उत्तरी अंडमान के अंतिम छोर डिगलीपुर जाते समय रंगत से
कुछ आगे मैंग्रोव जंगल व मनमोहक समुन्द्र तट देखने के बाद मायाबन्दर व डिगलीपुर के
कालीपुर तट पर कछुओं के प्रजनन स्थल का यात्रा वृतांत इस लेख में दिया गया है। यदि
आप अंडमान की इस यात्रा को शुरु से पढना चाहते हो तो यहाँ चटका लगाये और पूरे यात्रा वृतांत का आनन्द
ले। यह यात्रा दिनांक 22-06-2014 को की गयी थी।
अंडमान निकोबार TRAVEL TO MAYABANDAR KALIPUR TURTLE BEACH, DIGLIPUR, मायाबन्दर तट व डिगलीपुर का कालीपुर तट
रंगत से सीधे डिगलीपुर की बस में बैठना सही
होगा। यहाँ HOW BILL NEST होटल से डिगलीपुर की बस
में सीट मिलना तो असम्भव है ही। बस यहाँ रुके ही, यह कहना भी मुश्किल है। इसलिये
आटो वाले को पहले ही बोल दिया था कि हमें वापसी में रंगत बस अडडे छोडना है। आटो वाला हमें रंगत बस अड्डे छोड आया। रंगत से डिगलीपुर तक सीधी
बस भी मिल जायेगी लेकिन हमें आज सीधे डिगलीपुर नहीं जाना है। डिगलीपुर से पहले
मायाबन्दर नामक शहर आता है पहले वहाँ तक ही जाना है। रंगत से मायाबन्दर की दूरी 70 किमी है। मायाबन्दर में 1 घन्टा रुककर एक जगह
देखनी है। उसके बाद आगे डिगली पुर जायेंगे। कुछ देर में एक बस आ गयी। यह बस मायाबन्दर तक ही जा रही है अच्छी बात है यदि
आगे डिगलीपुर वाली बस मिलती तो उसमें ज्यादा भीड होती। हमें तो पहले मायाबन्दर तक ही
तो जाना है। यहाँ कुछ देर रुककर आसपास का भ्रमण कर लेंगे। बस में ज्यादा सीट खाली
नहीं थी। हम तीनों को अलग-अलग सीट मिल गयी। कल रंगत आते हुए तो कई घंटे खडे होकर
बस यात्रा करनी पडी थी। आज भी हमारी बस ने समुन्द्र किनारे होते हुए अधिकतर यात्रा
की थी। आखिर में मायाबन्दर पहुँचकर यह बस खाली हो गयी। मायाबन्दर भी समुन्द्र के
किनारे ही बसा हुआ है।
मायामन्दर का बस अड्डा ठीक ठाक बनाया हुआ है।
हम बस से उतरने के बाद आसपास देखने लायक स्थान की जानकारी लेने लगे। एक दो स्थानीय
बन्दों से बातचीत करते हुए वहाँ देखने लायक स्थलों के बारे में पूछताछ की।
उन्होंने बताया कि यहाँ ऐसा कुछ खास नहीं है। यहाँ सिर्फ़ एक पुराना मन्दिर व
समुन्द्र तट ही देखने लायक है। राजेश जी कही घूमने के मूड में नहीं थे। वह वही बस
स्टैंड पर आराम करने लगे। मैं और मनु मन्दिर की ओर चल दिये। मन्दिर बस स्टैंड से
सामने ही दिखायी दे रहा है। थोडी देर में ही मन्दिर पहुँच गये। मन्दिर में उस समय
ताला लगा था। मंदिर के चारों ओर आम के पेड थे। मन्दिर बन्द होने पर वहाँ आसपास का
सुन्दर नजारा देखने के अलावा कोई चारा नहीं था। मन्दिर की परिक्रमा करते हुए सबसे
पहले तो कई आम अपनी जेब में भर लिये। बैग राजेश जी के पास बस स्टैंड पर ही रखा था।
मन्दिर के ठीक पीछे समुन्द्र किनारे सुन्दर नजारा था। दूर से, किनारे खडी नाव
देखकर ऐसा लगता था जैसे नाव समुद्र में ज्वार चढने की प्रतीक्षा कर रही हो। जैसे
ही समुन्द्र में पानी चढेगा, नाव समुन्द्र में तैरने लगेगी।
दूर से देखने पर समुन्द्र का किनारा हल्का कालापन
लिये हुए दिखायी दे रहा था। हमारे पास ज्यादा समय नहीं था इसलिये किनारे नहीं गये।
मन्दिर की परिक्रमा लगाते समय दूसरी ओर आये तो कुछ ओर ही नजारा देख दंग रह गये।
अंडमान में जहाँ-जहाँ भी जा रहे थे। हर रोज नया आश्चर्य हमारे सामने होता था। बस
अडडे की ओर वापस आते समय बस अडडे के ठीक पीछे गहराई में घरों के बीच एक छोटा सा
तालाब था। उस तालाब में बहुत सारे कमल के फूल खिले हुए थे। पहली बार कमल के फूल
इतने नजदीक से देखने को मिल रहे थे। कमल के फूल तो हमारे जगतपुर में भी सैकडों
हजारों की संख्या में खिले रहते है लेकिन हमारे यहाँ वाले फूल पानी के इतने अन्दर
होते है कि उन तक पहुँचना सम्भव नहीं हो पाता है। कैमरे का पूरा जूम करके भी चकाचक
फोटो नहीं आ पाता है। कुछ देर खडे होकर कमल के फूल व उसके पत्तों को निहारता रहा।
मनु बोला जाट भाई, “चलो ना कहाँ खो गये?”
बस अडडे पहुँचकर देखा कि राजेश जी लम्बी टाँग
फैला कर आराम कर रहे है। हम भी उनके साथ लम्बी फैला कर आराम करने लगे। कई बस आयी
लेकिन डिगलीपुर की कोई बस नहीं थी। एक बस आयी लेकिन उसमें बैठने की एक भी सीट खाली
नहीं मिली। कुछ देर बाद स्थानीय सवारियों को ढोने वाली लोकल बस आयी उसमें सीट मिल
गयी। यह बस थोडा समय ज्यादा लगायेगी। मायाबन्दर में रोडवेज का डिपो भी है। रोडवेज
डिपो से थोडा आगे चलते ही डिगलीपुर का मार्ग सीधे हाथ चला जाता है। रंगतवाला मार्ग
उल्टे हाथ की ओर वाला था। मायाबन्दर आने के लिये मुख्य जीटी रोड मार्ग छोडकर एक
किमी से ज्यादा अलग रुट पर आना पडता है।
सडक के दोनों किनारों पर जबरदस्त हरियाली थी।
इस रुट पर हम घने जंगलों के बीच होकर जा रहे थे। लेकिन हमें एक बार भी कोई जंगली
जानवर नहीं दिखा। डिगलीपुर से मायाबन्दर 60 किमी दूरी पर है।
डिगलीपुर एक अच्छा शहर है। भीड-भाड तो यहाँ भी दिखायी न दी। डिगलीपुर में बस से
उतरने ही सामने एक दुकान दिखायी दी। यहाँ पर हमने कुछ सामान भी लिया था। इसके साथ
ही मनु भाई ने अपने पहचान की फोटो कापी भी करवायी थी। मैं और राजेश जी दिल्ली से
ही 10 फोटो स्टेट साथ लेकर आये
थे। हमारी मंजिल डिगलीपुर नहीं थी। हमें डिगलीपुर से भी 20-25 किमी आगे कालीपुर के
समुन्द्र तट के पास स्थित कछुवे वाला रिजोर्ट तक जाना था।
थोडी देर बाद हमारी लोकल बस आ गयी। यह लोकल बस
भी अधिकतर यात्रा समुन्द्र किनारे के करीब होकर ही करती है। थोडा आगे बढने पर देखा
कि यहाँ एक बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है डिगलीपुर जेट्टी। यहाँ से पोर्टब्लेयर
रंगत, आदि जगहों के लिये बडी बोट/ छोटे पानी के जहाज जाते है। डिगलीपुर से
पोर्टब्लेयर जाने वाले जहाज 10-11 घन्टे का समय ले लेते है। यहाँ से रात में
जहाज चलता है और अगली सुबह पोर्ट ब्लेयर पहुँचा देता है। वापसी में कोशिश करेंगे
कि बस की जगह पानी के जहाज से पोर्ट बलेयर तक जाया जाये। अभी तो अपने होटल की ओर
बढते है हमारी बस ने आधे घन्टे की यात्रा में हमें हमारे होटल टरटल रिजोर्ट (TURTLE RESORT) के सामने उतार दिया। अंडमान में चलने वाली
बसों की एक खासियत देखी। सभी बस समय की बडी पाबन्द होती है। शुरु से लेकर अंत तक
तय समय पर ही रहती है। छोटे रुट की बस हो या लम्बे रुट की, उससे कोई अन्तर नहीं
होता।
होटल में जाकर अपना सामान, एक कमरे में रख
दिया। हम अंडमान में जून के महीने में गये थे उस समय वहाँ आफ सीजन शुरु हो गया था।
जिस कारण होटल में मरम्मत कार्य किया जा रहा था। हमने जो होटल बुक किया था वो
पोर्ट-ब्लेयर से ही बुक होता है। इनके पास हमारी बुकिंग की कोई सूचना नहीं थी।
होटल कर्मचारियों को हमारा कमरा तय करने में 10-15 मिनट लग गये। हमने कहा
कि अभी अंधेरा होने से पहले हम समुन्द्र तट पर जा रहे है। तब तक तुम कमरा तय कर
लो। कुछ देर में उन्होंने ऊपर की ओर एक कमरा हमारे लिये खोल दिया। अपना सामान कमरे
में पटक, कालीपुर के तट की ओर निकल गये। होटल एक छोटी सी पहाडी पर बनाया गया है
जहाँ से आसपास का सुन्दर नजारा दिखायी देता है। होटल की ऊपरी मंजिल से दूर का
समुन्द्र भी दिखायी दे रहा था।
होटल से करीब आधा किमी जाने पर कालीपुर का
समुन्द्र तट आता है। होटल के सामने वाली सडक यहाँ से 5 किमी आगे जंगल आरम्भ
होने तक जाती है। वहाँ से अंडमान की सबसे ऊँची चोटी SADDLE PEAK, NATIONAL PARK तक पहुँचने के लिये ट्रैंकिंग करनी पडती है।
हम कल सुबह माऊंट हैरिएट की ट्रैकिंग करने जायेंगे। अभी तो कछुवे के प्रजनन के
लिये विश्व प्रसिद्ध कालीपुर तट को देख आते है। तट पर आकर यहाँ के रेत व पानी की
चमक को देख फोटोग्राफी में लग गये। सामने समुन्द्र में एक अन्य टापू नजदीक ही दिख
रहा था। उसका नाम रोमियो जैसा ही कुछ बताया गया था। इस कालीपुर बीच पर सैकडों की
संख्या में बडे वाले समुन्द्री कछुवे प्रजनन के लिये आते है। अंडमान में ऐसे कई
बीच है जो कछुवों के प्रजनन के लिये सुरक्षित है।
कालीपुर बीच पर हमारे अलावा सिर्फ़ दो स्थानीय
प्राणी ही थे। इस बीच पर समुन्द्र के अन्दर लगभग 300-400 मीटर तक पानी में पत्थर
चमक रहे थे। उन पत्थरों से अंदाजा हो गया था कि जहाँ तक ये पत्थर दिख रहे है वहाँ
तक समतल मैदान जैसी जगह है। पानी ज्यादा गहरा नहीं होगा। अभी पानी ज्वारभाटे के
प्रभाव से ज्यादा है इसलिये वहाँ तक पहुँचना मुश्किल है लेकिन जैसे ही पानी उतर
जायेगा तो वहाँ तक टहलते हुए आसानी से पहुँच जायेंगे। ऐसा ही कुछ हैवलोक के डालफिन
रिजार्ट बीच पर देखने को मिला था। जहाँ हम शाम को गये तो पानी लबालब भरा हुआ था
सुबह नहाने गये तो पानी ही नहीं था। यह माजरा देख ज्वारभाटा की याद आयी। यहाँ
समुन्द्र किनारे की रेत पर लहरों से आते-जाते पानी से एक चमक बन रही थी। इस जगह
हमने करीब घंटा भर से ज्यादा व्यतीत किया था।
कालीपुर बीच से वापस लौटते हुए एक पेड पर चढकर
फोटो खिचवाने का मन हुआ। पेड ज्यादा ऊँचा नहीं था इसलिये ज्यादा मेहनत भी नहीं
करनी पडी। ऐसे पेड के ऊपर बडे-बडे साँप भी चढे हुए मिलते है इसलिये चढते समय ध्यान
रखते हुए पेड पर पहुँचा। होटल वापिस लौट आये। हमारे होटल के ठीक सामने एक अन्य
होटल भी था। जो शायद किसी का निजी होटल या रिजार्ट था। हम जिस होटल में ठहरे हुए
थे वो सरकार का था। हमारे होटल की लोकेशन बडी जबरदस्त थी। होटल से आते हुए जाते
हुए उस लोकोशन को देखकर मन मचल उठता था।
हमारे होटल व उस निजी रिजोर्ट के अलावा आसपास
कोई आबादी नहीं थी। इसलिये रात का भोजन होटल में ही करना था। आसपास बाजार जैसा कुछ
होता तो वहाँ का स्थानीय भोजन अवश्य आजमाया जाता। रात को अपने होटल के भोजनालय
पहुँचे। हमने सब्जी रोटी बनाने के लिये बोला था। थोडी देर में हमारे लिये भोजन
बनकर आ गया। भोजन करने के उपरांत चलने की तैयारी ही थी कि होटल का एक कर्मचारी
अपने हाथ में एक कैकडा लेकर आ गया। इतना बडा जीवित
कैकडा मैंने पहली बार देखा था। इससे पहले केरल के कोवलम बीच पर छोटे-छोटे बहुत
सारे लाल रंग के कैकडे देखे थे। कैकडों के आगे वाले दो हाथ जैसे पंजे होते है
जिनसे वह किसी भी वस्तु को मजबूती से पकड लेते है। होटल कर्मचारी ने उसको पीछे की
तरफ से पकडा हुआ था। मैंने पूछा कि ये कैकडा कहाँ से लाये हो, उसने बताया कि यह
समुन्द्र किनारे दिखाई दिया था। इसका क्या करोगे?
इसको कल बनाकर खायेंगे। समुन्द्र किनारे रहने
वाले मानव कैकडे, मछली, आदि समुन्द्री जीवों को खाकर अपनी अधिकतर भूख मिटाते है।
मैदानों में रहने वाले अधिकतर लोग खेती बाडी से पैदा अनाज से अपनी भूख मिटाते है।
रेगिस्तान व बर्फीली जगहों के लोग भी ऊँट, भेड, बकरी के मांस पर ही अधिकांश निर्भर
रहते है। देखा जाये तो भोजन का स्थान से विशेष जुडाव है। जैसा देश, वैसा भेष तो
सुना होगा ही। जहाँ की जलवायु व वातावरण जैसी हालत बनाती है उससे मुकाबला करने के
लिये मानव भी वैसा ही जुगाड तलाश कर लेता है। रेगिस्तान में रहने वाले फल-फूल व
पेड-पौधों से वंचित रहते है इसलिये उनके भोजन से लेकर मरण तक पेड-पौधों की
आवश्यकता कम ही होती है। रेगिस्तान में हरियाली की इतनी भयंकर कमी है उसे पूरा
करने के लिये वे लोग अपनी पगडी भी हरी पहनते है। वहाँ के लोग पेड न होने से लकडी
की कमी के चलते मरने के बाद शव को जलाने के बजाय दफनाते है। जबकि भारत चीन जैसे
हरियाली वाले देशों में मानवों को मृत्यु उपरांत दबाने की जगह जलाने का प्रचलन है।
भोजन हो गया। अब सोते है कल सुबह अंडमान की सबसे ऊंची चोटी पर ट्रेकिंग करने
चलेंगे। (क्रमश:) (Continue)
3 टिप्पणियां:
बहुत ही बढ़िया यात्रा
बहुत ही बढ़िया यात्रा
केकड़े बॉम्बे में भी बहुत मिलते है
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