शनिवार, 25 मई 2013

Chandrashila चन्द्रशिला व सूर्यास्त

ROOPKUND-TUNGNATH 12                                                                             SANDEEP PANWAR

तुंगनाथ मन्दिर के बराबर से ही एक छोटी सी पगड़न्ड़ी वाला मार्ग ऊपर चन्द्रशिला की ओर जाता है। तुंगनाथ मन्दिर तो हमने देख लिया था लेकिन इस इलाके की सर्वाधिक ऊँची चोटी (4000 मीटर) चन्द्रशिला अभी हमसे 1.5 किमी ऊँचाई वाली दूरी पर थी। यह छोटी सी दूरी तय करने में ही जोरदार चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। तुंगनाथ केदार से 200 मीटर आगे जाने पर मार्ग Y आकार में बदल जाता है। यह तो हमारा अंदाजा था कि यहाँ हमें उल्टे हाथ ऊपर की ओर ही चढ़ना था लेकिन दूसरा मार्ग कहाँ जा रहा है? अगर दूसरे मार्ग के बारे में भी पता लग जाये तो सोने पे सुहागा रहेगा। दूसरे मार्ग पर कुछ मीटर चलते ही हमारे होश गुम होने वाली बात आ गयी। जी हाँ, यह कच्चा मार्ग तेजी से नीचे की ओर जाता हुआ दिखाई दे रहा था। इस पर एक छोटा सा बोर्ड़ लगा हुआ मिला जिस पर लिखा था कि यह मार्ग गोपेश्वर की ओर जाता है। पहाडों में पैदल पगड़ंड़ी कही की कही जा निकलती है, क्या पता, यह किस मार्ग से होकर गोपेश्वर जाती है? लेकिन जहाँ तक हमारा अंदाजा है कि यह मार्ग मंड़ल-चोपता मार्ग पर बीच में कही जाकर मिलता है।


हम चन्द्रशिला की ओर वापिस आये और ऊपर की ओर भयंकर चढ़ाई/आरोहण करने में लगे रहे। यहाँ से ऊपर चोटी तक बड़ी मस्त तिरछी चढ़ाई है। ऐसी जोरदार चढ़ाई को देख मेरी तबीयत खुश हो जाती है। यहाँ मनु की हालत जरा सी दिक्कत में दिखायी दे रही थी। इसलिये मनु से कहा देख भाई, चढ़ाई पर किसी की हिरस/नकल ना करियो। क्योंकि प्रत्येक प्राणी/इन्सान का शरीर, हर दूसरे बन्दे से अलग होता है। कुछ अपने शरीर को परिस्थित वश ढ़ाल लेते है जबकि कुछ अपने बेबस शरीर के हाथों मजबूर होते है, उन्हे ऐसी जगह परेशानी के अलावा कोई दूसरा मार्ग दिखायी नहीं देगा इसलिये जितना हो सके, अपनी क्षमता अनुसार प्रत्येक कार्य अंजाम देना चाहिए। हम दोनों धीमी चाल से ऊपर की ओर बढ़ते/चढ़ते चले जा रहे थे। अपुन की आदत में हमेशा मन्मौजी मस्तीपन भरा रहता है जिस कारण कैसी भी कठिन पद यात्रा हो बाइक यात्रा, सब मजे में कट जाती है। ऐसा ही मस्ती इस यात्रा में भी जारी रही थी। अपुन ठहरे फ़क्कड़ टाइप घुमक्कड़, इसलिये कई बार साथ गये बन्दे हमारी हरकतों से तंग भी आ जाते है इसलिये साथी को पहले ही बोल दिया जाता है कि भाई यदि कोई बात/लात गलत जगह लगे तो बता देना, नहीं तो दुबारा उससे भी गलत जगह वार किया जायेगा।

चन्द्रशिला की आधी दूरी तय हो चुकी थी लेकिन चन्द्रशिला का नामौनिशान भी अभी दिखायी नहीं दे रहा था। लेकिन जिस तरह से हम तेजी से चढ़ते जा रहे थे उससे पर्वत शिखर आने का आभास होने लगा था। यहाँ ऊपर जाने के लिये पगड़न्ड़ी बनी हुई है लेकिन हमने मुश्किल से आधा सफ़र ही पगड़न्ड़ी पर चलकर तय किया होगा। अधिकतर यात्रा हमने सीधी चढ़ाई चढ़कर पूरी की थी। अपुन ठहरे आफ़त के फ़ूफ़ा, एक जगह ऐसे ही दिमाग में फ़ितूर आया कि चलो कुछ ताकत आजमाते है। इसलिये एक जगह मिटटी की एक ढांग को हाथों व पैरों का सम्मिलित जोर लगाकर उड़ा दिया गया। पहाड भी कमाल के होते है। बताते है कि कुछ हजारों/लाखों वर्ष पहले हिमालय पर्वत की जगह समुन्द्र हुआ करता था धरती/पृथ्वी की प्लेटों के टूटने व जुड़ने की क्रिया में हिमालय पर्वत का जन्म हुआ। यह प्लेटों की धींगामस्ती आज भी जोर आजमाइश कर रही है जिसे हिमालय के पहाड़ लगातार ऊँचे होते जा रहे है। पहाड़ों पर हर साल होने वाली बारिश व नदियों के बहते पानी के साथ बहुत सारा मिटटी का कचरा नीचे मैदानों में हजारों साल से निरन्तर जारी है। यदि पहाड़ों के उठने की क्रिया ना चल रही होती तो अब तक तो पहाड खोखले हो गये होते।

चन्द्रशिला से कुछ पहले से ही चन्द्रशिला का झन्ड़ा दिखायी दे जाता है। यहाँ चोटी पर पहुँचकर चारों ओर का जो नजारा दिखायी देता है, उसे देख कर होश गुम हो जाते है। यहाँ पहाड़ के शीर्ष पर खड़े होकर चारों ओर देखने में ऐसा लगता है कि जैसे हम किसी वायुयान में बैठकर उड़ान पर हो और हमारा यान कुछ देर के लिये यहाँ इस चोटी पर ठहर गया हो। हम दोनों चन्द्रशिला चोटी पर बनाये गये मन्दिर के सामने काफ़ी देर आराम फ़रमाते रहे। यहाँ से उठने का मन नहीं कर रहा था लेकिन क्या करते? वहाँ चारों ओर बादलों ने आकर हमारा पूरा मूड़ खराब कर ड़ाला। कहाँ तो हम शाम होने तक बैठने की योजना बना कर आये थे, लेकिन बादलों की जिद के चलते हमें चोपता के लिये प्रस्थान करना पड़ा। प्रस्थान करन से पहले चारों ओर जी भर देख लिया गया। यहाँ से हमें नन्दा देवी शिखर भी साफ़ झलक रहा था, यहाँ से देखने में नन्दा देवी पर्वत ऐसा लग रहा था कि जैसे यह 15-20 किमी आगे ही हो, लेकिन हम तो रुपकुन्ड़ यात्रा करते हुए यहाँ तक आये थे जिससे हमें अच्छी तरह पता था कि नन्दा देवी शिखर यहाँ से दिन भर की वाहन दूरी के बाद, अगले दिन भर पैदल चलकर ही आने की सम्भावना होगी।

चन्द्रशिला चोटी को प्रणाम किया और लगे हाथ चुनौती भी दे आये कि है हिम्मत तो फ़िर बुला लेना, हम/मैं जरुर आयेंगे/आऊँगा। नीचे उतरते हुए सावधानी से उतरना आरम्भ किया। चढ़ते समय फ़िसलकर गिरने का खतरा नहीं के बराबर होता है, कारण चढाई पर गति बेहद कम होती है, जबकि उतराई में गति बिना गियर लगाये, न्यूटन में भी, ब्रेक लगाते-लगाते कई गुणा बढ़ती जाती है। यह गति इतनी खतरनाक हद तक बढ़ सकती है कि यदि उतराई में लगातार ब्रेक ना लगाया जाये तो बन्दे का अल्ला को प्यारा होने का चाँस अत्यधिक बढ़ जाता है। अल्ला को एक दिन सबको प्यारा होना ही है लेकिन जान बूझकर हाथ पैर तुड़वाना कहाँ की समझदारी है? हम धीरे-धीरे चोपता की ओर आते रहे। अब सांस नहीं फ़ूल रही थी जिससे हम आसपास की घाटियों का आनन्दमयी लुत्फ़ उठाते हुए नीचे उतर रहे थे। नीचे उतरते हुए हमने हर वो शार्टकट आजमाया जो सम्भव भी नहीं दिख रहा था, ऐसे ही एक शार्टकट मारते हुए हम ऐसे फ़ँसे कि हमें एक बिन्दु पर जाकर या तो वापिस आना था या फ़िर लगभग 8-9 फ़ुट गहरे कूदना था। हमने कूदना ही बेहतर समझा। तुंगनाथ मन्दिर से पहले पौन किमी की दूरी में कोई शार्टकट नहीं है, इसी प्रकार चोपता से चलने पर पहले एक किमी भी दूरी में भी कोई शार्टकट नहीं है। बीच में दे दनादन शार्टकट है, जी भर कर उनका लाभ उठाना चाहिए।


चोपता से एक किमी पहले आखिरी दुकान पर कुछ देर बैठकर शरीर को ठन्ड़ा किया गया। यहाँ नीम्बू पानी पीने के बाद चोपता के लिये चल दिये। ऊपर से नीचे खाई/घाटी में दिखायी दे रहे बुग्याल नुमा हरे-भरे मैदान मन को बड़ा सुकून पहुँचा रहे थे। शाम होने जा रही थी सूर्यास्त होने में अभी काफ़ी देर थी इसलिये यह तय किया गया कि चोपता पहुँचते ही बाइक उठाकर एक दो किमी का चक्कर लगाया जायेगा। चोपता पहुँचते ही बाइक उठायी और काफ़ी दूर तक चक्कर लगाकर एक खुली सी जगह देखकर वहाँ विराजमान हो गये। जैसे-जैसे सूर्यास्त होता जा रहा था आसमान में रंग बिरंगी कलाकृति भी दिखायी देती जा रही थी। मैंने मनु से कैमरा लेकर फ़ोटो लेने शुरु कर दिये। जैसे-जैसे सूर्य डूबता जा रहा था, ठन्ड़ भी अप्रत्याशित रुप से तेजी से बढ़ती जा रही थी। इधर सूर्य महाराज डूबा, उधर हमने बाइक पर सवार होकर कमरे तक जा पहुँचे। कमरे पर जाते ही सबसे पहले बैग से चददर निकाल कर ओढी उसके बाद सामने ढाबे पर ही खाना खाने चले गये। गर्मागर्म खाना खाने के बाद सोने की तैयारी में लग गये, सोन से पहले कैमरे व मोबाइल की बैट्री को चार्जर पर लगानी नहीं भूले। कल सुबह उठकर उखीमठ जाना था। अच्छा अब सोते है कल उखीमठ मिलते है।  (क्रमश:)  

रुपकुन्ड़ तुंगनाथ की इस यात्रा के सम्पूर्ण लेख के लिंक क्रमवार दिये गये है।
01. दिल्ली से हल्द्धानी होकर अल्मोड़ा तक की यात्रा का विवरण।
02. बैजनाथ व कोट भ्रामरी मन्दिर के दर्शन के बाद वाण रवाना।
03. वाण गाँव से गैरोली पाताल होकर वेदनी बुग्याल तक की यात्रा।
04. वेदनी बुग्याल से पत्थर नाचनी होकर कालू विनायक तक की यात्रा
05. कालू विनायक से रुपकुन्ड़ तक व वापसी वेदनी बुग्याल तक की यात्रा।
06. आली बुग्याल देखते हुए वाण गाँव तक की यात्रा का विवरण।
07. वाण गाँव की सम्पूर्ण (घर, खेत, खलियान आदि) सैर/भ्रमण।
08. वाण से आदि बद्री तक की यात्रा।
09. कर्णप्रयाग व नन्दप्रयाग देखते हुए, गोपेश्वर तक की ओर।
10. गोपेश्वर का जड़ी-बूटी वाला हर्बल गार्ड़न।
11. चोपता से तुंगनाथ मन्दिर के दर्शन
12. तुंगनाथ मन्दिर से ऊपर चन्द्रशिला तक
13. ऊखीमठ मन्दिर
14. रुद्रप्रयाग 
15. लैंसड़ोन छावनी की सुन्दर झील 
16. कोटद्धार का सिद्धबली हनुमान मन्दिर


















3 टिप्‍पणियां:

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

शानदार तस्वीरें, शुक्र है चित्र में फ़ोंट का असर नहीं पड़ा :)

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

छा गये जाट देवता।

तस्वीरें सुंदर तो हैं ही मुझे तो आपकी घुमक्कड़ी से ईर्ष्या हो रही है। :)

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अद्भुत दृश्य, अप्रतिम।

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