अगले दिन यानि तीसरे दिन सुबह-सुबह हमने उतरकाशी स्थित काशी
विश्वनाथ मन्दिर के दर्शन किये। वैसे तो अब तक मैंने लगभग बीसियों बार इस मन्दिर
में दर्शन कर लिये है, लेकिन हर बार ऐसा लगता है कि जैसे मैं पहली बार यहाँ आया
हूँ। यह मन्दिर कई सदी पुराना बताया जाता है बताते है कि पुराने समय में जब दूर
आने-जाने के साधन उपलब्ध नहीं थे, बल्कि पैदल ही लम्बी-लम्बी हजारों किमी की
यात्राएं पैदल ही तय की जाती थी। उस समय काशी (वाराणसी) के विश्वनाथ मन्दिर की
पूरे भारत में सबसे ज्यादा मान्यता थी, जिस कारण पहाड के लोगों को बनारस के बाबा
विश्वनाथ मन्दिर में दर्शन करने के लिये लगने वाले समय को ध्यान में रखते हुए,
उत्तरकाशी के बाबा विश्वनाथ मन्दिर की स्थापना करनी पडी थी। वैसे असली कहानी क्या
है, मैं इस कहानी के चक्कर में कभी नहीं पडता हूँ। मुझे तो एक छोटा सा मन्दिर हो
या मात्र शिवलिंग कही रखा हो, बस उसे देखते ही भोलेनाथ का स्मरण याद हो जाता है,
बस जहाँ भोलेनाथ का स्मरण हो गया, तो समझो, अपनी पूजा-पाठ सफ़ल भी हो गयी। बडे-बडे
भक्तों की तरह घन्टों बैठकर पूजा-पाठ करनी अपुन के बसकी बात नहीं है। अपुन ठहरे
घुमक्कड प्रजाति के प्राणी। लगता है कि भगवान ने मुझे पूजा-पाठ करने के लिये बनाया
ही नहीं है।
पुराने टिहरी शहर की एक
दुर्लभ झलक
उत्तरकाशी में मन्दिर
के पीछे एक बहुत बडा मैदान भी है जहाँ एक बहुत बडा मेला भी लगता है मेला कब लगता
है अभी याद नहीं आ रहा है। जैसे ही याद आयेगा यहाँ लिख दिया जायेगा। मैं चाहता तो
नेट से सर्च कर तलाश कर लिख देता, लेकिन नहीं, जो काम अपुन को पसन्द नहीं तो पसन्द
नहीं। आप जानते ही है कि यहाँ का वरुणावत/वर्णाव्रत पर्वत बहुत बदनाम है उसका कारण
यह है कि यह पर्वत कच्ची मिट्टी का बना हुआ है जिससे कि बारिश के दिनों में जोरदार
बारिश होते ही इसके ऊपरी भाग से पानी के साथ मलबा बहकर नीचे की ओर आने लगता है
जिससे यह मलबा अपने साथ कई बार बडे-बडे पत्थर भी बहाकर ले आता है। ये पत्थर जब
ऊँचाई से नीचे घाटी की ओर तेजी से बढते है तो यह अपने सामने आने वाली हर चीज को
तहस-नहस कर देते है। सन 2001 में
जब मैंने यह यात्रा की थी तो उस समय तक इस पहाड ने ज्यादा सत्यानाश नहीं किया था। लेकिन
बाद के वर्षों में इसने बहुत उत्पात मचाया था। इस पहाड के मलबे में कई घर व होटल
का निशान तक मिट गया था। आज भी सडक किनारे इस पहाड की बर्बादी की दो-चार निशानी
मिल ही जायेंगी। वैसे आजकल तो यह पर्वत शांत है, लेकिन क्या पता? यह फ़िर से कुछ
खुराफ़ात करने की सोचने में लगा हुआ हो। जब इस पर्वत ने एक साल जमकर कहर बरपाया था
तो गंगौत्री वाला मुख्य मार्ग भी बन्द करना पड गया था। बल्कि कहो कि बन्द हो गया
था। जिस कारण गंगा पार एक दूसरा वैकल्पिक मार्ग है जिससे गंगौत्री आने-जाने का काम
चलाना पडा था। इस पर्वत की असलियत देखनी हो तो NEHRU
MOUNTAINEERING INSTITUTE बोले तो नेहरु पर्वतारोहण संस्थान
जाने वाले मार्ग पर जाना होगा जहाँ से आप इस पहाड का ऊपरी छोर आसानी से देख सकते
हो कि कैसे गंजा हुआ पडा है?
हम सुबह-सुबह वहाँ से
दिल्ली के लिये चल दिये थे|
सुबह इसलिये चले थे कि शाम तक आसानी से दिल्ली तक पहुँच जायेंगे। मैंने व मेरे भाई
ने लगभग बीसियों बार इस मार्ग पर दिल्ली से उत्तरकाशी व आगे गंगौत्री तक बाइक BIKE से आना-जाना किया हुआ है। यहाँ आते समय तो हम पानी
की धार के विपरीत दिशा में आये थे लेकिन अब पानी की धारा के साथ-साथ ढलान पर उतराई
में उतर रहे थे। उतरकाशी से पुरानी टिहरी तक मार्ग में लगातार ढलान मिलती रहती थी।
लेकिन आजकल पुरानी टिहरी से काफ़ी पहले से ही नया मार्ग बन जाने के कारण, पहले ही
चढाई पर चढना पड जाता है। नया मार्ग जब ऊपर पहाड पर पहुँचता है तो बहुत अच्छा लगता
है। क्योंकि यहाँ से टिहरी बाँध का शानदार नजारा दिखाई देता है। लेकिन सन 2001 में यह बाँध बनकर तैयार नहीं हुआ था।
दो माँ एक साथ- भीष्म
पितामह की माता गंगा माँ और जाट देवता संदीप की माता संतोष माँ। बोलो जय माता दी।
बाइक पर सवारी करते हुए
जब हम पुरानी-टिहरी के नजदीक आये तो मन में विचार आया कि चलो मम्मी को नई टिहरी
वाले मार्ग से पुरानी टिहरी ऊपर पहाड से दिखा कर लाता हूँ। क्योंकि बाद में एक दो
साल बाद तो यह टिहरी शहर पानी में पूरी तरह डूब ही जायेगा। अत: मैंने बाइक टिहरी
शहर की ओर घुमा दी थी। टिहरी शहर में लोहे वाले पुल को पारकर टिहरी शहर में प्रवेश
किया। यहाँ हमने मुश्किल से दस मिनट रुककर वापिस उसी मार्ग पर आ गये जहाँ से हमें
नई टिहरी जाने वाले मार्ग पर बाइक समेत चढना था। चढाई वाले मार्ग पर कई किमी जाने
पर जब पुराना टिहरी काफ़ी छोटा सा दिखाई देने लगा था तो मैंने इस शहर का एक फ़ोटो
लिया था जो आप सबको दिखा रहा हूँ। (इस फ़ोटो पर मैंने JATDEVTA जानबूझ कर लिखा है। अत: इस बारे में कोई कुछ ना
लिखे।) यहाँ से हम नई टिहरी शहर देखते हुए आगे बढते चले गये।
यह मार्ग आगे जाकर चम्बा में मिल जाता है।
चम्बा से चलते ही मार्ग
में लगभग 25-26 किमी लम्बी ढलान मिलती है जिसपर
बाइक स्टार्ट करने की आवश्यकता नहीं पडती है। लेकिन ढलान पर बाइक बिना गियर में
डाले चलाओगे तो मोड पर रोकने में मुश्किल आती है, जबकि बाइक गियर में रखकर चलाते
हो तो बाइक थोडी धीमी जरुर चलती है लेकिन उतराई पर तेज गति वाला खतरा कम हो जाता
है। दोपहर तक हम मार्ग के नजारों का अवलोकन करते हुए नरेन्द्रनगर से आगे एक नदी
किनारे सीधे हाथ पर बने हुए (उस समय तो बन ही रहा था पूरी तरह बनकर तैयार भी नहीं
हुआ था) एक होटल पर भोजन करने के लिये कुछ देर रुके थे। इस होटल के एकदम पीछे एक
छोटी सी नदी भी बहती है। जहाँ कुछ देर बैठकर मस्ती से बिताये जा सकते है। इस
यात्रा के कई साल बाद 2008 के
आखिरी में, मैं आल्टो कार चलाकर परिवार (माताजी+पत्नी+लडकी+लडका+एक रिश्तेदारनी)
सहित दिल्ली- हरिद्धार- ऋषिकेश- नीलकंठ- चम्बा- सुरकंडा देवी- धनौल्टी- मसूरी- देहरादून-
शाकुम्बरी देवी-दिल्ली तक की यात्रा तीन दिनों में ही की थी। जैसे ही मौका लगा उस
यात्रा के बारे में भी विस्तार से बताऊँगा। खाना खाने के बाद हम यहाँ से सीधे
ऋषिकेश पहुँच गये थे। जहाँ पर हमने कुछ देर गंगा किनारे बैठकर गंगा की लहरों को
निहारा था। उसके बाद फ़िर से अपनी बाइक पर सवार होकर घन्टे भर में हरिद्धार आ गये
थे। जहाँ से हरिद्धार में रुके बिना हम आगे की ओर बढते हुए रुडकी, मुजफ़्फ़र नगर,
मेरठ, मोदीनगर, मुरादनगर होते हुए शाम तक हम दिल्ली अपने घर पहुँच गये थे।
तो पाठकों यह थी दो
जीवट जीवन जीने वाले माँ-बेटे की छोटी सी मात्र 1000 किमी
वाली बाइक यात्रा जिसमें हमने मात्र तीन दिन में यह यात्रा आसानी से सम्पूर्ण की
थी। अब देखता हूँ कि इसके बाद मैंने कौन सी यात्रा की थी। हाँ याद आया, चलो बताता
हूँ अगली यात्रा के बारे में भी, लेकिन अभी नहीं
अगले लेख अगली सीरिज
में यह श्रृंखला यही समाप्त हुई। जय राम जी की।
(कुल
शब्द 1213)
11 टिप्पणियां:
राम राम जी, वाकई पुराना टिहरी तो अब यादो में ही हैं, हम लोग दो बार पुराने टिहरी से होकर के निकले हैं. अब यदि उधर से निकलते है तो सोचकर मन उदास सा हो जाता हैं. विकास की कुछ न कुछ तो कीमत चुकानी ही पड़ती हैं. वरुणावत पर्वत को उत्तरकाशी के लिए शोक कहा जाता हैं. वैसे आपकी यात्रा अनुभव बहुत अच्छा रहा हैं. पुरानी यादे ताज़ा करने का भी एक अलग ही मज़ा हैं...धन्यवाद, वन्देमातरम...
टिहरी को धीरे धीरे जलसमाधि लेते देखा है।
बाबा सब जगह एक है संदीप भाई . चाहे वह सोमनाथ हो या कशी विश्वनाथ या अपने घर स्थापित किया हुआ शिवलिंग . आपकी बात सत्य है कई बाबा का स्मरण हो गया मतलब पूजा हो गयी. लेकिन घंटा बजा बजाके भी पूजा कई जा सकती है और उसकी महिमा अलग है.
चंबा २००८ में गए थे . तब नया पुराना दोनों टिहरी देखे थे . शहर उजड़ने का दुःख तो होता है लेकिन नया टिहरी भी कम नहीं . इसलिए अफ़सोस नहीं होना चाहिए .
माताजी को घुमाना अच्छा रहा .
आपका सफ़र एक महत्वपूर्ण दस्तावेज सा है .
टिहरी को मैने भी धीरे धीरे जल मे विलीन होते देखा है..रोचक यात्रा..शुभकामनाएं संदीप
Roughly motivational place of duty you give rise to at this juncture. Seems to facilitate lots of relations enjoyed and benefited from it. Cheers and credit.
टिहरी दर्शन करा दिए आपने। जब बांध बनने का विचार चल रहा था तब मै वहां गया था (1975)... फिर चारधाम यात्रा के दौरान वहां से गुज़रा...अब टिहरी ऊपर शिफ्ट हो गया है...आपकी माता जी को धन्यवाद उन्हीं की प्रेरणा है जो बच्चे दुनिया घूम रहे हैं...फटफटिया पर...
वाकई पुराना टिहरी तो अब यादो में ही हैं,
स: परिवार नवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकार कीजियेगा.
सुन्दर यात्रा वृत्तांत. पुरानी तेहरी नहीं देखे थे सो आज देख लिए. आभार.
Hello, very professional high level blog! thank you for sharing. Because of good writing, and I learned a lot, and I am glad to see such a beautiful thing. Sorry for my bad English. ?
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