बरसूडी गाँव- हनुमान गढी - भैरो गढी यात्रा के सभी
लेख के लिंक यहाँ है। लेखक- SANDEEP PANWAR
चित्र में उल्टे हाथ की ओर से डा० श्याम सुन्दर, रुपेश भाई, एकलव्य भार्गव, नीरज अवस्थी, सीधे हाथ सबसे आगे बीनू कुकरेती |
यात्रा लेखन से
मन पूरी तरह उठ चुका था। बीते साल 2015 में हालात कुछ ऐसे बने कि इक्की-दुक्की यात्रा के अलावा कोई खास बडी यात्रा भी
नहीं हो पायी। खैर बीता साल बीत गया। अब नये साल 2016 की ओर चलते है। यात्रा लेखन का मन तो अब भी
पूरी तरह नहीं बन पाया है। यह यात्रा भी सिर्फ़ बीनू के अनुरोध के कारण लिख रहा
हूँ। फ़ेसबुक पर मैं सन 2011 से जुडा हुआ हूँ लेकिन अभी दिसम्बर में सोनीपत
निवासी भाई संजय कौशिक के अनुरोध पर व्हाटसअप पर भी जुड गया। लेकिन व्हाटसअप मुझे परेशानी ज्यादा लगा। फ़ेसबुक इससे कही बेहतर है। खैर इस राम कहानी की बात तो आगे भी
होती रहेगी, आज जिस यात्रा की
बात आरम्भ करनी है उसका तो अभी तक जिक्र भी नहीं हो पाया। चलो अब इसी यात्रा की बात करते है।
यह यात्रा फ़ेसबुक
पर कई साल से जुडॆ हुए एक ऐसे दोस्त के गाँव की है जिससे मैं पहले कभी आमने-सामने मिला तक नहीं था। वैसे अब तो अधिकतर
यात्राओं में ऐसा होता ही रहता है कि लगभग हर यात्रा में कोई ना कोई नया घुमक्कड
साथी अपने साथ हो ही लेता है। नये-नये बन्दों को
यात्रा पर साथ ले जाने में कई बार समस्या भी खडी हो जाती है। किसी को बाइक चलानी
नहीं आती है तो किसी को पहाड पर चढने में या किसी को पहाड से उतरने में समस्या आती
है। इस दुनिया में सम्पूर्ण तो कोई भी नहीं है फ़िर चाहे मैं ही क्यों ना हूँ।
यात्रा में अगर एक बन्दा भी नखरे वाला या घमन्डी टाइप निकल जाये तो पूरी यात्रा का
बैन्ड बजने में देर नहीं लगती है। अधिकतर देखा भी गया है कि नकचढों के साथ एक बार
तो बन्दा किसी तरह मन मार कर यात्रा पूरी कर भी लेता है लेकिन ऐसे महानुभावों के
साथ पुन: यात्रा पर जाने
की सोचते ही खोपडी खराब हो उठती है।
जैसा कि मैंने
आपको पहले ही बताया था कि व्हाटअप के ग्रुप में जुडने के कारण ही यह यात्रा सम्भव
हो पायी थी। पहाड मुझे हमेशा से ही अपनी ओर खींचते आये है और मेरा मन भी कहता है
कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा कि मैं इनमें से किसी एक पहाड में कभी ना कभी ऐसा खो
जाऊँगा कि कोई नहीं ढूँढ पायेगा। पहाडों में जंगल, बर्फ़, नदी, पत्थर और जंगली जानवर और ना जाने क्या-क्या, ऐसी बहुत सी बाते
है जो मुझे बार बार बुलाती रहती है। इस यात्रा की बाते दो महीने से हो रही थी। एक
दिन मैंने बोला कि चलो महाशिवरात्रि के अवसर पर ऋषिकेश के नीलकंठ महादेव मन्दिर के
साथ बीनू कुकरेती का गाँव- बरसूडी गाँव- सतपुली कोटद्वार के पास जिला पौढी-गढवाल देख के आते है बीनू ने कई बार अपने गाँव
की बहुत बढाई की थी। मुझे कई बार कहा कि संदीप भाई आपको मेरा गाँव बहुत पसन्द
आयेगा। आप एक बार चलकर तो देखिये।
जब बन्दे ने जब
कई बार कहा व बहुत सी खूबियाँ सुनाई तो इसके गाँव जाने की ठान ही ली। पहले सोचा कि
चलो नीली परी पर ही लम्बी यात्रा किये बहुत दिन हो गये है इसी पर घूम कर आयेंगे।
लेकिन इस यात्रा की तय तिथि तक आते-आते 5-6 साथी और तैयार हो
गये तो बाइक यात्रा का कार्यक्रम हटा कर वैन या कार से जाना तय हुआ। लेकिन यात्रा
की तिथि में सिर्फ़ 4-5 दिन पहले कार व वैन वाले साथियों के सामने कुछ
असली (हो सकता है नकली) मजबूरी आ गयी। जिस कारण अंतिम समय में यह
यात्रा रेल से करने का फ़ाइनल हुआ। एक बार सोचा गया कि बस
से चलते है लेकिन बस से जाने का सीधा अर्थ था कि रात की नीन्द का सत्यानाश करना। दूसरों का
मुझे पता नहीं लेकिन मैं अपनी कह सकता हूँ कि बस में रात भर यात्रा करने पर मुझे
नीन्द नहीं आ पाती है।
इस यात्रा में एक
साथी नटवर लाल को दिल्ली से करीब 425 किमी दूर (जयपुर
से आगे कुचामन सिटी) से आना है। उसने पहले ही अपने आने-जाने के रेल के टिकट बुक किये हुए थे। नटवर को भी मैं
पहले कभी मिला नहीं था। इस यात्रा में जितने भी साथी तैयार हुए थे उनके साथ पहली
बार किसी यात्रा पर जा रहा था। अमित तिवारी
ने ही सबकी हाँ होने के बाद ही सभी के रेल टिकट बुक करवाये। अमित का एक दोस्त नीरज
अवस्थी इस यात्रा का ऐसा एकमात्र साथी रहा जिसे मैं किसी भी माध्यम से पहले से
नहीं जानता था। इस यात्रा के सभी साथियों के नाम है। बीनू कुकरेती, अमित तिवारी, नटवर लाल भार्गव, नीरज अवस्थी व एकलव्य भार्गव और संदीप पवाँर को
भूल नहीं जाना।
जिस ट्रेन की हमारी
टिकट बुक है। वह मसूरी एक्सप्रेस है। इस ट्रेन की सबसे बडी खासियत यह है कि इसमें
कोटद्वार तक एक दिन पहले तक टिकट मिलने की सम्भावना बनी रहती है। इसी ट्रेन का आधा
हिस्सा हरिद्वार होकर देहरादून तक जाता है जिसमें सीटे मिलने की सम्भावना नहीं के
बराबर होती है। हमारी टिकट बुक थी इसलिये यह तय था कि रात आराम से सोते हुए बीत
जायेगी। यह यात्रा सिर्फ़ दो दिन की ही थी
इसलिये इसके लिये ज्यादा तामझाम भी नहीं करना पडा। लेकिन इस यात्रा में दोनों दिन
पैदल चलना था इसलिये पैर तुडायी निश्चित थी। बीनू ने पहले ही बता दिया था कि यदि
रेल या बस से गये तो कम से कम 10 किमी पहले दिन चलना ही पडॆगा। इस दस किमी में
शुरु के सात किमी कच्ची सडक थी जबकि अन्तिम तीन किमी जंगल का पगडन्डी वाला मार्ग
था। दूसरे दिन इस दस किमी के अलावा 6-7 किमी की मजेदार चढायी (हनुमान गढी से भैरो गढी)
अलग से भी करनी थी।
दिल्ली से रात दस
बजे की ट्रेन थी। अपनी आदत हमेशा से जल्दी उठने चलने व पहुँचने की रही है इस
यात्रा के सभी साथी भी लेट लतीफ़ी पसन्द करने वाले नहीं थे। साथ जाने वालों के
अलावा दो-तीन दोस्त स्टेशन
पर मिलने की बोल रहे थे इसलिये तय हुआ था कि ट्रेन चलने के कम से कम एक घन्टा पहले
पुरानी दिल्ली स्टेशन पर सभी एकत्र होंगे। घन्टा भर सभी साथ रहेंगे। इसके बाद यात्रा वाले ट्रेन में
सवार हो जायेंगे तो सिर्फ़ स्टेशन पर मिलने के लिये आने वाले स्टेशन से विदा ले
लेंगे। मेरा वर्तमान घर पुरानी दिल्ली स्टेशन से करीब 12 किमी दूर है। दिल्ली का ISBT कश्मीरी गेट व
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन आसपास ही है। दिल्ली के लगभग हर कोने से कश्मीरी
गेट बस अड्डे के लिये बस अवश्य मिल जाती है। बस
तो मेरे घर के पास से भी चलती है लेकिन उसका कोई भरोसा नहीं है कि कितनी देर बाद
आयेगी इसलिये मैं अधिकतर निजी इको वैन में बैठकर ही ISBT कश्मीरी गेट आना जाना करता हूँ। इनमें किराया
तो सरकारी बस जितना ही (दस रु) लगता है लेकिन समय सरकारी बस के मुकाबले आधा भी
नहीं लगता है।
पुरानी दिल्ली
स्टेशन पहुँचकर बीनू को फ़ोन लगाया तो पता लगा कि बीनू व नटवर पहले से ही
प्लेटफ़ार्म पर डेरा डाले हुए है। समय देखा, अभी तो नौ बजने में कई मिनट बाकि थे।
स्टेशन के अन्दर प्रवेश करने वाले द्वार
पर सुरक्षा कर्मी चौकस थे। सभी यात्रियों के
थैलों को मशीन की जाँच से होकर ही प्रवेश कराया जा रहा था। काश ऐसी सुरक्षा हमेशा
रहे तो आतंकवादियों के कामयाब ना हो पाये लेकिन घर के भेदी हर जगह है। कुछ चन्द
रुपयों के लालच में बिकने वालों की कोई कमी नहीं है। यहाँ तो हालत यह है कि वोट
बैंक के चक्कर में तू नकली मैं असली का राग हमेशा चलता रहता है। यह वोट बैंक की
गन्दी राजनीति ही इस देश का बन्टाधार करके रहेगी। यदि इस देश को बचाना है तो वोट
बैंक की वर्तमान नीति से पीछा छुडाना पडेगा नहीं तो इतनी देर हो जायेगी कि पूरा
देश मिलकर इसका समाधान नहीं कर पायेगा।
अपना बैग मशीन से
चैक कराकर स्टेशन के अन्दर पहुँचा तो देखा कि कई टिकट चैकर स्टेशन से बाहर निकलने
वाले बेटिकट शिकार की तलाश में भूखे भेडियों की तरह झुन्ड में खडॆ थे। इन टिकट
चैकरों की औकात देखनी हो तो इन्हे दिल्ली शाहदरा से लोनी-बडौत-शामली रुट पर
टिकट चैक करते दिखिये या दिल्ली से अलीगढ रुट पर चलती ट्रेन में टिकट चैक करते
देखिये। इन दोनों रुटों पर दूधवालों का ऐसा आतंक है कि जिसके सामने कभी कभार ट्रेन
यात्रा करने वाले बन्दे यह सोचने पर विवश हो जाते है कि लोग इन ट्रेनों में यात्रा
क्यों करते है। यदि आप में कुछ ने इन दो रुट पर यात्रा की होगी तो सच्चाई आपको पता
ही होगी।
प्लेटफ़ार्म पर सबसे
पहले बीनू दिखायी दिया। सुकडी पहलवान। मैंने इससे पहले बीनू को सिर्फ़्र फ़ोटॊ में
ही देखा था। पहाडी जन्तु है लेकिन इतना हल्का होगा यह नहीं सोचा था। बीनू को गले
में लटका कर मिलने की खुशी मनायी गयी। इसके बाद मेरे जैसा टकला नटवर दिखायी दिया।
नटवर के दादा जी मंढौर एक्सप्रेस में अपनी सीट पर विराजमान थे। नटवर सामने आया तो
यह भी लगभग बीनू जितना ही कदकाठी वाला दिखायी दिया।
नटवर को भी गले में लटका कर ही मिलने ही खुशी मिली। नटवर के साथ उसके दादा के पास
ट्रेन के डिब्बे में पहुँच कर राम राम की। मंढौर से याद आया कि इसी ट्रेन के
साधारण डिब्बे में बैठकर मैंने और कमल सिंह नारद ने जोधपुर तक की यात्रा की थी। वो
यात्रा तो आपने देखी ही है। काफ़ी मस्त यात्रा थी। उसमें जैसलमेर के सम गाँव वाले
रेल के टीले भी देखे गये थे।
इन दो हट्टे
कट्टे पहलवानों से मिलने के बाद अन्य साथियों की प्रतीक्षा होने लगी। रुपेश भाई व बाबा
रामदेव के यहाँ चिकित्सक श्याम सुन्दर भी आ पहुँचे। दो अन्य धुरन्दर एकलव्य व अमित
तिवारी भी आ पहुँचे। अब सभी आ गये तो मोबाइल से सैल्फ़ी लेने का दौर शुरु हुआ। यहाँ
सैल्फ़ी से एक मजेदार घटना हो गयी कि एक सैल्फ़ी में सभी नहीं आ पा रहे थे तो
प्लेटफ़ार्म पर विचरण करते एक यात्री से अनुरोध किया कि आप हमारी एक फ़ोटो ले दो।
जिस बन्दे को सैल्फ़ी लेने के लिये मोबाइल दिया था वह मोबाइल लेकर काफ़ी परेशान हो
गया। हम सारे फ़ोटो के लिये तैयार थे। वह बन्दा बोला कि इसमें तो तुम्हारा फ़ोटॊ आ
ही नहीं रहा है। हमारा फ़ोटो नहीं आ रहा है। क्या हो गया? अभी तक तो सब कुछ ठीक था। जब उस बन्दे ने कहा कि
इसमें तो मेरा ही फ़ोटो आ रहा है तो सबकी हँसी छूट गयी। मोबाइल सैल्फ़ी मोड पर ही उस
मुसाफ़िर को दे दिया गया था। सैल्फ़ी मोड से हटाकर दुबारा दिया तब जाकर सबका एक साथ
फ़ोटो आया। नटवर भाई अपना बडा सा कैमरा निकाल कर चालू हो चुके थे। नटवर भाई शानदार
फ़ोटो लेते है।
जब ट्रेन आने का
समय नजदीक आ गया तो सभी उसी प्लेटफ़ार्म पर पहुँच गये जहाँ से अपनी ट्रेन चलनी थी।
जैसे ही प्लेटफ़ार्म पर पहुँचे तो देखा कि वहाँ पहले से ही एक ट्रेन खडी है। अबे
तेरी, लगता है कि अपनी ट्रेन पहुँच गयी लेकिन वह कोई और ट्रेन थी। वो ट्रेन थोडी
देर में चली गयी। इसके बाद अपनी ट्रेन आ गयी। रुपेश भाई देशी घी से बनी बेहद
स्वादिष्ट बालू शाही का डिब्बा लेकर आये थे। अपनी सीटों पर आते ही रुपेश भाई के
बालू शाही वाले डिब्बे पर टूट पडॆ। एक-एक पीस तो सभी ने
आराम से ले लिया। दूसरे में कई शर्माते दिखे लेकिन मैं और बीनू ठहरे मिठाई के
जबरदस्त प्रेमी एक दो पीस से हमारा कुछ होना नहीं था इसलिये जब तक डिब्बा खाली न
हुआ हम दोनों लगे रहे। हमारे वाले केबिन में एक बन्धु अलग थे जब हम सभी खा रहे थे
तो लगे हाथ उनका भी मुँह मीठा करवा दिया गया। वे हमसे अन्जान थे लेकिन लगभग हमारी उम्र के
ही थे। पहले तो बन्दे ने सोचा होगा कि ये यह मिठाई खिलाकर लूटने वाला
गिरोह होगा, लेकिन सबके बैग व
कैमरे देख उसे कुछ तसल्ली हुई होगी कि यह मिठाई खिलाकर लूटने वाला नहीं, बल्कि मिठाई खिलाकर अपना बनाने वाला गिरोह है।
श्याम सुन्दर भाई
अपने साथ बाबा राम देव के यहाँ बनने वाले दो जूस लेकर आये थे। उनमें से एक अनानास
का व दूसरा अमरुद के स्वाद वाला था। थोडी देर बाद ट्रेन चलने लगी तो रुपेश भाई व
श्याम सुन्दर भाई के साथ एकलव्य भी अच्छा फ़िर मिलते है। अरे यह क्या हुआ? अभी तक जिस माहौल में चहचाहट भरी हुई थी एकदम
से उदासी में बदल गयी। रुपेश भाई को मैं पहले से ही फ़ेसबुक के माध्यम से जानता
हूँ। शर्मीले जन्तु ठहरे। श्याम सुन्दर भाई भी लगभग रुपेश भाई जैसे ही निकले।
एकलव्य अपनी तरह ऊँत खोपडी वाला है। उसने रेल के टिकट बुक होने के बाद भी यात्रा
नहीं की। लगता है एकलव्य बीनू के गाँव के जंगलों के जंगली जानवरों से डर गया। बीनू
ने ग्रुप में अपने गाँव के आसपास के खतरनाक जंगली जानवरों के बारे में बता
कर खूब डराया था। अब ट्रेन चल ही पडी है तो देखते है बीनू के यहाँ के जानवर हमसे
कितने खतरनाक होंगे?(क्रमश:)
पुरानी दिल्ली स्टेशन पर रुपेश, संदीप, बीनू व नटवर लाल |
एकलव्य, संदीप, श्याम सुन्दर,बीनू, अमित, नीरज रुपेश |
26 टिप्पणियां:
क्या बात है जाट देवता!वर्तमान के साथ साथ भूत और भविष्य को भी लपेटते हुए चलते हो!
बढ़िया लेखन, उम्मीद है जैसे जैसे आपकी ट्रेन अपने गन्तव्य की तरफ बढेगी, और भी मजेदार किस्से इसमें जुड़ते जाएंगे 😊
बढ़िया,अगले लेख के इंतज़ार मे
धन्यवाद देवता।
शानदार शुरुआत ...:-)
बहुत दिनों बाद आपका ब्लॉग पढ़ा ,मन की मुराद पूरी हुई।उस पल को मैं आज भी नहीं भूला संदीप भाई आप सब का प्यार और साथ। वो सेल्फ़ी वाली घटना तो वाकई लाजबाब थी ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-03-2016) को "सूरज तो सबकी छत पर है" (चर्चा अंक - 2296) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बरसुडी यात्रा की बढ़िया शुरुआत संदीप भाई । बढ़िया लेखन । अगली कड़ी का इंतजार...
Wow. Fir se shuru
सबसे पहले में बीनू भाई को धन्यवाद कहुंगा क्योकी उनकी वजह से ही आप ने यह यात्रा लिखी।
संदीप जी आप के लेख पढते पढते ही मै भी एक ब्लॉगर बना, सब कुछ आप से सीखा, इसलिए आप से निवेदन है की अब आप लिखना बंद ना करे।
बहुत अच्छी पोस्ट लगी, सभी मित्रो को एक साथ देखना अच्छा लगा, अगले भाग का इंतजार रहेगा।
बहुत दिनो बाद ब्लाग पर वापसी धन्यवाद "जाटदेवता "
बहुत दिनो बाद ब्लाग पर वापसी धन्यवाद "जाटदेवता "
बहुत दिनो बाद ब्लाग पर वापसी धन्यवाद "जाटदेवता "
संदीप भाई आप लिखना जारी रखो , हमें आपके यात्रा वर्णन का बहुत इंतजार रहता है , आज आपका ब्लॉग दोबारा पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा ,धन्यवाद
आपकी इस यात्रा लेखन से कई लोगों को यहाँ के बारे में जानने को मिलेगा। एक बार फिर नयी शुरुवात करने के लिए धन्यवाद
आगाज़ इतना अच्छा है तो अंजाम खुदा जाने नहीं हम जानते है बढ़िया ही होगा भतीजे चलते चलो हम भी साथ है ।
बहुत बढ़िया संदीप भाई ! दिल्ली से निकल लिए पूरी टोली के साथ ! सेल्फी का किस्सा मस्त लगा ! कुछ लोगों को नहीं मालूम होता कि ये सेल्फी सेल्फी क्या है !!
बालूशाही तो शाहदरा की मशहूर है :)
Bahut khub.....
देर आयद दुरुस्त आयद, जाट देवता की जय हो,
शानदार लेखनी
संदीप भाई लिखने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। मनु भाई की बात से मैं भी सहमत हूँ। आप का ब्लॉग पढ़ते पढ़ते लिखना सिखा है हम ने।
AAP LIKHNA BAND MAT KARNA AAP KA LEKH JIVAN KI URJA KA KAM KARTA HAI
aap likhte rahe kyu ki aap ka lekh jivan me urja lata hai
अच्छा लिखा है। मैं भी साल में दो बार तो पहाडो पर हो ही आता हूँ। कभी साथ चलें ?
मनु नहीं सचिन त्यागी की बात से ☺
'गले में लटकाकर गले मिले' बीनू और नटवर के लिए कही आपकी भावना सम्प्रेषण जबरदस्त है ! मैं दिली इच्छा के बावजूद भी नहीं हूँ आप लोगों के साथ .. अफसोस है !
Bahut Badiya !!!
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