देखो जी इस पेड में कैसे घुसे खडे है, ये सिरफ़िरे मस्ताने जाट
सब ठीक दोपहर बारह बजे, पहले से तय आज की मंजिल सरेउलसर झील व उसके किनारे पर बने मंदिर देखने के लिये चल पडे। दुकान वाले ने बताया था कि लगभग पाँच किलोमीटर का मार्ग है, कोई खास कठिन नहीं है, लेकिन नीरज ने फ़िर भी अपना लठ साथ ले लिया था। इस मार्ग पर लगभग आठ सौ मीटर जाने पर सीधे हाथ नीचे की ओर कुछ टैंट लगे हुए थे, जो कि यहाँ आने वालों के लिये ही रहे होंगे। एक किलोमीटर तक मार्ग समतल सा ही है, उससे कुछ आगे जाने पर पूरे एक किलोमीटर तक उतराई-ही उतराई थी, इससे आगे जाने पर मार्ग कभी ऊपर की ओर व कभी नीचे की ओर जा रहा था, यानि पूरा उबड-खाबड मार्ग था। एक पचास साल के व्यक्ति जो हमारे से पहले पैदल चले हुए थे, हमें ढलान शुरु होते ही मिले थे, उनकी रफ़्तार इतनी तेज थी कि जब हम इस झील को देख कर वापस आ रहे थे तो ये हमें झील की ओर जाते हुए मिले थे, वो भी झील से आधा किलोमीटर पहले। इन महाशय का नामकरण किया गया "शामली एक्सप्रेस" जो इन पर पूरी तरह फ़िट बैठता था।
पहाड में जहाँ जरा सी जगह नजर आयी, वहीं घर बना दिया जाता है।
झील के किनारे लोकल देवता कुछ जरुरी काम से आये हुए थे, या हमसे मिलने?
इसी मार्ग में एक खोखला पेड भी मिला, जिसके तने में आराम से कोई भी मोटा ताजा बंदा घुस सकता है, इसके तने में घुसने से पहले इसको अच्छी तरह देख लिया था कि अंदर कोई शिकार या शिकारी तो मौजूद नहीं है। जिसमें सबसे पहले मैं जाकर घुस गया, सबसे आगे तो मैं ही चल रहा था, मेरे पीछे-पीछे सारे के सारे इस पेड में घुस गये, तीनों सिरफ़िरे जाट तो एक साथ ही घुस गये थे, बात फ़ोटो की जो थी, आप अंदाजा लगा सकते हो कि कितना बडा पेड रहा होगा। इस मार्ग पर हमारे अलावा भी कुछ प्रकृति के दीवाने यहाँ आ जा रहे थे। सरेउलसर झील से आधा किलोमीटर पहले एक जगह मार्ग से थोडा सा हटकर पहाड के अंदर दो-तीन मकान बने हुए थे, लेकिन सब खाली थे, मैंने स्वयं जाकर देखे थे। जब हम इस झील पर पहुँचे तो देखा कि एक छोटी सी गोलाई में बनी हुई प्यारी सी झील है, इसके किनारे पर एक मंदिर भी बना हुआ है जिसमें उस समय कोई धार्मिक कार्यक्रम चल रहा था। एक बंदे के शरीर में देवता ने हाजिर होकर उस बंदे के मुख से देवता ने सबको कुछ कहा था। हमारी समझ से बाहर था कि क्या कहा था। इस सरेउलसर झील के चारों ओर बने गोल घेरे पर जो पैदल मार्ग बना हुआ था, उस पूरे मार्ग पर, इस धार्मिक कार्यक्रम के चलते देशी घी डला हुआ था, जिससे यह मार्ग काफ़ी चिकना हो गया था, हम बडॆ सम्भल-सम्भल कर इस झील की परिक्रमा कर रहे थे। एक जगह जाकर एक बडा सा पत्थर चढ कर पार करना पडता है। इस झील के किनारे ही एक धर्मशाला का निर्माण हुआ है, जहाँ जल्द ही रात को रुकने की व्यवस्था भी शुरु हो जायेगी।
एक सर्प जैसे दिखाई देने वाले पौधे के पीछे झील का नजारा।
लो जी आप भी पूरी झील देख ही लो।
इस सरेउलसर झील में एक सराय भी बना रखी है।
इस वन में एक पेड से धुँआ निकल रहा था, पहले तो हम समझे ही नहीं कि माजरा क्या है, लेकिन जब उस पेड के पास गये तो पता चला कि किसी ने उस पेड की खोल में आग डाल दी होगी, जिससे कि वो धुँआ निकल रहा था। पता नहीं लोग ऐसी बेवकूफ़ी क्यों करते है।
लो जी जलोढी तो वापस आ गये अब सामने दिखाई दे रहे किले पर जाना है
हम सबने मस्त हाथी की तरह टहलते हुए, इस एक किलोमीटर के मैदान को पार किया। इस मैदान के दूसरे कोने पर ही वो रघुपुर किला था जहाँ तक हमें जाना था। जब इस किले पर आये तो ऐसा लगा कि जैसी किसी बडे से घर की नीव भरी गयी हो व अधूरी छोड दी गयी हो, यहाँ दो बडे-बडे कमरे बनाये गये है, शायद सरकारी कार्य के लिये इनका निर्माण किया गया होगा। एक मंदिर वो भी बिना किसी मूर्ति का है, बस एक हवन कुंड है बिल्कुल आर्य समाजी जैसा। सबने फ़ोटो लिये व वापस जाने को तैयार हो गये, वापसी में फ़िर कर दी गडबड, या हो गयी। बात ऐसी थी कि आते समय जो गलती हुई थी, व उस भेड वाले ने जो मार्ग बताया था, उसे हम इस किले के इस तरफ़ समझ बैठे, सबसे आगे मैं, बाकि सब पीछे-पीछे, आधा किलोमीटर तक जबरदस्त ढलान थी, उतरते चले गये, नितिन अपनी किसी गर्लफ़्रेंड से बातों में लगा हुआ था, अत: मार्ग पर कम ध्यान था तो उसका पैर पडा गोबर पर व सीधा पच्चीस-तीस फ़ुट तक ढलान पर रिपटता चला गया। बेचारे की पैंट पहले से फ़टी थी, और फ़ट गयी।
किले से पहले इसी छोटे से घास के मैदान से आगे दो मार्ग होते है।
ये फ़ोटो गलत वाले मार्ग पर लिया गया था।
इस भेड वाले ने रास्ता बताया था कि सीधे चढ जाओ तो किले जा पाओगे।
ये साँप वाले पौधे व खूबसूरत नजारे भरे पडे है यहाँ पर
किले से पहले वाला मैदान है।
एक ढलान पर गाय घास चर रही थी।
देख है बादलों का ऐसा समुन्द्र
ये प्राचीन मंदिर के अवशेष बचे हुए है, कभी तो रहा होगा ही।
अब तो किले के भी अवशेष ही बचे हुए है, कभी तो बहुत ही भव्य रहा होगा।
किले की चारदीवारी के अवशेष मार्ग का काम कर रही थी।
किले के एक कोने में बना हुआ है, ये मंदिर
किले से जलोढी जोत का नजारा देख लो कैसा आता है
एक बार फ़िर गलत मार्ग पर जाते हुए, किले के दूसरी तरफ़ उतर गये।
किले के दूसरी तरफ़ उतर कर ये शानदार नजारा था।
ये फ़ोटो नीरज ने लिया था, इसमें कुछ गडबड है। इस फ़ोटो का रहस्य कोई बतायेगा?
शाम सवा सात बजे तक हम जलोडी पास पर हाजिर हो गये थे। हमारे बैग उस मैगी वाली दुकान पर ही थे, वो दुकान वाला हमारा इंतजार कर रहा था, हमारे आते ही उसने हमे बैग सौपे व गाडी में बैठ अपने घर चला गया। वैसे यहाँ भी रात में रुकने का एक दुकान वाला प्रबंध कर देता है, लेकिन हम यहाँ नहीं रुके। एक दुकान वाले को चार मैंगी बनाने को कह दी थी, लेकिन मैगी खाने से पहले ही विपिन व नीरज एक गाडी में बैठ अन्नी की ओर निकल गये। हम दो नितिन जाट व जाट देवता रह गये, मैगी भी डबल-डबल खानी पडी थी। मैगी खाते ही तुरंत हमने भी अंधेरा होने से पहले ही यहाँ से अन्नी के लिये कन्नी काट ली थी
इस घने जंगल में पेड का काई से क्या हाल हो गया है।
गलत मार्ग पर आने का फ़ल, तब तो सीधे बंदरों की तरह चढकर ही वापस आया गया था।
नीरज व विपिन हमसे बीस मिनट पहले चले थे, लेकिन हम इनसे दस मिनट पहले अन्नी जा पहुँचे। यहाँ आते ही एक कमरा लिया। आराम से रात गुजारी। रात में हम जहाँ पर रुके थे वो जगह बस-अड्डे के पास ही थी, कमरे के पीछे ही एक नदी बह रही थी।
लो जी आ ही गये जलोडी जोत, अब चलो यहाँ से निकल ही लो।
मैं व नितिन अपनी-अपनी बाइक ले कर, सबसे पहले जलोडी पास पर आ गये थे, समय हुआ था साढे ग्यारह। नीरज व विपिन बस में बैठ कर इस पास पर आये थे, जिस कारण उन्हे यहाँ आने में लगभग बीस मिनट ज्यादा लग गये थे। तब तक मैं व नितिन इस पास पर बनी गिनी-गिनाई चार-पाँच दुकानों में से एक पर कब्जा जमा कर बैठ गये थे, जैसे ही ये दोनों बस से आये तो हमने दुकान वाले को खाने के लिये मैगी बनाने का आदेश दे दिया। सब ने एक-एक मैगी खायी इस यात्रा के भाग 1 भाग 2 भाग 3 क्लिक करे
एक फ़ोटो यहाँ भी हुआ, इस स्वर्णिम चतुर्भुज का (गप्पू जी द्धारा दिया गया नाम)सब ठीक दोपहर बारह बजे, पहले से तय आज की मंजिल सरेउलसर झील व उसके किनारे पर बने मंदिर देखने के लिये चल पडे। दुकान वाले ने बताया था कि लगभग पाँच किलोमीटर का मार्ग है, कोई खास कठिन नहीं है, लेकिन नीरज ने फ़िर भी अपना लठ साथ ले लिया था। इस मार्ग पर लगभग आठ सौ मीटर जाने पर सीधे हाथ नीचे की ओर कुछ टैंट लगे हुए थे, जो कि यहाँ आने वालों के लिये ही रहे होंगे। एक किलोमीटर तक मार्ग समतल सा ही है, उससे कुछ आगे जाने पर पूरे एक किलोमीटर तक उतराई-ही उतराई थी, इससे आगे जाने पर मार्ग कभी ऊपर की ओर व कभी नीचे की ओर जा रहा था, यानि पूरा उबड-खाबड मार्ग था। एक पचास साल के व्यक्ति जो हमारे से पहले पैदल चले हुए थे, हमें ढलान शुरु होते ही मिले थे, उनकी रफ़्तार इतनी तेज थी कि जब हम इस झील को देख कर वापस आ रहे थे तो ये हमें झील की ओर जाते हुए मिले थे, वो भी झील से आधा किलोमीटर पहले। इन महाशय का नामकरण किया गया "शामली एक्सप्रेस" जो इन पर पूरी तरह फ़िट बैठता था।
पहाड में जहाँ जरा सी जगह नजर आयी, वहीं घर बना दिया जाता है।
झील के किनारे लोकल देवता कुछ जरुरी काम से आये हुए थे, या हमसे मिलने?
इसी मार्ग में एक खोखला पेड भी मिला, जिसके तने में आराम से कोई भी मोटा ताजा बंदा घुस सकता है, इसके तने में घुसने से पहले इसको अच्छी तरह देख लिया था कि अंदर कोई शिकार या शिकारी तो मौजूद नहीं है। जिसमें सबसे पहले मैं जाकर घुस गया, सबसे आगे तो मैं ही चल रहा था, मेरे पीछे-पीछे सारे के सारे इस पेड में घुस गये, तीनों सिरफ़िरे जाट तो एक साथ ही घुस गये थे, बात फ़ोटो की जो थी, आप अंदाजा लगा सकते हो कि कितना बडा पेड रहा होगा। इस मार्ग पर हमारे अलावा भी कुछ प्रकृति के दीवाने यहाँ आ जा रहे थे। सरेउलसर झील से आधा किलोमीटर पहले एक जगह मार्ग से थोडा सा हटकर पहाड के अंदर दो-तीन मकान बने हुए थे, लेकिन सब खाली थे, मैंने स्वयं जाकर देखे थे। जब हम इस झील पर पहुँचे तो देखा कि एक छोटी सी गोलाई में बनी हुई प्यारी सी झील है, इसके किनारे पर एक मंदिर भी बना हुआ है जिसमें उस समय कोई धार्मिक कार्यक्रम चल रहा था। एक बंदे के शरीर में देवता ने हाजिर होकर उस बंदे के मुख से देवता ने सबको कुछ कहा था। हमारी समझ से बाहर था कि क्या कहा था। इस सरेउलसर झील के चारों ओर बने गोल घेरे पर जो पैदल मार्ग बना हुआ था, उस पूरे मार्ग पर, इस धार्मिक कार्यक्रम के चलते देशी घी डला हुआ था, जिससे यह मार्ग काफ़ी चिकना हो गया था, हम बडॆ सम्भल-सम्भल कर इस झील की परिक्रमा कर रहे थे। एक जगह जाकर एक बडा सा पत्थर चढ कर पार करना पडता है। इस झील के किनारे ही एक धर्मशाला का निर्माण हुआ है, जहाँ जल्द ही रात को रुकने की व्यवस्था भी शुरु हो जायेगी।
एक सर्प जैसे दिखाई देने वाले पौधे के पीछे झील का नजारा।
लो जी आप भी पूरी झील देख ही लो।
इस सरेउलसर झील में एक सराय भी बना रखी है।
घंटा भर रुककर हम इस छोटी सी प्यारी झील से वापस चल पडे। सवा तीन बजे तक हम वापस जलोडी जोत पर आ गये थे, जब हम झील से वापस आये तो दस-बारह बाइक वाले कुल्लू-रोहतांग-काजा-किन्नौर-रामपुर-अन्नी होते हुए जलोडी आये हुए थे, व वापस कुल्लू जा रहे थे।
यहाँ आते ही ढाई-तीन किलोमीटर दूर एक शिवपुर नामक किले के खण्डहर देखने के लिये चल पडे, दूर से देखने में किले की चढाई कुछ कठिन लग रही थी, इसलिये अपने-अपने लठ भी साथ ले लिये। डेढ किलोमीटर तक तो मार्ग साधारण ही था, उसके बाद एक छोटे से घास के मैदान के बाद एकदम चढाई शुरु हो गयी। यहाँ हमसे कुछ गडबड हो गयी हमें सीधे पहाड पर चढना था, लेकिन ऊपर वाले मार्ग को बारिश का पानी आने वाला मार्ग समझ छोड दिया, व एक पगडंडी जो उल्टे हाथ नजर आ रही थी. उस पर चल दिये, अभी आधा किलोमीटर ही गये थे कि एक बीस मीटर की खडी चढाई पार करनी पडी, व कुछ ही आगे गये थे कि एक भेड वाले से पूछा कि किला कितनी दूर है, तो वो बोला आप गलत मार्ग से आये हो किले का मार्ग तो सीधे हाथ पर आधा किलोमीटर पीछे रह गया है। अब क्या करते, उससे पूछा कि अब क्या करे, तो उसने कहा कि आप बिल्कुल मेरी ओर, इस पहाड पर घने जंगल में झाडियों व भेडों के बीच से होते हुए, सीधे इस पहाड पर चढ जाओ। हम सीधे पहाड पर चढ गये। पहाड पर चढ कर जो खूबसूरत नजारा हमारी आँखों के सामने आया, उसे देख कर हमारी थोडी बहुत थकान, अगर किसी को हुई भी होगी, तो वो ऐसी गायब हो गयी जैसे गधे के सिर से ? अरे भाई यहाँ लगभग एक किलोमीटर में फ़ैला हुआ, शानदार बुग्याल यानि घास का मैदान था।
ये हमारी शामली एक्सप्रेस, दो जाटों के मध्य में। बाइक से ये दुनिया की सबसे ऊँची सडक पर जा चुके है।यहाँ आते ही ढाई-तीन किलोमीटर दूर एक शिवपुर नामक किले के खण्डहर देखने के लिये चल पडे, दूर से देखने में किले की चढाई कुछ कठिन लग रही थी, इसलिये अपने-अपने लठ भी साथ ले लिये। डेढ किलोमीटर तक तो मार्ग साधारण ही था, उसके बाद एक छोटे से घास के मैदान के बाद एकदम चढाई शुरु हो गयी। यहाँ हमसे कुछ गडबड हो गयी हमें सीधे पहाड पर चढना था, लेकिन ऊपर वाले मार्ग को बारिश का पानी आने वाला मार्ग समझ छोड दिया, व एक पगडंडी जो उल्टे हाथ नजर आ रही थी. उस पर चल दिये, अभी आधा किलोमीटर ही गये थे कि एक बीस मीटर की खडी चढाई पार करनी पडी, व कुछ ही आगे गये थे कि एक भेड वाले से पूछा कि किला कितनी दूर है, तो वो बोला आप गलत मार्ग से आये हो किले का मार्ग तो सीधे हाथ पर आधा किलोमीटर पीछे रह गया है। अब क्या करते, उससे पूछा कि अब क्या करे, तो उसने कहा कि आप बिल्कुल मेरी ओर, इस पहाड पर घने जंगल में झाडियों व भेडों के बीच से होते हुए, सीधे इस पहाड पर चढ जाओ। हम सीधे पहाड पर चढ गये। पहाड पर चढ कर जो खूबसूरत नजारा हमारी आँखों के सामने आया, उसे देख कर हमारी थोडी बहुत थकान, अगर किसी को हुई भी होगी, तो वो ऐसी गायब हो गयी जैसे गधे के सिर से ? अरे भाई यहाँ लगभग एक किलोमीटर में फ़ैला हुआ, शानदार बुग्याल यानि घास का मैदान था।
इस वन में एक पेड से धुँआ निकल रहा था, पहले तो हम समझे ही नहीं कि माजरा क्या है, लेकिन जब उस पेड के पास गये तो पता चला कि किसी ने उस पेड की खोल में आग डाल दी होगी, जिससे कि वो धुँआ निकल रहा था। पता नहीं लोग ऐसी बेवकूफ़ी क्यों करते है।
लो जी जलोढी तो वापस आ गये अब सामने दिखाई दे रहे किले पर जाना है
हम सबने मस्त हाथी की तरह टहलते हुए, इस एक किलोमीटर के मैदान को पार किया। इस मैदान के दूसरे कोने पर ही वो रघुपुर किला था जहाँ तक हमें जाना था। जब इस किले पर आये तो ऐसा लगा कि जैसी किसी बडे से घर की नीव भरी गयी हो व अधूरी छोड दी गयी हो, यहाँ दो बडे-बडे कमरे बनाये गये है, शायद सरकारी कार्य के लिये इनका निर्माण किया गया होगा। एक मंदिर वो भी बिना किसी मूर्ति का है, बस एक हवन कुंड है बिल्कुल आर्य समाजी जैसा। सबने फ़ोटो लिये व वापस जाने को तैयार हो गये, वापसी में फ़िर कर दी गडबड, या हो गयी। बात ऐसी थी कि आते समय जो गलती हुई थी, व उस भेड वाले ने जो मार्ग बताया था, उसे हम इस किले के इस तरफ़ समझ बैठे, सबसे आगे मैं, बाकि सब पीछे-पीछे, आधा किलोमीटर तक जबरदस्त ढलान थी, उतरते चले गये, नितिन अपनी किसी गर्लफ़्रेंड से बातों में लगा हुआ था, अत: मार्ग पर कम ध्यान था तो उसका पैर पडा गोबर पर व सीधा पच्चीस-तीस फ़ुट तक ढलान पर रिपटता चला गया। बेचारे की पैंट पहले से फ़टी थी, और फ़ट गयी।
किले से पहले इसी छोटे से घास के मैदान से आगे दो मार्ग होते है।
ये फ़ोटो गलत वाले मार्ग पर लिया गया था।
इस भेड वाले ने रास्ता बताया था कि सीधे चढ जाओ तो किले जा पाओगे।
नीचे एक भेड वाला नजर आ रहा था, लेकिन हमने उससे पूछा भी नहीं कि ये मार्ग सही है या गलत, किले से एक किलोमीटर नीचे जाकर मार्ग खत्म हो गया। आगे तलाशने पर भी कोई मार्ग नहीं मिला, अब क्या करते, हो लिये वापस, दुखी मन से क्योंकि अब हमें एक किलोमीटर की जबरदस्त चढाई भी तो चढनी थी हम अब मार्ग पर ना जाकर सीधे बंदरों की तरह इस पहाड पर चढ गये व किले पर जाकर ही दम लिया। जब हम घास के मैदान को पार करने ही वाले थे, तो एक भेड वाले से असली मार्ग वापस जाने के बारे में पता किया वो बेचारा हमें उस जगह तक बताने आया जहाँ से हमें उसका बताया मार्ग सीधा उस जगह ले गया, जहाँ उस घास के मैदान से हम सीधे पहाड पर नहीं चढ पगडंडी पर हो गये थे।
किले से पहले वाला मैदान है।
एक ढलान पर गाय घास चर रही थी।
देख है बादलों का ऐसा समुन्द्र
ये प्राचीन मंदिर के अवशेष बचे हुए है, कभी तो रहा होगा ही।
अब तो किले के भी अवशेष ही बचे हुए है, कभी तो बहुत ही भव्य रहा होगा।
किले की चारदीवारी के अवशेष मार्ग का काम कर रही थी।
किले के एक कोने में बना हुआ है, ये मंदिर
किले से जलोढी जोत का नजारा देख लो कैसा आता है
एक बार फ़िर गलत मार्ग पर जाते हुए, किले के दूसरी तरफ़ उतर गये।
किले के दूसरी तरफ़ उतर कर ये शानदार नजारा था।
ये फ़ोटो नीरज ने लिया था, इसमें कुछ गडबड है। इस फ़ोटो का रहस्य कोई बतायेगा?
शाम सवा सात बजे तक हम जलोडी पास पर हाजिर हो गये थे। हमारे बैग उस मैगी वाली दुकान पर ही थे, वो दुकान वाला हमारा इंतजार कर रहा था, हमारे आते ही उसने हमे बैग सौपे व गाडी में बैठ अपने घर चला गया। वैसे यहाँ भी रात में रुकने का एक दुकान वाला प्रबंध कर देता है, लेकिन हम यहाँ नहीं रुके। एक दुकान वाले को चार मैंगी बनाने को कह दी थी, लेकिन मैगी खाने से पहले ही विपिन व नीरज एक गाडी में बैठ अन्नी की ओर निकल गये। हम दो नितिन जाट व जाट देवता रह गये, मैगी भी डबल-डबल खानी पडी थी। मैगी खाते ही तुरंत हमने भी अंधेरा होने से पहले ही यहाँ से अन्नी के लिये कन्नी काट ली थी
इस घने जंगल में पेड का काई से क्या हाल हो गया है।
जलोडी पास से चलने के पन्द्रह-बीस मिनट बाद ही अंधेरा हो गया था, व साथ ही हल्की-हल्की बारिश भी होती रही। अन्नी से आठ-दस किलोमीटर पहले जाकर ही बारिश बन्द हुई थी। इस बारिश के चक्कर में मेरे रैनकोट की जेब में भी पानी घुस गया, जिससे रुपये-पैसों के साथ-साथ मेरा मोबाइल भी भीग गया, जोकि घर आकर सात दिन बाद ही ठीक हो सका, तब तक नीरज के मोबाइल में सिम डालकर काम चलाना पडा था। इसलिये आप सब को एक जरुरी सलाह कभी रैनकोट के भरोसे ना रहे, अपना कीमती सामान जैसे मोबाइल, घडी, पैसे, कैमरा हमेशा पोलीथीन में लपेट कर छिपा कर रखे ताकि पानी से बचा जा सके। हमारे पास मोबाइल चार्ज करने के पूरे इंतजाम थे वो भी बाइक पर चलते-चलते हुए।
नीरज व विपिन हमसे बीस मिनट पहले चले थे, लेकिन हम इनसे दस मिनट पहले अन्नी जा पहुँचे। यहाँ आते ही एक कमरा लिया। आराम से रात गुजारी। रात में हम जहाँ पर रुके थे वो जगह बस-अड्डे के पास ही थी, कमरे के पीछे ही एक नदी बह रही थी।
लो जी आ ही गये जलोडी जोत, अब चलो यहाँ से निकल ही लो।
अगली पोस्ट में अन्नी-सैंज-रामपुर का पुल-निरमुंड-बागीपुल होते हुए जॉव तक की बाइक वाली यात्रा। बीच में सतलुज में नहाना धोना भी। पढने के लिये यहाँ क्लिक करे।
इस यात्रा का जो भाग देखना चाहते हो उसके लिये यहाँ नीचे क्लिक करना होगा
भाग-01-दिल्ली से पिंजौर गार्ड़न तक।
भाग-02-पिंजौर का भव्य गार्ड़न
भाग-11-चकराता का टाईगर फ़ॉल/झरना
भाग-13-पौंटा-साहिब गुरुद्धारा
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27 टिप्पणियां:
इस पोस्ट के सारे फोटो बहुत ही शानदार हैं. दिल को छू लेने वाला यात्रा वृतांत. मनमोहक वादियाँ, वो फिजायें, वो मदमस्त घटायें,वो मखमली घास का बिस्तर, दुल्हन की तरह सजी हुई प्रकृति, अंग-अंग को मदमस्त कर देने वाली खुशबु, और भी न जाने क्या-क्या कहने को दिल कर रहा है हमें तो लगता है जैसे हम दुसरे ही संसार में आ गए हों. ऐसे ही तमाम रंगों को हम तक पहुचाते रहिये आप सभी प्रकृति कुमारों को बहुत बहुत बधाई ऐसी यात्रा पर जाने के लिए. अगली कड़ी का बेसब्री से इंतजार रहेगा.
नज़ारे इतने भव्य हैं की ऐसा लग रहा है कि आप लोग जीवित ही स्वर्ग जा कर आये हो.
शानदार यात्रा की शानदार फोटोग्राफी...
क्या कहने संदीप भाई आप भी एक से एक प्रकृति के नजारे दिखा देते हो अगली पोस्ट का बेसब्री से इंतजार .....
सभी चित्र खुबसूरत और जीवंत हैं.यात्रा का वृतांत दिल को छू लिया. .अगली कड़ी का बेसब्री से इंतजार रहेगा....धन्यवाद...
Beautiful pics with great narration !
bahut hi sundar post aur tasavir
keya baat hai?
sandeep ji
हमेशा की तरह...ग़ज़ब की पोस्ट...हास्य का तड़का लाजवाब लगाया है...
नीरज
बहुत सुन्दर यात्रा रहा ये तो तस्वीरें देखकर ही पता चल रहा है और साथ ही सुन्दर रूप से वर्णन किया है आपने ! मुझे सारी तस्वीरें अच्छी लगी खासकर पहली तस्वीर और बादलों का समुन्द्र ! हर तरफ हरियाली ही हरियाली और ख़ूबसूरत वादियों में मनमोहक प्रकृति का भरपूर आनंद लेते हुए लाजवाब पोस्ट!
बहुत खूब ...फोटो तो सारे ही गजब के है ...बहुत ही मनमोहक .ऐसा लग रहा था जैसे हम वहीँ पे मौजूद हैं . विस्तारपूर्वक वर्णन किया है ...आभार
फोटो नम्बर 14,21 ईमेल कर दीजिये, वालपेपर बनाना है। जब भारत इतना सुन्दर है तो विदेश के क्यों चिपकाये रहते हैं।
सुन्दर तस्वीरें देखकर हमें तो मज़ा आ गया ।
बहुत रोमांचक रही यह ट्रेकिंग ।
यात्रा वृतांत से अच्छी आप की फोटोग्राफी लगी..
मनभावन क्या सुन्दर प्राकृतिक छटा है..अति सुन्दर
आपकी यह जीवंत यात्रा और तस्वीर बहुत ही मनोहारी है !
Fort ke saamne dkeho to do chotiyan dikhti hain, unme se ek Shringa Rishi Peak hai aur wo sabse unchi choti hai banjar valley ki. Barsaat ke mahinon mein wahan mela lagta hai aur wahan kam se kam 10 hajaar log aate hain, pahad ki choti pe. Faith ka prime example hota hai wo mela
छायांकन में नित नए आयाम रच रहे हो दोस्त .......http://sb.samwaad.com/
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
वाह क्या सुन्दर तस्वीरें व सुन्दर नज़ारे हैं|
लगता है यहाँ तो जाना ही पड़ेगा...
नीरज बाबू भी साथ हो लिए...अच्छा लगा पढ़कर, तस्वीरें देखकर...अब बाकी के पहले छूटे हुए देखते हैं.
वाह वाह ....आज तो एक से बढ़कर एक चित्र लगाये हैं......
यह कब लगा दिया, इसका तो पता ही नहीं चला।
वो फोटो आपने उल्टा लगा रखा है, जिसे आप नीरज का खींचा हुआ बता रहे हैं।
नीचे चौथे नम्बर वाला फ़ोटु उल्टा तो लगा नहीं, कैमरे के लैंस पर ही कुछ चिपका हुआ दिखाई दे रहा है।
मजा आ रहा है, नीरज और आपकी ज़बानी इस यात्रा की कहानी पढ़ने में..
गजब फोटोग्राफी मजा आ गया भाई. गडबड वाले फोटो में लगता है कैमरे को पन्नी (पोलीथीन)से ढककर खींचा है
मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं,आपकी कलम निरंतर सार्थक सृजन में लगी रहे .
एस .एन. शुक्ल
झील तो सचमुच सपनो जैसी दिखती हैं ...पहाड़ के निचे बना घर मन मोह गया ...किले की तो बात ही निराली हैं ..खुबसुरत यात्रा चल रही है
आपकी यह जीवंत यात्रा और तस्वीर बहुत ही मनोहारी है !
Aaj Ham aapki yeh yatra fir se padh rahe hai .
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