सोमवार, 23 जनवरी 2017

Chatham saw mill, Biggest saw mill of Asia चाथम- एशिया की सबसे बडी आरा मिल





उत्तरी अंडमान के अंतिम छोर डिगलीपुर में यहाँ की सबसे ऊँची चोटी सैडल पीक फतह कर बस यात्रा करते हुए पोर्टब्लेयर वापिस लौट आये। लौटते ही कार्बनकोव बीच व गाँधी पार्क की यात्रा में आप साथ चलते रहे। अब इस यात्रा वृतांत पर आगे चलते है। यदि आप अंडमान की इस यात्रा को शुरु से पढना चाहते हो तो यहाँ माऊस से चटका लगाये और पूरे यात्रा वृतांत का आनन्द ले। इस लेख की यात्रा दिनांक 25-06-2014 को की गयी थी।
अंडमान निकोबार GOVERNMENT SAW MILL, CHATHAM, PORT BLAIR, ANDAMAN
अब हम अंडमान की सबसे बडी लकडी काटने की आरा मिल देखने चलते है। जो चाथम नामक द्वीप में बनी हुई है। यहाँ तक हम बस से आये थे। यह जगह मुख्य बस अडडे से मात्र 4 किमी दूर है। हम गाँधी पार्क से यहाँ तक सीधी बस में बैठ कर आये थे। चाथम द्वीप तक पहुँचने के लिये समुन्द्र के ऊपर बने सीमेंटिड पुल को जब हमारी बस पार कर रही थी तो मैने सोचा कि इस पुल पर उतर कर आसपास के फोटो लेने चाहिए। पुल के ऊपर से चाथम जेट्टी भी दिखायी दे रही थी। जेट्टी में पानी के बडे वाले समुद्री जहाज खडे हुए थे। पुल पार करते ही उल्टे हाथ मुडकर बस रुक गयी। परिचालक बोला चाथम का लकडी वाला आरा मिल आ गया है। बस अभी और आगे जायेगी। बस से उतर कर देखा वहाँ मिल जैसा कुछ नहीं था। एक स्थानीय बंदे ने बताया कि यह बस स्टैंड है आपको यहाँ से सौ मीटर पीछे जाना पडेगा। सौ मीटर पीछे जाते ही पुल का किनारा भी आ गया। पुल के ठीक सामने चाथम मिल का प्रवेश द्वार बना है।

चाथम मिल के द्वार पर एक बोर्ड लगा हुआ है। जिस पर लिखा है कि यह सुबह 08:30 से दोपहर 02:30 तक आम दर्शकों के लिये खुलता है। यहाँ प्रवेश करने के लिये मात्र 10 रु का टिकट लगता है। टिकट खिडकी अभी बन्द थी। समय देखा, अभी तो आठ ही बजे थे। आधा घंटा खाली बैठकर, प्रतीक्षा करनी पडी। कुछ जगह देर से आने का लाभ होता है तो कभी जल्दी आने से लाभ होता है सब समय का फेर है। चाहे कुछ भी हो मैं अपनी जल्दी वाली आदत कभी नहीं छोडना चाहता। समय होते ही टिकट खिडकी खुल गयी। हम तीनों के अलावा वहाँ चार दर्शक और आये हुए थे। इस तरह कुल 7 लोगों ने प्रवेश लिया। 

सबसे पहले वहाँ लगे एक बोर्ड पर निगाह गयी। उस बोर्ड पर अंडमान निकोबार द्वीप समूह के बारे में बहुत सारी जानकारी दी गयी थी। उसी बोर्ड अनुसार अंडमान व निकोबार द्वीप समूह में कुल 556 टापू है। यहाँ कुल तीन जिले है। उत्तर से दक्षिण की दिशा में इन सभी द्वीप की कुल लम्बाई 726 किमी में फैली हुई है। अंडमान निकोबार का अधिकतर इलाका जंगलों से भरा पडा है। इन जंगली इलाकों में 9 नेशनल पार्क बने हुए है। छोटी-छोटी सैंचुरी की संख्या तो सैंकडों की संख्या में है। इन नेशनल पार्क में लागू सख्त कानून के कारण ही अभी तक अधिकतर जंगल सुरक्षित बचा हुआ है। यदि आज ये कानून हटा दिये जाये तो कुछ ही दिनों बाद इन जंगलों की स्थिति देखना। आप स्वयं अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर पाओगे कि हम कुछ महीनों पहले ही यहाँ आये थे तो तब में आज में कितना अंतर आ गया है।

आगे बढते है। यहाँ लगे एक बोर्ड से मालूम हुआ कि यहाँ पर एक वन संग्रहालय है। जिसमें जंगल में बनी व जंगल के सामान से बनी वस्तुओं की प्रदर्शनी लगायी गयी है। सबसे पहले वन संग्रहालय देखने पहुँच गये। यहाँ इस संग्रहालय में प्रवेश करने के लिये सभी को अपने जूते बाहर ही निकालने पडते है। जूते बाहर निकालने का लाभ यह है कि जूतों के साथ धूल-मिट्टी एक बडे कमरे नुमा संग्रहालय के अन्दर नहीं पहुँच पाती है। संग्रहालय के अन्दर पहुँचकर महसूस हो गया कि हम किसी दूसरी ही दुनिया में आ गये है। लकडी से इतनी सुन्दर-सुन्दर वस्तुएँ भी बनायी जा सकती है। उन्हे देखकर हमें अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। संग्रहालय में लकडी से बनी एक जंजीर, दिल, मूर्ति, खिलौने और दैनिक जीवन में उपयोग होने वाली बहुत सारी वस्तुएँ देखी। इस संग्रहालय में एक भैंस के चेहरे का विशाल कंकाल भी रखा हुआ था। इस नस्ल की भैंसों को अंडमान के मरोटा द्वीप पर अंग्रेज व पुर्तगाल अपने साथ दूध के उत्पादन (डेरी उद्योग) के लिये लिये लाये थे। यह कंकाल मरोटा द्वीप से ही यहाँ लाया गया था। कुछ देर में पूरा संग्रहालय देख लिया गया। यहाँ प्रदर्शित अधिकतर उत्पाद/ वस्तुएँ बिक्री के लिये भी उपलब्ध थी।

संग्रहालय से बाहर आकर अपने जूते पहन आगे बढ चले। एक बोर्ड बता रहा था कि अब दूसरे विश्व युद्ध के बमों का गवाह रहा एक विशाल गड्डा भी अभी तक उसी हालत में सुरक्षित बचाया हुआ है। बोम्ब पिट (बम फटने से बना गडडा) से ठीक पहले एक कुँआ बना हुआ था। उस कुएँ की गहराई ज्यादा नहीं थी। समुन्द्र तल नजदीक ही है। इस बोम्ब पिट के ऊपर पहुँचकर बम से बना एक विशाल गडडा देखकर अहसास हुआ कि उस समय सन 15 अगस्त 1945 में रक्षा बंधन के दिन यहाँ अंडमान में इतना भयंकर बम हवाई जहाज से नीचे गिराया गया होगा तो आज के बम तो उससे कई गुणा अत्यधिक विनाश कर सकने में सक्षम है। उसी वर्ष अमेरिका ने जापान के दो शहरों हिरोशिमा व नागासाकी पर दो परमाणु बम हवाई जहाज से ही गिराये थे। उन दोनों परमाणु बम के कारण ही जापान ने अपने नागरिकों की जिंदगी देखते हुए कथित हार मानते हुए आगे युद्ध न लडने का फैसला किया था। बोम्ब पिट के व्यास की लम्बाई कम से कम 15 मीटर तो होगी। इस बोम्ब पिट को पार करने के लिये के एक झूला पुल भी बनाया गया था। झूला पुल में कुछ गडबड थी। उसे ठीक करने के लिये कारीगर काम कर रहे थे।

बोम्ब पिट देखते हुए आगे बढते रहे। एशिया की सबसे बडी लकडी काटने वाली मिल हमारे सामने ही थी। एक क्रेन लकडी के मोटे बडे तने को तार के सहारे उठाकर लेकर जा रही थी। मिल के अंदर व बाहर दो-दो फुट चौडाई की पतली-पतली रेल की पटरी बिछी हुई थी। इन रेल की पटरियों को देखकर मन में सबसे पहला विचार यही आया कि इन पटरियों पर चलने के लिये कोई इंजन भी अवश्य होगा। इंजन कहाँ है? इस लकडी की रेल वाली पटरी पर कितने डिब्बे होते होंगे। यहाँ रेल की पटरी पर चौराहे भी थे। चौराहे पर घूमने वाली पटरियाँ थी। सामने से रेल की इन छोटी-छोटी पटरियों पर एक डिब्बे को धकेलते हुए तीन चार लोग आते दिखाये दिये। इस चौराहे पर आकर उन्होंने डिब्बे को घूमा दिया और सीधे हाथ मुड कर सामने बने गोदाम में चले गये। यहाँ मैंने एक बन्दे से पूछा कि इन पटरियों का छोटा इंजन कहाँ मिलेगा? उसने बताया कि अब तो यहाँ कोई इंजन नहीं है। एक था जो कुछ वर्ष पहले खराब हो गया था। अब तो तीन-चार लोग मिलकर इस डिब्बे को धकेल देते है। इस तरह हम ही इंजन का काम कर देते है।

मिल के ठीक बाहर लकडी का बना एक हाथी देखा। पहले लगा कि सीमेंट का बना होगा। इसी हाथी के ठीक बराबर में “चाथम स्मारक” बनाया गया है। यह स्मारक यहाँ उन शहीदों की याद में बसाया गया है। जिन्हे अंग्रेज सन 1857 की प्रथम स्वतंत्रता की लडाई के बाद पकड कर यहाँ लाये थे। पहली खेप में लगभग 200 भारतीय लडाकों को यहाँ लाया गया था। 10 मार्च सन 1958 को उन्हे लाया गया था। उन सैनिकों के यहाँ आने के बाद ही इन द्वीप पर मानव आबादी स्थायी रुप से बसना आरम्भ हुई थी। उससे पहले यहाँ के जंगलों में आदिवासी/ आदिमानव जैसे लोग ही निवास करते थे जो सभ्यता से बहुत दूर थे। वे सिर्फ अपना पेट भरकर ही अपना गुजारा करने वाले लोग थे। आधुनिक लोगों की आवश्यकता पेट की आग तक ही सीमित नहीं होती है। यहाँ लाये गये अधिकतर भारतीयों से अंग्रेज फ़्री में मजदूरी कराया करते थे। जो मजदूरी करने से मना करते थे उन्हे गोली मार दी जाती थी। यहाँ आने का अर्थ ही बंधुआ मजदूर बनना था।

आखिरकार लकडी मिल में प्रवेश कर ही लिया। सबसे पहले लाल रंग का एक बोर्ड दिखायी दिया जिस पर चेतावनी लिखी हुई थी कि बडी-बडी आरा मशीन से सावधान रहे। जिधर से लकडी के बडे-बडे गठठे मिल के अन्दर जाते है। वहाँ से शुरुआत करते है। यहाँ बताया गया कि जो लठठे ज्यादा टेडे-मेडे होते थे। उन्हे सीधे करने के लिये समुन्द्र के पानी में महीनों तक गिराये रखते थे। समुन्द्र के पानी में ज्वार-भाटा तो आता रहता है। लहरे भी चलती रहती है लहरों से लकडी के बडे गठठे बहकर दूर निकल सकते थे। उन्हे बहने से रोकने के लिये जाल भी लगाया गया था। बडी-बडी नाव से लकडी के गठठर यहाँ दूसरे सैंकडों द्वीप से लाये जाते थे। यह पेड काटने का कार्य सैंकडों सालों से सरकारी स्तर पर आज भी जारी है। फिर कहते है कि पर्यावरण को नुकसान हो रहा है। सरकारी मिल में ही लकडी का इतना विशाल पैमाने पर दोहन हो रहा है तो समझ लीजिए कि निजी हाथों में तो इससे ज्यादा लकडी का सत्यानाश होता होगा। जब तक लोग जागरुक नहीं होंगे। ऐसा विनाश तो होता ही रहेगा। सरकारों को जगाना भी जनता का ही काम है।

सबसे पहले नाव से पेड के पूरे तने को क्रेन से उठाया जाता है उसके बाद उन तनों को इन क्रेन की सहायता से बडी ब्लेड वाली मशीन के सामने रख दिया जाता है। पहले चरण में इन विशाल तनों को चौकोर काटा जाता है। चौकोर काटने के बाद इन्हे पतले-पतले फटटों में काटने के लिये दूसरी मशीन के आगे भिज दिया जाता है। दूसरी मशीन में फटटे काटने के बाद आगे तीसरी मशीन में इन्हे बारीक करने के लिये किया जाता है। अलग तरह की कटिंग के लिये कई मशीन यहाँ है। सौ साल से ज्यादा पुरानी मिल की तकनीक में ज्यादातर मशीन आज भी पुरानी वाली ही है। अंग्रेजों की उस समय की तकनीक देखकर आज भी आश्चर्य होता है कि वे हम भारतीयों से कितना आगे थे। जब अंग्रेज बंदूकों से गोली चलाते थे तब भारतीय लाठी भाले व तलवार से लडाई करते थे। जब अंग्रेज हवाई जहाज उडाते थे तब भारतीय पानी में छोटी नाव में यात्रा करते थे। 

पूरी चाथम मिल देख डाली गयी है। अब बाहर चलते है। अभी अंडमान में देखने के लिये बहुत स्थान बचे हुए है। बाहर निकलते समय एक छोटा सा तालाब दिखाई दिया। यहाँ अंग्रेजों ने अपना बिजली घर बनाया हुआ था। बिजली बनाने की तकनीक समुन्द्र के ज्वार भाटे पर आधारित थी। बिजलीघर के सामने वाले तालाब में कमल के फूल भी खिले हुए थे। अभी तक मैंने अंडमान में कई जगह कमल के फूल देखे थे। इसलिये यहाँ कमल होने पर आश्चर्य नहीं हुआ। डिगलीपुर जाते समय मायाबन्दर में भी कमल के फूल आपको दिखाये थे। अब कहाँ चलना है? मनु भाई ने बताया कि अब अंग्रेजों के क्रूर आतंक का गवाह “सेलुलर जेल” की ओर चलते है। तो चलो दोस्तों, हम तो चले, यहाँ से 5 किमी दूर स्थित सेलूलर जेल की ओर, आपको आना है तो हमारे पीछे लगे रहिए। (क्रमश:) (Continue)






























2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-01-2017) को "होने लगे बबाल" (चर्चा अंक-2584) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

बढ़िया चित्र व वर्णन

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