भानगढ-सरिस्का-पान्डुपोल-यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
01- दिल्ली से अजबगढ होते हुए भानगढ तक की यात्रा।
02- भानगढ में भूतों के किले की रहस्मयी दुनिया का सचित्र विवरण
03- राजस्थान का लघु खजुराहो-सरिस्का का नीलकंठ महादेव मन्दिर
04- सरिस्का वन्य जीव अभ्यारण में जंगली जानवरों के मध्य की गयी यात्रा।
05- सरिस्का नेशनल पार्क में हनुमान व भीम की मिलन स्थली पाण्डु पोल
06- राजा भृतहरि समाधी मन्दिर व गुफ़ा राजा की पूरी कहानी विवरण सहित
07- नटनी का बारा, उलाहेडी गाँव के खण्डहर व पहाडी की चढाई
08- नीमराणा की 12 मंजिल गहरी ऐतिहासिक बावली दर्शन के साथ यात्रा समाप्त
BHANGARH-SARISKA-PANDUPOL-NEEMRANA-06 SANDEEP PANWAR
01- दिल्ली से अजबगढ होते हुए भानगढ तक की यात्रा।
02- भानगढ में भूतों के किले की रहस्मयी दुनिया का सचित्र विवरण
03- राजस्थान का लघु खजुराहो-सरिस्का का नीलकंठ महादेव मन्दिर
04- सरिस्का वन्य जीव अभ्यारण में जंगली जानवरों के मध्य की गयी यात्रा।
05- सरिस्का नेशनल पार्क में हनुमान व भीम की मिलन स्थली पाण्डु पोल
06- राजा भृतहरि समाधी मन्दिर व गुफ़ा राजा की पूरी कहानी विवरण सहित
07- नटनी का बारा, उलाहेडी गाँव के खण्डहर व पहाडी की चढाई
08- नीमराणा की 12 मंजिल गहरी ऐतिहासिक बावली दर्शन के साथ यात्रा समाप्त
BHANGARH-SARISKA-PANDUPOL-NEEMRANA-06 SANDEEP PANWAR
भानगढ-सरिस्का-पाण्डुपोल
देखने के बाद अब महाराजा वीर विक्रमादित्य के बडे भाई राजा भृतहरि उर्फ़ भरथरी की
तपस्या स्थली के दर्शन करने चलते है। विक्रम ने ही विक्रम संवत का शुभारभ कराया
था। जहाँ अंग्रेजी नव वर्ष 1 जनवरी
को शुरु होता है तो वही विक्रम संवत बोले तो हिन्दू नव वर्ष चैत्र मास के नवरात्र
के साथ आरम्भ होता है। मैंने उज्जैन में इन्ही राजा की एक तपस्या स्थली देखी थी।
आज अलवर जिले में स्थित इनकी दूसरी तपस्या स्थली की बात हो रही है।
अलवर
क्षेत्र में राजा भृतहरि का अन्तिम समय बीता था। उस समय यहाँ घना वन हुआ करता था।
जहाँ भरथरी (भृतहरि का दूसरा पुकारे जाने वाला नाम) की समाधी है। उसके सातवे
दरवाजे पर एक अखंड दीपक हमेशा जलता रहता है। इस ज्योति को भृतहरि की ज्योति कहा
जाता है। अलवर से इस समाधी स्थल की दूरी 32 किमी है। यह जयपुर से अलवर जाने वाले मार्ग पर थोडा सा हटकर बना है।
नाथपंथ का नाम बुलन्द करने वाले कनफ़डे नाथ साधुओं के लिये यह स्थल काफ़ी महत्व रखता
है। यहाँ भाद्रपद शुक्ल की सप्तमी और अष्टमी तिथि को शानदार मेला भी लगता है।
हमारी गाडी
जयपुर-अलवर हाईवे पर अलवर की ओर चली जा रही थी। एक जगह सूखी नदी पार कर आगे बढे।
अशोक भाई ने कहा कि अब भृतहरि आने वाला है। एक तिराहे जैसी जगह से अलवर वाला मार्ग
उल्टे हाथ मुड गया, जबकि भृतहरि वाला मार्ग सीधे हाथ जाता है। सीधे हाथ मुडते ही
एक दरवाजा दिखाई दिया। इसे पार कर कोई दो किमी आगे जाना होता है। जल्द ही भृतहरि
धाम के नाम से बोर्ड दिखायी देने लगे। आखिरकार भृतहरि धाम आ ही गया। गाडी किनारे
खडी कर दी। समाधी मन्दिर सामने दिखायी दे रहा था।
मन्दिर के
सामने काफ़ी खुली जगह है। जिसके दोनों ओर दुकाने लगी हुई है। इन दुकानों पर जरुरत
का हर सामान मिलता है। बच्चों के खिलौने की काफ़ी दुकाने है। हमें देखते ही दुकाने
वाले प्रसाद बेचने के चक्कर में आवाज लगाने लगे। उन्हे क्या पता? हम भक्ति करने
नहीं घुमक्कडी करने आये है। अशोक भाई ने कहा था कि यहाँ पर लकडी का चकला व बेलन
मिलता है। अशोक भाई के घर से एक बेलन लाने का आदेश मिल चुका था। हमने सलाह दी कि
अशोक भाई बिना चलके के बेलन लेकर गये तो तुम्हारी खैर नहीं।
यहाँ तो
लकडी के जंगल भी नहीं है। फ़िर यहाँ के लकडी वाले बेलन इतने मशहूर क्यों है? मन्दिर
के आसपास कई जातियों की धर्मशाला बनी हुई है। जिसमें गुर्जर, यादव व सैनी समाज की
धर्मशाला प्रमुख है। मेले के दिनों को छोडकर यहाँ ठहरना मुश्किल नहीं है। भृतहरि
महाराज को यहाँ के गुर्जर समाज ने काफ़ी सहयोग दिया था जिससे गुर्जर समाज इनकी
समाधी पर अपना हक समझता है।
अशोक भाई को
कोई सीडी चाहिए थी। वे सीढी तलाशने चले गये। तब तक मैंने समाधी मन्दिर व भैरव
मन्दिर के दर्शन के साथ फ़ोटो भी ले लिये। बाहर आने के बाद दुकानों के बीच पहुँचकर
देखा कि वहाँ नशा करने वाली चिलम बिक्री के लिये उपलब्ध है। अपने एक साथी को चिलम पीते
हुए स्टाइल में फ़ोटो के कहा। चिलम खाली थी अन्यथा उसमें से धुआं भी निकलता दिखायी
देता। कुछ देर वहाँ रुकने के बाद वापिस लौटने लगे।
राजा भृतहरि
की कहानी काफ़ी रोमांचक है। उज्जैन के राजा गन्धर्वसेन के दो पुत्र थे। पहली पत्नी
से भृतहरि हुए, जबकि दूसरी पत्नी से छोटे पुत्र विक्रम हुए। चन्द्रसेन की मृत्यु
के उपरांत भृतहरि राजा बने। भृतहरि की पत्नी का नाम पिंगला था। राजा अपनी पत्नी का
पागलपन की हद तक दीवाना था। पत्नी के प्रति इतना प्यार व कवि ह्र्दय होने के कारण
राजा विलासपूर्ण जीवन जीने लगा। विक्रम ने इस बात का विरोध किया तो राजा भृतहरि ने
विक्रम को राज्य से बाहर निकाल दिया। जिस रानी के प्यार में राजा इतना दीवाना था
उसी रानी के कारण राजा का मोह जल्द ही टूटने वाला था। राजा को अपनी पत्नी के कारण
वैराग्य हो गया। राजा के लिये कई कहानी बतायी जाती है।
पहली कहानी- एक
बार एक योगी राजा भृतहरि के दरबार में आये। राजा की आवभगत से योगी काफ़ी प्रसन्न
हुए। जाते समय उन्होंने राजा को एक फ़ल दिया और कहा कि इसे खाने के बाद आप चिरकाल
तक युवा बन जाओगे। राजा भृतहरि ने फ़ल लेकर अपनी जान से प्यारी पत्नी को दे दिया।
राजा ने रानी को उस फ़ल की विशेषता भी बतायी कि इसे खाकर तुम्हारा यौवन हमेशा ऐसा
ही बना रहेगा। राजा जिस रानी को अपनी जान से ज्यादा प्यार करता था वह रानी किसी
सेनानायक के प्रेम प्रसंग में फ़ंसी थी। रानी ने सोचा कि सेना नायक की जवानी बनी
रहेगी तो वह उसे हमेशा खुश रखेगा। रानी ने वह फ़ल उस नायक को दे दिया। सेनानायक भी
कम नहीं था। उसने सोचा कि रानी के साथ तो वह धन-दौलत के लिये प्रेम का नाटक करता
है।
वह रानी के
साथ-साथ किसी वैश्या/नृतकी के चक्कर में उलझा हुआ था। वह नृतकी सेनानायक की कोई
बात नहीं टालती थी। उसने वह फ़ल, उस वैश्या को यह सोचकर दे दिया कि नृतकी उसके काम
बाद में भी आती रहेगी। वैश्या के पास राजा भृतहरि का आना-जाना होता था। वैश्या ने
सोचा कि यह अमरफ़ल खाकर यह पापी जीवन लम्बा करने से क्या लाभ? इस फ़ल के असली हकदार
तो राजा होंगे जिससे राज्य का भला होगा। जब वह फ़ल पुन: राजा के हाथों में पहुँचा
तो राजा भृतहरि की खोपडी खराब हो गयी। राजा के मन में वैराग्य उतपन्न हो गया। राजा
ने राज-पाठ छोडकर नाथ संप्रदाय के गुरु गोरखनाथ की शरण में जा पहुँचे।
दूसरी कहानी- एक
बार राजा भृतहरि अपनी रानी पिंगला के साथ जंगल में शिकार करने गये थे। जब इन्हे
कोई शिकार नहीं मिला तो यह वापिस आ रहे थे कि इन्हे हिरणों का एक झुण्ड दिखायी
दिया। राजा ने झुन्ड में सबसे आगे चल रहे हिरण को मार डाला। मरने से पहले हिरन ने
राजा को कहा, राजन यह तुमने अच्छा नहीं किया। यदि तुमने मेरे सींग श्रृंगी बाबा को,
नेत्र चंचल नारी को, खाल साधु संतों को, पैर चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी
राजा में बाँट दो तो मेरी आत्मा को शांति मिले। अब राजा परेशान हो गया कि करे तो
क्या करे? हिरण को लादकर राजा लौटने लगा तो उसे गुरु गोरखनाथ मिल गये। राजा बोला
गुरुदेव आप इस हिरण को दुबारा जीवित कर दे। गोरखनाथ बोले, यदि मैं इसे जीवित कर दू
तो तुम्हे मेरा शिष्य बनना पडेगा। राजा के पास गुरु की बात मानने के अलावा कोई
मार्ग नहीं बचा था। इस तरह राजा भृतहरि गोरखनाथ का शिष्य बना।
भृतहरि की परीक्षा- गुरु गोरखनाथ का शिष्य बनने के बाद भृतहरि के बारे में
गोरखनाथ ने अपने अन्य शिष्यों से कहा कि यह देखो। राजा होकर भी इसने काम, लोभ,
क्रोध व अहंकार पर विजय पा ली है। अन्य शिष्यों को यह बात हजम नहीं हुई। उन्होंने
कहा गुरु राजा की परीक्षा लेकर देख लो। राजा के पास 365 रसोइया हुआ करते थे। जो राजपरिवार व अन्य
अतिथियों के लिये भोजन बनाते थे। इस तरह देखा जाये तो एक रसोइया साल में केवल एक
दिन ही काम कर पाता था। 364 दिन इस इन्तजार में बीतते थे कि
कब उसका नम्बर आयेगा और राजा से इनाम पायेगा?
गुरु ने
परीक्षा लेने के लिये राजा को कहा जाओ, भण्डारे के लिये लकडियाँ ले आओ। राजा नंगे
पैर सिर पर लकडियां लेकर आ रहा था। गुरु ने एक शिष्य से कहा, जाओ, उसे धक्का देकर
गिरा दो। धक्का देने से राजा व लकडी दोनों गिर गये। राजा ने बिना कुछ कहे, पुन:
लकडी उठायी और आश्रम की ओर चल दिये। गुरु बोले, ये देखो, राजा को जरा भी क्रोध
नहीं आया।
शिष्य बोले
गुरुजी और परीक्षा लो। अबकी बार गुरु जी ने अपनी माया से एक महल बना दिया। गुरु ने
राजा को वह महल दिखाया। महल में युवतियाँ स्वादिष्ट भोजन के साथ उनका स्वागत करने
लगी। राजा पर उस भोजन का व उन युवतियों का कोई प्रभाव दिखायी नहीं दिया। गुरु अपने
शिष्यों से बोले, अब बताओ, राजा पास हुआ कि नहीं।
गुरुदेव एक
अन्तिम परीक्षा और लेकर देख लो। अबकी बार गुरु ने कहा राजन मेरा शिष्य बनने के
लिये एक महीना नंगे पैर मरु भूमि में चलना पडता है। राजा को मरुभूमि में चलते हुए
एक सप्ताह बीतने को आया तो गुरु अपने शिष्यों को लेकर वहां पहुँच गये। गुरु ने
अपने शिष्यों से कहा, ये देखो मैं यहाँ मरुभूमि में योगबल से वृक्ष खडा कर देता
हूँ। राजा पेड की छाया में नहीं बैठेगा। जब राजा का पैर पेड की छाँव में पडा तो
राजा उछल पडा, जैसे आग पर पैर पड गया हो। राजा सोचने लगा कि मरुभूमि में छायादार
पेड कहाँ से आ गया? राजा कूदकर छाँव से दूर हट गया।
गुरु
गोरखनाथ राजा से बहुत खुश हुए। गुरु ने कहा, राजन मांगो क्या मांगते हो? राजा
भृतहरि बोले गुरुजी आप खुश है। मुझे सब कुछ मिल गया। नहीं राजन, मेरा अनादर मत
करो। कुछ ना कुछ तो लेना ही पडेगा। राजा को एक सूई दिखायी दी। राजा बोला गुरुजी,
इस सूई में धागा पिरो दीजिए। राजा ने गुरु का मान भी रख लिया और अपने लिये कुछ ना
माँगा। इस तरह राजा भृतहरि एक महीने की परीक्षा सात दिनों में पास कर गये।
राजा भृतहरि
की समाधी के पास इनकी गुफ़ा भी है जो शायद उस दिन बन्द थी। हम वहाँ नहीं जा पाये।
इस गुफ़ा में एक दीपक के बारे में बताया जाता है जो निरन्तर जलता रहता है। गाडी में
बैठकर वापिस चल दिये। अशोक भाई ने बताया था कि रास्ते में अलवर का मशहूर मिल्क केक
बनता है। अशोक जी केक खिलाओ या सिर्फ़ दिखाओगे? संदीप जी चिन्ता ना करो, मिल्क के
साथ कचौरी भी खिलाऊँगा। यह दुकान एक तिराहे पर है। जिसे देख लगता है कि इसकी
प्रतिदिन बिक्री 20-30 हजार के
करीब होगी।
इस दुकान पर
कुछ लोगों को कडी के कचौरी खाते देखा। यह तालमेल मैंने पहली बार देखा है। कुछ देर
में ताजा-ताजा केक भी आ गया। हमारी टोली को एक किलो केक निपटाने में मुश्किल से 3-4 मिनट ही लगे होंगे। केक खाते समय एक ठेठ
राजस्थानी महिला महिला दिखायी दी। उसका माथे का टीका व नाक की नथ देखने लायक थी।
यहां से कई दोस्तों ने अपने घर के लिये मिल्क केक पैक भी करवाया था।
केक
खाने के बाद एक बार फ़िर गाडी में सवार हो गये। अब हमें नट व नटनी का बारा नाम से
मशहूर हुई जगह देखनी थी। यह जगह सडक के किनारे ही है। (यात्रा अभी जारी है)
6 टिप्पणियां:
SANDEEP JI BINA POOCHE PHOTO KHEENCHTE HO???
MAIN EK BAAR GAAON ME CYCLE YATRA KE DAURAAN BAHUT BURA PHUS CHUKA HUN..
संदीप भाई मिल्क केक कैसा लगा.
बहुत बढिया यात्रा वृतान्त था कहानी पढ कर बहुत अच्छा लगा.
भृतहरि के वचनों को पढ़ा है, मन के सारे भ्रमद्वार टूटकर गिर जाते हैं।
भृतहरि की कथा से ये समझ आता है कि जिन्हें जब राजा बनना चाहिये तब वो बैरागी हो जाते हैं...जब तक राजा थे ऐश में समय बर्बाद कर दिया...और जब विराग उत्पन्न हुआ तो आत्म सुधार में लग गए...नुक्सान तो देश का ही हुआ ना...
वाह मित्र.... सटीक बात पकड़ी है....
सँदीप भाई जी अकेले अकेले कचौरी.. यह अच्छी बात नही...
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