मंगलवार, 21 अगस्त 2012

DEHRADUN TO HARIDWAR-RISHIKESH TRIP देहरादून से हरिद्धार व ऋषिकेश यात्रा

इस यात्रा को शुरु से यहाँ से पढे।                                       इस लेख से पहला लेख यहाँ से पढे।
देहरादून से हरिद्धार घूमने का कार्यक्रम तो बन गया था, साथ ही यह भी तय हो गया था कि वहाँ से ऋषिकेश चले जाना है जहाँ से शाम को वापस आ आना है? लेकिन सबसे बडी समस्या मन को समझाने की आ रही थी। मन तो पहले देहरादून से मसूरी व उससे आगे कैम्पटी फ़ॉल देखने को कर रहा था। जबकि मामाजी ने कहा कि पहले हरिद्धार गंगा स्नान कर आओ। मसूरी एक दो दिन बाद चले जाना। मुझे देहरादून आये कई दिन हो चुके थे। घर से मुझे वापसी बुलाने के लिये फ़ोन आने वाला था। मैं ऊपर वाले से कह रहा था कि अभी तीन-चार दिन फ़ोन मत आने देना। ऊपर वाला भी अपना दोस्त है, पूरे एक सप्ताह तक मेरे लिये फ़ोन नहीं आया था। हाँ तो, मैं आपको बता रहा था कि जिस दिन हमें देहरादून से हरिद्धार घूम कर आना था उस दिन हम सुबह-सुबह बिना नहाये-धोये एक-एक जोडी कपडे एक थैले में डाल कर सुबह ठीक छ: बजे चलने वाली पैसेंजर ट्रेन में जा बैठे। उस समय देहरादून स्टेशन पर टिकट किसी दूसरी जगह मिलते थे। आजकल टिकट के लिये एक अलग स्थान बना दिया गया है। जहाँ आजकल टिकट मिलता है शायद पहले वहाँ आरक्षण के लिये लाईन में लगना पडना था। आजकल आरक्षण के लिये स्टेशन के ठीक सामने एक अलग स्थान बना दिया गया है। हमने दो टिकट भी ले लिये थे। वैसे जब मैंने यह यात्रा की थी तो उस समय तक मैंने अपने रेलवे रुट पर कई बार बिना टिकट यात्रा की थी। बचपन में टिकट चैकर भी हमें ज्यादा तंग नहीं करता था। पहले तो हमने यही सोचा था कि चलो यहाँ से हरिद्धार तक भी निशुल्क घूम कर आते है। उस समय देहरादून से हरिद्धार तक शायद तीन रुपये या हो सकता है कि पाँच रुपये किराया लगता हो। (ठीक से याद नहीं आ रहा है)


हम ट्रेन (सवारी वाली रेल) चलने से कुछ मिनट पहले आकर डिब्बे में विराजमान हो गये थे। मैं कई दिन से स्टेशन पर आकर यहाँ ट्रेन देखा करता था। आज मुझे इन्ही ट्रेन में से एक में बैठने के साथ घूमने का मौका भी मिला था। इस रुट के दो-तीन स्टेशन मुझे अभी तक याद जैसे उनमें से मोतीचूर नाम का स्टेशन आता है तो ऐसा लगता है कि जैसे यहाँ पर मोतीचूर के लडडू बनते होंगे। जिस कारण इसका नाम मोतीचूर पडा होगा। एक और स्टॆशन भी आया था जहाँ से ऋषिकेश के लिये एक अलग रेलवे लाईन हो जाती है। यह रेल कई जगह तो घने जंगलों के होकर जाती है। आपने कई बार समाचारों में देखा ही होगा कि हरिद्धार के मोतीचूर के जंगलों में ट्रेन से टकराकर कई हाथी मर चुके है। एक बार तो दो-तीन हाथी ट्रेन से टकरा कर मर गये थे। दिल्ली से हरिद्धार तक तो कई बार ट्रेन से आना-जाना किया हुआ है लेकिन देहरादून से हरिद्धार मात्र दो-तीन बार ही यात्रा की है। आखिर बार मैंने 8-10 पहले इस रुट पर यात्रा की थी। तब से लेकर अब तक इस रुट में कितना बदलाव हुआ होगा, मैं नहीं जानता हूँ। मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि हरिद्धार स्टेशन से थोडा सा पहले एक या दो छोटी सी सुरंग भी आती है। उसके बाद यहाँ हरिद्धार का रेलवे स्टेशन आता है।
यहाँ देवभूमि का प्रवेश दरवाजा हरिद्धार आने का यह मेरा पहला मौका था। हरिद्धार को हरि का दरवाजा इसलिये कहा गया है कि लगभग सारे देवी देवता पहाडों पर जम कर बैठे हुए है। गलती से कोई एक आध कभी-कभार मैदान में दर्शन दे देता है। अन्यथा अधिकतर भगवान पहाडॊं की चोटियों पर डेरा डाल कर जमे हुए है। हमने स्टेशन से बाहर आकर सबसे पहले हर की पैडी जाने का तय किया हुआ था, क्योंकि सबसे पहले हमें गंगा में स्नान करना था। हम रेल से बाहर आकर सामने दिखाई दे रही सडक पर उल्टे हाथ की ओर चल पडे। यहाँ पर रेलवे स्टेशन के सामने ही यहाँ का मुख्य बस अड्डा भी स्थित है। यह आज भी यही है। यहाँ से दिन में सुबह छ: बजे से एक बजे तक कई गाडियाँ पहाडों के लिये भी चलती थी। मैंने यहाँ से एक बार बस में उतरकाशी से आगे मनेरी तक का सफ़र किया हुआ है। वैसे गढवाल के लिये ज्यादातर बसे ऋषिकेश से चलने लगी है। अगर किसी को हर की दून या हिमाचल के रोहडू जाना हो तो यहाँ से सुबह शायद चार बजे एकमात्र बस पुरोला-मोरी-त्यूणी होते हुए हिमाचल के हटकोटी रोहरु तक भी जाती है। अगर किसी को श्रीखण्ड कैलाश महादेव यात्रा हरिद्धार से शुरु करनी है तो बस मिलने में कोई समस्या नहीं आयेगी।

बबलू यहाँ पहले भी आया था। उसे हर की पौडी तक जाने का मार्ग पता था। हम लगभग पौने घन्टे में पैदल ही बाजार के बीच से चलते हुए हर की पौडी जा पहुँचे थे। सबसे पहले हमने गंगा जी में स्नान किया। मन तो जी भर के स्नान करना तो चाह रहा था लेकिन वहाँ पानी इतना ठन्डा था कि एक मिनट तक पानी में रुकना मुश्किल हो रहा था। जब पानी में रुकना मुश्किल होता तो हम पानी से बाहर भाग आते। पानी से बाहर आकर धूप की गर्मी में ऐसा लगता था कि जैसे किसी ने ठन्ड से बचने के लिये आग जलायी हुई हो। हम काफ़ी देर तक नहाने के बाद बाहर आये। अपने कपडे बदलने के बाद हमने माता मंशा देवी के मन्दिर की ओर प्रस्थान किया। कुछ दूरी बाद ही मंशा देवी मन्दिर जाने के लिये सीढियों वाला दिखाई दे जाता है। वैसे तो यहाँ पर उडन खटोला की सुविधा भी उपलब्ध है। लेकिन हम तो पैदल चलने के लिये बैचैन थे। जहाँ से सीढियाँ शुरु होती है वहाँ से मन्दिर तक दे दनादन लगातार सीढियाँ है। बीच में इनसे कही भी फ़ुर्सत नहीं होती है। इस छोटी सी मुश्किल से आधा किमी की खडी दूरी वाली यात्रा में हरिद्धार के खासकर गंगा जी की ओर के चित्र बहुत ही शानदार दिखाई देते है। प्रवीण गुप्ता जी ने अपने लेख में यहाँ के बेहतरीन फ़ोटो लगाये थे। हमें मन्दिर तक पहुँचने में लगभग 15 मिनट तो लगे ही होंगे। मन्दिर में प्रवेश करने से पहले कुछ देर रुकर बाहर का नजारा लिया गया था। यहाँ पर हमने पाया कि लोग यहाँ मन्नत का धागा बाँध रहे है। धागा तो शायद मैंने भी बाँधा था। मैंने कहा था हे देवी मईया मुझे नौकरी और छोकरी दोनों दिला देना। वैसे दोनों माँगे पूरी हुई, लेकिन कई साल के बाद।  
हम ज्यादा बडे भक्त तो नहीं थे। अत: हम वहाँ देवी को नम्स्कार करते हुए, ज्यादा देर ना करते हुए फ़टाफ़ट नीचे उतर आये। जहाँ चढते समय साँस फ़ूल रही थी, वही उतरते समय अपनी रफ़्तार पर बार-बार ब्रेक लगा कर काबू करना पड रहा था। यहाँ से हम सीधे नीचे सडक पर जा पहुँचे। इस यात्रा में मैने और बबलू ने किसी और मन्दिर के दर्शन नहीं किये थे। यहाँ के बाद हमने बस अडडे से ऋषिकेश जाने वाली बस में बैठ, वहाँ के राम झूले व लक्ष्मण झूले देखने की योजना बनाई हुई थी। बस अडडे से जल्दी ही एक बस ऋषिकेश जाने के लिये मिल गयी। हमारी बस हरिद्धार पार करते ही घने जंगलों के बीच दौडने लगी। आजकल इस सडक के किनारे ज्यादातर हिस्से में मकान बना दिये गये है। इस सडक पर बीच-बीच में रेलवे फ़ाटक भी आते है। यहाँ एक तिराहा ऐसा भी आता है जहाँ से देहारदून जाने वाला मार्ग उल्टे हाथ अलग हो जाता है जबकि हमारी बस जंगलों के बीच से दौडती हुई सीधे हाथ वाले मार्ग पर चलती रहती है।

इस मार्ग में भी हमारा सामना रेलवे लाइन पर बने हुए फ़ाटक से भी होता है। एक जगह तो फ़ाटक बंद भी मिला था। लेकिन उस समय वाहनों की आज जैसी मारामारी नहीं थी। ऋषिकेश से कुछ किमी (7-8) पहले एक बाई पास बना दिया गया है। बीस साल पहले या तो वहाँ बाई पास बना ही नहीं था या हमें दिखाई ही नहीं दिया था। जबकि मैं सबसे आगे वाली सीट पर ही बैठा हुआ था। लगभग घन्टे भर की यात्रा के बाद उस बस ने हमें दोपहर के एक बजे तक ऋषिकेश पहुँचा दिया था। यहाँ आकर हमें पता लगा कि दोनों झूले राम झूला व लक्ष्मण झूला अभी यहाँ से लगभग 4 किमी दूरी पर है। उन झूलों तक आने-जाने के लिये तीन पहिया वाले बडे से थ्री व्हीलर जैसे कुछ साधन उस समय चला करते थे। उनका रुप कुछ-कुछ ऐसा था जैसा आजकल गुजरात में चलने वाले थ्री व्हीलर जुगाड जैसे लगते है। तीन पहिया वाली सवारी ने थोडी देर में ही हमें वहाँ ले जाकर पटक दिया। पटकना शब्द ही ठीक है वह साधन ऐसा था उसमॆं धचकियाँ बेहिसाब लग रही थी। जिस कारण जैसे ही उसके ड्राईवर ने कहा कि लक्ष्मण झूला आ गया है वैसे ही हम उस जुगाड में से कूद पडे। उसने एक बन्दे का शायद दो रुपये या ढाई रुपये किराया लिया था। यही सडक आगे चलती हुई बद्रीनाथ व केदारनाथ भी चली जाती है, अत: बद्रीनाथ-केदारनाथ जाने वाले बन्दे कुछ देर रुककर चाहे तो आगे बढ सकते है। सडक से ही हमें लक्ष्मण झूला का ऊपरी सिरा दिखाई दे रहा था। वैसे तो सडक गंगा नदी से काफ़ी ऊँचाई पर बनी है।
सडक से इस झूले तक जाने के लिये एक अच्छा पैदल मार्ग बना हुआ था। दो-तीन मिनट में ही टेडे-मेडे मार्ग पर उतरते हुए, हम उस झूले तक पहुँच गये। यहाँ आकर हमने एक अलग ही दुनिया का अनुभव किया था। वैसे तो यहाँ इस स्थल पर यह मेरा पहला भ्रमण था लेकिन यहाँ आकर ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं यहाँ पहले भी आया हूँ। जब हम लक्ष्मण झूले के ठीक सामने पहुँचे तो पाया कि अब तक फ़ोटो में देखकर जिस प्रकार का पुल मानकर मैं चल रहा था यह मेरी मन की सोच से बहुत बडा था। इसपर चलने से पहले थोडी देर इसके किनारे खडे होकर इसका मुआयना किया गया। मैंने ध्यान से देखने पर पाया कि यह पुल तो हिल रहा है, इसके हिलने झूलने को देख मुझे डर सा लग रहा था कि कही यह मेरे जाते ही टूट ना जाये। लेकिन दूसरे ही पल यह बात याद आ गयी कि जब यह दशकों से नहीं टूटा तो तो आज कैसे टूट जायेगा? इस लोहे के झूले पूल के दोनों तरह लोहे की झाली बनी हुई है। जिस कारण कोई आसानी से गंगा के बहाव में नहीं गिर पायेगा। वो अलग बात है कि जिसको कूदना ही है तो उसे कौन रोकेगा? यह पुल मुश्किल से पाँच फ़ुट की चौडाई का होगा। यह पुल गंगा के दोनों सिरों पर मजबूत मोटे-मोटे लोहे के रस्से के साथ लटाकया हुआ है। पुल के बीच में किसी किस्म की कोई सहायता नहीं है।
जब मैंने इस पुल पर चलना शुरु किया तो सबसे पहले मन में यही विचार आया था कि यह रस्सों पर लटकने के कारण ही हिलता जुलता रहता है। मैं पुल के बीच में जाकर रुक गया, मन में थोडा डर तो लग रहा था, लेकिन उस डर को दूर करना भी जरुरी था। डर दूर करने के लिये सबसे अच्छी बात होती है कि डर से मुकाबला किया जाये। या डर से दूर भाग लिया जाये। पुल के मध्य में खडे होकर पुल का कम्पन महसूस करना, एक अलग की रोमांच पैदा कर रहा था। ऐसा लगता था जैसे कोई हमें गंगा जी बीच में झूला झूला रहा हो। जब मैंने देखा कि इसके ऊपर से स्कूटर व बाइक आ जा रही है तो उसी समय मैंने सोच लिया था कि मैं भी कभी अपनी बाइक इस पुल से लेकर आर-पार जाऊँगा। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है कि मैं इस पुल से अपनी बाइक के साथ लगभग चार-पाँच बार जरुर गया हूँ बाइक वाले नीलकंठ महादेव मन्दिर जाने के लिये यही इसी पुल से गंगा जी को पार करते ही उल्टे हाथ ऊपर की ओर चढ जाते है। ऊपर चढते ही बैराज से नीलकंठ जाने वाला मार्ग मिल जाता है। जिसपर चलते हुए लगभग 26 किमी दूरी पर स्थित नीलकंठ महादेव मन्दिर जाया जा सकता है। अगर कोई बाइक से नहीं गया है तो चिंता करने की कोई बात नहीं है गंगा पार करते ही ऊपर मार्ग पर जाते ही नीलकंठ जाने के लिये जीप मिल जाती है जिनपर सवार होकर नीलंकठ जा सकते है।

पुल पार करते हुए नीचे गंगा में बहती धारा को देखना बहुत अच्छा लगता है कई लोग गंगा नदी में मछलियों के लिये आटे की गोली बनाकर डालते रहते है। पुल पार करते हुए व पुल पार करने के बाद एक ऊँची सी कई मंजिल की ईमारत नुमा मन्दिर जैसा कुछ दिखाइ दे रहा था। पुल पार करते ही सबसे पहले उसकी ओर ही चले गये। उस इमारत को देखकर गंगा के उस पार से ही राम झूले की ओर पैदल चलते गये। कोई डेढ-दो किमी चलने के बाद राम-झूला दिखाई दिया। किसी से राम झूले तक जाने वाले पैदल मार्ग का पता कर उसकी ओर बढ चले। यही कही चोटी वाला भोजनालय भी आया था। थोडी देर में ही दुकानों के बीच से होते हुए इस झूले तक पहुँच गये थे। लक्ष्मण झूले की तरह, यह भी उसी प्रकार का बना हुआ झूला पुल है। हमने बिना किसी झिझक के इसे पार कर लिया था। इसके बाद हम किसी दुकान से कुछ खा पीकर ऊपर उसी सडक पर जा पहुँचे जहाँ से हमें बस अड्डा जाने के लिये तीन पहिया वाले टैम्पो मिलने थे। थोडी देर में एक टैम्पों में बैठकर हम बस अडडा आ गये थे। यहाँ से हमको देहरादून के लिये सीधी बस मिल गयी थी। कुछ देर बाद बस चल पडी। ऋषिकेश से चलने के बाद बस बीच में कई किमी तक घने जंगलों के बीच से होती हुई चलती रही थी। सुबह ट्रेन में व शाम को बस में घना जंगल पार करना बहुत शानदार रहा।
अंधेरा होने के बाद घर तक पहुँच पाये थे। अगले दिन खाली बैठ कर आराम किया था। उसके बाद मंसूरी जाने का कार्यक्रम बना लिया गया था। 
तो अगले लेख में मसूरी यात्रा...........देखने के लिये यहाँ जाये।

6 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अगली बार में आपकी यह पोस्ट काम आयेगी..

virendra sharma ने कहा…



मैंने यहाँ से एक बार बस में उतरकाशी(उत्तरकाशी ) से आगे मनेरी तक का सफ़र किया हुआ है। वैसे गढवाल के लिये ज्यादातर बसे ऋषिकेश से चलने लगी है(हैं )। अगर किसी को हर की दून या हिमाचल के रोहडू जाना हो तो यहाँ से सुबह शायद चार बजे एकमात्र बस पुरोला-मोरी-त्यूणी होते हुए हिमाचल के हटकोटी रोहरु तक भी जाती है। अगर किसी को श्रीखण्ड कैलाश महादेव यात्रा हरिद्धार से शुरु करनी है तो बस मिलने में कोई समस्या नहीं आयेगी। यादों के झरोखे से एक मासूम सा संस्मरण पढवाया आपने अनगढ़ मन से निसृत आवेग लिए .जिज्ञासा भाव लिए .बधाई .

Suresh kumar ने कहा…

आ आना है? आखिर बार मैंने 8-10 पहले इस रुट ..........
संदीप भाई आप भी लिखने में कुछ गलती कर गए कृपया सुधारे बाकि यात्रा मजेदार चल रही है ,बचपन और आज की यात्राओं में जमीन आसमान का फर्क आ चूका है ,पर बचपन तो बचपन होता है आपके मन में बचपन में इतनी जिज्ञाषा थी घुमने की तो आज के हालात का कोई भी अंदाजा लगा सकता है !.

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

हमें तो अपनी नीलकंठ यात्रा की याद ताजा हो गई, मस्त चल रहा है भाई|

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत खूब
चलते रहें लिखते रहें
और हम पढ़ते रहें !

Vaanbhatt ने कहा…

चरैवेति - चरैवेति...आपक़े साथ-साथ हम भी...जीवंत सफ़र का आनंद ले रहे हैं...

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