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सेल्यूलर जेल में वीर सावरकर की कोठरी की सलाखों से दिखता नजारा |
उत्तरी अंडमान के अंतिम छोर डिगलीपुर में यहाँ की सबसे
ऊँची चोटी सैडल पीक तक पहुँचकर वापिस पोर्टब्लेयर
लौट आये। सुबह सबसे पहले कार्बनकोव बीच व गाँधी पार्क की यात्रा में आप मेरे साथ
रहे। अब इस यात्रा वृतांत पर आगे सेल्यूलर जेल की ओर बढ चलते है। यदि आप अंडमान की
इस यात्रा को शुरु से पढना चाहते हो तो यहाँ माऊस से चटका लगाये
और
पूरे यात्रा वृतांत का आनन्द ले। इस लेख की यात्रा दिनांक 25-06-2014 को की गयी थी।
अंडमान निकोबार की सेल्युलर जेल, CELLULAR
JAIL, PORT BLAIR
चाथम टापू पर, लकडी काटने वाला एशिया का सबसे
बडा आरा मिल देखने के बाद, एक बार फिर एक तिपहिया में सवार होकर सेल्युलर जेल
देखने पहुँच गये। जेल के ठीक सामने एक सुन्दर सा पार्क बना हुआ है पार्क का नाम
वीर सावरकर पार्क है। यह जेल अंग्रेजों के निर्दयी अत्याचार का जीता जागता सबूत
है। अंग्रेजी साम्राज्य के बारे में एक कहावत तो आपने सुनी ही होगी कि अंग्रेजी
राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था। इस कहावत को
कहने वाले अंग्रेज का नाम अर्नेस्ट जोंस था। यहाँ इस जेल में आने वाले कैदी
के बारे में कहा जाता था कि यहाँ आना वाला जीवित लौट कर नहीं जाता था। जेल में प्रवेश करने के लिये टिकट लेना पडता है।
हमने भी लिया। टिकट की कीमत केवल 10 रु थी। हमारे पास कैमरे भी थे। कैमरे के साथ 25 रु का शुल्क अलग से देना पडा। इस जेल के लिये यदि हमें एक
हजार रुपये भी देने पडते तो भी मैं दे देता। देश के लिये मर मिटने वाले शहीदों की
यादगार देखने के मुकाबले 25 रु की क्या बिसात? वीडियो कैमरे के लिये 100 रु शुल्क लिया जा रहा था। हमारे कैमरे से वीडियो बनायी जा
सकती है लेकिन यह वीडियो कैमरे की श्रेणी मे नहीं आता है।
सूचना पट से पता लगा कि यह जेल सोमवार को बन्द
रहती है। अन्य दिनों में यह सुबह 08:45 से शाम 05:00 बजे तक खुली रहती है।
टिकट केवल शाम 04:15 बजे तक ही दिये जाते है। यहाँ पर लाइट व साऊंड
(रोशनी व ध्वनि प्रदर्शन) शो भी होता है जिसके जरिये यहाँ के अतीत को जानने समझने
में बहुत आसानी होती है। इस शो को देखने के लिये रात को 6 से 8 तक का समय निर्धारित है।
हिन्दी भाषा में शाम 06:00 बजे प्रतिदिन शो होता है।
अंग्रेजी भाषा में यह शाम को 07:15 बजे, सप्ताह में केवल तीन
दिन होता है। जेल के अन्दर प्रवेश करते ही सबसे पहले स्वतंत्रा ज्योत के दर्शन
होते है। इसके ठीक सामने पीपल एक का पेड है। जिसके बारे में कहा जाता है कि यह पेड
लगभग 25-30 साल से ध्वनि व रोशनी शो
की मेजबानी का गवाह है। एक भूकम्प में इस पेड को
बहुत हानि भी पहुँची थी।
सेल्युलर जेल की इमारत का
इतिहास
जेल के अन्दर तो आ चुके है। सबसे पहले इस जेल
के निर्माण की बात करते है। इस जेल का निर्माण 1896 से आरम्भ हुआ। इसका
निर्माण सन 1906 में जाकर पूर्ण हुआ। उस समय इसकी अनुमानित लागत 5,17,352 मानी गयी थी। काम पूरा
होते-होते इसकी लागत 7,83,994 रु तक बढ गयी थी। लागत बढने में मुख्य कारण, यहाँ आया एक शक्तिशाली भूकम्प था
जो 31 दिस्म्बर 1881 को आया था। जिसकी वजह से इस जेल की मजबूती बढाने के लिये बजट भी बढाना पडा। यह स्थल समुन्द्रतल से 67 फीट ऊँचा है। इसकी शैली कौशिकीय (pronged) है। इस जेल पर सन 1942-1945 तक जापानी सेना व आजाद हिन्द सेना का अधिकार भी रहा। 1943 में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने यहाँ तिरंगा
फहराया था। उस समय जापानी कब्जा होते देख अंग्रेजों ने यहाँ का अधिकतर रिकार्ड जला
दिया था। 1969 में इस जेल को राष्ट्रीय
स्मारक में बदल दिया गया। 2006 को इस जेल ने अपना स्वयं का शताब्दी
उत्सव भी देखा। उत्सव के दौरान यहाँ इस जेल में काले पानी की सजा भुगत चुके तीन
जीवित सैनानी अधीर नाग, कार्तिक सरकार व विमल भौमिक भी इतने सालों बाद शामिल हुए
थे।
जेल बनने की कहानी जेल
नामकरण
यह तो आपको पहले ही बताया जा चुका है कि अंडमान
द्वीप समूह के 572 द्वीपों में से मात्र 38 पर ही मानव आबाद है। अंडमान के 550 द्वीप में से 28 व निकोबार के 22 द्वीप में से केवल 10 पर ही मानव जीवन आबाद है। अंग्रेजों की ईस्ट
इंडिया कम्पनी ने 1789 में यहाँ कब्जा कर लिया
था। उस समय इस्ट इंडिय कम्पनी के सबे बडे अधिकारी का नाम आर्किबल्ड पोर्ट ब्लेयर
था। उनके नाम पर ही इस जगह का नाम पोर्टब्लेयर रखा गया। अंग्रेजों के यहाँ आने से
पहले यहाँ आदिवासी (बिल्कुल आदिमानव जैसी) प्रजाति जारवा रहती थी जो आज भी नंग
धडंग (वस्त्र विहीन) ही रहते है। अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति के असफल प्रयास के तुरन्त
बाद, अंडमान को भारतीय सैनानियों को भारत की मुख्य भूमि से दूर लाकर
यातना देने के लिये चुन लिया था। सैनानियों को यहाँ लाने का मुख्य उद्देश्य भारत की आजादी के लिये लडने वाले सैनानियों को दूसरा मौका बिल्कुल नहीं देना
था।
जेल
में कोठरी व चारदीवारी
अंडमान
जेल की चारदीवारी बहुत ज्यादा ऊँची नहीं बनायी गयी है। जेल समुन्द्र से एकदम सटी
हुई है। अंग्रेज जेलर कैदियों को भागने के लिय उकसाया करता था कि हिम्मत है तो भाग
कर दिखाओ। कैदी जानते थे कि यहाँ से भागकर सिर्फ जंगलों में ही जाया जा सकता है
भारत की मुख्य भूमि तक पहुँचना तो सम्भव ही नहीं था। एक कोठरी का साइज 4.5 मीटर (13.5 feet) लम्बा व 2.7 मीटर(7.5 feet) चौडा है। 3 मीटर की ऊँचाई पर छत के करीब रोशनदान
टाइप वाली खिडकी थी। यहाँ एक कोठरी में केवल एक कैदी को शाम 6 बजे बन्द कर दिया जाता था। पूरे 12 घंटे बाद अगले दिन सुबह 6 बजे कैदियों को बाहर निकाला जाता था। इन
12
घंटों में कैदियों को पेशाब-लेट्रिन आदि
करने की भी छूट नहीं थी। जो कैदी रात को अपनी कोठरी में ऐसा काम कर देता था उसे
अगले पूरे दिन भर कठोर सजा मिलती थी।
इन
13/7
की कोठरी को देख हम तीनों सोच-विचार में
पढ गये थे कि किन हालात में आजादी के मतवालों ने यहाँ कष्ट सहे होंगे। एक आज के भारतवासी है कि
आजादी की कोई कद्र ही नहीं करते है। कुछ मुट्ठीभर लोग कहते है कि आजादी गाँधी जी
के चरखे ने दिलायी है। झूठ बोलते है ऐसे लोग। यह जेल गवाह है कि आजादी इन वीरों के
बलिदान के बदले हमें मिली है। गाँधी तो अंग्रेजों की बनाई संस्था “कांग्रेस” के
कर्मचारी मात्र थे। अंग्रेजों को बलिदानियों, सैनानियों व दूसरे विश्व युद्ध से तंग होकर यह देश छोडना
पडा था। जाते-जाते भी अंग्रेज इस देश के दो टुकडे करने के बाद अपनी बनाई गयी संस्था को सौंप कर चले गये।
मैं इसे आजादी नहीं मानता, यह सत्ता बागडौर एक हाथ से दूसरे हाथ में जाना मात्र था। हम आज
भी देख रहे है क्या बदला है? आज भी वही अंग्रेजी कानून हम पर लागू है जो अंग्रेजों ने बनाये थे।
इस जेल में 693 बैरक बनायी गयी थी। सात खण्ड में विभाजित यह जेल तीन मंजिला
है। एक जगह पर सातों खण्ड आकर जुडते थे। आजादी के बाद दो खण्ड तोड दिये गये है
जिसके बाद अब सिर्फ पाँच खन्ड ही बचे है। दो खण्ड शायद भूकम्प से धवस्त हो गये।
हमें यहाँ तीन खण्ड ही दिखाई दिये। एक बडे हिस्से में अस्पताल का निर्माण कार्य
किया गया है। यहाँ मध्य भाग से रक्षक पूरी जेल की निगरानी आसानी से रखते थे। इस जगह को देख ऐसा
लगता है। जैसे कोई विशाल आक्टोपस यहाँ अपनी भुजाएँ फैलाए पडा हो। यहाँ बनायी गयी
प्रत्येक कोठरी/ सेल का साइज बहुत छोटा है। यहाँ एक भी डोरमैट्री नहीं बनायी गयी
थी। सभी कोठरी में लोहे का सलाखों वाला एक मजबूत दरवाजा है। इस जेल के बनने के बाद वायपर द्वीप की जेल को बन्द कर दिया गया।
जेल के कैदी व उनकी तकलीफ
भरी कैद
इस जेल में छोटी कोठरी बनाने का इरादा यही था कि सभी कैदियों को
अलग-अलग बैरक में कैद रखा जाये। जिससे वो आपस में मिलकर कोई षडयंत्र ना बना
सके। एक कोठरी में एक कैदी के कारण ही इस जेल को सेल्युलर जेल कहा जाता था। पहली किस्त में
यहाँ 200 सैनानी लाये गये। इसके
बाद 737 कैदी के रुप में दूसरी
किस्त पूरी हुई। इस जेल को काले पानी की सजा कहा जाता था। यहाँ आने का अर्थ ही यह
होता था जिन्दा वापिस नहीं लौटना है। पहले व दूसरे जत्थे में अधिकतर सैनानी उत्तर
भारत के लोग थे। यहाँ लाये गये बहुत से सैनानियों ने यहाँ से भागने की अपनी ओर से
कोशिश करने में कोई असर नहीं छोडी थी। उनके अधिकतर प्रयास यहाँ की भौगोलिक स्थिति
के कारण विफल ही रहे। उत्तर भारत के रहने वाले कैदी समुन्द्र में कहाँ तक भाग
पाते? उनमें से अधिकतर ने समुन्द्र भी पहली बार ही देखा होगा। जंगलों में कितने दिन भूखे प्यासे जीवित रह पाते? यहाँ के जंगलो में खूँखार आदिवासी
लोग भी रहते थे जो इन कैदियों को अपने तीर कमान व जंगली औजारों से मार डालते थे। एक
सैनानी शेर अली ने अंग्रेजों के बडे अफसर जिन्हे वायसराय कहा जाता था उसकी हत्या
कर दी। बदले में अंग्रेजों ने शेर अली को वायपर द्वीप वाली जेल (तब तक सेल्यूलर जेल का निर्माण नहीं हुआ था) में पर फाँसी पर लटका दिया।
इस घटना के बाद अंग्रेजों ने कैदियों को यातना
देने में सारी हदे पार कर दी। इस घटना तक भारतीय सैनानियों को वायपर द्वीप पर लगभग खुली
बस्ती जैसी जेल के रुप में ही रखा जाता था। अब अंग्रेजो ने खुली बस्ती की जगह बन्द जेल/कारागार
बनाने की तैयारी आरम्भ कर दी। जो कैदी यहाँ रखे गये थे। उन्ही से इस जेल में सभी
कार्य कराये गये। जंगल में लकडी काटने से लेकर अन्य सभी कार्य जैसे दीवार निर्माण
व अन्य कारीगरी। लायल लैथब्रिज समिति की
सिफारिशों से 1890 में इस जेल को बनाने की
अनुमति मिल गयी थी लेकिन इसका निर्माण कार्य 1896 में ही आरम्भ हो पाया। यहाँ उपयोग में आने वाली अधिकतर ईटे
बर्मा/म्यंमार से लायी गयी थी। कुछ ईटों का निर्माण यहाँ भी किया गया था। बर्मा की मुख्य भूमि यहाँ के डिगलीपुर से करीब 50 किमी दूर है। इस जेल को बनने में पूरे दस वर्ष
लग गये। 10 मार्च 1906 को सैंकडों सैनानियों की वर्षों की कठिन
मेहनत के बाद इसका काम पूरा हुआ।
जेल
में वीर सावरकर व उनके भाई
इस
जेल में पहले बडे राजनीतिक कैदी वीर दामोदर सावरकर थे। वीर सावरकर को फाँसी घर के
सामने वाले आखिरी सेल में दोहरी ग्रिल वाली कोठरी में कैद रखा गया था। वीर सावरकर
यहाँ दस साल की लम्बी अवधि (1911-1921) तक कठोर कारावास भुगतते रहे थे। देश
आजाद हुआ तो सावरकर भी यहाँ से आजाद हुए। 28 मई 1880 से 26
फरवरी 1966 तक सावरकर का जीवन काल रहा। इनकी कोठरी
में लोहे का दोहरा गेट लगा हुआ था। कमरे के दरवाजे के बाद, बरामदे में भी लोहे का
ही गेट था जबकि अन्य कैदियों का बारामदा खुला ही होता था। वीर सावरकर को कोल्हू
में बैल की तरह जोतकर नारियल तेल निकलवाया जाता था। यहाँ निकाला गया नारियल तेल
इंग्लैंड भेजा जाता था।
वीर सावरकर महान आत्मा थे तभी तो वह लगातार दस वर्ष तक कठोर
यातना झेलने के बाद भी जिन्दा बच गये थे। अनेक कैदी तो ऐसे होते थे जो यहाँ इस जेल
में मिलने वाले कठोर अत्याचार झेल नहीं पाने से पागल हो गये थे। वीर सावरकर के
कमरे में आज भी उनका कुछ सामान रखा हुआ है। जिसमें लोहे का एक गिलास, पानी पीने का
मिट्टी व लोहे का बर्तन व सोने के लिये एक लकडी का फट्टा। सावरकर को एक संख्या भी
मिली थी जिसका नंबर 322778 है।
वीर सावरकर को मालूम नहीं था कि उनके भाई भी यहाँ कैद है| एक दिन भोजन से लौटते समय
उनकी अपने भाई से मुलाकात हुई तो दोनों भाईयों की आँखे एक दूसरे को इस हालत में देख
भर आयी होंगी। एक कैदी नंदगोपाल जी यहाँ लाये गये तो यहाँ के नियम अनुसार उन्हे
पहनने के लिये टाट (बोरी के टुकडे) का कपडा दिया गया तो उन्होंने नहीं लिया और वे हमेशा
तन पर बिन कपडों के ही रहे।
जेल
में फाँसीघर (GALLOWS)
यह
तो सभी को पता ही है कि लगभग सभी जेल में एक फाँसीघर भी होता है। यहाँ के फाँसी घर
में एक साथ तीन लोगों को लटकाया जाता था। फाँसी पर लटकाने के लिये नीचे एक कुएँ टाइप
गडडा भी बनाया जाता है। हम तीनों नीचे उतरकर उसे भी देखने गये कि फाँसीघर नीचे से
कैसा होता है? उस कमरे में न जाने कितने दीवानों को लटकाया गया होगा? यहाँ हजारों
देशभक्तों ने अपनी अखिरी साँसे ली होंगी। यहाँ इस फाँसीघर का रिकार्ड है एक दिन
में सैकडों तक लोग इस जगह फाँसी पर लटका दिये गये थे। जिन लोगों को फाँसी पर लटाते
थे। उन्हे बाद में समुन्द्र में फैंक दिया करते थे। इस जेल की सच्चाई सुनकर तो तत्कालीन
अंग्रेजों पर इतना गुस्सा आ रहा था। निर्दयी लोग अपना काम करके जा चुके
है।
जेल
के अन्दर एक छोटा सा संग्रहालय भी है जहाँ वे सभी औजार व सामान रखे हुए है जिनके
जरिये भारतीय कैदी पर अत्याचार ढाये जाते थे। इस जेल में भारत व बर्मा के लाये गये
सैनानी रखे जाते थे। बर्मा के 238
लोगों ने यहाँ से भागने की विफल कोशिश की थी जिसके बाद जेलर ने 87 लोगों को एक दिन में ही फाँसी पर लटका
लिया था। इस जेल में सबसे खूँखार जेलर डेविड बैरी माना जाता है। एक बार किसी कैदी
ने उसकी जमकर ठुकाई कर दी। बाद में उस कैदी को यह जेलर बेहोश होने तक पिटाई करवाया
करता रहता था। यहाँ पिटाई के लिये कोडे मारने का अलग स्थान खुले में बनाया हुआ था। खुले में कैदी
को कोडे मारे जाते थे जिसे पूरी जेल देखती थी। कैदियों में खौफ पैदा करने के लिये ऐसा
किया जाता था।
कोल्हू
(OIL
MILL) में बैल के स्थान पर कैदी व कठोर सजा
इस
जेल के कोल्हू में बैल के स्थान पर कैदियों को लगाया जाता था। कैदी को एक दिन में
30
POUNDS नारियल तेल व 10 POUNDS सरसों का तेल निकालना होता था। एक दिन में वैसे तो 15 सेर यानि 30 पौंड तेल निकालने की सीमा निर्धारित
थी। ऐसा शायद बहुत ही कम होता था जब कोई पूरा तेल निकाल पाता था। अधूरा तेल
निकालने पर पिटाई होना आम बात थी। बेडियों में जकड दिया जाता था। तेल निकालने के
लिये लंगोट पहनकर कमरे में घुसना पडता था। खाली कोल्हू चलाना भी आसान काम नहीं
बताया जाता है। उसमें नारियल डालते ही कोल्हू बहुत भारी हो जाता होगा। इस तेल वाले
कोल्हू के चक्कर में बहुत से लोग पागल हो गये थे। एक सैनानी उल्लासकर को 14 साल पागलखाने में रहना पडा था।
सैनानियों को जो भोजन दिया जाता था उसमें रोटी के साथ जंगली घास उबाल कर दी जाती
थी। पहनने के लिये टाट (बोरी
का कपडा) के कपडे दिये जाते थे। यहाँ दैनिक
कार्यों के लिये भी समय निर्धारित था। इस जेल को यदि अत्याचारों का महाकुम्भ कहे
तो भी कम रहेगा। लोगों को मारना, पीटना, कोडे मारना, पेडों पर फाँसी देना, तोप से
उडाना तक शामिल था।
यहाँ एक मजेदार घटना हुई। मेरे पास सोनी का कैमरा था जिसकी बैट्री समाप्त हो गयी। दिन भर फोटो खीच रहे थे। कैमरा आखिर कितने फोटो ले पाता। राजेश जी बोले यदि तुम्हारा कैमरा बैट्री बैक अप से रिचार्ज हो सकता हो तो मेरे पास बैट्री बैक अप है। अरे वाह, आपने तो काम बनवा दिया। सोनी का कैमरा बैट्री बैक अप से रिचार्ज हो जाता है। अन्य कैमरे इस मामले में फैल है। जेल
का इतिहास तो देख लिया अब आगे बढते है। अब हमारी तिकडी अंडमान के सुन्दरतम द्वीप
हैवलाक की ओर प्रस्थान करती है। इस द्वीप तक पहुँचने के हम पहली बार लम्बी समुन्द्री यात्रा का लुत्फ उठायेंगे। (क्रमश:) (Continue)
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टिकट दरे व अन्य जानकारी |
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सेल्यूलर जेल का प्रवेश द्वार |
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स्वातंत्र्य ज्योत |
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छोटी कोठरी बनाने का कारण |
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जेल में कोठरियों की भीतरी दीवार |
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सावरकर की कोठरी की ओर जाता सीढियों वाला मार्ग |
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सावरकर की कोठरी से दिखता जेल का सुन्दर नजारा |
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दोहरी ग्रिल वाली एकमात्र कोठरी |
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सावरकर का बही खाता |
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वीर विनायक दामोदर सावरकर के उपयोग किये गये बर्तन व उनका पलंग |
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काल कोठरी की गैलरी/गलियारा |
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जेल की छत पर चढने की एकमात्र सीढी, यहाँ से पूरी जेल पर निगरानी होती थी। |
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जेल की छत का नजारा |
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जेल की छत से दिखता समुन्द्र |
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नारियल व सरसों का तेल निकालने वाला कोल्हू, |
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लो भाई आप भी पढ लो |
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जंजीरों में जकडे तीन मूर्ति की नकल करती चौथी मूर्ति |
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टाट के कपडे |
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फाँसी से ठीक पहले यहाँ अंतिम स्नान कराया जाता था। |
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आओ चले, देश के वीरों के अंतिम साँस से भरी जगह देखने |
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फाँसीघर का फर्श व फाँसी के रस्से |
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फाँसीघर के कुएँ में चलते है। |
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फांसीघर के कुएँ की छत |
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रात को कौन सी कुर्सी पर बैठकर शो देखना है। |
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सेल्युलर जेल के संग्रहालय में रखे कुछ चित्रों के फोटो |
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जेल की यादगार, एक स्मृति चिन्ह |
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जेल का काम तो निपट लिया। अब चले, अगली मंजिल की ओर |
इस लेख को पढने के बाद आपके मन में कोई प्रश्न या विचार आया है तो उसे नीचे कमैंट बाक्स में लिखना न भूले। आपकी कोई नेक सलाह है तो उस पर गौर किया जायेगा।
6 टिप्पणियां:
इस पोस्ट को पढ़कर अपनी अंडमान यात्रा के मुख्य आकर्षण सेल्लुर जेल की याद आ गयी। सच में बहुत कष्ट सहा इन मतवालों ने आजादी का और हम कहते हैं आजादी बापू के रास्ते पर चल के मिले। खैर...
http://www.ourdreamtales.com/2015/08/cellular-jail.html
मैं इसे आजादी नहीं मानता, यह सत्ता बागडौर एक हाथ से दूसरे हाथ में जाना मात्र था। हम आज भी देख रहे है क्या बदला है? आज भी वही अंग्रेजी कानून हम पर लागू है जो अंग्रेजों ने बनाये थे।बिलकुल हि सही बात कही है आपने ,सचित्र हकीकत से वाकिफ करने वाला लेख है ,भगवान आपको दीर्घायु और स्वस्थ रखे ,आपकी यात्रा निरंतर जारी रहे जिससे की हमे भी आपके ऐसे सुन्दर लेख के माध्यम से देश के कोने कोने की सही जानकारी प्राप्त होती रहे .
सेलुलर जेल का इससे बढ़िया विवरण अब तक न पढ़ा था ।
यात्रा विवरण बहुत ही मजेदार व जानकारी भरा बहुत ही बढ़िया
उफ़ !आँसू आ गए क्यों इन लोगो ने इतना कष्ट उठाया ?क्या हमारे लिए? और हम इनकी आजादी भूल गए 😢
उफ़! कितने कष्ट उठाये है इन आजादी के मतवालो ने और एक हम है जो इस आजादी का ग़लत स्तेमाल करते हों
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