यह यात्रा शुरु से यहाँ से देखे इस यात्रा का इस लेख से पहला भाग यहाँ से देखे।
चौथे या पाँचवे दिन की बात है, शाम को यह तय हुआ था कि संदीप व बबलू को हरिद्धार या ऋषिकेश में से किसी एक जगह घूम-घाम कर शाम तक देहरादून वापिस घर आ जाना है। इसी कारण अगली सुबह मैं फ़टाफ़ट नहा-धोकर तैयार हो गया था। लेकिन अचानक मामाजी का फ़ोन आया कि ट्रक का एक पहिया पेन्चर हो गया है, स्टपनी वाला टायर जो रिजर्व में रहता है वह भी एक दिन पहले ट्रक में कुछ काम कराने के लिये मिस्त्री के यहाँ रखवाया हुआ था। अत: बबलू को स्कूटर लेकर मामाजी के पास जाना पडा उस समय तक मुझे काम चलाऊ स्कूटर चलाना आता था। स्कूटर घर से कोई दस किमी या उसके आसपास स्थित प्रेमनगर की दिशा में लेकर जाना था। बबलू ने कहा अब तो आज कही बाहर जाना नहीं हो पायेगा, तुम घर पर ही आराम करो। इस बीच मामीजी ने आवाज लगायी कि संदीप खाना तैयार है खा लो। सुबह के आठ बज चुके थे। बबलू बिना खाना खाये (शायद उसने खाया था, ठीक से याद नहीं) स्कूटर लेकर चला गया। बबलू के जाने से पहले मैंने उससे कहा कि क्या मैं तुम्हारी साईकिल लेकर कहीं घूम आऊँ? उसने कहा “ठीक है, तुम आज भी मेरी साईकिल लेकर जा सकते हो, क्योंकि आज मुझे साईकिल से कुछ भी काम नहीं है।
बबलू स्कूटर लेकर प्रेमनगर क्षेत्र की ओर चला गया था। खाना खाने के बाद मैंने साईकिल ऊठायी और घर से बाहर चला आया। घर से बाहर आकर सबसे पहले मैंने यही सोचा कि चलो मसूरी घूम कर आता हूँ लेकिन मामाजी के घर की छत से मसूरी एकदम साफ़ दिखायी देती थी। मसूरी से याद आया कि हर शाम मैं मामाजी के घर की छत पर काफ़ी देर तक टहलता रहता था। मामाजी के घर के ठीक पीछे एक लीची का बडा सा बाग था। जिसमें उस समय फ़ूल आया हुआ था। चूंकि मैंने लीची का पेड पहली बार ही देखा था अत: मैं तो इसे पहाडी आम का पेड समझ रहा था।(आम व लीची के पत्ते काफ़ी हद तक एक जैसे लगते है) मेरी गलतफ़हमी तब तक दूर नहीं हुई, जब तक कि मैंने बबलू को यह नहीं बताया था कि अरे भाई तुम्हारे घर के पीछे तो पहाडी आम का बाग है फ़िर तो तुम खूब सारे आम खाते होंगे वो भी फ़्री में। बबलू मेरी बात सुनकर चौंका कि क्या कह रहे हो भाई? यहाँ इस पीछे वाले बाग में तो आम का एक भी पेड नहीं है। हाँ पडौसी के घर में जरुर आम का एकलौता पेड है। कहीं तुम उसकी बात तो नहीं कर रहे हो। अब मेरी खोपडी में थोडी सी खुजली महसूस हुई, मैंने बबलू से कहा कि ओये बबलू मैं इन सामने वाले ढेर सारे पेडों की बात कर रहा हूँ। जब बबलू ने कहा कि जिसे तुम पहाडी आम समझ रहे हो, असलियत में वे सारे के सारे लीची के पेड है। यह बात सुनकर अपनी बोलती तो बन्द हो गयी, कि कहाँ तो मैं इन्हे पहाडी आम समझ बैठा था और कहाँ ये आम के बच्चे, लीची के पेड निकले। खैर मैंने देहरादून के लीची बहुत खाये है। बीस साल पहले और आज के देहरादून में इतना अन्तर जरुर दिखायी दिया है कि मकानों के नाम पर लीची के बहुत से बाग काट दिये गये है। हो सकता है कि यह वाला बाग भी काट दिया गया होगा क्योंकि मैंने लगभग सात-आठ साल से यह लीची वाला बाग दुबारा नहीं देखा है। क्योंकि मामाजी अब टर्नर रोड पर रहते है। वैसे मौसी अभी भी भण्डारी बाग में ही रहती है। अगर अबकी बार ध्यान रहा तो इस बार इस बाग को जरुर देख कर जाऊँगा।
अरे-अरे लीची के चक्कर में अपनी साईकिल तो वही भण्डारी बाग में ही खडी रह गयी है। चलो अपना साईकिल वाला सफ़र यानि कि यात्रा अथवा टूर जो मर्जी बोले सब चलेगा। मैं साईकिल लेकर मसूरी जाने का इरादा एक बार तो मन में आया था कि चलो मसूरी घूम आऊँ लेकिन उसकी चढाई देखकर हिम्मत ही नहीं हुई थी। फ़िर मैं सोचा चलो सहारनपुर की ओर चलता हूँ इस तरफ़ जाने पर दो लाभ थे, पहला सडक पर ज्यादा पहाड नहीं आने वाले थे। दूसरा जंगल देखने को मिलने वाला था। मैं निकला साईकिल लेकर मुझे एक रस्ते में एक मोड नजर आया, अरे यह फ़िल्मी गाना उस समय नहीं बना था। नहीं तो इसे गाते हुए मैं उस यात्रा को पूरी करता, लेकिन उस अमय यह गाना तो मेरे पास था ही “ “ आप बताना कौन सा पुराना किशोर का गाना मेरे लिये फ़िट बैठता है। मैं साईकिल लेकर उसी लोहे वाले पुल की ओर चल दिया, वही लोहे वाला पुल, जिससे होकर पहली बार, मैं बस में बैठ यहाँ तक आया था। माता वाले बाग के तिराहे से ही सडक पर ढलान थी, जिस कारण साईकिल अपने आप भागी जा रही थी। आजकल के इलाके जैसे पटेल नगर टर्नर रोड उस समय जाने पहचाने नहीं थे। मेरी साईकिल अपनी आप ऐसी भागी जा रही थी जैसे वह जादू की बनी हुई हो।
कई किमी चलने के बाद शिमला वाला रोड आता था उस समय तक वह सुनसान इलाका हुआ करता था। मैंने अपनी साईकिल उस शिमला वाली रोड पर भी कुछ दूर तक चलायी थी। लेकिन एक जगह एक बोर्ड देखा, जिस पर शिमला व हर्बटपुर व विकासनगर की दूरी लिखी हुई थी। जब मैंने उनकी दूरी देखी तो ज्यादा दूरी होने के कारण, मैं चुपचाप वापिस सहारनपुर की ओर चलने लगा। जैसे ही जंगली इलाका आरम्भ हुआ, वैसे ही सडक पर चढाई भी शुरु हो गयी थी। अब तक तो साइकिल पर बैठने में आन्नद आ रहा था। अब चढाई आने के बाद थोडा सा कष्ट हो गया था। फ़िर भी बिना कोई खास परेशानी के मैं चलता रहा। एक जगह बहुत सारे बन्दर मुझे दिखायी दे गये। बन्दरों को देखकर मुझे डर तो नहीं लगा लेकिन मैं काफ़ी देर तक खडे होकर उन्हें देखता रहा था। यहाँ उस मार्ग में इतने भीषण संख्या में पेड है कि सूर्य की रोशनी भी मुश्किल से उनकी जड तक पहुँच पाती होगी। वैसे मैं यहाँ से कई बार बाइक से भी गया हूँ लेकिन कभी रुक कर इन जंगलों में भ्रमण नहीं किया है। जंगल के बाद छोटे-छोटे पहाड भी शुरु हो गये थे। जिनमें सडक बिल्कुल नागिन जैसे बलखाती हुई दिखाई दे रही थी। इस नागिन जैसे बलखाती सडक पर वाहन चलाने में भी अपना अलग आनन्द आता है। इस जगह एक पुलिस चैक-पोस्ट भी हुआ करता था। बिल्कुल ठीक उस जगह जहाँ से पहाड शुरु होते है। यहाँ भी पहाड में एक लोहे का पुल सुरंग से पहले आया था। मैं अपनी दो पहिया वाली बिना इन्जन की गाडी से उस सुरंग के मुहाने पर जा पहुँचा। जहाँ आते समय बस में बैठे हुए मुझे डर लग रहा था। मैंने थोडी देर सुरंग के बाहर रुक कर कई वाहनों को आर-पार जाते हुए देखा, उसके बाद मैं अपनी साईकिल लेकर इस सुरंग से बाहर निकल गया। सुरंग से बाहर निकलते ही सहारनपुर जिला शुरु हो जाता है। मुझे साईकिल से बस यही तक आना था। मैने अपनी साईकिल एक तरह लगायी और सामने दिखाई दे रहे देवी के मदिर में देवी के दर्शन किये। बीस साल पहले तक यह एक साधारण सा मन्दिर हुआ करता था। आज तो फ़िर भी काफ़ी शानदार मन्दिर बनवा दिया गया है। मैने एक बार फ़िर अपनी साईकिल चलानी शुरु की, यहाँ से फ़िर से मुझे कई किमी तक ढलान मिली। ढलान पर साईकिल चलाने में कितना सुकून मिलता है यह साईकिल चलाने वालों से पूछना, बतायेगा। (मुझसे नहीं) उस समय यह सडक भी ज्यादा चौडाई लिये हुए नहीं थी। धीरे-धीरे ढलान समाप्त हो गयी। जंगल में से होकर यात्रा करना बहुत मजेदार लगता है। इस जंगल में उस समय हाथी व चीते हुए करते थे। आजकल सिर्फ़ हाथी ही मिल पाते है। लेकिन हाथी दिन में बहुत कम ही दिखाई दे पाते है। वापिस आते समय शिमला रोड के पास आया तो याद आया कि बीस साल पहले उल्टे हाथ पर शिमला रोड था, लेकिन आजकल जहाँ नया वाला बस अड्डा बनाया गया है वहाँ ऐसा कुछ नहीं था। आजकल यहाँ बस अडडे के सामने से एक रोड हरिद्धार जाने के लिये बाई-पास के नाम से बना दी गयी है। अब देहरादून सिटी में रेलवे स्टेशन के पास से होकर हरिद्धार जाने की आवश्यकता नहीं पडती है। मैं साईकिल लेकर दोपहर के एक बजे के आसपास तक घर आ चुका था।
साईकिल वाली इस यात्रा से याद आया कि जब मैंने पहली बार पैदल चलना सीखा, जब पहली बार साईकिल चलानी सीखी, जब पहली बार स्कूटर चलाना सीखा, जब पहली बार बाइक चलानी सीखी, जब पहली बार कार चलानी सीखी, जब पहली बार ट्रक चलाना सीखा, तब-तब कुछ ना कुछ मजेदार घटना जरुर घटी थी। ऐसी घटनाएँ लगभग हर किसी के साथ हो चुकी है ऐसा शायद ही कोई मिले, जिसकी याद में कुछ ना कुछ घटा हो। थोडा घना कुछ ना कुछ तो सबके साथ जरुर मिलेगा। वैसे तो उस समय भी साईकिल पर घूमने में मुझे बेहद सुकून मिलता था। मैं बीस साल पहले पूरी दिल्ली का रिंग रोड का चक्कर साईकिल से लगा आया था। साईकिल तो मैं आजकल भी नियमित रुप से चलाता रहता हूँ। साईकिल चलाने के बहुत फ़ायदे है इसके कारण कोई नुक्सान है तो मुझे जरुर बताये ताकि मैं उससे सावधान रह सकूँ। बाइक तो मैं हमेशा एक निश्चित रफ़्तार से ही चलाता हूँ, जिस कारण कभी खतरे वाली नौबत नहीं आई। साईकिल पर अब तक जरुर मस्तीपने में तीन बार चोट खा चुका हूँ एक बार एक स्कूटर वाले से आमने-सामने की टक्कर हो गयी थी। दूसरी घटना एक मोड पर एक रिक्शे वाले से भी आमने सामने की ही टक्कर हुई थी। इन दोनों घटना में थोडी सी चोट आयी थी, जबकि साईकिल का कबाडा हो गया था। तीसरी घटना में एक बिदके हुए अकेले घोडे की चपेट में आया था, यहाँ भी साईकिल का कबाडा हो गया था जबकि मुझे कोई खरोंच तक ना आई थी। जैसे ही मौका मिला इन सबके बारे में भी विस्तार से बताऊँगा। लेकिन अभी तो देहरादून वाली साईकिल यात्रा का आनन्द लीजिए। और मुझे यादों में खो जाने दीजिए।
घर पहुँच कर दोपहर का खाना खाया। दो-तीन घन्टे आराम किया। शाम को एक बार फ़िर से रेलवे स्टेशन देखने के लिये निकल पडा। रेलवे स्टेशन पर आज मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ कोयले वाले इन्जन देखने आया था। वैसे तो उस समय भी डीजल वाले इन्जन हुआ करते थे लेकिन कोयले वाले इन्जन की शान निराली हुआ करती थी। मुझे देहरादून स्टेशन पर एक चीज बहुत याद आती है कि यहाँ पर कोयले के इन्जन को घुमाने वाला प्लेटफ़ार्म जैसा यन्त्र हुआ करता था। उसका नाम तो मुझे नहीं पता कि इसे क्या कहते होंगे, लेकिन जब कोयले का इन्जन उस पर लगाकर मात्र तीन-चार बन्दे उसे धकेल कर घुमा देते थे। घुमाने मतलब जिधर मुँह होता था उधर इन्जन की पीठ हो जाती थी। ऐसा इन इन्जन को घुमाने की आवश्यकता क्यों पडती थी। वैसे मैंने किसी से पता तो नहीं लगाया है लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है कि उन भाप वाले इन्जन में बैक गियर नहीं होता होगा। यदि होता भी होगा तो वो नाम मात्र की रफ़तार के लिये प्रयोग होता होगा। या हो सकता है कि उनका डिजाईन या कुछ और बात हो जिस कारण उन भाप के इन्जनों को घुमाने की जरुरत पडती थी। हमारे वाले रेलवे रुट पर इस प्रकार के भाप वाले इन्जन सबसे बाद में चलने बन्द हुए थे। जिस कारण मुझे यह अच्छी तरह याद है। जब ये इन्जन चलते थे, खासकर रुकने के बाद तो उस समय इतना धुँआ छोडते थे कि ऐसा लगता था कि आसपास जबरदस्त आग लग गयी है। इनमें कोयले के लिये इन्जन के पिछले हिस्से में ही एक कमरा सा बना हुआ होता था जो कोयले का भरा हुआ रहता था। पहले लगभग ज्यादातर रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में पानी भरने के लिये मोटर या कुछ ऐसा ही प्रबन्ध हुआ करता था। जिससे रेल में पानी भरा जाता था। कोयले के इन्जन को भी पानी काफ़ी मात्रा में चाहिए होता था। आजकल कोयले वाला इन्जन भारत में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग-घूम के बीच पर्यटकों के लिये चलायी जाने वाली छोटी खिलौना रेल में चलता है।
मैं सिर्फ़ इन्ही कोयले वाले इन्जन को देखने के लिये कई बार यहाँ आया करता था। वैसे तो मैंने ऐसा यन्त्र शामली रेलवे स्टेशन पर भी देखा हुआ है। मैंने देहरादून से हरिद्धार जाने वाली रेलवे लाईन पर कई बार यात्रा की है। इस सफ़र में अगले दिन मुझे व बबलू को इन्ही भाप वाले इन्जन से हरिद्धार तक जाना किया था।
अगले लेख में उसका वर्णन किया जायेगा।
अगले लेख में उसका वर्णन किया जायेगा।
10 टिप्पणियां:
किशोर का 'मुसाफिर हूँ यारों'
मुकेश का गाया 'सुहाना सफर और ये मौसम हसीं' कैसा रहता?
बहुत बढ़िया वर्णन ||
जन्म दिन की अग्रिम बधाई |
उस समय लखनऊ में रहूँगा -नेट से दूर ||
संजय भाई मुझे घूमने के मामले में हमेशा एक गाना बेहद पंसद है "जिन्दगी एक सफ़र है सुहाना यहाँ कल क्या हो किसने जाना। जिसकी बाद वाली लाईन को मैं बदल कर करना चाहूँगा कि कल कहाँ पड जाये जाना ये किसने जाना।
दोस्त, गाना तो सबसे पहले यही सूझा था लेकिन ये गाना किसी और के लिए गाने को मन नहीं करता| हाँ, बाद वाली लाईन पहले सुन ली होती तो यही बताते|
अब वोट रिवाईज़ करने की अपील करते हैं|
अपन दिल्ली में ही रहेंगे भाई :)
Are jat bhai aapki yaddast ki dad deni padegi lag hi nahi raha ye bis saal purani baaten hai
भैया अब साइकिल से आगे क्या है ?बढ़िया सीधा सपाट दो टूक संस्मरण आप बीती बातें भी आप ऐसे बतातें हैं जैसे संदीप कोई और हो और आप कोई और .जनम दिन मुबारक .फेस बुक सावधान कर रहा है किसी नजदीकी का जन्म दिन है .
बहुत बढ़िया...
साइकिल सबसे अच्छी सवारी लगती है किसी भी पर्यटन स्थल पर।
ekdum mast experience. Kaash ek samay aayega jab main bhi cycle chala kar kahin himalayas mein jaunga.
अरे आपक़े लिए सबसे मुफीद गाना है..."इक रास्ता है ज़िन्दगी जो थम गये तो कुछ नहीं...ये कदम किसी मुकाम पर जो जम गये तो कुछ नहीं"...घुमक्कड़ जिज्ञासा लिए घूमिये और घुमते रहिये...
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