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उस समय मेरे मामाजी लक्खी बाग के पास भण्डारी बाग में निवास किया करते थे। लेकिन जैसे-जैसे देहरादून का विस्तार होता रहा, वैसे-वैसे वहाँ के काफ़ी निवासियों ने पुराने इलाके छोड कर नये-नये इलाकों में बसना शुरु कर दिया। उनमें से एक मेरे मामा भी है जो आजकल टर्नर रोड पर निवास करते है। यह टर्नर रोड आजकल बने नये वाले I.S..B..T. से थोडा सा पहले सीधा हाथ पर आता है। बीस साल पहले देहरादून-सहारनपुर मार्ग मुश्किल से बीस फ़ुट चौडाई का मार्ग रहा होगा। आज यह मार्ग चार लेन वाला बना दिया गया है। मैं आपको बता रहा था कि लक्खी बाग सडक के उल्टे हाथ की ओर आता है, जबकि भण्डारी बाग सडक के सीधे हाथ की ओर आता है। मैंने बस कण्डक्टर को पहले ही बोल दिया था कि मुझे माता वाले बाग के तिराहे पर उतार देना। मामाजी ने बताया था कि माता वाले बाग का तिराहा वह बिन्दु है जहाँ से लक्खी बाग व भण्डारी बाग के लिये उतरना होता है। मेरे अलावा कोई सवारी वहाँ उतरने वाली नहीं थी। बस कण्ड्क्टर को मेरी बात ध्यान ही नहीं रही। मैंने एक सवारी से पूछा कि यह माता वाला बाग कितनी दूर है तो उस सवारी ने कहा कि वो तो आधा किमी पीछे छूट गया है। अब तो सहारनपुर चौक आने वाला है। नाम सुनकर मैं चौंक गया कि सहारनपुर चौक वो भी देहरादून में? कुछ ऐसा ही मामला सहारनपुर में भी था वहाँ देहरादून चौक नाम का तिराहा था यहाँ सहारनपुर नाम का है। अन्य सवारियों के साथ मैं भी सहारनपुर चौक पर ही बस से उतर गया था। बाद में मुझे पता चला कि बस अडडा, अभी स्टेशन के आगे से होते हुए दो किमी आगे है। मैं बस से उतर कर वापिस उसी मातावाले बाग तिराहे पर पैदल चलता हुआ आ गया। वहाँ मैंने भण्डारी बाग जाने वाला मार्ग पता किया। भण्डारी बोग में काली माता का एक छोटा सा मन्दिर है लेकिन वह वहाँ के लोगों में बहुत जाना-पहचाना नाम है। मन्दिर के पास जाकर मैंने मामाजी के घर के बारे में पता किया जो मुझे आसानी से मिल गया। समय कोई दो बजे थे।
देहरादून का माजरा बीस साल पहले जरुर गाँव था लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज यह गाँव भी पूरी तरह शहरीकरण के रंग में रंग चुका है। मैंने आपको बताया था कि माजरा गाँव से पहले एक लोहे का पुल आया था। आज से बीस साल पहले की बात बता रहा हूँ कही आप आज 2012 में वहाँ जाकर तलाशने लगो कि लोहे का पुल तो हमने पार ही नहीं किया। वैसे आज भले ही वह तत्कालीन लोहे का पुल पार नहीं करना होता है लेकिन वह पुल आज भी अपनी जगह पर ही मौजूद है। उस लोहे के पुल की बायी तरफ़ देहरादून जाते समय, सीमेंट वाला बडा व नया पुल कई साल पहले बना दिया गया था। लोहे वाला पुल भले ही एक गाडी के आवागमन के लिये रहा होगा, क्योंकि वह पुल अंग्रेजों का बनवाया हुआ था। उस पुल की एक खासियत यह थी कि उसमें एक भी नट-वोल्ट व वेल्डिंग का प्रयोग नहीं हुआ था। जिन लोगों ने दिल्ली का यमुना नदी पर बना लोहे का पुराना पुल देखा होगा उन्हे याद आ गया होगा कि कैसा पुल रहा होगा। पुल पार करने के लिये यहाँ भी वाहन चालकों को सामने से आने वाली गाडी का ध्यान रखना होता है। यहाँ वैसी परेशानी नहीं आयी जैसी डाट वाली गुफ़ा पार करने वाले पुल पर आती है। डाट वाली गुफ़ा के पास वाला जो मन्दिर है उसके बारे में एक बात एक ब्लॉगर महिला मित्र ने मेरे ब्लॉग पर बतायी है कि देहरादून व आसपास जब भी कोई नया वाहन खरीदता है तो वह इस मन्दिर में जरुर प्रसाद चढाता है। मेरे मामाजी के पास कई ट्रक है और एक बार नया ट्रक लेने के अवसर पर मैं भी वही देहरादून में मौजूद था। मामाजी भी अपने नये ट्रक को लेकर यहाँ इसी मन्दिर पर आये थे। उसके बाद ही उन्होंने ट्रक को अपने कार्य में लगाया गया था।
उस समय मेरे मामाजी लक्खी बाग के पास भण्डारी बाग में निवास किया करते थे। लेकिन जैसे-जैसे देहरादून का विस्तार होता रहा, वैसे-वैसे वहाँ के काफ़ी निवासियों ने पुराने इलाके छोड कर नये-नये इलाकों में बसना शुरु कर दिया। उनमें से एक मेरे मामा भी है जो आजकल टर्नर रोड पर निवास करते है। यह टर्नर रोड आजकल बने नये वाले I.S..B..T. से थोडा सा पहले सीधा हाथ पर आता है। बीस साल पहले देहरादून-सहारनपुर मार्ग मुश्किल से बीस फ़ुट चौडाई का मार्ग रहा होगा। आज यह मार्ग चार लेन वाला बना दिया गया है। मैं आपको बता रहा था कि लक्खी बाग सडक के उल्टे हाथ की ओर आता है, जबकि भण्डारी बाग सडक के सीधे हाथ की ओर आता है। मैंने बस कण्डक्टर को पहले ही बोल दिया था कि मुझे माता वाले बाग के तिराहे पर उतार देना। मामाजी ने बताया था कि माता वाले बाग का तिराहा वह बिन्दु है जहाँ से लक्खी बाग व भण्डारी बाग के लिये उतरना होता है। मेरे अलावा कोई सवारी वहाँ उतरने वाली नहीं थी। बस कण्ड्क्टर को मेरी बात ध्यान ही नहीं रही। मैंने एक सवारी से पूछा कि यह माता वाला बाग कितनी दूर है तो उस सवारी ने कहा कि वो तो आधा किमी पीछे छूट गया है। अब तो सहारनपुर चौक आने वाला है। नाम सुनकर मैं चौंक गया कि सहारनपुर चौक वो भी देहरादून में? कुछ ऐसा ही मामला सहारनपुर में भी था वहाँ देहरादून चौक नाम का तिराहा था यहाँ सहारनपुर नाम का है। अन्य सवारियों के साथ मैं भी सहारनपुर चौक पर ही बस से उतर गया था। बाद में मुझे पता चला कि बस अडडा, अभी स्टेशन के आगे से होते हुए दो किमी आगे है। मैं बस से उतर कर वापिस उसी मातावाले बाग तिराहे पर पैदल चलता हुआ आ गया। वहाँ मैंने भण्डारी बाग जाने वाला मार्ग पता किया। भण्डारी बोग में काली माता का एक छोटा सा मन्दिर है लेकिन वह वहाँ के लोगों में बहुत जाना-पहचाना नाम है। मन्दिर के पास जाकर मैंने मामाजी के घर के बारे में पता किया जो मुझे आसानी से मिल गया। समय कोई दो बजे थे।
मैं पहली बार देहरादून आया वो भी अकेला, बिना किसी के साथ, मामाजी व मामाजी का परिवार मुझे देख बहुत खुश हुए थे। उस दिन मैंने सिर्फ़ आराम किया, जमकर टीवी देखा। मामाजी के यहाँ रंगीन टीवी था जबकि हमारे यहाँ श्याम-श्वेत टीवी था। रंगीन टीवी देखने में बडा अच्छा लग रहा था। अगले दिन मामाजी अपना एकमात्र ट्रक (उस समय एक ही था आज 5-6 है) लेकर मसूरी के नीचे वाली पहाडी के पास स्थित खदान से पत्थर भर कर लाने वाले थे। मैनें ट्रक के हैल्पर से पूछा कि वापसी कब तक होगी तो उसने बताया कि दोपहर तक हो जायेगी। मैंने मामाजी से साथ चलने की गुजारिश की जो उन्होंने आसानी से मान ली। एक बार तो बोले थे कि क्या करेगा? परेशान हो जायेगा। मैं ट्रक में सवार हो गया आधा घन्टे बाद ट्रक पत्थर की खान में जा पहुँचा, मामाजी ने कहा कि हमें यहाँ दो घन्टे लगेंगे तब तक तुम जहाँ टहलना चाहते हो टहल सकते हो। मैं सबसे पहले सामने दिखायी दे रहे एक छोटे से पहाड पर चढने लगा। थोडी देर की मेहनत के बाद इस पहाडी को फ़तह कर लिया गया। यह मेरी पहली पर्वत विजय थी। जो मुश्किल से 300-400 मी की ही रही होगी, लेकिन मेरे दिल के सोये हुए अरमान जगाने में उसका काफ़ी योगदान रहा। वापसी में उतरते हुए ढलान पर मैंने तेजी से उतरने की कोशिश की जिस कारण मार्ग में आये छोटे-छोटे गोल-गोल पत्थरों पर एक मोड पर मैं अपने-आप को रोक नहीं पाया और सीधा एक झाडी में जा घुसा। किसी तरह मैंने अपने आप को उस झाडी के चंगुल से आजाद कराया था। वह झाडी मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि मेरी दोनों टांगे उस में फ़ंसी पडी थी, यह मैंने बाद में देखा कि उस झाडी के दूसरी ओर खाई थी। लेकिन मुझे खाई से डर नहीं लगा, लगया कैसे जब मुझे दिखाई ही नहीं दी तो? मेरे कपडों का हुलिया देखकर मामाजी समझ गये कि यह जरुर फ़िसल गया होगा। वे सिर्फ़ मुस्कुरा कर रह गये। मैं भी ट्रक से सबके साथ घर पर आ गया।
शाम के समय मैंने देहरादून के रेलवे स्टेशन पर अकेले ही घूम आने का दिन में सोच लिया था। जैसे ही धूप का जोर थोडा सा कम हुआ, कोई 4-5 बजे के आसपास का समय तो हो ही गया था। दिन में मैंने इतना तो पता लगा ही लिया था कि घर से स्टेशन तक कैसे जाना है? मैं मामा जी के घर से स्टेशन जाने के लिये निकल पडा। रेलवे स्टॆशन मुश्किल से 700-800 मी की दूरी पर ही था। मामाजी के घर के पीछे उस समय 4-5 फ़ुट चौडाई का साफ़ पानी वाला एक नाला बहा करता था। मैंने मामाजी के लडके से पूछा कि यह साफ़ पानी कहाँ से आता है? उसने बताया था कि यह पानी पहाडों से आता है। बाद में मैंने उस साफ़ पानी वाले नाले के साथ काफ़ी दूर जाने के बाद पाया था कि उस नाले से कुछ दूर जाने पर मिले खेतों की सिंचाई की जा रही थी। वैसे आज बीस साल बाद वह नाला तो अपनी जगह ही है लेकिन आज उसके पानी से सिंचाई करने के लिये खेत-खलियान ही नहीं बचे है। बीस साल पहले जितने भी खेत वहाँ दूर-दूर तक दिखाई देते थे, आज वहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ मकानों का समूह दिखाई देता है। अब बात करूँ उस नाले की जहाँ उस समय उसमें इतना साफ़ पानी आता था कि उसमें नहाने को मन करता था, एक आज का दिन है कि उसके किनारे से भी दूर रहना पडता है। कारण आज वह नाला एक शहरी नाला बन चुका है जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ लोगों के घरों का गंदा पानी बहता है। नाले की रफ़तार भी वही है जगह भी वही है। लेकिन पानी की हैसियत बदल गयी है।
जैसे ही यह नाला पार करते है तो सीधे चलते रहने पर “गुरु राम राय स्कूल” आया था। यह स्कूल आज भी उसी स्थान पर है। इस नाम के बहुत सारे स्कूल इस क्षेत्र में खुले हुए है जो इस घाटी में शिक्षा का बहुत विशाल नेटवर्क लिये हुए है। गुरु राम राय का दरबार भी देहरादून में मौजूद है। जहाँ होली के अवसर पर 15/30 दिन का एक विशाल मेला चलता है। इस मेले में गुरु के दरबार में एक विशाल झंडा लगा होता है, जब मैं पहली बार मामीजी व उनकी दो छोटी-छोटी लडकियों के साथ मेला घूमने गया था तो उस मेले एक मजेदार घटना व यादगार घटना हमारे साथ घटी थी। बात कुछ ऐसी थी कि मेले में जाने के बाद, मामाजी की दोनों लडकियाँ एक झूले में झूलने की जिद करने लगी। मुझे झूले का नाम तो याद नहीं है कि उसे क्या कहते है? आपको उस झूले के बारे में थोडा सा बता देता हूँ ताकि आपके समझ में आ जाये कि कैसा झूला था? यह झूला एक विशाल पहिया के आकार जैसा होता है इसमें पहिये की तरह घूमते हुए, बिल्कुल उसी तरह जैसे किसी साईकिल को उल्टी खडी कर दो तो अगला पहिया जैसा दिखाई देता है बिल्कुल वैसा ही यह झूला लगता है। यह झूला उस समय डीजल इन्जन के सहयोग से चलाया जा रहा था। मैं पहले भी एक बार कुछ ऐसे ही छोटे झूले में बैठ चुका था। लेकिन वो झूला छॊटा व उसको चलाने के लिये झूले वाले खुद उसके बीच में घुसे हुए थे। लेकिन यहाँ इस डीजल से चलने वाले विशाल झूले की बात जो रही है। मामीजी ने केवल तीन के ही पैसे झूले वाले को दिये। मैंने कहा मामीजी तीन के ही क्यों? तो मामीजी ने बताया कि मैं इस झूले में नहीं झूलूँगी, क्योंकि इसमें झूलने के बाद मेरी हालत खराब हो जाती है, मैं पहले दो बार झूल कर देख चुकी हूँ। खैर हम तीनों संदीप, व मामाजी की दोनों लडकियाँ जिनकी उस समय उम्र क्रमश: 8 व 10 साल रही होगी, हम तीनों झूले में बैठ गये। थोडी देर में कुछ और लोग झूले में बैठ गये जिसके बाद झूले वाले ने झूले को चलाना शुरु कर दिया। पहले-पहले तो झूला आराम-आराम से चलता रहा, तब तक तो कुछ नहीं हुआ। लेकिन जैसे-जैसे झूले ने अपनी रफ़्तार पकडनी शुरु की, तो हमारी हालत खराब होने लगी। कारण झूला जब घूमता हुआ ऊपर जाता था तो बडा अच्छा लगता था, लेकिन इसके उल्ट, जब झूला नीचे की ओर जाता तो अपनी जान निकलने को हो जाती थी। मामाजी की एक लडकी ने चिल्लाना शुरु कर दिया था कि रोको-रोको मुझे नीचे जाना है। मुझे नहीं झूलना है। मैंने झूले के अन्य सवार को देखा, तो पाया कि वहाँ तो कई और भी चिल्लाने में लगे थे। इस तरह के झूले में सबसे बडी समस्या नीचे की ओर आने में ही होती है जब हमारा शरीर तेजी से जमीन की ओर आता है तो लगता है कि पेट में हवा तेजी से घुस रही हो। मैं खुद अपना पेट पकड कर बैठा था। दोनों लडकियों ने अपनी-अपनी आँखे ही बन्द कर ली थी। मुझे अपना पेट छोड उन्हें पकडना पडा कि कही डर के मारे उनमें से कोई गिर ना जाये। वैसे जिस जगह हम बैठे हुए थे वहाँ हमारी सीट के सामने भी एक सरिया लगा था, जिससे किसी भी हालत में सामने की ओर गिरने का खतरा नहीं था। पीठ पीछे सीट थी। लेकिन कुछ कहावत बनी हुई है ना जैसे कि जब समय खराब हो ऊँट पर बैठे इन्सान को जमीन पर चलता कुत्ता काट लेता है। अत: खतरा भाँप कर पहले ही सावधान होने में भलाई है। जब चिडियाँ खेत चुग जाये, तब पश्चाताप करने से कुछ नहीं होता। किसी तरह हमने झूले के 25 चक्कर पूरे किये। मैंने झूले वाले का शुक्रिया कहा कि भाई तेरा ऐहसान कि तूने झूला रोक दिया नहीं तो आज हमारे पेट का क्या हाल होता हम खुद नहीं जान पाते?
मैं भी गजब करता हूँ कि आपको यहाँ के स्टेशन पर लेकर जा रहा था बीच में गुरु जी के मेले भी घूमा लाया। जब जहाँ जो पुरानी बात याद आ जाये तो उसे लिख देना ही ठीक है। क्या भरोसा बाद में याद आये या ना आये। कोई लिख कर थोडी ही रखी हुई है दिमाग का क्या भरोसा कब कौन सी बात याद आ जाये। कोई आधा किमी जाने के बाद रेलवे लाईन दिखाई देने लगती है। पहले मैं रेलवे लाईन पर पहुँचा उसके बाद दोनों तरफ़ देखा कि यहाँ का “लौह पथ गामिनी विश्राम स्थल” किधर है? चूंकि वहाँ रेलवे मार्ग में काफ़ी चढाई थी, जिससे मुझे यह अंदाजा नहीं हो पा रहा था कि आखिर स्टेशन कहाँ है? तो मैंने एक लडके से पूछा, उसने ऊपर की और इशारा किया। मैं उसकी बतायी दिशा में चल पडा। थोडी ही देर में मैं देहरादून रेलवे स्टेशन पर पहुँच चुका था। थोडी देर तक तो मैं प्लेटफ़ार्म पर ही टहलता रहा। उसके बाद मैंने स्टेशन के बाहर निकल, इसकी अंग्रेजों के समयकाल की बनायी हुई ईमारत को निहारने में लगा रहा। मेरी याद में यह पहला बडा स्टेशन था। अभी तक मैंने फ़िल्मों व टीवी में ही बडे-बडे स्टेशन देखे थे। यही स्टेशन के नजदीक एक किनारे से ही मसूरी जाने वाली बसे भी मिला करती थी। लेकिन आज यह बसे पुराने वाले ISBT से मिलती है। बाहर से देखने के बाद मैं फ़िर से स्टेशन के अन्दर आ गया। उस समय प्लेटफ़ार्म पर जाने का टिकट पता नहीं मिलता था कि नहीं। लेकिन मैं कई बार इस स्टेशन पर गया मैंने कभी कोई प्लेटफ़ार्म टिकट नहीं लिया था। ना ही मुझे कभी किसी ने रोका-टोका था। अंधेरा होने से पहले मैं घर की ओर चल पडा। घर पहुँचते ही मामाजी ने कहा कहाँ गये थे? मैंने उन्हे पूरा हाल सुना दिया। मेरी बात सुनकर मामाजी ने कहा कि कल तुम और नवीन(बबलू) (मामाजी के लडके का नाम है-) सहस्रधारा घूम कर आना। मामाजी की बात सुन मुझे बडी खुशी हुई कि अब आयेगा देहरादून आने का असली मजा। रात को खाना खाकर सो गये। लेकिन सपनों में सहस्रधारा का ही अंदाजा लगा रहा था कि कैसी होगी यह जगह?
अगले दिन सुबह 7-8 बजे के आसपास, हम दोनों संदीप व बबलू बिना नहाये धोये तैयार होकर सहस्रधारा की ओर चल दिये। सबसे पहले तो हम पैअदल ही स्टेशन के पास गये जहाँ से हमने देहरादून के लोकल अडडे जाने के लिये एक लोकल बस में बैठ गये। जिसने हमें हरिद्धार चौक से बस अडडे के सामने से ले जाते हुए, (बस अडडा उस समय यह मुख्य बस अडडा रहा था, आजकल इसे मसूरी अडडा कहते है) घन्टाघर के पास लोकल बस अडडे पर छोड दिया। अब कई साल से इस लोकल अडडे पर जाना नहीं हुआ है अत: यह मुझे मालूम नहीं है कि यह अभी भी वही है कि यह भी कही और शिफ़्ट कर दिया गया है? लोकल बस अडडे में घुसते ही सहस्रधारा वाली बस दिखाई दे गयी जो बाहर आ रही थी। हम तुरन्त उस बस में घुस गये। बस लगभग खाली ही थी, मुझे सबसे आगे की सीट तो नहीं, फ़िर भी खिडकी की सीट मिल गयी। बबलू ने पहले ही कहा था कि अगर पहाडों के मस्त नजारे देखने है तो सीधे हाथ वाली सीट ही लेना। मैंने सीधे हाथ वाली सीट ही ली थी। बस जैसे-जैसे सहस्रधारा की ओर बढ रही थी, मेरे दिल की धुक-धुक बढती जा रही थी। कि कैसा होगा सहस्रधारा? जब बस को चलते हुए काफ़ी देर हो गयी तो मैं तो खिडकी से बाहर ही देख रहा था मुझे अचानक एक विशाल खाई दिखाई देने लगी। जैसे-जैसे हमारी बस इस खाई में उतर रही थी। वैसे वैसे मेरी बैचैनी भी बढती ही जा रही थी। यहाँ इस खाई को उतरने में बस ने कोई तीन किमी की जबरदस्त ढलान उतरी थी। मैं इस ढलान वाली दूरी एक बार पैदल भी पार की थी, एक बार तो मैं अपनी माताजी सहित सन 1999 में अपनी मारुति वैन लेकर दिल्ली से ही यहाँ तक गया था। अपनी गाडी होने का यही तो फ़ायदा है कि जब जैसे मन करा वही रोक लो जितनी देर मन करे देखो और आगे बढ चलो। ढलान उतरने के बाद हमारी बस सहस्रधारा के बस स्टेन्ड पर जा पहुँची, जहाँ सभी सवारी बस से उतर गयी। बस कुछ पहले ही छोड देती है अगर अपना वाहन है तो आप कुछ आगे तक भी जा सकते हो, और बाइक पर हो तो काफ़ी आगे तक जा सकते हो। अब हमारे पास यहाँ धमालचौकडी करने के लिये लगभग पूरा दिन पडा था। यहाँ मैंने क्या-क्या गजब ढहाया वो बताऊँगा अगले लेख में.......... यहाँ से पढ़े
7 टिप्पणियां:
भगवान ऐसे मामाजी सबको दें।ं
सुन्दर घुमक्कड़ी ||
कमसे कम दस बार आप जरुर गए हैं |
आभार -
आपकी धमाचौकड़ियों और फ़ोटोज़ का इंतज़ार रहेगा...
अरे वाह: क्या बात है..संदीप..
पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम और आप सब की ओर से अमर शहीद खुदीराम बोस जी को शत शत नमन करते हुये आज की ब्लॉग बुलेटिन लगाई है जिस मे शामिल है आपकी यह पोस्ट भी ... और धोती पहनने लगे नौजवान - ब्लॉग बुलेटिन , पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
जहां से घुमक्कडी की नीव पडी, उसके बारे में जानना मजेदार लगा|
रोचक कथा, जितनी बार भी देहरादून गया, हर बार बढ़ा और घना मिला।
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