शनिवार, 25 जनवरी 2014

HAJRATBAL MOSQUE श्रीनगर की हजरतबल दरगाह

श्रीनगर सपरिवार यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
01- दिल्ली से श्रीनगर तक की हवाई यात्रा का वर्णन।
02- श्रीनगर की ड़ल झील में हाऊस बोट में विश्राम किया गया।
03- श्रीनगर के पर्वत पर शंकराचार्य मन्दिर (तख्त ए सुलेमान) 
04- श्रीनगर का चश्माशाही जल धारा बगीचा
05- श्रीनगर का मुगल गार्ड़न-निशात बाग
06- श्रीनगर का मुगल गार्ड़न-शालीमार बाग
07- श्रीनगर हजरतबल दरगाह (पैगम्बर मोहम्मद का एक बाल सुरक्षित है।)
08- श्रीनगर की ड़ल झील में शिकारा राइड़ /सैर
09- अवन्तीपोरा स्थित अवन्ती स्वामी मन्दिर के अवशेष
10- मट्टन- मार्तण्ड़ सूर्य मन्दिर  व ग्रीन टनल
11- पहलगाम की सुन्दर घाटी
12- कश्मीर घाटी में बर्फ़ीली वादियों में चलने वाली ट्रेन की यात्रा, (11 किमी लम्बी सुरंग)
13- श्रीनगर से दिल्ली हवाई यात्रा के साथ यह यात्रा समाप्त

SRINGAR FAMILY TOUR- 07

आज श्रीनगर शहर की यात्रा में अंतिम स्थल के रुप में आपको श्रीनगर का ऐतिहासिक हजरतबल दरगाह लिये चलता हूँ। हजरजबल मस्जिद के बारे में कहा जाता है कि यहाँ मुसलमानों के पैगम्बर हजरत मोहम्मद के इकलौते सिर का एक बाल सुरक्षित रखा हुआ है। सभी शाही मुगल गार्ड़न देखने के बाद मैंने कार चालक से कहा अब कहाँ चलना है? कार चालक बोला, अब आपको हजरतबल दिखाता हूँ। हजरतबल पुराने श्रीनगर शहर वाले मार्ग पर है। ड़ल झील की परिक्रमा करते हुए उस तिराहे पर पहुँच गये जहाँ ड़ल झील ओझल हो गयी। 




लेह बाइक यात्रा व अमरनाथ यात्रा से सूमो में वापिस आते समय इस तिराहे से उल्टे हाथ मुडते हुए हम ड़ल झील किनारे होते हुए चले आये थे। अब हमें अमरनाथ या लेह तो नहीं जाना था इसलिये हमारी कार इस तिराहे से उल्टे हाथ पुरानी श्रीनगर सिटी की ओर मुड़ गयी। इस सड़क पर हमारी गाड़ी श्रीनगर विश्वविधालय के आगे से होकर निकली। भीड़भाड़ वाले इलाके में पहुँचने के बाद हमारी गाड़ी एक बार फ़िर उल्टे हाथ मुड़ गयी। हजरतबल मस्जिद सामने दिखाई दे रही थी। मेरा यहाँ आने का कोई धार्मिक कारण नही है एक सैलानी होने के नाते दूसरे धर्म के देखने लायक स्थल भी देख लेता हूँ।
गाड़ी से उतरने के बाद बच्चों व मैड़म जी को गाड़ी में ही रहने दिया। मस्जिदों का क्या भरोसा? अपुन को कोई अनुभव तो है नहीं, मेरा इरादा यहाँ कुछ मिनट में अपने लेख लायक फ़ोटो लेने भर का ही था। जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ कि इस दरगाह में मुस्लिम धर्म के संस्थापक पैगम्बर मोहम्मद के सिर का एक बाल रखा हुआ है। मैंने तो सुना था कि इस्लाम धर्म में मूर्ति पूजा का कोई स्थान नहीं है तो फ़िर मोहम्मद के सिर का बाल सम्भाल कर रखना मूर्ति पूजा नहीं तो, क्या है? कुछ नहीं, यह मूर्ति पूजा का ही दूसरा रुप है। इस नश्वर दुनिया में सिर्फ़ हिन्दू ही एकमात्र जाति मूर्ति पूजक नहीं है।
मैं बाहर सड़क से इमारत के फ़ोटो लेकर अन्दर दाखिल होने लगा तो वहाँ तैनात बहुत सारे सुरक्षा कर्मियों को देखकर मेरा माथ ठनका कि यहाँ पर कैमरा लेकर जाने देंगे या नहीं। चलो एक बार पता कर लेता हूँ, अगर कैमरा ले जाने से मना किया तो अपनी तो यही से जय राम जी की, (बोले तो वापसी)। मुख्य दरवाजे के बाहर असंख्य कबूतर थे जहाँ देखो कबूतर ही कबूतर दिखाई पड़ रहे थे। इन कबूतरों को दाना ड़ालने के लिये काफ़ी लोग खड़े थे। जिधर दाने ड़ाले जाते, कबूतर उधर उड़ जाते थे। कई मिनट तो इन कबूतरों को देखने में ही बीत गये। अन्दर जाने से पहले मैंने एक सुरक्षा कर्मी से कहा कि अन्दर कैमरा लेकर जा सकते है या नहीं। उसके हाँ कहने पर मैं कैमरा लेकर अन्दर चल दिया। मुझे अन्दर जाते समय किसी ने चैक भी नहीं किया, हद हो गयी। अंदर जाते समय किसी ने मेरी तलाशी के लिये टोका भी नहीं। लगता है कि श्रीनगर में मुस्लिम धार्मिक स्थल पर सुरक्षा की कोई जरुरत नहीं है।
अन्दर जाने पर एक बड़ा सा बरामदा मिला, जिसमें बहुत सारी प्लास्टिक की दरी बिछायी गयी थी। इन दरियों पर नमाजी लोग विराजमान होते होंगे। हो सकता है कि यहाँ बाहरी लोग विश्राम करते होंगे। मैं बरामदा पार करने ही वाला था कि वहाँ लगे एक बोर्ड़ को देखकर माथा ठनक गया। आप भी उस बोर्ड़ का फ़ोटो देखो, जिस पर सब कुछ साफ़-साफ़ लिखा हुआ है।
महिलाओं की इस्लाम में कितनी इज्जत होती है यह इस बोर्ड से जाहिर हो रहा है। ऐसा नहीं है कि हिन्दू या अन्य धर्म के लोग ही महिलाओं के प्रति भेदभाव वाला रवैया अपनाते है। बोर्ड पर लिखा था कि महिलाओं का इससे आगे जाना मना है। यहाँ जूते उतारने का बोर्ड भी लगा था। अब जूते उतारु या जूते पहने ही आगे चला जाऊ। ठन्ड़ के मौसम में नंगे पैर चलने का मन बिल्कुल नहीं था। महिलाओं और जूतों का इससे आगे जाना क्यों मना किया हुआ है। क्या महिलाओं और जूतों की एक जैसी स्थिति है। मैंने दूसरी ओर नजर घुमायी तो डल झील सामने दिखायी दी। गजब हो गया। सुबह से ड़ल के चारों ओर ही घूम रहे है। मैं वहाँ से फ़ोटो लेकर वापिस चलने ही वाला था कि एक स्थानीय पुरुष जूते समेत आगे जाता दिखायी दिया। उसको जूते समेत आगे जाते देख मैं भी जूते पहने ही आगे बढ गया। जब स्थानीय बन्दे को नहीं रोका जा रहा तो मुझे भी नहीं रोका जायेगा। किसी ने रोका-टोका भी नहीं।
हजरबतबल मस्जिद का निर्माण पैगम्बर मोहम्मद मोई-ए-मुक्कादस के सम्मान में किया गया था। इस मस्जिद को अस्सार-ए-शरीफ़, मादिनात-ऊस-सेनी, दरगाफ़ शरीफ़ आदि नाम से भी जाना जाता है। इस मस्जिद के समीप एक खूबसूरत बगीचा व इशरात महल भी है लेकिन बर्फ़ होने के कारण हम वहाँ नहीं गये। अगर वहाँ जाते भी तो क्या मिलता? बाबा का ठुल्लू ना। इस मस्जिद का निर्माण 1623 ई में सादिक खान ने कराया था।
मुझे मेरे लेख लायक फ़ोटो मिल चुके थे। इससे ज्यादा दिलचस्पी मुझे इस स्थल में नहीं थी। मैं वापिस आने लगा तो वहाँ मस्जिद की इमारत वाली दीवार पर दो औरते सटी हुई खड़ी थी। जब औरतों को यहाँ आने पर पाबन्दी है तो फ़िर ये दोनों यहाँ क्या कर रही है? मैं उनकी हरकते देखने के लिये वहाँ रुक गया। वे दोनों औरते दीवार में लगी खिड़की से अन्दर झांकने की कोशिश कर रही थी। उन्हे कुछ दिखायी नहीं दिया होगा क्योंकि वहाँ खिडकी में अन्दर की ओर परदे लगे हुए थे। थोड़ी देर की असफ़ल कोशिश के बाद वो दोनों वही से मुस्लिम तरीके से घुटनों के बल झुककर जमीन पर माथा टिकाने लग गयी। चलो इनकी हैसियत यही तक ही है। अपनी हैसियत तो मात्र एक दर्शक की ही है। अच्छा पैगम्बर महोदय, मैं चला अपने हाऊस बोट। आज मौसम अच्छा है शिकारा राइड़ करने की इच्छा हो रही है।

अगले लेख में आपको श्रीनगर की ड़ल झील में शिकारा राइड़ करायी जायेगी। (यात्रा अभी जारी है।)





















7 टिप्‍पणियां:

Sachin tyagi ने कहा…

भाई राम राम,मै भी गया था हजरत बल मे,कुछ देर बैठा एक दो मन्त्र पढे ओर बाहर आ गया बाहर एक हलवाई की दुकान पर हलवा ओर पराठा खाया जिसका स्वाद बकवास था ओर वहां वह खुब मसहुरर था

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पता नहीं कब तक पृथक जियेंगे।

Sachin tyagi ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Vaanbhatt ने कहा…

गणतन्त्र दिवस की शुभकामनायें और बधाईयां...जय हिन्द...

Unknown ने कहा…

Sandeep Ji, Sabka maalik ek hai, bas pooja karne ke kayde alag alag hain, jo ki humne aapne hi banaye hain, upar wale ne nahin.
Thanks.

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

सलाऊद्दीन साहब की टिप्पणी से सहमत हूँ, सबकी अपनी-अपनी मान्यतायें हैं और हम लोगों ने ही इन्हें बनाया है। दिक्कत वहीं शुरू होती है जब हम अपनी मान्यतायें दूसरों पर भी जबरन थोपने लगते हैं।

दर्शन कौर धनोय ने कहा…

आज के फोटू जानदार हैं -- वो भी झील और पेड़ के तो क्या कहने ----इतने खूबसूरत कि मैं बहुत देर तक देखती रही -- मज़िदे तो सब जगह एक-सी ही होती है --कोई खास फर्क नहीं लगा-- मोहम्मद साहेब का 'बाल' भी दिखा देना था ? क्या आपने देखा था ?मुस्लिम समुदाय में औरतो कि स्थिति देखकर अच्छा नहीं लगा ---

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