लोग कहते है कि घुमक्कडी में पैसे खर्च करना फ़िजूल खर्ची है लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता। दूसरी बात पैसे खर्च करके भी कोई साधु महात्मा जितनी घुमक्कडी और भी करता होगा। मुझे नहीं लगता। जबकि मैं हमेशा कहता आया हूँ कि घुमक्कडी किस्मत से मिलती है समय व पैसों से नहीं, लेकिन कई लोग ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्हे मेरी इस बात पर भी आपत्ति होगी। ऐसे लोगों को उनके हाल पर छोड देनी में ही अपनी भलाई है। जिससे मैं अपनी मनमौजी घुमक्कडी पर लगा रहता हूँ। तो चलिये दोस्तों आज आपको अपनी ऐसी पहली घुमक्कडी के बारे में बताता हूँ जिसमें मेरे साथ कई और युवक व युवती भी गये थे। युवती के फ़ोटो मैं नेट पर लगाना नहीं चाहता हूँ अत: कोई इस बारे में कुछ ना कहे। बात सन 2003 के दिसम्बर माह के आखिरी सप्ताह की बात है। मेरी मौसी व मामा का परिवार देहरादून में ही रहता है जिस कारण वहाँ साल में दो तीन बार आना-जाना हो ही जाता है। इसी तरह उपरोक्त तिथि को मेरी मौसी की लडकियाँ जिनकी ससुराल हमारे घर से 4-5 किमी दूर ही है। मौसी की लडकियों ने फ़ोन कर मुझे बताया कि वह व उनका देवर कुछ अन्य दोस्तों के साथ मसूरी घूमने जा रहे है। अगर तुम्हे चलना है तो शाम तक बता देना, क्योंकि रात को यहाँ से चल देना है।
शाम तक कौन प्रतीक्षा करता? मैंने तुरन्त कहा कि मैं भी जा रहा हूँ। अभी दोपहर का समय हुआ था। मैंने शाम होने से पहले ही अपना सामान पैक कर दिया था। सामान कुछ खास नहीं बस एक जोडी कपडे व बनियान तौलिया आदि थे। मैं अपनी साईकिल पर सवार होकर रात को आठ बजे तक उनके घर पहुँच गया था, जहाँ से देहरादून होते हुए हमें मसूरी जाना था। वैसे तो इससे पहले भी मसूरी मैंने कई बार देखा था लेकिन ठन्ड के महीने में नहीं, गर्मी में देखा था। सर्दी में मसूरी जाने का यह पहला मौका था जो मेरे हाथ लगा था। रात को खाना आदि खा पीकर लगभग 11 बजे हम सभी एक सूमो गाडी में सवार होकर देहरादून के लिये चल दिये। जब मैं अपने घर से देहरादून जाता हूँ तो शामली-सहारनपुर-छुटमलपुर होते हुए देहरादून जाया करता हूँ लेकिन मौसी की लडकी के ससुराल से देहरादून जाने के लिये वाया मेरठ-रुडकी-छुटमलपुर होते हुए सही रहता है। हम अभी मेरठ पार तक ही गये थे कि एक परेशानी सामने आ गयी।
मार्ग में घनघोर कोहरा पडना शुरु हो गया था। वैसे कोहरा तो हमने बहुत देखा है लेकिन मैंने सडक पर चलते हुए वैसा भयंकर कोहरा पहली बार देखा था। कोहरा इतना ज्यादा था कि ज्यादातर गाडियों के चालक खिडकी से बाहर देखकर गाडी चला रहे थे। इस कोहरे में एक मजेदार बात यह रही कि ज्यादातर वाहन चालक एक दूसरे के पीछे लाईन में सीधे-सीधे, लेकिन कुछ फ़ासला बना चल रहे थे। लाईन में चलने से सबसे बडा फ़ायदा यह था कि किसी दुर्घटना की सम्भावना बहुत कम बची थी। लेकिन कुछ वाहन चालक ऐसे थे जिन्हे थोडी जल्दी थे वे लाईन के बराबर से होते हुए आगे बढते जाते थे। हम दो घन्टे तक इसी लाईन में चलते रहे, तब जाकर मुजफ़्फ़रनगर पार कर सके थे। यहाँ से कुछ आगे तक मौसम थोडा साफ़ मिला जिसका लाभ उठाकर हमारा सूमो चालक अपनी सूमो को तेजी से आगे की बढाता रहा। लेकिन हमारी तेजी ज्यादा देर नहीं बनी रह सकी, क्योंकि बीस किमी बाद एक बार फ़िर से वैसा ही कोहरा दुबारा हमारे सामने आ गया था। यहाँ हमारे सामने कोई वाहन भी नहीं था जिसका आगे रहने का फ़ायदा हमें मिलता। अत: हमारा सूमो चालक धीमी गति से गाडी आगे बढाता रहा। रुडकी पहुँचते-पहुँचते, रात के कह लो या सुबह के चार बज चुके थे। रुडकी से हमारी गाडी हरिदवार वाला मार्ग छोड छुटमलपुर जाने वाले मार्ग पर चल पडी थी।
यहाँ से कोहरे ने अपने कहर में कुछ दया दिखानी शुरु की थी। जिससे हमारी गाडी की गति बीस किमी प्रति घन्टे से थोडा ज्यादा हो सकी थी। खैर किसी तरह हम दिन निकलने तक देहरादून पहुँच चुके थे। कई लोग तो गाडी में सोते हुए आये थे। जबकि मेरे जैसे कई और भी थे जिन्हे गाडी में नींद नहीं आयी थी। अत: सूमो चालक को बोला गया कि दस बजे तक जिसे सोना है सो लो। उसके बाद मसूरी जायेंगे। हम नींद लेने के लिये ज्यादा परेशान नहीं हुए, जिसे जहाँ जगह मिली वह सो गया था। लगभग दस बजे सबको उठाया गया। जिसके बाद सभी मसूरी जाने के लिये गाडी में बैठ गये थे। मसूरी में सबकी इच्छा कैम्पटी फ़ॉल देखने की थी जैसा कि मैं ही बता चुका हूँ कि मैं कई बार मसूरी घूम चुका हूँ लेकिन हर बार यहाँ आना अच्छा लगता है। हमारी गाडी जैसे ही लाईब्रेरी चौक पर पहुँचे तो सबने चालक को गाडी रोकने को कहा। गाडी रुकते ही सभी गाडी से बाहर निकल आये थे। यहाँ पर लगभग 10 मिनट रुकने के बाद हमारी गाडी हम सबको लेकर कैम्पटी फ़ॉल से आगे की ओर बढ चली थी।
जैसे ही गाडी कैम्पटी फ़ॉल से थोडा आगे पहुँची तो तुरन्त चालक को गाडी रोकने को कहा क्योंकि चालक नया था जिस कारण उसे यह नहीं पता था कि गाडी कहाँ रोकनी है? गाडी एक किनारे लगवा कर सभी नीचे झरने की ओर उतरते चले गये। यहाँ जाकर देखा कि उस समय ठन्ड में भी कई लोग स्नान कर रहे थे। हमारे में से कोई भी स्नान नहीं करना चाहता था। हम सब वहाँ काफ़ी देर तक घूमते रहे फ़ोटो लेते रहे। उसके बाद जब सबका मन भर लिया तो वहाँ से वपिस चल पडे। अबकी बार सूमो चालक से बोला गया कि तुम तीन किमी आगे मिलना हम सब पैदल आ रहे है। पैदल मसूरी की सडकों पर टहलना भी एक अलग अनुभव दे रहा था। आगे जाने पर हमारी गाडी वाला हमारा इन्तजार करता हुआ मिल गया था। थोडी देर में गाडी में सभी लोग सवार हो गये थे। कैम्पटी फ़ॉल से चलने के बाद हमने मसूरी में कुछ देर खाना खाने के लिये गाडी रुकवायी थी। यहाँ सबको भूख लगने के कारण फ़ैसला लिया गया कि जिसे जो अच्छा लगे वह वो खाये। दूसरों का तो मुझे याद नहीं कि किसने क्या खाया था लेकिन मुझे यह अच्छी तरह याद है कि मैंने वहाँ उस दिन बर्गर खाया था। एक नहीं बल्कि तीन-तीन बर्गर मैं खा गया था।
खा पीकर हम आगे देहरादून की ओर चल दिये। शाम होते-होते हम शिव मन्दिर तक आ पहुँचे थे। यहाँ आते-आते हमारे साथ वाले लडकों को ठन्ड ने सताना शुरु कर दिया था जिस कारण उन्होंने खिडकी के शीशे तक बन्द कर दिये थे। यहाँ पीछे वाली सीट पर बैठे-बैठे मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे अभी उल्टी हो जायेगी। जिस कारण मैंने कहा कि या तो शीशे खोलो या मुझे खिडकी के पास बैठने दो। शीशे खोलकर ठन्ड में खिडकी के पास वैठने की हिम्मत उनकी नहीं हो रही थी। अत: मैं खिडकी के पास बैठ गया मैंने शीशे खोलकर देहरादून तक की यात्रा पूरी की थी। हम लगभग आठ बजे देहरादून मौसी के घर पहुँच चुके थे।
जहाँ सबने रात का खाना खाया और सबको कहा गया कि जिसको सोना सो ले क्योंकि आज रात को फ़िर से 11 बजे सूमो दिल्ली के चल पडेगी। रात को ठीक 11 बजे हमारी सूमो दिल्ली के लिये चल पडी थी। वापसी में रुडकी-मुजफ़्फ़रनगर-मेरठ तक तो बिना कोहरे के यात्रा आसानी से पूरी हो गयी लेकिन मेरठ से आगे बढते ही वैसा ही भंयकर कोहरा फ़िर से आगे आ गया था जैसा कोहरा जाते समय आया था। सडक पर तो फ़िर भी वाहनों की लाईन होती थी जिससे चलना आसान होता था। लेकिन असली समस्या मोहननगर के बाद भौपुरा से आगे टीला मोड तक व रही सही कसर टीला मोड से निस्तौली तक जाने वाले मार्ग ने पूरी कर दी थी। टीला मोड से निस्तौली जाने वाला मार्ग मुश्किल से एक किमी तक ही है लेकिन उस रात इतना जबरदस्त कोहरा था कि एक बन्दे को गाडी से उतर कर आगे-आगे पैदल चलना पडा था। एक बार कोहरे के चक्कर में गाडी सडक किनारे गडडे में गिरने को भी हो गयी थी। लेकिन सब कुछ ठीक-ठाक सुबह चार बजे घर पहुँच गये थे।
मौसी की लडकी के घर पहुँचकर मैंने सुबह साढे चार बजे अपनी साइकिल उठायी और चार किमी दूर अपने घर की और चल पडा। लगभग आधे घन्टे में मैंने अपने घर पहुँच चुका था। मैंने घर जाकर अपनी रजाई तलाश की और उसमें घुस कर सो गया था। अच्छा दोस्तों यह थी हमारी दो रात की छोटी सी यात्रा, मिलते है जल्द ही किसी नई यात्रा पर, तब तक राम-राम........................
10 टिप्पणियां:
आपने लगता है मसूरी की इतनी यात्रा की होगी कि आपको भी याद न होगी?
इतनी पुरानी फ़ोटो व यात्रा देख अच्छा लगता है,
आपके साथ साथ आपकी बाईक भी खुशकिसमत है जो भ्रमण करती है
दीपावली पर ब्लाग के लिये वालपेपर
ये हुई न बात , नयी यात्रा मे तो सबको मजा आता है पर इस यात्रा को देखकर तो पूछो मत कैसी गुदगुदी होती है
सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ...
जिंदगानी भी रही तो नौजवानी फिर कहाँ...
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार ३० /१०/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है |
अपना अना स्वभाव है ..
सबलोग यात्रा का इतना आनंद ले भी नहीं सकते ..
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अच्छा लिखा है आपने...
आपका सैलानी किस किसको कब कब क्या क्या याद दिला जाता है हमें भी 1970 के दशक का वह दौर याद आया जब इस इलाके का भ्रमण किया था
.शुक्रिया हमारी यादें हमें लौटाने का .सलामत रहे ये सैलानी ,देते
रहना हैरानी और आनंद लेते रहना यात्रा का कलाकंद .
एक और बढ़िया घुमक्कडी आपके द्वारा . हमें भी कोहरा बहुत सताता है जब हम बदलापुर से पूना जाते है माग्शीश घाट पकड़ते है तब.
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