इस यात्रा की रुप रेखा भी अपने कार्यालय में ही खींची गयी थी सन 2007 के जुलाई माह की बात है मैं दिल्ली में शाहदरा में कड़कड़ डूमा कोर्ट/अदालत में कुछ काम से गया था। वहाँ से वापिस लौटते समय शाहदरा के बाबू राव स्कूल के सामने से होकर मैं शाहदरा बस टर्मिनल की ओर रहा था। जब मैं शाहदरा फ़्लाईओवर के नीचे पहुँचा तो मेरी नजर एक इश्तिहार पर पड़ी, मैं उस इश्तिहार/विज्ञापन को देखता ही चला गया। उस विज्ञापन पर लिखा हुआ था। मात्र 2500 रुपये में दोनों समय के भोजन सहित अमृतसर, जलियाँवाला, वाघा बार्ड़र, अमरनाथ श्रीनगर वैष्णों देवी यात्रा कराने के सम्बन्ध में लिखा हुआ था। ऐसा मौका मैं भला कहाँ छोड़ने वाला था। मैंने उसी दिन कार्यालय आकर अमरनाथ जाने की योजना पर अमल कर दिया। मेरी अमरनाथ यात्रा पर जाने की सुनकर अपने दो साथी भी अपने साथ जाने की कहने लगे। मैंने उन्हे यात्रा के विज्ञापन के बारे मॆं विस्तार से बताया। उन्हें उस विज्ञापन का मोबाइल नम्बर भी दिया। मेरे कार्यालय के साथियों ने उस नम्बर पर बात कर तीन सीट बुक करने के लिये कह दिया। यात्रा पर जाने में अभी 20 दिन बाकि इसलिये हमारे पास कोई जल्दे नहीं थी। हमने यात्रा पर जाने से 15 दिन पहले पैसे जमाकर अपनी सीट बुक कर दी। जिस दिन यात्रा की शुरुआत होनी थी उस दिन हम शाम को बाबू राव स्कूल के पास वाली गली में पहुँच गये। यहाँ हमे एक 16 सीटर बस लेने के लिये आयी थी। इस बस में सवार होकर हम अमृतसर की ओर रवाना हो गये।
सत श्री अकाल, जो बोले सो निहाल |
पूरी रात हमारी बस चलती रही, सुबह पंजाब के किसी स्थान पर जाकर दिन निकला था। एक जगह नहाने धोने के लिये ताजा-ताजा टयूबवेल का पानी देखकर बस रोक दी गयी थी। सब उतरकर नहाने धोने चले गये थे। बस में हमारे लिये आये हलवाई खाने बनाने में व्यस्त हो चुके थे। जब तक हमारे नहा धोकर वापिस आये, खाना बनकर तैयार हो चुका था। आते ही सबने पेट भर कर खाना खाया। खाना बड़ा स्वादिष्ट बनाया गया था। खाना खापीकर हमारा काफ़िला आगे की यात्रा पर चल दिया। वहाँ से अमृतसर पहुँचने में कई घन्टे लगे। जब हम अमृतसर पहुँचे तो घड़ी सुबह के 10 बजा रही थी। बस बाहर एक बड़े से मैदान की पार्किंग में लगा दी गयी। हम सब स्वर्ण मन्दिर व जलियाँवाला बाग देखने के लिये चल दिये। पहले हम स्वर्ण मन्दिर में पहुँच गये। यहाँ के इतिहास के बारे में मैं अन्य स्थलों की तरह ज्यादा कुछ नहीं बताऊँगा। क्योंकि किसी जगह का इतिहास पढ़ना है तो विकीपीड़िया से बेहतर जगह कोई नहीं है।
स्वर्ण मन्दिर से बाहर ही जूते चप्पल निकाल अन्दर प्रवेश किया। जुलाई का महीना था इसलिये गर्मी तो होनी जरुरी थी। स्वर्ण मन्दिर मेम अन्दर घुसते ही सबसे पहली नजर वहाँ के तालाब पर गयी। तालाब देखते ही नहाने का भूत सवार हो गया। मेरे साथ गये कार्यालय वाले बन्दे के आलावा अन्य कुछ युवक भी थे। हम सब नहाने के लिये तालाब में घुस गये। मैं सबसे पहले तालाब में घुसा था इसलिये बाहर भी सबसे पहले मैं ही निकला था। वहाँ तालाब के चारों ओर नीली वेशभूषा में कुछ भालेधारी घूम रहे थे। मैं उन्हें अपनी ओर आते देख समझ गया कि यह आते ही टॊकेंगे कि सिर पर कपड़ा क्यों नहीं ड़ाला है। इसलिये मैने अपना तौलिया अपने सिर पर ड़ाल लिया था। नीले कपड़े वाले ने आते ही सबको ड़ांट पिलायी कि सिर पर बिना कपड़े के यहाँ रहना ही मना है, फ़िर चाहे तुम स्नान ही क्यों ना कर रहे हो?
जाटदेवता नहाये बिना मानने वाला नहीं है। |
नहा धोकर हम वहाँ का एक चक्कर लगाने के लिये चल पड़े। पहले हमने वहाँ का एक चक्कर लगाया उसके बाद हमने गुरु ग्रन्थ साहिब के दर्शन किये। उस दिन कोई खास दिन था जिस कारण वहाँ पब्लिक की मारामारी मची हुई थी। बहुत देर बाद जाकर हमारा भी नम्बर आ ही गया। सब कुछ देखकर हम वहाँ से बाहर आने लगे। तो सोचा कि पहले यहाँ अच्छी तरह देखा जाये। उसके बाद इस परिसर से बाहर जायेंगे। यहाँ पर एक बहुत पुराना बेरी का पेड़ बताया गया था। एक बन्दे से पता कर उस पेड़ को देखने पहुँच गये। वैसे तो इस पेड़ की हालत बहुत बुरी अवस्था में है, इसको किसी तरह लोहे के जाल के सहारे सम्भाला हुआ है। स्वर्ण मन्दिर को बाहर से किले की तरह चाक चौबंद बनाया गया है। साफ़-सफ़ाई का विशेष ध्यान रखा गया है। यहाँ का लंगर देखने की इच्छा थी जो उस वक्त जबरदस्त भीड़ होने के कारण पूरी नहीं हो पायी। इस Golden temple मन्दिर में बीचों-बीच विशाल लेकिन पक्का व साफ़ तालाब है। इसकी सफ़ाई हमेशा चलती है। जब हम स्नान कर रहे थे तो तब भी लोग वहाँ सफ़ाई करने में लगे हुए थे। स्वर्ण मन्दिर के बारे में इतना ही बहुत है। अब जलियाँवाला बाग की ओर भी चले चलते है। जलियाँवाला बाग स्वर्ण मन्दिर से लगभग मिला हुआ ही है। हमने बाहर आने पर अपनी चप्पले लेकर जलियाँवाला बाग पर धावा बोल दिया।
इस यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे क्रमवार दिये गये है।
3 टिप्पणियां:
शुभकामनायें जाट देवता -
सतनाम श्री वाहिगुरू-
कृपा वाहेगुरु की।
एक सुकून मिलता है यहाँ आकर. और लंगर लाजवाब है .
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