दिनांक 20 जुलाई सन 2011 दिन बुधवार, को हमारी यात्रा की आज सबसे कठिन मंजिल थी। जहाँ हम रुके हुए थे, उस टैंट में कुछ अन्य लोग भी ठहरे हुए थे, जिन्होंने हमें बताया कि असली यात्रा तो नैन सरोवर से आगे जाकर शुरु होती है, नैन सरोवर तक पहुँचने के बाद भी बंदे वापिस आते देखे गये है, हमारे साथ चल रहे एक बंदे ने बताया था कि मेरी लडकी दो बार नैन-सरोवर तक आ चुकी है, लेकिन इससे आगे जाने की उसकी हिम्मत नहीं पड रही है। मैं उसकी बात सुन कर मन ही मन डरा जा रहा था, कि यार ये नैन-सरोवर से आगे आखिर आफ़त क्या है। दो दिन से लोग हमें, सच बता रहे थे या हमें डरा रहे थे, कि बडे-बडॆ पत्थरों को पकड-पकड कर चढना पडता है, एक पूरा ही दिन तो पत्थर ही खा जाते है, ऐसी-ऐसी बाते सुन कर मन बैठा जा रहा था। फ़िर सोचा यार, जब सिर ओखली में दे ही दिया है, तो मूसल से क्या डरना।
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भीम डवार से पार्वती बाग, व पार्वती झरने का खूबसूरत नजारा दिखाई दे रहा है। एकदम ऊपर जाना है।
आज हमारा सफ़र भीम-डवार से श्रीखण्ड महादेव मात्र नौ-दस किलोमीटर जाना व इतना ही वापस ढलान पर आना था। भीम-डवार से यात्री; रात्रि के कहो या भौर के 3-4 बजे से ही यात्रा शुरु कर देते है, जल्दी चलने का फ़ायदा ये होता है कि चढाई को ठण्ड-ठण्ड में पूरा कर लेते है, मैंने भी सुबह जल्दी चलने का सुझाव दिया तो अपने कुम्भकर्ण के दहाडने की आवाज आयी कि मैं अंधेरे में नहीं चलूँगा। मतलब साफ़ था कि नीरज को अपनी नींद ज्यादा प्यारी थी, मार्ग की कठिनाईयों की कोई चिंता नही थी। लेकिन यहाँ व ऐसी किसी और दुर्गम जगह जाने वाले बंदे, एक बात हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि आपको अपना सफ़र हमेशा सुबह जितना जल्दी शुरु कर दोगे, मार्ग में उतनी ही परेशानी कम होती जाती है। जितना देर से सफ़र शुरु करोगे, उतनी कठिनाई से मुकाबला भी करना पडता है।
सुबह चलते ही, ये खोखला होता हुआ ग्लेशियर आ गया था। विपिन की हवा खराब रहती थी, ऐसी जगह पर।पार्वती बाग से आगे, ये पत्थर की खान कहो या घाटी बात एक ही है। बंदे ऐसे ही पडे हुए आराम करते है।
सब के साथ गये थे तो कर भी क्या सकते थे, बीच में बंदा थक जाये तो उसे वही रुकने की कह आगे चल सकते है, लेकिन जब दिन की शुरुआत ही देर से हो तो शाम को अंधेरा होने का डर रहता है। मैं एक बार ऐसा भुगत चुका हूँ, जब मैं पहली बार गौमुख गया था, सन 2000 की बात है, मुझे बर्फ़ीले पहाडों के बारे में, कोई ज्यादा खास अनुभव भी नहीं था, सुबह आठ बजे चला था, गंगौत्री से वापस आने में रात के 9 बज गये थे, मेरे एक पैर के घुटने व कुल्हे ने तो जवाब दे दिया था, मैं ही जानता हूँ कि आखिरी के 5-6 किलोमीटर एक पैर के सहारे, वो भी अंधेरे में कैसे काटे गये थे।
पत्थर की खान पार करते ही ये प्यारा सा पौधा हमें मिला था।
आज फ़िर हमें चलने में देर हो गयी थी, सुबह पौने सात बजे हम आज की आगे की यात्रा के लिये चल दिये थे, पार्वती बाग सामने ही दिखाई दे रहा था। दूरी लगभग दो-ढाई किलोमीटर ही है, लेकिन हमें इसको तय करने में ही सवा घंटा लग गया था, एक किलोमीटर एकदम खडी चढाई है, दो-तीन बर्फ़ के ग्लेशियर भी पार करने पडते है। चढाई एकदम खडी थी तो अब आप समझ ही गये होंगे कि हमारे नीरज जाट जी अब तीसरे नम्बर पर चल रहे थे,
कर लो, आप भी दर्शन, नैन सरोवर के।
इस सफ़र में मैंने एक बात पर विशेष ध्यान दिया कि नीरज अपने ब्लॉग पर सबको बता रहा था, कि ये यात्रा बडी कठिन है, ऐसी-ऐसी परेशानी आयेगी आदि-आदि, लेकिन जब नीरज हमारे साथ-साथ चल रहा था तो हमें ऐसा नहीं लगा कि नीरज ने इस दुर्गम यात्रा के लिये शारीरिक व मानसिक रुप से कोई तैयारी की हो, एक तो नीरज अपने थैले में जरुरत से ज्यादा कपडे भर कर लाया था। बता रहा था कि करेरी झील में बिना कपडे के बहुत तंग हो गये थे। मतलब कि केरेरी भी आधी-अधूरी तैयारी के साथ गये थे। लेकिन मैं यात्रा में खासकर पहाडों पर कभी भी जोखिम नहीं उठाता हूँ, अब वो चाहे रात को रुकने का हो या चलने का। अब रही बात बोझ को पैदल यात्रा में जबरदस्ती साथ-साथ ढोने की, तो नीरज की ये बात भी समझ नहीं आयी थी, उसे बहुत समझाया कि भाई मैंने व विपिन ने अपने-अपने बैंग यही भीमडवार में छॊड कर जाने है रात में तो यहीं आना ही है, तुम भी इस 6-7 किलो के बैग को यही घनश्याम के टैंट में छोड दे, पर बंदा किसी की बात मानता हो तब ना, हमारी भी नहीं मानी, अपना बैग ले कर ही पार्वती बाग की ओर चल दिया था, और हमें एक अजीब बात और बता दी कि इस बैग के सहारे ही मैं और सबके मुकाबले ज्यादा तेजी से उतर जाता हूँ। जबकि हमने अपना बैग वही घनश्याम के टैंट में ही छोड दिया था, अब बिना बैग के हम काफ़ी राहत हल्का अनुभव कर रहे थे। बैग में से कीमती सामान निकाल कर अपनी-अपनी जेब में रख लिया था।
देखो, कभी ना बैठने वाला बंदा आखिर इतने आराम से क्यों बैठा हुआ था।
ठीक आठ बजे हम पार्वती बाग पर पहुँच चुके थे। पहले सोचा था कि जगह का नाम बाग है अत: यहाँ बाग जैसा कुछ मिलेगा, लेकिन घास के अलावा यहाँ कुछ नहीं था। एक जगह गर्मा-गर्म परांठे की महक आ रही थी। दो-दो पराठे मैंने व विपिन ने खाये थे, अभी विपिन ने खाये भी नहीं थे कि तब तक नीरज भी आ गया था, नीरज के आते ही पराठों का आदेश दिया गया, पहले इसलिये नहीं दिया था कि कहीं वो बना दे और वो भी हमें ही खाने पड जाये। ऐसा एक बार जलोडी जोत पर हो चुका था। जब मैंने दुकान वाले को चार मैगी बनाने की बोल दी थी, लेकिन नीरज व विपिन मैगी छोड जीप में बैठ कर 25-30 किलोमीटर दूर अन्नी के लिये चल दिये थे, मैंने व नितिन ने ही दो-दो मैगी खायी थी।
नैन सरोवर के आगे ऐसा मार्ग था।
सारा हिसाब-किताब यानि मुनीम जी नीरज बाबू को ही बना रखा था। टैंट वाले को बोला कि भाई हमारे पैसे भी नीरज ही देगा, जो कि अभी खा रहा है। यहाँ से 500-600 मीटर तक कुछ ढलान ही है, अत: मैं व विपिन धीरे-धीरे आगे की ओर चल दिये, आधा किलोमीटर तक तो कुछ छोटे-छोटे पत्थर थे, लेकिन आधे किलोमीटर बाद मोटे-मोटे पत्थर आ गये थे जिन पर कूद-कूद कर हम आगे बढ रहे थे। कभी ऊपर कभी नीचे इन पत्थरों ने जम कर मेहनत करवाई थी। ये पत्थर अभी पूरी तरह पार भी नहीं हुए थे कि एक दम भडाम-भडाम जैसी आवाज आनी शुरु हो गयी। आवाज ऊपर पहाडों की तरफ़ से आ रही थी। पूरा माजरा समझा तो पता लगा कि पहाड से पत्थर गिर रहे है। हमें केवल धुँआ उडता नजर आया था। हम उस समय इस पत्थर की खान के बीच में ही थे,
नैन सरोवर के आगे ऐसी चढाई शुरु हुई थी।
जब ये पत्थरों की खान पार हुई तो एक प्यारा सा पौधा नजर आया, इतनी ऊँचाई पर इस पौधे को देख कर मन खुश हो गया, जो थोडी बहुत थकान हुई थी, वो इस प्यारे से पौधे को देख कर दूर हो गयी थी। फ़ोटो खीचं खाच कर आगे बढे तो भैया एक बार फ़िर अपनी दोस्त चढाई आ गयी थी। नीरज अभी दो-ढाई सौ मीटर पीछे चल रहा था। हमारा जोर एक बार फ़िर लग गया था, लेकिन हम भी दो झटके में इस चढाई को पार कर ही गये थे। जब ये चढाई खत्म होने वाली ही थी तो एक बार फ़िर पहाडों के दहाडने या कहो गरजने की आवाज सुनाई दी, आवाज की दिशा में देखा कि एक जगह पत्थर गोली की रफ़्तार से नीचे घाटी की ओर जा रहा था, वो तो शुक्र करो कि उसके रास्ते में कोई यात्री नहीं आया था, नहीं तो उसका तो हो जाता राम नाम सत्य। पहाड में जब बडे-बडे पत्थर ऊपर से नीचे की ओर जाते है, तो एक तो उनकी रफ़्तार हर पल बढती जाती है, दूसरे लुढकने वाला पत्थर कई टुकडे में टूट जाता है, जिससे बडी समस्या बन जाती है। सबसे बडी दिक्कत ये की पत्थर कही भी टकरा कर अपना मार्ग बदल सकता था।
जरा इस फ़ोटो में अपनी मुंडी ऊपर कर दर्रे को देखो, सीधी खडी चढाई एक किलोमीटर की ही तो है।
जब ये चढाई पार कर सामने देखा तो हमारी आँखे फ़टी की फ़टी रह गयी थी, क्योंकि सामने ही वो नैन सरोवर था, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ से दस प्रतिशत लोग वापिस लौट जाते है। चढाई ने थका दिया था, अत: अब आराम करना भी जरुरी थी, तो जी हम तो वही पसर गये थे, दस मिनट बाद नीरज भी हमारे पास आ गया था, लेकिन आज तो गजब ही हो गया था। नीरज जो कभी नहीं बैठता था वो आज जमीन पर बैठ गया था। हमारा साँस अब उतर चुका था, हमने इस नैन सरोवर के फ़ोटो खीचे, एक कोने से दूसरे कोने तक जा कर देखा, नीरज तब भी बैठा हुआ था। यहाँ नीरज को बैठे हुए दस मिनट हो गयी थी।
अभी से फ़िसल रहा है, आगे क्या होगा, चश्मे वाले।
मैंने कहा चलो ज्यादा देर बैठोगे तो शरीर अकड जायेगा, इसलिये थोडी-थोडी देर बैठते रहो चलते रहो। मेरी बात सुन कर नीरज ने कोई ध्यान नहीं दिया था। जबकि विपिन बोला संदीप भाई जरा ऊपर देखना, हमें वही से जाना है ना। जब मैंने सामने के पहाड की ओर देखा तो मेरे मुँह से निकला, अरे बाप रे, ये कोई मार्ग है, नहीं यार ये तो शार्टकट है, लेकिन चारों ओर देखकर भी जब मुझे मार्ग नजर नहीं आया तो देखा कि यार रंग-बिरंगे निशान तो इसी मार्ग के पत्थरों पर ही लगे है। इस चढाई को देख कर मेरी तो सिटी-पिटी ही गुम सी हो गयी थी, सामने एक किलोमीटर से ज्यादा की खडी चढाई नजर आ रही थी, और चढाई भी ऐसी कि जिसके सामने डंडीधार की चढाई भी पानी माँगने लगे। बिल्कुल ऐसी, जैसे किसी दीवार के सहारे कोई डंडा खडा कर दिया हो और उस तिरछे डंडे पर चढना हो। सच कह रहा हूँ मेरा तो हल्क/गला ही सूख गया था, उस खतरनाक चढाई को देख कर। मैंने पहले जाकर झरने से पानी पिया।
एक खतरनाक व फ़िसलन भरा ग्लेशियर जरा सी लापरवाही सीधा हजारों फ़ुट नीचे।
उसके बाद दोनों से कहा कि चलो लेकिन चलने की बजाय विपिन ने भी नीरज से पानी के लिये कहा तो नीरज ने कहा कि पानी मैं सारा पी चुका हूँ, और आगे के सफ़र में भी बोतल से पानी नहीं दूँगा, और जिसे पानी चाहिए वो मुझसे पन्नी ले ले और अपनी पन्नी अपने साथ ले कर चले। बोतल को ढो कर भी तो नीरज ही ला रहा था। एक बार तो उसकी बात बुरी लगी, लेकिन कोई बात नहीं, आधे लीटर की बोतल से कितने बंदे पानी पी सकते है, जबकि ऐसी फ़ाडू चढाई पर तो कदम-कदम पर पानी चाहिए होता है। मैनें विपिन से कहा भाई मुझे तो पानी की जरुरत नहीं है, मैं तो बर्फ़ खाकर काम चला सकता हूँ, अगर तुम्हे जरुरत हो तो तुम नीरज से पन्नी ले लो, क्योंकि नीरज साफ़ मना कर चुका है कि वो पानी नहीं देगा। अब विपिन ने भी पन्नी लेने से मना कर दिया, और बोला संदीप भाई जब आप बर्फ़ खा सकते हो तो मैं भी बर्फ़ खा कर काम चला लूँगा। तो चल बेटे तु भी फ़ँस गया, जाटॊं के चक्कर में, एक जिददी दूसरा सनकी?
जय हो फ़ाडू बाबा, तीसरी बार दर्शन देने के लिये।
यही हमें वापस आते हुए वो बिहारी बंदे भी मिले थे, जिन्होंने हमारे साथ सिंहगाड में जलेबी खाये थी, जिन्होंने हमारा चारों का फ़ोटो भी लिया था। मैं तो उन जालिमों की रफ़्तार देख कर हैरत में पड गया था, मैंने उनसे पूछ ही लिया कि रात में कब चले थे तो उन्होंने बताया कि ठीक चार बजे। यहाँ से आगे चलने का जयकारा लगा हम आगे चल दिये लेकिन नीरज बैठा रहा, हम आगे बढते रहे, ऊपर चढ-चढ कर उसे देखते रहे लेकिन वो अपनी जगह बैठा रहा, हमें आधे घंटे तक वो दिखाई देता रहा, तब तक वो बैठा रहा, (मैं तो भोले से मिलने के लिए आया था, लेकिन नीरज कहता था कि मैं किसी पूजा पाठ के लिये नहीं आया हूँ। फ़िर भी उसी भोले के सहारे वो वहाँ तक जा जा पाया था, क्योंकि कहते है कि उसकी मर्जी वही जाने बाकि तो?)
ये देखो धार पर चलना था कि नहीं?
धीरे-धीरे हम इतनी ऊँचाई पर आ गये थे कि अब नीरज देखाई देना बंद हो गया था। अब हम दोनों को पक्का विश्वास हो गया कि नीरज हिम्मत हार चुका है। मैंने विपिन से भी पूछा कि तु भी बता दे अपने मन की तो बंदा क्या बोला, भाई आप मुझे बर्फ़ खिलाते रहो, मै आपसे आगे ही रहूँगा, बंदे के ये शब्द सुनकर दिल बाग-बाग हो गया था। ये चढाई खत्म होते ही एक ग्लेशियर आ गया था, इसे देखकर तो मैं भी एक पल को डर सा गया था कि यार हमने यहाँ आकर गलती तो नहीं कर दी है, वो तो नीरज ही ठीक रहा, जो नैन-सरोवर से वापस चला गया। मैं दो-तीन मिनट तक खडा रहा, तो विपिन बोला क्या हुआ संदीप भाई, चलो आगे, मैंने कहा विपिन ये देख कि अगर यहाँ से कोई बर्फ़ से फ़िसल जाये तो वो कितनी दूर जाकर रुकेगा? तो विपिन बोला, गोली की रफ़्तार से जाता हुआ, कोई दिखाई भी देगा क्या? किसी तरह नीरज के लाये हुए डंडे की मदद से इसे पार किया, ये डंडे सबसे ज्यादा बर्फ़ पार करने में ही काम आये थे।
आ गये वो पत्थर, जिनका हमें बडी बैचेनी से इंतजार था।
इसे पार करते ही हम पहाड के सबसे ऊपर आ गये थे, वहाँ जाकर दूसरी तरफ़ की खाई देखी तो लगा कि यार हमारा मार्ग आसान था जिससे हम आये है। यहाँ से एकबार फ़िर से डंडीधार की तरह पहाडों के ऊपर-ऊपर धार पर चलना पड रहा था, धार भी एक दम पैनी कही-कही तो दस फ़ुट से भी कम जगह होती थी, जिससे दोनों ओर की गहरी-गहरी खाई देख डर लग रहा था। यहाँ से कुछ आगे जाकर श्रीखण्ड महादेव जी के तीसरी बार दर्शन हुए, पहली बार थाचडू से, दूसरी बार पार्वती बाग से तीसरी बार यहाँ से, अब तो आगे के सारे मार्ग में श्रीखण्ड बाबा दिखाई देते ही रहते है, जिससे लगता है कि अब आये अब आये, लेकिन ये ठहरे श्री+खण्ड बाबा यानि, खण्ड=फ़ाड, मैनें नाम रखा फ़ाडू बाबा, तो बोलो फ़ाडू बाबा की जय।
यहाँ लाठी भी काम नहीं आती है, पत्थर हाथ से पकड कर चढना होता है।
आगे-आगे वो पत्थर, जिनके बारे में हम कई दिन से सुन रहे थे कि बडे-बडॆ पत्थर आते है, सच में वे बडे-बडे पत्थर आ गये थे। कई जगह तो हम पकड-पकड कर डंडा छोड-छोड कर आगे चढ रहे थे। मार्ग में कई जगह पानी की प्यास लगी, नीरज क्या जाने, जाट देवता के जिगर को हमारा जिगर तो बर्फ़ को भी गला जाता है, खा गये बर्फ़, साथ-साथ विपिन को भी खिलायी, वैसे आपको बता दू, 4-5 घंटे तक तो ठीक है इससे ज्यादा बर्फ़ के भरोसे नहीं रहना चाहिए, चाहे बर्फ़ का पानी बना कर पी लो। हम आगे बढते रहे। पत्थरों पर लगूरों की तरह कूदा फ़ांदी करते आगे बढते रहे चढाई हमारा पीछा नहीं छोड रही थी, बल्कि ये कहूँ कि आगे से हट नहीं रही थी। हम भी ठहरे पक्के सिरफ़िरे चढते रहे, बर्फ़ खाते रहे। बर्फ़ खाते समय एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि बर्फ़ हो सके तो ताजी ही खानी चाहिए। लगभग दो घंटे चलने के बाद हम भीम बही नाम की जगह पर आ गये थे, हमारे साथ गाजियाबाद से आया एक समूह भी यात्रा कर रहा था। ऐसी दुर्गम जगह पर अगर कोई जानबूझ कर अपनी क्षमता/जात्थर से फ़ालतू चले तो उसे यहाँ लेने के देने पड सकते है। यहाँ इतनी दुर्गम जगह किसी भी बंदे को अपना खुद का आपा सम्भालना भारी पड रहा होता है, और भगवान ना करे किसी को आकस्मिक समस्या आन पडे, तो फ़िर तो भगवान ही मालिक है।
बन जाओ लगूंर और कूदते चलो।
हम ही जानते कि हम वहाँ तक कैसे पहुँचे थे, जब भीम-बही पहुँचे तो देखा कि बडॆ-बडॆ पत्थरों पर कुछ निशान बने हुए है, उन निशानों का क्या मतलब है हम नहीं जानते है। विपिन को यहाँ भूख लगी, लेकिन बिस्कुट के दोनों पैकेट तो नीरज के पास ही थे। मुझे भूख पूरे दिन तंग नहीं करती है, प्यास जरुर याद कराती है। प्यास का प्रबंध तो यहाँ पर कुदरत ने कर दिया था। हम दोनों इतने आराम-आराम से चल रहे थे, कि बस कुछ निढाल हो चुके बंदे ही हमारे से पीछे रह गये थे। अब कुछ नहीं हो सकता था। बस अब तो बर्फ़ पार करते ही फ़ाडू बाबा जी आने वाले थे।
देखो जी भीम बही में आकर किसने ये पत्थर काट कर यहाँ रखे हुए है?ये पत्थरों पर क्या है, हमरी समझ में नहीं आया था।
जब फ़ाडू बाबा जी बिल्कुल पास में थे तो एक बार फ़िर बर्फ़ का ढलान आ गया, ये बर्फ़ का ग्लेशियर इस पूरे सफ़र का सबसे बडा था, सबसे ऊँची जगह, एक दम ढलान में अब यहाँ हर कदम सोच-सोच कर हर कोई आगे बढ रहा था। बडी मुश्किल से जान बची और ये पार हुआ, और हम जा पहुँचे उस जगह जिस का हमें कई दिनों से इंतजार था। सबसे पहले हम आराम से बैठ गये, तसल्ली से बैठे रहे पूरे आधा घंटा बैठे रहे, विपिन बोला चलो भाई भोले बाबा को नमस्कार करके आते है, मैं बोला रे भोले अब काहे चिंता करता है, क्या अब भी तुझे लगता है कि हम 50 मीटर पहले से भी बिना दर्शन किये वापिस चले जायेंगे। उसके बाद जाकर जूते निकाले, श्रीखण्ड बाबा उर्फ़ श्रीफ़ाडू बाबा के दर्शन किये, बाबा जो कि यहाँ पर एक 70 फ़ूट की शिला/चट्टान के रुप में पूजे जाते है।
अब मंजिल ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन खतरा अभी टला नहीं है।
महादेव को नमस्कार किया, यहाँ तक सही सलामत लाने का आभार व्यक्त किया, और वापसी भी सही सलामत करने के लिये वचन भी लिया था, और देखो हमारी सब बाते बाबा ने मानी है, मैं कैसे कह दू कि मैं सिर्फ़ घुमक्कडी करने गया था, ऐसी दुर्गम जगह एक अदृश्य शक्ति सच्चे बंदों का साथ देती है, देखो हमारा भी दिया है, नीरज भले ही कितना कहता रहे कि मैं पूजा-पाठ करने नहीं गया था, लेकिन बंधु मैं तो कहता हूँ, कि भगवान भाव का भूखा है ना कि पूजा सामग्री का। नीरज ये बात माननी ही पडॆगी कि चाहे एक बार ही सही सच्चे मन से जरुर भोलेनाथ को इस सफ़र में याद जरुर किया होगा, तभी तो तुम इस अनमोल स्थल पर जा सके। नहीं तो तुम्हारे कानों में वो हिम्मत बधाने वाली आवाज क्यों आती? हम इस स्थल पर पूरे एक घंटा रुके थे, हम ये पक्का मान बैठे थे कि नीरज सच में वापस लौट गया है। इतना तेज तो हम भी नहीं चले थे कि वो हमें पकड ही नहीं पाता। यहाँ श्रीखण्ड बाबा से एकदम पहले, एक विशाल त्रिशूल जैसी आकृति बनी हुई है। इसके बराबर में ही गणेश जी भी विराजमान है, पता नहीं कौन से थे। मैने नहीं देखे। श्रीखण्ड महदेव के पीछे वाले पर्वत को कार्तिकेय पर्वत कहा जाता है, कहते है कि वहाँ तक कोई विरला ही जा पाता है। विरला माने मुझसे दस गुणा सनकी जो होगा वो विरला कहलायेगा। कोई हो तो बता देना।
लो जी आ गये हम यहाँ सब खतरों को पार करने के बाद, त्रिशूल जैसी पहाडी, व श्रीखण्ड बाबा।श्रीखण्ड बाबा के पीछे कार्तिकेय चोटी भी नजर आ रही है।
जय हो श्रीखण्ड उर्फ़ फ़ाडू बाबा।
मंजिल पर आकर खुशी मिली है।
लो जी अब यहाँ का मेल मिलाप तो हो गया, जाटदेवता का परमात्मा से मिलन हुआ। अब विदाई की बारी, नमस्कार किया, और घर की ओर वापस हो लिये। वापस चलते ही, एक भयंकर विपदा आन पडी वो थी, वो सबसे बडा ग्लेशियर वो भी ऐसी जगह जहाँ एक नन्ही सी चूक, और सीधा स्वर्ग का टिकट पक्का था। खाई ऐसी कि किसी के बाप की हिम्मत नहीं जो उस खाई में जाकर ढूँढ सके। हम तो किसी तरह डंडे गाड-गाड कर इसे पार कर गये थे, पर एक 50-55 साल के भक्त इसे पार करते समय हल्के से चूके और हमारी देखते-देखते सीधे खाई की ओर लुढक गये वो तो शुक्र था भोलेनाथ का कि वो मुँह के बल गिरे जिससे कि हाथ आगे की ओर हो गये थे व सिर थोडी दूर जाकर बर्फ़ में धंस गया था। हम चाहकर भी उनकी मदद नहीं कर सकते थे। वे ऐसी खतरनाक ढलान पर रुक गये थे जहाँ से हजारों फ़ुट गहरी खाई सिर्फ़ चार फ़ुट दूर ही रह गयी थी। इनकी जान बचना एक करिश्मे से कम नहीं था। जितने भी लोग वहाँ पर मौजूद थे, सबके मुँह से सिर्फ़ यही निकला था, भोले तेरी लीला। इनकी लाठी भी हमारे पीछे गिर गयी थी, जो फ़ैंक कर उनके पास तक पहुँचायी गयी। एक बंदा अपने जूतों को बर्फ़ में गडाता हुआ उन्हे निकाल लाया था। हम फ़िर आगे की ओर चल दिये थे।
अब वापसी भी जोखिम भरी है, वो सामने से लुढके थे वो बुजुर्ग।
अब हम उस घटना के बाद और भी ज्यादा सावधानी से नीचे की ओर उतर रहे थे। एक किलोमीटर आने पर हमें नीरज आता हुआ मिला, एक बार तो यकीन ही नहीं हुआ, फ़िर से देखा तो सच में नीरज ही था। समय हुआ था तीन-साढे तीन का, एक बार कहा कि अभी बहुत मुश्किल है, लेकिन नीरज की चढाई की जो रफ़तार थी, उससे उसका रात होने से पहले वापस आना मुश्किल लग रहा था। फ़िर भी कह दिया कि रात होने से पहले पहुँचने की कोशिश करना, हम नीचे की ओर व नीरज ऊपर की ओर चढता गया। कुछ ही देर बाद बारिश शुरु हो गयी साथ ही बर्फ़बारी भी, मेरी तो बर्फ़ीले पहाड व बर्फ़बारी से घनिष्ट मित्रता है। उस दस मिनट की बारिश व बर्फ़बारी ने हमें ऊपर से नीचे तक पूरा भिगो दिया, हमें ठण्ड भी लगने लगी थी। एक जगह जब ना पानी मिला, ना बर्फ़ तो विपिन का गला सूख गया, मुँह लाल हो गया था। एक बंदे के पास बोतल तो थी, पर पानी न था, अब बर्फ़ के नीचे ढलान से, कोई पानी लाने को तैयार ना हो। उससे बोतल ली किसी तरह जान जोखिम में डाल विपिन व सब के लिये नीचे से पानी ले कर आया था। बोतल भी पूरे दो लीटर वाली थी, मैंने तो नीचे ही वही बैठ कर पेट भर पानी पिया था। पानी पीकर ठन्ड और बढ गयी थी।
एक किलोमीटर ऊपर से देखो कैसी दिखाई दे रही है, ये उतराई?
ठन्ड के कारण बैठना भी बन्द कर दिया था, चलते रहते थे, ताकि शरीर गर्म रहे। विपिन तो उतराई में सबका फ़ूफ़ा था, यानि बेकार अब तो पहाड भी भीग गये थे। बैठ-बैठ कर उतरना शुरु किया, कई जगह तो बडॆ सोच समझ कर उतरना पडता था। कई बार फ़िसले बाल-बाल गिरने से बचे थे। खैर किसी तरह जान बची और हम नैन सरोवर तक आ गये, उतराई में पत्थरों के निशानों का भी ध्यान नहीं रहा. सीधे नैन सरोवर आ गये, रास्ता गया भाड में। यहाँ शाम के पाँच बज गये थे। अब कोई जल्दी नहीं थी। यहाँ आधा घंटा आराम किया, यहाँ फ़िर से पेट भर कर पानी पिया था, यहाँ से आगे ऊपर पानी नहीं मिलता है। फ़िर पार्वती बाग के लिये चल दिये। 6:30 बजे पार्वती बाग आ गये थे। यहाँ फ़िर से आराम करने के लिये बैठ गये।
एक किलोमीटर ऊपर से देखो कैसा दिखाई देता है नैन सरोवर।इसे कहते जंग जीतना, बल्कि उससे भी ज्यादा खुशी हुई थी। ये भी कह सकते हो, जान बची।
नैन सरोवर से पार्वती बाग को देखो।
मुझे व विपिन को भूख लगी थी, दोनों पैकैट तो नीरज पेल गया था। पार्वती बाग में उसी जगह पर जहाँ सुबह पराठे खा कर चले थे, अब यहाँ पर हम दोनों ने मैगी खायी थी, हम अभी बैठे आराम कर ही रहे थे कि सात बजने वाले थे व नीरज भी आ गया था, एक बार फ़िर लगा नहीं ये तो कोई और है। अब तीन तिगाडा, एक साथ बडे खुश थे, थोडी बहुत नाराजगी थी, वो खत्म हो गयी थी। कुछ देर बात यहाँ से चले तो तेज ढलान थी जिस पर बडे सम्भल कर उतरना पड रहा था, दो बार मैं गिरते-गिरते बचा, एक बार विपिन, और नीरज तो एक बार धडाम से पूरा लम्ब लेट हो ही गया था। सब सही सलामत मस्ती काटते हुए अपने रात्रि विश्राम स्थल भीम डवार आ गये थे। अभी अंधेरा होने ही वाला था।
पार्वती बाग भी आ गया है।चलो भीम डवार की ओर।
ये देखो आ गया है, भीम डवार भी।
अब तो मंजिल आ गयी है। कुछ देर आराम हो जाये।
अरे! सुबह तक तो ये सही था, शाम तक ये गायब ही हो गया है।
अरे! घनश्याम भूख लगी है, रोटी बना दे।
दिल्ली वालों, आप लोगों का दो रात रुकने व दो समय के खाने का बिल ये रहा।
आगे की पोस्ट में भीम डवार से रामपुर तक की यात्रा पढने के लिये यहाँ क्लिक करे।
उसके आगे चकराता, पौंटा साहिब अभी बाकि है।
इस यात्रा का जो भाग देखना चाहते हो उसके लिये यहाँ नीचे क्लिक करना होगा
भाग-01-दिल्ली से पिंजौर गार्ड़न तक।
भाग-02-पिंजौर का भव्य गार्ड़न
भाग-03-पिंजौर से जलोड़ी जोत/जलोढ़ी दर्रा
भाग-04-सरोलसर झील व रघुपुर किले के अवशेष
भाग-05-सैंज से निरमुन्ड़ होते हुए जॉव तक
भाग-06-सिंहगाड़ से ड़न्ड़ाधार की खड़ी चढ़ाई कर, थाचडू होते हुए काली घाटी तक
भाग-07-काली घाटी से भीमद्धार/भीमडवार तक
भाग-08-पार्वती बाग, नैन सरोवर होते हुए, श्रीखण्ड़ महादेव शिला के दर्शन
भाग-09-वापसी श्रीखन्ड़ से भीमड़वार होते हुए, रामपुर बुशैहर तक
भाग-10-रामपुर से रोहड़ होते हुए चकराता तक।
भाग-11-चकराता का टाईगर फ़ॉल/झरना
भाग-12-सम्राट अशोक कालीन शिलालेख, कालसी में
भाग-13-पौंटा-साहिब गुरुद्धारा
भाग-14-पौंटा-साहिब से सहारनपुर-शामली होते हुए दिल्ली तक।
भाग-15-श्रीखन्ड़ यात्रा पर जाने के लिये महत्वपूर्ण बाते।
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37 टिप्पणियां:
नयनाभिराम दृश्य, रोमांच की पराकाष्ठा।
bahut romanchak yaatra........ smapt hui....
sundr foto ke liye aabhaar.
ग़ज़ब के चित्र...क्या जगह है वाह...कोई हिम्मत वाला ही यहाँ पहुँच सकता है...
नीरज
खतरनाक यात्रा ! पढ़ा भी नही जा रहा हैं और देखा भी नही जा रहा है ..?????? होश गुम ????
जय हो बाबा श्री खंड महादेव की ....
जाट देवता जी इस कठिन यात्रा को पूरा करने पर आप सभी भाइयो को बधाई हो......... आप लोगो की ये यात्रा वाकई बहुत कठिन थी...
धन्यवाद
माउन्ट आबू : अरावली पर्वत माला का एक खूबसूरत हिल स्टेशन .........2
http://safarhainsuhana.blogspot.com/2011/08/2.html
ब्रेथटेकिंग !
माइंड ब्लोइंग !
आप तो पूरे पर्वतारोही हो यार .
इतने दुर्गम स्थान की यात्रा देखकर हम तो अचंभित रह गए .
बहुत बढ़िया रहा यह चित्रमयी विवरण .
wah jath ji
keya baat hai
sach chok gaye, bahut jokam vali hai, bahut bahut sukariya
etni sundar post lagake dekahne ke leye, ham sab ko path nahi ki kithne sundar aur jokahm vaki hai
waw
YOU ARE GREAT & YOUR FRIENDS,
SPOT TO YOU
THANKS
NICE PICT AND POST
अद्भुत!!अविस्मरणीय!!हैरतअंगेज!! गजब !!भयानक!! रोमांचक!! दुस्साहसी!! इत्यादि शब्दों से नवाजा जा सकता है इस यात्रा को. जैसे जैसे आप लोग ऊपर की तरफ चढ़ रहे थे यात्रा में रोमांच आता जा रहा था!! इस यात्रा में मुझे लगा कि ये घुमक्कड़ों की नहीं भक्तों कि यात्रा थी.क्योंकि बिना भक्ति के आप यात्रा क्यों करने लगे ? जब आप जैसे लोग भी इस यात्रा से घबरा रहे थे, तो मेरे जैसे के तो शायद ही बस में नहीं हो!! इतनी कठिन यात्रा में भी आप ने फोटो खींचना जारी रखा और हमें भयानक दृश्यों से रूबरू करवाया इसके ले आप बधाई के पात्र हैं!! वैसे नीरज को आप को छोड़ के नहीं जाना चाहिए था.....साथ आये थे कुछ हो जाये तो साथ ही भुगते मेरा तो यही मानना है. टोर्च, माचिस और चाकू ऐसी यात्राओं में साथ जरूरी है.
पूरा विवरण अब पढ़ पाए हैं । बहुत जोखम भरा और हैरतअंगेज़ सफ़र था ।
ऐसे सफ़र में ड्राई फ्रूट्स और चौकलेट बिस्कुट्स आदि रखना ज़रूरी होता है । साथ ही पानी की बोतल ।
बेहद खतरनाक रहा यह ट्रिप ।
गजब की यात्रा रही, चढाई भी तगड़ी है, ट्रेकिंग की बिना ट्रेंनिंग लिए इस तरह की दुष्कर जगहों पर जाना सिरफ़िरों को ही काम है। इस तरह की कठिन चढाई से तो मैं परिचित ही नहीं था। सैल्युट है तुम्हारे जज्बे को।
प्राचीन काल में पत्थरों को साईज से काटने के लिए उसमें लाईन से छेद किए जाते थे फ़िर उसमें ठाट ठोकी जाती थी जिससे पत्त्थर साईज से टुकड़ों में बंट जाते थे। यहाँ भी किसी ने पत्थर काटे होगें। उन्ही शिलाओं के टुकड़े जैसे नजर आ रहे हैं।
जय फ़ाड़ू बाबा की। आनंद आ गया। कभी हिम्मत करेंगे, जब बाबा बुलावैगा।
राम राम
बेहद ख़ुशी हुई आप लोगों की सफल यात्रा देख कर...वृतांत और दृश्य अवर्णनीय...रोमांचक यात्रा हमसे शेयर करने के लिए हार्दिक धन्यवाद...आपकी अगली पोस्ट का हमेशा इंतज़ार रहता है...शुभकामनाएं...
कमाल है जी कमाल.
जाट देवता तूने मचा दिया है धमाल
कठिन चढाई और खतरनाक ढाल
सुन्दर चित्रों से पोस्ट हो गई आपकी मालामाल.
आपकी सुन्दर प्रस्तुति की है अदभुत ताल.
आभार. आभार. आभार.
आखिर इस जांबाजी का एक शिखर आपने छू लिया हमें लगा इससे ज्यादा ख़ुशी और दुस्साहस हिलेरी एडमंड का भी नहीं रहा होगा .बधाई .बहुत जोश भरने वाली उत्प्रेरक पोस्ट .
Tuesday, August 16, 2011
उठो नौजवानों सोने के दिन गए ......http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
सोमवार, १५ अगस्त २०११
संविधान जिन्होनें पढ़ लिया है (दूसरी किश्त ).
http://veerubhai1947.blogspot.com/
मंगलवार, १६ अगस्त २०११
त्रि -मूर्ती से तीन सवाल .
सन्दीप भाई, सीधे तौर पर यह पोस्ट मेरी पोस्ट के जवाब में लिखी गई है। यात्रा वृत्तान्त का मतलब केवल यह नहीं होता कि हमने क्या खाया, क्या पीया, क्या देखा? इसमें वो बातें भी लिखनी होती हैं जो हमने महसूस कीं। हमने यात्रा की क्या योजना बनाई, हमारे दिमाग में क्या चल रहा था, यह भी लिखना होता है। एक घुमक्कड होने के नाते इस बात को आप भी समझते हैं।
उस दिन नैन सरोवर के किनारे बैठे हुए मेरे दिमाग में वही बातें चल रही थीं जो मैंने लिखी हैं। और मैं पहले दिन से ही लिखता आ रहा हूं कि आप मुझसे सौ गुना ज्यादा ताकतवर इंसान हैं। जो कोई भी मुझे जानता है वो मेरे घुमक्कड होने के साथ साथ यह भी जानता है कि मैं एक नम्बर का सोतडू और आलसी इंसान हूं। भला एक घुमक्कड का आलस से क्या मतलब?
मैं नास्तिक नहीं हूं। बस पूजा-पाठ से दूर रहता हूं। हर सफर पर निकलने से पहले कुछ सेकण्डों तक आंख बन्द करके उस भगवान का धन्यवाद करता हूं कि तेरी वजह से ही मैं आज फिर घूमने निकला हूं।
अच्छा हां, अगर आप ना होते और विपिन मेरे साथ होता तो भले ही विपिन आपसे आगे आगे चल रहा हो, लेकिन मुझसे पीछे ही पीछे रहता। इस बात को मैं गारण्टी से कह सकता हूं। भले ही विपिन जन्मजात पहाडी हो, ट्रैवल एजेंसी में काम करता हो, लेकिन उसकी पहुंच कहां तक थी, मैं अच्छी तरह जानता हूं। इसका मतलब ये नहीं है कि आप मुझसे कमजोर हो बल्कि इसका सीधा सा मतलब यही निकलता है कि आपका साथी कैसा है। उसके साथ जब एक ऊर्जावान इंसान चल रहा था तो वो भी आगे आगे था लेकिन अगर मुझ जैसा ऊर्जाहीन इंसान होता तो भईया, वो मुझसे भी कमजोर पड जाता।
मेरा मकसद कोई विवाद करने का नहीं था। अगर यह हल्का सा विवाद हुआ भी है तो उसके लिये मैं क्षमा चाहता हूं क्योंकि इसकी शुरूआत मैंने ही की थी।
और करीब हर फोटो पर अपना कॉपीराइट दिखाना फोटो का सत्यानाश करना है। ऐसा करने पर आपको भले ही खुशी मिलती हो, मेरा दिमाग खराब हो जाता है। विनीता यशस्वी के साथ मेरी ना बनने का एक कारण यह भी है। कृपया आगे से ऐसा ना करें। अपने जैसे मनमौजी इंसान का एकाध फोटो अगर कोई चोरी करके अपने यहां लगा भी ले तो अपनी सेहत पर क्या फरक पडता है?
हर इंसान के अपने अपने उसूल होते हैं। अगर कोई इंसान अपने उसूलों पर चल रहा है तो उसे कभी भी कमजोर नहीं कहना चाहिये। इसी तरह मेरा उसूल है कि अन्धेरे में ना चलना। मैंने निर्भीक होकर इतने विरोध झेलकर भी अपना यह उसूल निभाया, इसलिये तारीफ बनती है। उधर विपिन को देखना जरा। जिसका कोई उसूल ही ना हो, वो सुबह चार बजे उठे या तीन बजे, कोई तारीफ नहीं बनती। और हां, वो बैग वाली बात। मैंने आपसे कहा भी था कि मेरा बैग मेरे शरीर का हिस्सा है। उसमें आधा किलो वजन हो या छह सात किलो, इससे चलने की स्पीड पर कोई फरक नहीं पडता। मैं इतने दिनों से घुमक्कडी कर रहा हूं, अपनी कितनी क्षमता है, मुझे अच्छी तरह पता है।
और हां, जब आपने दो सौ परसेण्ट मान लिया था कि नीरज हिम्मत हारकर वापस चला गया है और वो आपको लौटते समय श्रीखण्ड जाता हुआ दिखा तो भईया, फिर से तारीफ बनती है। ऐसे समय ऐसी जगह पर दोषारोपण नहीं करना चाहिये। अगले की तारीफ करनी चाहिये कि शाबास। हमने तो तुझे हारा हुआ मान लिया था और तू तो वाकई उस्ताद निकला।
खैर चलो, अब याद करते हैं त्यूनी से चकराता के उस सफर को जिसके जिम्मेदार केवल हम दोनों ही थे। हा हा हा
beautiful shots
साक्षात बोलती तस्वीर...रोमांचक यात्रा..शुभकामनाएँ..
Neeraj Jaat bhai to aagbaboola ho gaye. Inko anna ke saath khada kar do ;)
Rahi baat copyright ki, Neeraj jaat ne ekdam sahi baat kahi. Agar koi chori a bhi le, aap kya case ladne Bombay High COurt jaaoge? :P
Achha travelogue
भाई साहब ,आपको शत -शत नमन. ऐसे दुर्गम मार्ग पर चलना तो अत्यंत ही दुष्कर रहा होगा ........आपसब महान हैं . दृश्य तो अत्यंत ही मनोहारी थे ...बधाई
संदीप जी मजा आ गया नयी जगह घुमाया इस बार सुन्दर मनोहारी चित्र ...जय बाबा श्री खंड की ...खतरों के खिलाडी जरा बच के बाबा ....
धन्यवाद
भ्रमर ५
आपका यात्रावृतांत बहुत ही सुंदर और रोचक है बधाई
बढ़िया यात्रा विवरण ... जारी रखिये ...
बेहद रोमांचक यात्रा वृत्तांत।
अद्भूत यात्रा. और 'दो सितारों' का संग मिलन भी !
ज्वाईंट वेंचर में कुछ मतभेद हो जाते हैं मनमौजियों के साथ. मगर 'सफर मस्ट गो ऑन'.
गजब रोमांचकारी....जय भोलेनाथ...यहीं से प्रणाम!!
एक बार आपके साथ सफ़र करने की इच्छा बलवती हो रही है। इश्वर ने चाहा तो अवश्य पूरी होगी
बहुत खूबसूरत पोस्ट......शुभकामनायें।
बहुत ही कठिन यात्रा और रोमांचक भी ........
संदीप भाई माफ़ करना तीन दिन से देल्ही मे था इसलिए आपकी यात्रा की कहानी नहीं पढ़ पाया
धन्यवाद् ....
यात्रा वृत्तांत पढ़ते हुए मैंने दो बार पानी पिया जाट भाई. तुम गए तुम लौट आए. अच्छा हुआ. इतना ही कहूँगा कि पत्थर से पत्थर निपटे, मैं यहीं ठीक हूँ.
romanchit kar diya..bhai aap jahan chal rahe ho uske bagal mein tuti hui barf aaur phir gaddha dekhkar mujhe to wakai mein bhay mahsoos ho raha hai...baise ye gaddehe kitne gahre hote hain...
काश हम भी होते ....
हार्दिक शुभकामनायें !
वाह ये तो यात्रा की रनिंग कमेंट्री हो गई :) जितने सुंदर चित्र उससे भी कहीं अधिक संपूर्ण विवरण
संदीप भाई !तारीफ़ करूँ क्या उसकी जिसने तुझे बनाया .आजकल १०१३ ,लक्ष्मी बाई नगर में हूँ .कृपया हुक्म करें क्या आदेश है ?
ram ram bhai
शनिवार, २० अगस्त २०११
कुर्सी के लिए किसी की भी बली ले सकती है सरकार ....
स्टेंडिंग कमेटी में चारा खोर लालू और संसद में पैसा बंटवाने के आरोपी गुब्बारे नुमा चेहरे वाले अमर सिंह को लाकर सरकार ने अपनी मनसा साफ़ कर दी है ,सरकार जन लोकपाल बिल नहीं लायेगी .छल बल से बन्दूक इन दो मूढ़ -धन्य लोगों के कंधे पर रखकर गोली चलायेगी .सेंकडों हज़ारों लोगों की बलि ले सकती है यह सरकार मन मोहनिया ,सोनियावी ,अपनी कुर्सी बचाने की खातिर ,अन्ना मारे जायेंगे सब ।
क्योंकि इन दिनों -
"राष्ट्र की साँसे अन्ना जी ,महाराष्ट्र की साँसे अन्ना जी ,
मनमोहन दिल हाथ पे रख्खो ,आपकी साँसे अन्नाजी .
http://veerubhai1947.blogspot.com/
क्या बात है! आपके चित्र जितना आकर्षक हैं, चढ़ाई उतनी हे कठिन | कोई हिम्मत वाला ही यहाँ पहुँच सकता है |
मैं ढूँढ रही थी कि क्या facebook या twitter पर share करने की सुविधा है, पर नहीं है | कोई बात नहीं मैं फिर भी करुँगी | :)
संदीप भाई , "जो मेरे लिए कल्याण कारी मार्ग है वही बतलाइये ,पार्थ आज भी यही कृष्ण (किसनउर्फ़ अन्ना )से पूछ रहा है .शुक्रिया आपकी बेशकीमती टिप्पणी के लिए . ,इस दौर में आप लोगों की टिप्पणियाँ ही लिखने की प्रेरणा बनी हुईं हैं .
रविवार, २१ अगस्त २०११
सरकारी "हाथ "डिसपोज़ेबिल दस्ताना ".
http://veerubhai1947.blogspot.com/2011/08/blog-post_5020.html
आपका प्रंशसक बन गया हूँ जाट देवता .. कभी मिलूँगा आपसे .. बढ़ी दिलचस्प यात्रायें हैं .. आपकी , मैंने आपकी हर यात्रा पढ़ी .. बहुत खूब ... वाकई , यह तो किस्मत से ही मिलती .... घुमक्कडी
यह यात्रा फिर से पढ़ने में उतना ही मजा आता जितनी पहली बार पढ़ी थी.
Nice blog, very adventurous and beautiful places.
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