता है सिर्फ़ उसी के परिवार को ही पता चलता है कि उन पर क्या-क्या बीतती है। हाल फ़िलहाल में पाकिस्तानी सेना ने भारत के दो सैनिकों की गर्दन काट गायब कर दी थी। क्या हुआ? कितने नेता मंन्त्री आदि उनके यहाँ गये? यहाँ तो मानवाधिकार के नाम पर ड्रामा करने वाले कथित संगठन भी दूर तक दिखाई नहीं दिये। लेकिन इसके उल्टे यही काम भारत की सेना ने किया होता तो फ़िर देखते यही दिखायी ना देने वाले कथित संगठन कैसे जमकर हो हल्ला मचाते।
हम यहाँ वाघा की परेड़ में लगभग दो घन्टे के लगभग जमे रहे थे। इस दौरान हमने वहाँ मौजूद पत्येक क्षण का पूरा-पूरा लुत्फ़ उठाया था। सीमा सुरक्षा बल के छ: फ़ुटॆ जवान अपने पूरे जोश से सरोबोर होकर परॆड़ दिखाने में लगे हुए थे। भारत की ओर से जहाँ बहुत सारे लोग थे, वही पाकिस्तान की ओर से बहुत ही कम पब्लिक दिखायी दे रही थी। जब तक परेड़ चलती रही, तब तक लोग जोश के साथ साथ देते रहे। लेकिन जैसे ही परेड़ समाप्त हुए, वैसे ही वहाँ भगदड़ वाली स्थित उत्पन्न हो गयी। वाघा बार्ड़र से परेड़ समाप्त होते ही वहाँ पर मौजूद लोगों में बाहर निकलने की हड़बड़ी मच गयी थी। हम तो सामूहिक बस में सवार होकर यहाँ तक आये थे इसलिये हमें कोई जल्दबाजी नहीं थी। बस वाले ने हमें पहले ही बता दिया था कि रात का खाना यही खाकर ही हम आगे की यात्रा पर रवाना होंगे। भीड़ समाप्त होने के बाद हम भी अपनी मजिल बस की ओर बढ़ चले। जब हम अपनी बस के पास पहुँचे तो पाया कि वहाँ पर पराँठे बनाये जा रहे है। गर्मागर्म पराँठे खाकर सबने अपने पेट पूजा की तसल्ली कर ली थी। जब पेट पूजा हो गयी तो वहाँ से अपनी बस पठानकोट के लिये रवाना हो गयी। पठानकोट होते हुए हमारी बस सुबह भौर के समय जम्मू बाई-पास पार कर पहाड़ो में चढ़ रही थी। कि तभी एक फ़ौजी ने हमारी बस को रुकने का ईशारा किया। (continue)
इस यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे क्रमवार दिये गये है।
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4 टिप्पणियां:
आज की ब्लॉग बुलेटिन चाणक्य के देश में कूटनीतिक विफलता - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ये टावर तो अब भी ऐसा ही है
देशभक्ति की तीर्थयात्रा की जानकारी का शुक्रिया! कैसा भी मौका हो भगदड़ तो मानो हमारा राष्ट्रीय चरित्र सा बन गया है।
दोनों बहुत अच्छी और देश भक्ति की जगह है . वागाह बोर्डर पर भरत माता कि जय के नारे लगाते लगाते गला बैठ गया था .
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