मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

Manimahesh to Sudrasi मणिमहेश से सुन्दरासी तक बर्फ़ीला व पथरीला सफ़र

हिमाचल की स्कार्पियो वाली यात्रा-16                                                                        SANDEEP PANWAR

हिमालय की पवित्र झील में स्नान और देव तुल्य समान पर्वत के दर्शनों के बाद वहाँ ठहरने का कोई अन्य कारण नहीं था। यहाँ के नजारे तो कल शाम को ही तसल्ली से देखते हुए आये थे। ऊपर आते समय शारीरिक थकान व आसमान में बादलों के आ जाने के कारण फ़ोटो लेने में भी दिल भरा नहीं था। लेकिन पहाड़ों की सबसे बड़ी खासियत यही होती है दोपहर बाद भले ही कितने बुरे हालात हो जाये, सुबह सवेरे सुहावना दिलखुश मौसम मिल ही जाता है। ऐसा मैंने लेह वाली बाइक यात्रा में भी देखा है। अब तक लगभग 100 से ज्यादा बार पहाड़ों में घूमने के लिये जा चुका हूँ जिसमें से अपवाद स्वरुप एक-दो यात्रा में ही सुबह के समय भी खराब मौसम से सामना हुआ है। मणिमहेश से गौरीकुन्ड तक की सवा किमी यात्रा करने में कोई खास समस्या नहीं आती है। यहाँ वापसी में मैंने एक बार फ़िर से पीछे रहकर चलने में ही अपनी भलाई समझी। दिल्ली वाले राजेश जी बाद में पहुँचे व विधान के सबसे आखिर में स्नान करने के कारण सभी को देर ना हो इसलिये अन्य साथियों को कह दिया गया कि जिसे चढ़ाई में समस्या आई थी कृप्या वे नीचे उतराई में जाते समय सावधानी से व अन्य साथियों से पहले चलने का कष्ट करे। यहाँ मनु, मराठे आदि कई बन्दे कुछ मिनट पहले ही नीचे भेज दिये गये थे। मेरे साथ विपिन रह गया था।




जब सभी साथी काफ़ी दूर चले गये तो हमने भी वापसी की यात्रा आरम्भ करने में ही भलाई समझी। आज की यात्रा में हमारा लक्ष्य मणिमहेश यात्रा की 14 किमी की तेज ढलान वाली यात्रा सुरक्षित उतरने के बाद भरमौर मन्दिर देखते हुए शाम तक चम्बा पहुँचने का था। गौरीकुन्ड़ तक तो सभी मजे-मजे में चले आये। आज हल्की-हल्की ढ़लान के कारण चलने में जो आनन्द आ रहा था इस आनन्द की तुलना यदि कल की चढ़ाई के कष्ट से करे तो ऐसा लगता है जैसे पाताल और आसमान की तुलना के बारे में सोचा ज रहा हो। हमारे आधे से ज्यादा साथी कल ही गौरीकुन्ड़ देखते हुए ऊपर झील तक गये थे इसलिये आज वे सीधे ही चलते रहे। मैंने और विपिन ने आज गौरीकुन्ड़ के दर्शन भी किये थे। भारतीय परम्परा में स्त्री को पर्दे में स्नान आदि करने की इजाजत है विदेशियों की तरह खुले में नंग-धड़ंग नहाने की छूट भारतीय समाज नहीं देता है। लेकिन मैंने अपने भारत के गोवा में विदेशियों को (महिला भी) खुले आम कम कपड़े में नहाते देखा है। यहाँ गौरीकुन्ड़ में स्त्री को नहाते समय कोई ना देखे इसलिये एक चारदीवारी का निर्माण किया हुआ है। कपड़े बदलने के लिये छोटे-छोटॆ बिना छत वाले दो कमरे भी बनाये गये है।

गौरीकुन्ड़ देखकर आगे बढ़ते ही हमें कई किमी दूर तक का मार्ग दिखाई देने लगता है। यहाँ यह एकमात्र ऐसी जगह है जहाँ से हम बर्फ़ीली रेखा को पारकर पथरीली वादियों में आगमन कर देते है। पथरीली जगह अभी ठीक से आती भी नहीं है कि हमें मार्ग में एक खतरनाक ढ़लान वाली जगह पर बर्फ़ का बीस मीटर का टुकड़ा पार करना पड़ता है। यह बर्फ़ का टुकड़ा मुझे कई साल पहली वाली यात्रा में भी मिला था। लेकिन उस समय अगस्त में यहाँ आने के कारण बर्फ़ की मात्रा बहुत ही कम बची हुई थी। हमने सावधानी से बर्फ़ को पार करना शुरु किया। बर्फ़ के बीच में खड़े होकर फ़ोटो लेने में जो रोमांच आता है। उसे बताया नहीं जा सकता। जब खतरनाक ढ़लान वाली बर्फ़ पर चलने में हव खराब रहती हो, उसपर वहाँ कुछ देर खड़ा रहना पड़ जाये तो फ़िर जुबान से एक शब्द भी बाहर नहीं निकलता है। इस बर्फ़ वाली जगह का दूसरे पहाड़ से फ़ोटो लिया गया था। अंदाजा लगाइये, कि अगर जरा सी भी चूक हो जाये तो ऊपर अल्ला को प्यारे होने की सम्भावना अधिक हो जाती है?

इस डरावनी बर्फ़ वाली जगह के ठीक सामने नीचे खाई में जो सीधी-सपाट खाई दिखायी देती है इसे रावण/भैरों घाटी कहते है। यहाँ से लेकर आगे पूरे एक किमी से ज्यादा दूरी तक सिर्फ़ पत्थर ही पत्थर बिखरे हुए दिखायी देते है। हमारा ध्यान जितना नीचे था उससे ज्यादा ड़र, हमें ऊपर से पत्थर आने का बना हुआ था। अगर ऐसी जगह ऊपर से पत्थर आ जाये तो बचना बहुत मुश्किल होता है। ऊपर से पत्थर नीचे की ओर आता हुआ गोली की रफ़तार से आता चला जाता है। यदि पत्थर छोटा है तो जल्दी टूट कर बिखर जाता है। लेकिन पत्थर बड़ा हो तो टूट कर कई टुकड़े में बंट जाता है। ऐसा पत्थर अत्यधिक खतरनाक साबित होता है। जहाँ य़ॆ पत्थर समाप्त होते है। वहाँ से हमें जिग-जैग टाइप के कई कैंची मोड़ लगातार नीचे उतरने पड़ते है। इन लगातार मोड़ पर हर किसी का मन शार्टकट मारने का कर ही जाता है। मैंने पहली यात्रा में इन शार्टकट का लाभ लिया था। और उसी यात्रा में तय कर लिया था कि यदि मैं यहां दुबारा आया तो बरसात के पानी आने वाले मार्ग का सबसे तेज शार्टकट आजमाना है। मैंने अपना इरादा पानी वाली ढलान का शार्टकट इस यात्रा में लगाकर पूरा कर लिया था। पानी वाले शार्टकट का लाभ यह हुआ कि कहाँ तो मैं सबसे पीछे चल रहा था। और अब मैं सबसे आगे आ पहुँचा था। (क्रमश:)

हिमाचल की इस यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
01. मणिमहेश यात्रा की तैयारी और नैना देवी तक पहुँचने की विवरण।
02. नैना देवी मन्दिर के दर्शन और भाखड़ा नांगल डैम/बाँध के लिये प्रस्थान।
03. भाखड़ा नांगल बांध देखकर ज्वालामुखी मन्दिर पहुँचना।
04. माँ ज्वाला जी/ज्वाला मुखी के बारे में विस्तार से दर्शन व जानकारी।
05. ज्वाला जी मन्दिर कांगड़ा से ड़लहौजी तक सड़क पर बिखरे मिले पके-पके आम
06. डलहौजी के पंजपुला ने दिल खुश कर दिया। 
07. डलहौजी से आगे काला टोप एक सुन्दरतम प्राकृतिक हरियाली से भरपूर स्थल।
08. कालाटोप से वापसी में एक विशाल पेड़ पर सभी की धमाल चौकड़ी।
09. ड़लहौजी का खजियार उर्फ़ भारत का स्विटजरलैंड़ एक हरा-भरा विशाल मैदान 
10. ड़लहौजी के मैदान में आकाश मार्ग से अवतरित होना। पैराग्लाईंडिंग करना।
11. ड़लहौजी से चम्बा होते हुए भरमौर-हड़सर तक की यात्रा का विवरण।
12. हड़सर से धन्छो तक मणिमहेश की कठिन ट्रेकिंग।
13. धन्छो से भैरों घाटी तक की जानलेवा ट्रेकिंग।
14. गौरीकुन्ड़ के पवित्र कुन्ड़ के दर्शन।
15. मणिमहेश पर्वत व पवित्र झील में के दर्शन व झील के मस्त पानी में स्नान।
16. मणिमहेश से सुन्दरासी तक की वापसी यात्रा।
17. सुन्दरासी - धन्छो - हड़सर - भरमौर तक की यात्रा।
18. भरमौर की 84 मन्दिर समूह के दर्शन के साथ मणिमहेश की यात्रा का समापन।
19. चम्बा का चौगान देखने व विवाद के बाद आगे की यात्रा बस से।
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यह फ़ोटो हमने दूसरे पहाड़ से लिया था।
यही हाईवे है।


यह जाट देवता यहाँ क्यों बैठे है/

जहाँ मार्ग समाप्त होआ है उसके पीछे गौरीकुन्ड़ है।



भैरों/रावण घाटी।



यह प्राणी दो दिन हमारे साथ रहा।


यह कल नहीं मिला, नहीं तो इसकी सवारी की जाती।









नदी पर बर्फ़ीला पुल, अमरनाथ यात्रा की तरह

ये वादियाँ।


4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण गुप्ता - PRAVEEN GUPTA ने कहा…

संदीप जी, कृपया फोटो पर वाटरमार्क एक साइड में कोने में डाले, बीच में आने से फोटो का मज़ा खराब हो जाता हैं....धन्यवाद, वन्देमातरम...

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

Jay ho jat devta ki, Devtaon ki nagari me Jat devta :)

संजय तिवारी ने कहा…

आज के लेख में जाट देवता ही छाये हुए है। प्रवीण गुप्ता जी की बात से मैं भी सहमत हूँ।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पहाड़ों को देख अपनी लघुता का बोध हो जाता है।

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