भारत के अंतिम गाँव/ग्राम माणा
में आये तो यह सब भी देखे।
दोस्तों, माणा गाँव इस रुट पर भारत का अंतिम
गाँव कहलाता है। वैसे सांगला छितकुल वाले रुट पर छितकुल अंतिम गांव कहलाता है। इस
प्रकार देखा जाये तो भारत की सीमा की ओर जाते सभी मार्गों पर कोई ना कोई तो गाँव
होगा ही, उस तरह वे सभी उस रुट के अंतिम गाँव ही कहलायेंगे। बद्रीनाथ से माणा की
दूरी केवल 3 किमी ही है। जीप वाले ने
हमें 5-6 मिनट में माणा पहुँचा
दिया। माना करीब 8 साल पहले सन 2007 देखा था। उस समय मैं
अपनी बाइक नीली परी पर यहाँ आया था। तब के माणा और आज के माणा में काफी अन्तर
दिखायी देता है। उस समय पार्किंग की आवश्यकता नहीं थी। आज यहाँ प्रतिदिन हजारों
पर्यटक आते है जो बद्रीनाथ धाम से अधिकतर किराये के या अपने वाहन से ही आते है सैकडों
वाहनों को खडा करने के लिये पार्किंग गाँव के बाहर ही बनायी हुई है। अगर हम बाइक
से आते तो गाँव के काफी अन्दर तक चले आते।
यहाँ माणा गाँव के अन्दर आकर देखा कि बद्रीनाथ
की तरह यहाँ भी बहुत भीड है। अंतिम गाँव ही सही, लोग सडक बनने के बाद यहाँ आने तो
लगे है। इससे गाँव वालों को काफी लाभ होगा। गाँव की औरते सडक किनारे बैठकर भेड व
बकरी के बालों से बनी ऊन से टोपियाँ व स्वेटर आदि बनाने व बने हुओं को बेचने में
व्यस्त थी। मैंने पिछली यात्रा में एक टोपी यहाँ से ली थी जो काफी गर्म रखती थी।
थोडा और अन्दर जाने पर मार्ग दो टुकडों में बँट जाता है। यहाँ से नीचे की ओर जाने
वाला मार्ग भीमपुल, सरस्वती नदी, वसुधारा की ओर जाता है तो ऊपर वाला मार्ग गणेश
गुफा व व्यास गुफा की ओर ले जाता है।
इस गाँव के बारे में बताया गया कि इस गाँव के
लोग चमोली के रहने वाले है। यहाँ सिर्फ़ सीजन के दिनों में रहने आते है। सर्दी के
दिनों मॆं बद्रीनाथ मन्दिर के बन्द होते ही यह गाँव भी खाली हो जाता है। सभी माना
वासी अपने चमोली के घरों में वापिस लौट जाते है। यह बात समझ नहीं आयी कि माणा गाँव
से चमोली करीब 100 किमी से ज्यादा है चमोली
वालों का माना पर अधिकार कैसे हुआ? जबकि चमोली से पहले कई बडे-बडे गाँव व कस्बे है
जैसे पांडुकेश्वर, जोशीमठ, पीपलकोठी आदि। चमोली के चक्कर में अपनी माना यात्रा बीच
में छूट जायेगी। चलो पहले नीचे वाले मार्ग पर भीम पुल की ओर चलते है।
भीमपुल जिस जगह को कहते है वहाँ पहाड से टूटकर
एक विशाल पत्थर नदी के ऊपर टिका हुआ है। यहाँ सरस्वती नदी की धारा एकदम गहराई में
गिरती है जिससे इसकी धारा बेहद पतली है। ध्यान से देखा जाये तो इसकी चौडाई 10 से 15 फीट के बीच ही होगी। भीम पुल वाली शिला को पार करने के कुछ मीटर बाद ही
सरस्वती नदी की धारा थोडी सी चौडाई धारण कर पाती है। चौडाई धारण करते ही सरस्वती
नदी का अलकनन्दा में मिलन हो जाता है। यही सरस्वती का अस्तित्व भी सिमट जाता है।
जो नदी कुछ सौ मीटर पहले तक पूरे प्रचण्ड रुप में डरावने वेग से बह रही हो, अचानक
उसका नाम बदल जाना, असामान्य लगता है। अलकनन्दा नदी जो स्वर्गरोहिणी पर्वत से
निकलती है उसका सरस्वती जितना भयंकर रुप मैंने स्वर्गरोहिणी से लेकर माणा गाँव तक
कही नहीं देखा। सरस्वती नदी माणा गाँव के ठीक ऊपर माणा पास वाले पर्वत से निकलती
है।
माणा में भीमपुल व व्यास गुफा के सामने वाली
दुकानों पर भारत की अंतिम दुकान वाले बोर्ड लगे हुए है। भीमपुल के सामने वाले पहाड
को ध्यान से देखा। यहाँ पर सैकडों हजारों साल पहले सरस्वती नदी के पानी के वेग से
बनने वाले निशान आज भी स्पष्ट देखे जा सकते है। भीमपुल के ठीक सामने एक साधु बाबा
बिना कपडों के केवल भभूत लगाकर एक छोटी सी गुफा में बहुत सालों से रहते आ रहे है।
इनके पास कुछ लोग अपना हाथ दिखाने को हमेशा तैयार मिलते है। मुझे भीड से घिरे रहने
वाले बाबा लोग पसन्द नहीं है। इसलिये मेरे लिये यह सिर्फ़ एक फोटो भर ही है। बाबाजी
यहाँ सिर्फ सीजन में ही रहते होंगे। मैंने अपने साथियों के साथ भारत की अंतिम
दुकान के सामने फोटो लिये गये। पुल के दोनों तरफ भारत की अंतिम दुकान वाली बोर्ड
लगी दुकाने है। साथी यहाँ चाय पीना चाहते थे। जब तक उन्होंने चाय पी, तब तक मैं
सरस्वती नदी के वेग को देखता रहा।
यहाँ से वसुधारा जल प्रपात की ओर जाती पक्की
पगडंडी पर कुछ यात्री आते-जाते दिखायी दे रहे थे। एक बोर्ड बता रहा था कि यहाँ से
वसुधारा झरना (जल प्रपात/ फाल) केवल 5 किमी की दूरी पर है। यह जो पक्की पगडंडी दिखायी दे रही है यह वसुधारा झरने तक
ही बनायी हुई है। बीनू कल की रात बद्रीनाथ नहीं पहुँचा था। आज बीनू बद्रीनाथ आया
तो सुबह जब हम सभी चरण पादुका नीलकंठ पर्वत वाली दिशा में गये हुए थे। पता चला कि
उस समय बीनू व उसका दोस्त बाइक लेकर माणा पहुँच गये। जब हम उन्हे बद्रीनाथ में
नहीं मिले तो वे दोनों बद्रीनाथ माणा होकर वसुधारा गये थे। हम सभी कल सतोपथ जाते
समय वसुधारा के दर्शन करेंगे। हमारे वसुधारा के दर्शन व बीनू के दर्शन करने में यह
अन्तर रहेगा कि बीनू ने वसुधारा के नीचे खडे होकर दर्शन किये और हम अलकनन्दा के उस
पार से वसुधारा को लहराते हुए देखेंगे। कहते है कि वसुधारा का जल किस्मत वालों पर
गिरता है। वसुधारा झरने की स्थिति देखी गयी तो सच्चाई यह मिली कि इस झरने पर घाटी
में बहने वाली तेज हवा एकदम सीधी लगती है। यह झरना बहुत पतली धारा व ऊँचा होने के
कारण उस हवा से सीधा जमीन पर नहीं गिरता है। यह झरना तेज हवा से उडकर बराबर वाले
पहाड पर पहुँच जाता है। सुबह व शाम के समय जब हवा नहीं होती है तब यह झरना एकदम
सीधा गिरता है।
भीमपुल से वापिस लौटते समय थोडी दूरी बाद ही एक
पगडंडी ऊपर जाती है। इससे लौटते हुए यात्रियों ने बताया कि यह व्यास गुफा से आने
वाला मार्ग है। हमें व्यास गुफा ही तो जाना है। उस पगडंडी से चढाई चढते हुए माणा
गाँव के ऊपर वाले भाग में जा पहुँचे। यहाँ एक विशाल शिला के नीचे एक कमरे रुपी
स्थल को व्यास गुफा बताया गया है। व्यास गुफा बहुत ज्यादा ऊँची नहीं है। जब हम
यहाँ पहुँचे तो यहाँ के पुजारी इस गुफा के बारे में वहाँ बैठे लोगों को बता रहे
थे। उस समय गुफा में 20-25 यात्री बैठे हुए थे। कुछ
देर रुकने के बाद हम बाहर निकल आये। बाहर आकर फोटो लिये। गुफा में भी किसी ने फोटो
लेने की कोशिश की थी जिससे पुजारी चिल्ला रहा था। यहाँ भी भारत के अंतिम गाँव का
बोर्ड लगी दुकाने दिखायी दी। व्यास गुफा से याद आया कि यह महाभारत वाले वेदव्यास
जी की गुफा है कहते है कि वेद व्यास जी ने यही बैठ कर महाभारत की कथा लिखी थी। गुफा
देखकर यह बात बिल्कुल झूठ लगी। इस जगह के मैंने कई फोटो लिये थे लेकिन आज दिखाने
के लिये एक भी नहीं बचा है। इस लेख के सभी फोटो सुशील भाई से लिये है।
महाभारत की कथा लिखने में शंकर के छोटे पुत्र
गणेश जी का भी योगदान बताया गया है। कहते है कि व्यास जी महाभारत कथा बोलते जा रहे
थे तो गणिश जी उसे ग्रन्थ रुप में लिखते जा रहे थे। गणेश जी गुफा भी व्यास जी की
गुफा के नजदीक ही है। अब महाभारत कथा लिखने में वेद व्यास व गणेश को इतनी ऊँचाई पर
क्यों आना पडा? यह तो वो ही बता पायेंगे। वेद व्यास जी हस्तिनापुर के महल छोडकर
यहाँ कैसे पहुँचे यह सब इतिहास की बाते है इतिहास में सच्चाई क्या है? यह पता
लगाना बहुत मुश्किल है। गणेश गुफा के बाद हम सीधे पार्किंग की ओर बढ चले। माणा गाँव
अबकी बार जब भी आया तो मैं अबकी बार सपरिवार आऊँगा। माणा गाँव से बद्रीनाथ पहुँचने
में इस बार भी 8-10 मिनट लग गये। वापसी में
माणा गाँव से एक किमी पहले उस जगह कुछ देर रुके, जहाँ नीले रंग का एक विशाल बोर्ड
सडक के ऊपर लगा हुआ है यहाँ लिखा है माणा में आपका स्वागत है।
यहाँ से माणा पास के लिये ऊपर जाने वाला मार्ग
अलग होता है। बद्रीनाथ से माणा जाते समय सीधे हाथ पर इस बोर्ड के ठीक पहले बराबर
से जो सडक अलग होती है वो सीधे चीन की सीमा माणा पास तक जाती है। इस सडक को अभी आम
जनता के लिये नहीं खोला गया है। इस पर जाने के लिये जोशीमठ SDM कार्यालय से permission लेनी होती है। इसकी permission मिलना इतना आसान भी नहीं है। यहाँ माणा गाँव से माणा पास की
दूरी 52 किमी बतायी गयी है। इस
दूरी को तय करने में कम से कम 2-3 घन्टे मान के चलना
चाहिए। माणा पास की आज्ञा मिलने के साथ फोटो आदि लेने की कई शर्ते भी जुडी होती
है। आज के आधुनिक सैटलाइट के जमाने में ऐसी फोटो वाली रोक समझ से बाहर है। आज चीन
व अमरीका के पास ऐसी-ऐसी तकनीक है जिनसे वह भारत में कही भी पार्क आदि में बैठे
वयक्ति के हाथ की घडी का सही समय तक बता पाने में सक्षम है। भारत के सैनिक निवास व
चौकी आदि संवेदनशील स्थलों के फोटो पर रोक तो समझ आती भी है लेकिन माना पास के
आसपास के इलाके में फोटो पर रोक का कोई औचित्य नहीं है।
चलो आज तो माना पास जाने का समय नहीं है। फिर
कभी इसे देखेंगे। आज शाम होने वाली है अपने साथी कमरे पर आ गये होंगे हम भी अपने
कमरे पर चलते है। आज रात भी रजाई में सोने का लुत्फ लिया जायेगा उसके बाद 5-6 दिन रजाई की जगह स्लिपिंग बैग में कैद रहना
पडेगा। कल सुबह सतोपथ की ट्रेकिंग पर निकलना है। सतोपथ की बद्रीनाथ से पैदल दूरी
मात्र 28 किमी है। जिसे तय करने
में मुश्किल से दो दिन लगने चाहिए। वापिस आने में मुश्किल से एक दिन काफी है। (Continue)
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माना गांव के निवासी शायद नेलांग वैली के विस्थापित हैं। अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा।
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