सोमवार, 27 अगस्त 2012

FIRST TREKKING IN MY LIFE-NEELKANTH MAHADEV TEMPLE, RISIKESH मेरे जीवन की पहली ट्रेकिंग-नीलकंठ महादेव मन्दिर, ऋषिकेश


उतर भारत में सावन का महीना भोले नाथ के नाम कर दिया जाता है, वैसे तो सम्पूर्ण भारत में ही सावन माह में भोले के भक्त चारों ओर छाये हुए रहते है, लेकिन इन सबका जोरदार तूफ़ान सावन के आखिर में चलता है। संसार में भोले के नाम से चलने वाली कांवर यात्रा विश्व की सबसे लम्बी मानव यात्रा मानी जाती है। किसी जगह मैंने पढा था कि दुनिया में कावंर यात्रा ही ऐसी एकमात्र यात्रा है जो एक बार में ही हजार किमी से भी ज्यादा लम्बाई ले लेती है। गंगौत्री या देवभूमि उतराखण्ड (हिमाचल भी देवभूमि कहलाती है) का प्रवेश दरवाजा हरिद्धार से दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश, पंजाब व अन्य राज्यों में शिव भक्त कावंर रुप में गंगाजल धारण कर, सावन माह में भोलेनाथ पर अर्पण करते है। एक बार मैंने भी यह सुअवसर पाया था। जब मैंने गौमुख से केदारनाथ ज्योतिर्लिंग तक (250 किमी दूरी) गंगा जल धारण कर पैदल यात्रा (ट्रेंकिग) की थी। वह यात्रा मेरी अब तक की सबसे लम्बी पद यात्रा रही है लेकिन मुझे लगता है कि मेरा यह अभिलेख (रिकार्ड) जल्द ही धवस्त होने जा रहा है क्योंकि मैं बहुत जल्द वृंदावन क्षेत्र की चौरासी कौस (256 किमी) की पद यात्रा पर जा सकता हूँ, इसके अलावा एक पैदल यात्रा का फ़ितूर भी मेरी जाट खोपडी मे घुसा हुआ है, मेरा एक D.E.O. साथी जो दो साल पहले तक मेरे साथ कार्य करता था। आजकल उसका स्थानांतरण दूसरे क्षेत्र में हो गया है। कुछ दिन पहले उसका फ़ोन आया था कि संदीप चलो बालाजी की पद-यात्रा करके आते है। अभी तक मेरे मन में दोनों यात्रा करने की है लेकिन समय अभाव के कारण कोई एक यात्रा निकट भविष्य में सम्भव हो पायेगी। देखते है जाट देवता को मिलने के लिये अबकी बार कौन से भगवान दर्शन के लिये खाली है?


बात चल रही थी कांवर यात्रा की, और मैं आपको लेकर पहुँच गया भविष्य की संभावित यात्रा के बारे में। 
बात सन 1994 के सावन महीने की है जब दिल्ली में कांवर मेला अपने पूरे उफ़ान पर होता है, हमारे घर के पास ही कांवरियों की मदद के लिये एक कांवर भण्डारा लगता था। वैसे तो वह भण्डारा हर साल लगा करता था, जिसमें मेरे पिताजी मुख्य संरक्षक थे। लेकिन मेरे पिताजी की आकस्मिक निधन के बाद सन 1997 से वह भन्डारा बन्द हो गया। मैं भी दो-तीन साल तक, उस भण्डारे में प्रतिदिन दो-तीन घन्टे की सेवा कर दिया करता था। उस भण्डारे का एक वार्षिक नियम था कि सावन का जल अर्पण करने वाले दिन, हरिद्धार व ऋषिकेश की यात्रा करने के लिये इच्छुक बन्दों से नाममात्र के किराये पर यात्रा करायी जाती थी। उस साल मैंने भी पापा से आज्ञा लेकर अपना नाम सूची में लिखवा दिया था। दिन में पूरी सब्जी व खीर का भन्डारा आम जनता के लिये किया जाता था, जिसमें भण्डारे में बची हुई शेष सामग्री समाप्त हो जाती थी। अगर कुछ कम पडता था तो उस सामान को मंगा लिया जाता था। दिन में भण्डारा कर रात में ठीक नौ बजे सबका भण्डारा स्थल मिलने की बात पक्की हो गयी थी। लगभग सभी तय समय पर वहाँ पहुँच गये थे। सूची अनुसार एक बन्दा जिसका नाम उसमें लिखा हुआ था, उसका कहीं अता-पता नहीं था। उस समय मोबाइल जैसी बला तो मौजूद नहीं थी ताकि उससे सम्पर्क किया जा सकता, क्या कर सकते थे? एक लड्का उसके घर भेजा गया, उसने लौट कर बताया कि उसका अपने बापू से किसी बात पर झगडा हो गया है वह अब नहीं आयेगा। यह पक्का हो जाने के बाद कि वह नहीं आयेगा, अपनी गाडी (टाटा 407) देवभूमि दर्शन कराने के लिये चल पडी थी। एक काहवत है ना कि सिर मुंडाते ही ओले पडे। वह कहावत उस यात्रा में कई बार सिद्ध हुई थी। जैसे जैसे यह यात्रा आगे बढेगी एक दो घटना सामने आयेंगी।

दिल्ली में घुसते ही सबसे पहले पुलिस वालों ने गाडी को रोक लिया, वहाँ से किसी तरह कई मिनट बरबाद कर आगे बढे तो जैसे ही फ़िर से उतरप्रदेश में प्रवेश किया तो पियक्कड किस्म के दो बन्दों के कारण शराब के सरकारी ठेके पर फ़िर से कई मिनट खराब हो गये। किसी तरह गाजियाबाद पार किया। टैम्पों में लोहे के फ़र्श पर उबड-खाबड सडक पर चलते हुए नींद आने का तो कोई सवाल ही नहीं था। मैं तो यही सोचता रह गया था कि ढंग से सलामत बैठा कैसे रहूँ, जब कोई खडडा सडक पर आ जाता था तो हम लगभग सभी उछल पडते थे। और सभी के मुँह से निकलता था। सभी ड्राईवर को कहते ओ दुश्मन जरा देख के चला ले इतनी तावल क्यों मचा रहा है? मारेगा क्या? बेचारा टैम्पो चालक भी क्या करे रात मे सडक के छोटे-छोटे गडडे दिखाई ही दे पाते है, और यदि दिखाई भी दे जाते है तो तब दिखते है जब गाडी उन पर चढ चुकी होती है। उन गडडों ने हमारे शरीर का अंग-अंग दुखा दिया था। मन कर रहा था कि किसी तरह इस टैम्पो से छुटकारा मिले तो बात बने।

रात में रुडकी आते-आते बारिश ने भी हमसे किसी जन्म का बदला लेना शुरु कर दिया था। टैम्पो में ऊपर छत के नाम पर तिरपाल तक नहीं थी। बारिश ने किसी को नहीं बक्सा, सभी को पानी में भिगो दिया था। चूकि गर्मी का मौसम था इस कारण ठण्ड तो ज्यादा नहीं लगी, लेकिन गर्मी भी सारी की सारी उतर गयी थी। हम लगभग सुबह के चार बजे ऋषिकेश से आगे मुनि की रेती नामक जगह पहुँच चुके थे। जब टैम्पो से नीचे उतरे तो देखा कि हम गंगा के किनारे आ पहुँचे थे। आसमान में देखा तो जबरदस्त बादल छाये हुए थे। किसी ने कहा कि चलो  पहले सीधे नीलकंठ चलते है क्योंकि बारिश का तो कोई भरोसा नहीं है कि कब दुबारा शुरु हो जायेगी? हम लगभग 18-20 बन्दे थे। सब के सब नीलकंठ महादेव मन्दिर जाने के लिये राम झूले की ओर चल पडे थे। जहाँ हमारा टैम्पो खडा हुआ था वहाँ से राम झूला काफ़ी नजदीक था जिस कारण हमें राम झूला पहुँचने मे ज्यादा समय नहीं लगा था। मैं इस यात्रा से पहले भी राम झूला एक बार देखा था आज दूसरी बार इस झूले से पार जाना हो रहा था। राम झूला पार करने के बाद गंगा जी के किनारे जाकर नीलकंठ महादेव मदिर में अर्पण करने के लिये गंगा जल लिया गया था। लगभग सभी ने छोटी-छोटी प्लास्टिक वाली आधी लीटर की कैन में अपने-अपने लिये गंगा जल ले लिया था। गंगा जल लेकर सब आगे बढ चले। झूला पार करने के कुछ दूरी बाद चॊटी वाला भोजनालय आता है जिसके सामने से बिना कुछ खाये पिये, हम सीधे पहाड की ओर चलते गये। थोडी दूर जाने पर हमें वह सडक दिखाई देती है जो लक्ष्मण झुले+नीलकंठ महादेव मन्दिर की ओर गाडी जाने के लिये बनी हुई है। मैंने एक बार बाइक, एक बार कार से इस मार्ग पर भी यात्रा की हुई है। जब मैं पत्नी के साथ यमुनौत्री, गंगौत्री व नचिकेता ताल गया था।


जैसे ही हमें सडक दिखाई दी थी, वैसे ही हम सीधे सडक पर चलने लगे थे। कुछ दूर जाने पर सडक नागिन की तरह बलखाती हुई आगे चली जाती है जबकि हम सडक छोड्छाड कर उल्टे हाथ पर बने पैदल मार्ग पर चलने लगते है। यहाँ तक आते-आते बारिश रुक जाती है। जहाँ से नीलकंठ महादेव मन्दिर जाने का पैदल मार्ग शुरु होता है वहाँ पर एक बोर्ड भी लगा हुआ था। शायद आज भी होगा। उस समय यह मार्ग लगभग कच्चा ही था। बाद में मैं यहाँ एक बार फ़िर से गया था तो तब इस मार्ग का पक्का करने का कार्य चल रहा था, पैदल मार्ग पर चलने के थोडी दूरी तक तो थोडा सा समतल रहता है उसके बाद पत्थरों से बनी हुई सीढियाँ आनी शुरु हो जाती है। जैसे-जैसे मार्ग आगे बढता जा रहा था वैसे-वैसे कठिन होता जा रहा था। यह यात्रा कुल मिलाकर आना-जाना पैदल दूरी लगभग 28 किमी की हो जाती है। गाडी से शायद एक तरफ़ से 26 किमी की हो जाती है।

हमारे समूह में में लगभग आधे लोग थोडे ढीले किस्म के प्राणी थे। बाकि आधे हमारी तरह ऊँत खोपडी शरारती किस्म वाले प्राणी थे। जो ढील-ढाले बन्दे थे वह आराम-आराम से आ रहे थे बल्कि यह कहे कि बैठ-बैठ कर आ रहे थे तो ज्यादा ठीक है। हमारी शरारती टोली में लगभग आठ-नौ लडके थे जो कि मार्ग को छोड कर ऊपर जाने का शार्टकट तलाश करते रहते थे। पहाड में होता यह है कि लोग उतरते समय शार्टकट ज्यादा तलाश करते है जबकि हम चढते समय तलाश कर रहे थे। चलते-चलते मार्ग में एक ऐसी जगह आयी थी जहाँ पर एक दुकान थी और पैदल मार्ग के ऊपर एक पेड गिरा हुआ था जिस कारण सभी को झुक कर पॆड के नीचे से निकलना पड रहा था। हमारे एक साथी ने बताया कि सामने जो मोड है वहाँ से नीलकंठ महादेव मन्दिर का आधा मार्ग रह जाता है। हम ऊपर चढते जा रहे थे और पीछे मुड-मुड कर मार्ग व घाटी की ओर भी देखते जा रहे थे। बीच-बीच में कई जगह ऐसी आई थी, जहाँ से गंगा नदी का शानदार नजारा दिखाई दे रहा था। मार्ग घने जंगल से होकर गुजर रहा था जिस कारण मन में थोडा सा डर सा बना हुआ था। हम में से किसी ने बोला कि यहाँ जंगली जानवर भी मिल जाते है जंगली जानवर का नाम सुनकर मन में थोडी सी खुशी व बैचैनी बन गयी थी।

चलते-चलते एक ऐसी जगह आती है, जहाँ आकर पैदल मार्ग पर कई दुकाने एक साथ दिखाई देने लगती है। उनमें से किसी एक दुकान पर सबने थोडी देर रुककर नीम्बू-पानी, चाय-पानी जिसको जो पसंद था उसका स्वाद लिया गया था। वहाँ लगभग आधा घन्टा रुकने के बाद हमारा कारवाँ फ़िर से मंजिल की ओर बढ चला था। उन दुकानों से लगभग एक किमी आगे तक मार्ग लगभग समतल सा ही था, नहीं तो अब तक चढाई ने सबका बुरा हाल किया हुआ था। समतल मार्ग समाप्त होने के बाद, एक बार फ़िर से थोडी देर चढाई वाला मार्ग आया था। उसे पार करने के बाद जब हमने सामने देखा तो अपनी खुशी का ठिकाना ना रहा। कारण सामने कई किमी तक हमें ढलान ही ढलान दिखाई दे रही थी। एक साथी ने बताया कि अब यहाँ से मन्दिर तक ढलान ही ढलान है। अत: इतनी लम्बी ढ्लान देखकर अपनी सारी थकावट छूमन्तर हो गयी थी। यहाँ से मन्दिर वाली घाटी का शानदार नजारा दिखाई दे रहा था। मैं कई मिनट तक खडे होकर इसे देखता रहा।


जब सब लोग साथ आ गये तो वहाँ से नीचे की ओर दौड पडे, यहाँ चल पडे शब्द ठीक नहीं रहेगा क्योंकि यहाँ से आगे दो किमी का सफ़र हमने मात्र बीस मिनट में नाप डाला था। जब हम मन्दिर के नजदीक पहुँचे तो देखा कि फ़िर से थोडी सी चढाई आ गयी है। यह तीन चार मिनट की चढाई पार करने के बाद हम मन्दिर के आँगन में जा पहुँचे थे। सबसे पहले स्नान करने की तैयारी होने लगी। मन्दिर के ठीक पीछे दीवार के नीचे एक साफ़ पानी का झरना बहता रहता है। हममें से ज्यादातर बन्दों ने वहाँ स्नान किया था। स्नान करने के बाद मन्दिर में दर्शन करने वाली लाईन में लगने के लिये चल दिये। सबने अपने-अपने जूते चप्पल एक ओर निकाल कर, मन्दिर में गंगा जल अर्पण करने के लिये लाईन में लग गये।



लाईन में लगे-लगे हमने मन्दिर की नक्काशी देखी थी, बिल्कुल दक्षिण भारतीय तरीके से बना हुआ मन्दिर लगता है। मैंने अपनी दक्षिण भारत की यात्रा में कुछ ऐसी की कारीगरी देखी थी। लाईन बेहद लम्बी थी, हमारा नम्बर आने में आधा घन्टा लग गया था। जब लाइन में लगे हुए थे तो देखा था कि किस तरह से लोगों की संख्या को नियंत्रित करने के लिये लोहे के पाईप व बाँस की लाईन बनाकर गली जैसा रुप दिया गया था। मन्दिर के एकदम सामने तो बेहद ही पतली गली मात्र दो फ़ुट चौडी लोहे की जाली वाली गली बनायी हुई है, जहाँ से होकर मन्दिर में प्रवेश कराया जाता है। जब हमारा नम्बर आता है सब के सब एक साथ जयकारा लगाते है। जय शंकर की हर-हर महादेव हर-हर गंगे। एक साथ इतने सारे लोग जयकारा लगाते है तो तब समां ही कुछ और होता है। भीड-भाड के मौके पर उन लोगों को निराशा हाथ लगती है जो लोग काफ़ी देर रुककर वहाँ जल अभिषेक करने की इच्छा रखते हो। उन लोगों को इस प्रकार के भीड वाले मौके से परहेज करना ही बेहतर रहेगा। ऐसी भीडभाड में एक बन्दे को मुश्किल से दस सैकन्ड का समय मिल पाता है। क्या करे संचालक भी, भारी भीड भी तो नियंत्रित करनी होती है किसी दो-चार के लिये भीड को भडकाया नहीं दिया जा सकता है। हमने गंगा जल से भोले नाथ को स्नान कराके और फ़िर से मिलने की बोल, राम राम कर मन्दिर से बाहर का मार्ग पकड लिया।

मन्दिर से वापसी में चलते ही जबरदस्त बारिश शुरु हो गयी। वैसे हम सबने बारिश से बचने के लिये पहाड के मशहूर पन्नी वाले बुर्के लिये हुए थे। सबने अपने-अपने बुर्के पहन लिये। इसके बाद छॊटे हो या बडे, सभी दे दना-दना नीचे की ओर उतर रहे थे। जिस मार्ग पर चढते समय हमने साढे तीन घन्टे लिये थे वापसी में हमें मात्र दो सवा दो घन्टे ही लगे थे। जब सब टैम्पो के पास आ गये तो घर वापसी की तैयारी होने लगी। वापसी में हरिद्धार होते हुए ही जाना था। जिस कारण गंगा में हर की पैडी में भी स्नान कर वापसी की बात हुई। लेकिन जब तक हम हरिद्धार पहुँचते तब तक एक बार फ़िर जोरदार बारिश ने हमारा स्वागत किया जिस कारण सभी चुपचाप गाडी की तिरपाल मे दुबके हुए पडे रहे। सुबह होने से पहले सब दिल्ली आ चुके थे। इस प्रकार दो रात व एक दिन में हमने नीलकंठ महादेव मन्दिर की रोमांचक पद यात्रा जिसे अंग्रेजी में ट्रेकिंग (TREKKING) कहते है सफ़लतापूर्वक की थी। यह मेरी पहली ट्रेकिंग थी। जिसमॆं मैंने लगभग 30 किमी की दूरी मात्र 6 घन्टे के समय में की थी। वैसे तो मैंने सहस्रधारा में भी ऐसा ही कुछ किया था लेकिन वह मात्र 8-10 किमी की मस्ती भरी घुमक्कडी थी। यह यात्रा यही समाप्त होती है अब आपको अपनी पहली गौमुख ट्रेकिंग के बारे में बताऊँगा, जिसमें मैं बहुत तंग हुआ था। जो सन 1999 की, सितम्बर माह की बात है। तब तक सबको राम राम......................




3 टिप्‍पणियां:

virendra sharma ने कहा…

संदीप भाई अभिलेख की क्या बात है आप अपना ही रिकार्ड तोड़ नित नए कीर्तिमान बनायेंगे ...कृपया यहाँ भी पधारें -
सोमवार, 27 अगस्त २०१२/
ram ram bhai
अतिशय रीढ़ वक्रता (Scoliosis) का भी समाधान है काइरोप्रेक्टिक चिकित्सा प्रणाली में
http://veerubhai1947.blogspot.com/

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

चलो, कुछ तो कामन निकला :) नीलकंठ महादेव की हमने भी पैदल यात्रा की थी, सावन का पहला सोमवार था और तीन में से एक साथी जीप से जान की बात कह रहा था लेकिन गए हम पैदल ही| जीप-कार तो बुढापे में देखेंगे| हमने यात्रा रात में की थी इसलिए प्राकृतिक दृश्य तो ज्यादा नहीं देख पाए लेकिन सारी रात पहाड़ों में चलने का वो मंजर भी सारी उम्र भूलने वाला नहीं| दोबारा कभी जाओ तो नीलकंठ के ऊपर देवी का मंदिर है और उस से भी आगे झिलमिल गुफा है, वहां भी होकर आना| नीलकंठ जाने वाले सौ में से मुश्किल से पांच लोग वहां तक जाते हैं, लेकिन रास्ता बहुत शानदार है| हम गए थे और वहां से लौटते समय एक शार्टकट रास्ता है गंगा बैराज होते हुए, सारी ढलान लेकिन मजा आ जाता है|

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पहाड़ों की ट्रेकिंग में ५ किमीप्रघं की गति तो बहुत ही अच्छी है।

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