गुरुवार, 22 नवंबर 2012

Jaisalmer Fort जैसलमेर दुर्ग (किला)


रात को बारह बजे के करीब हमारी ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर उपस्थित हो चुकी थी। हम अपने डिब्बे में सवार होकर जैसलमेर की ओर प्रस्थान कर गये। चूंकि शाम के समय ही हमने टिकट बुक किया था जिस कारण हमारी सीट पक्की नहीं हो पायी थी, हाँ इतना जरुर था कि हमारी दोनों सीटे RAC में उसी समय हो गयी थी, जब हमने बुक करायी थी। दिल्ली से यहाँ आते समय तो हम साधारण डिब्बे में बैठकर आये थे। अत: RAC टिकट मिलना भी हमारे लिये कम खुशी की बात नहीं थी। हम अपनी सीट पर जाकर बैठ गये थे। आज की रात हम आराम से सीट पर बैठकर जाने की सोच ही रहे थे, कुछ ऐसी ही बाते कर रहे थे। कि तभी टीटी महाराज भी दिखाई दे गये।



थोडी देर बाद ही टिकट चैकर महोदय हमारे पास भी आ गये। उन्होंने अन्य सवारियों के साथ हमारे टिकट भी चैक किये और कहा कि आप में एक बन्दा यहाँ बैठ जाओ और दूसरा बन्दा मेरे साथ आओ। मैंने कहा आपके साथ क्यों? टीटी ने कहा कि आपकी सीट कन्फ़र्म हो चुकी है। आपकी सीट का नम्बर यह है। कमल भाई अपने साथ अपना लैपटॉप भी लेकर आये थे। हमने रेल आने से  पहले ही वेटिंग हॉल में बैठे-बैठे ही नेट चलाकर अपनी सीट का स्थान देख लिया था। नेट अनुसार हमारी सीट आर.ए.सी. में ही थी। मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि सन 1999 में सरकारी खर्चे से होने वाली LTC यात्रा में मैं अपनी पत्नी के साथ दक्षिण भारत की पन्द्रह दिन की यात्रा पर गया था। जाते समय हमारा टिकट निजामुददीन-त्रिवेन्द्रम राजधानी में था। राजधानी में वेटिंग टिकट नहीं मिलता है। वापसी में बंगलौर से शिर्डी जाने के लिये कोपरगाँव  उतरना होता है, वहाँ तक थर्ड AC में सत्तर दिन पहले से सात की वेटिंग थी, जो आखिरी समय तक भी कन्फ़र्म नहीं हो पायी थी। वो यात्रा बहुत बुरी बीती थी, बताऊँगा कभी उसके बारे में भी।


जब टीटी ने कहा था कि आपकी सीट कन्फ़र्म हो गयी है तो एक बार तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। जब मैं टीटी के साथ अपनी सीट पर जा रहा था तभी एक युवक TT के पास आया और दो सीट देने के लिये कहा। टीटी ने उसे कहा कि पहले RAC वालों को सीट दे दू, उसके बाद देखता हूँ कि कितनी सीट बचती है? अब मैं समझा कि हमारी सीट कन्फ़र्म कैसे हुई थी। रेलवे में होता क्या है कि कुछ स्टाफ़ का, कुछ मन्त्री का, कुछ संतरी का, इस तरह मिलाकर कई प्रकार का आरक्षण होता है। इस प्रकार काफ़ी सीट आखिर तक बचा कर रखी जाती है। जबकि आम जनता को वेटिंग का टिकट दे दिया जाता है। 


अगर आखिरी समय तक कोई स्टाफ़, संतरी व मन्त्री अपने कोटे के टिकट पूरे ना कर पाये तो चार्ट बनाते समय यह टिकट वेटिंग वालों को दे दिये जाते है। आजकल तत्काल टिकट का भी चलन है इस प्रकार के टिकट का भी, हर डिब्बे में कुछ ना कुछ कोटा अवश्य होता है। जब इस प्रकार का कोटा भी खाली रह जाता है तो वेटिंग वालों की किस्मत खुल जाती है। कुछ लोग ऐसे भी होते है जो गाडी का चार्ट बनने के बाद अपना टिकट कैंसिल करवा देते है। ऐसे टिकट रदद कराने से जो सीट खाली होती है उसे गाडी चलने पर टीटी RAC वालों को दे देता है। वैसे तो सीट खाली होने पर पहला हक आर.ए.सी वालों का है उसके बाद वेटिंग वालों का होता है। कई बार टीटी अपनी ऊपर की कमाई के चक्कर में आर ए सी वालों को छोडकर वेटिंग वालों को टिकट दे देता है। भ्रष्टाचार हर विभाग में है। सन्तरी से लेकर मन्त्री तक अधिकतर इसमें शामिल रहते है। कुछ गिने चुने मेरे जैसे उल्टी खोपडी के लोग ही ऐसे मिलेंगे जो ऊपर की कमाई की आस नहीं करते होंगे।


हमें सीट मिल गयी थी, अब हमें रात को बैठकर जागते हुए जैसलमेर जाने की परेशानी नहीं थी। हम आराम से अपनी सीट पर लम्बे पैर फ़ैलाकर खर्राटे भरते हुए, सोते हुए जैसलमेर की ओर यात्रा करते रहे। हमारी ट्रेन सुबह साढे पाँच बजे जैसलमेर पहुँच चुकी थी। यह इस ओर का आखिरी स्टेशन था। अत: इस बात का डर नहीं था कि हमारा स्टेशन सोते हुए निकल ही ना जाये। जब गाडी स्टेशन पर खडी हो गयी तो लोगों की आवाजे सुनकर हम भी अपना-अपना थैला उठाकर स्टेशन से बाहर आ गये थे। 

विकीपीडिया अनुसार- (जैसलमेर के क़िले का निर्माण 1156 में किया गया था और यह राजस्‍थान का दूसरा सबसे पुराना राज्‍य है। ढाई सौ फीट ऊंचा और सेंट स्‍टोन के विशाल खण्‍डों से निर्मित 30 फीट ऊंची दीवार वाले इस किले में 99 प्राचीर हैं, जिनमें से 92 का निर्माण 1633 और 1647 के बीच कराया गया था। इस किले के अंदर मौजूद कुंए पानी का निरंतर स्रोत प्रदान करते हैं। रावल जैसल द्वारा निर्मित यह क़िला जो 80 मीटर ऊंची त्रिकूट पहाड़ी पर स्थित है, इसमें महलों की बाहरी दीवारें, घर और मंदिर कोमल पीले सेंट स्‍टोन से बने हैं। इसकी संकरी गलियां और चार विशाल प्रवेश द्वार है जिनमें से अंतिम एक द्वार मुख्‍य चौक की ओर जाता है जिस पर महाराज का पुराना महल है। इस कस्‍बे की लगभग एक चौथाई आबादी इसी क़िले के अंदर रहती है। यहां गणेश पोल, सूरज पोल, भूत पोल और हवा पोल के जरिए पहुंचा जा सकता है। यहां अनेक सुंदर हवेलियां और जैन मंदिरों के समूह हैं जो 12वीं से 15वीं शताब्‍दी के बीच बनाए गए थे।)


स्टेशन से बाहर आते ही कई गाडी वाले सवारियों को आवाज लगा रहे थे। एक ने हमसे कहा कि कहाँ जाओगे? हमने किले जाने के बारे में कहा तो उसने कहा कि वह किले के पास ही जा रहा है। किले के बाहर छोड देगा। वह चलने को तैयार ही था। अत: हम भी अन्य सवारियों के साथ उसमें सवार हो गये। जीप वाला हमें लेकर दो-तीन किमी दूर लेकर चला आया था। अभी तक दिन का उजाला पूरी तरह नहीं हुआ था। यहाँ जीप वाले ने जीप एक होटल नुमा घर के सामने रोक दी थी। जीप वाले ने जब हमसे कहा कि रुम देख लो तो हमारी समझ में आ गया कि यह होटल वालों के एजेंट है जो स्टेशन से सवारियाँ लेकर आते है यहाँ यात्री कमरा लेते है तो इनका कमीशन मिलना तय होता है।


हमें कमरा नहीं लेना था, हमने पहले तो उसे खूब सुनायी, उसके बाद उससे कहा कि तुम हमें किले तक छोडने वाले थे। यहाँ किला तो कहीं नहीं दिख रहा है। वहीं उसी गली में जा रहे एक बन्दे से हमने पूछा कि किला कहाँ है? उसने बताया कि किला यहाँ से एक किमी दूर है। हमारे साथ जीप में दो विदेशी भी आये थे। वे भी हमारे साथ पैदल हो लिये थे। दिन का उजाला होना शुरु हो गया था। उस समय मुश्किल से एक दो मानव जाति के प्राणी वहाँ दिख रहे थे। उन्ही से पूछताछ करते हुए, हम किले तक जाने वाले गलियों से होते किले तक पहुँच गये थे। सबसे पहले हम किले के अन्दर प्रवेश दरवाजे से होते हुए ऊपर की ओर चढते गये।


जब हम किले की ओर चढ रहे थे तो हमॆं तभी महसूस हो गया था कि यह किला ज्यादा बडा नहीं है। आखिरकार हम किले में एक मैदान नुमा जगह पर जा पहुँचे। वहाँ जाकर हमें एक चाय की दुकान खुली हुई दिखायी दी थी। मैं तो चाय आदि पीता नहीं कमल भाई ने भी वहाँ चाय नहीं पी थी कमल ने कहा कि किले का एक चक्कर लगाकर आते है उसके बाद कहीं बैठकर चाय पीयेंगे। सबसे पहले हमने एक सीधी सी दि्खायी दे रही गली में चलना शुरु कर दिया था आखिरकार वह गली किले की चारदीवारी पर जाकर समाप्त हो गयी। यहाँ से हमने चारदीवारी के चारों ओर पैदल ही चलना शुरु कर दिया। हम मुश्किल से तीन सौ मीटर ही चले होंगे कि पूर्व दिशा से सूर्य उगता हुआ दिखायी दे रहा था। किले का चक्कर बीच में रोककर हम सूर्योदय का इन्तजार करने लगे। वही हमें किले की सुरक्षा में लगायी हुई तोप भी दिखायी दे गयी थी।


सूर्योदय के समय जैसलमेर का किला एकदम सोने का बना हुआ लग रहा था। जिस प्रकार जोधपुर को नीला शहर क्यों कहा जाता है पता लगा था इस जगह सूर्योदय देखकर यह पता लग गया था कि इसे सोने का किला क्यों कहते है? सूर्योदय देखकर हम वहाँ से चल पडे तभी कमल भाई को एक चाय वाली (चाय वाला नहीं) दिखायी दे गयी। चाय वाली की दुकान किले की चारदीवारी के ठीक ऊपर बनी हुई थी। कुछ देर चाय के बहाने हम एक बार फ़िर वहाँ बैठ गये। इसके बाद किले का चक्कर लगाना शुरु कर दिया था। 


 जैसलमेर यात्रा में अगले लेख में जैसलमेर की मशहूर हवेलियाँ व हो सका तो यहाँ सैम के रेत के टीले दिखाये जायेंगे।  

भाग 4-  जैसलमेर सूर्यगढ़ पैलेस महल जैसा होटल
भाग 5-  जैसलमेर  आदिनाथ मन्दिर व सुर सागर तालाब
भाग 6-  जैसलमेर  रामदेव/रामदेवरा बाबा की समाधी 




8 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

राजस्थान की शान है यह नगर..

रविकर ने कहा…

बढ़िया है जाट देवता ||

प्रवीण गुप्ता - PRAVEEN GUPTA ने कहा…

सोने का दुर्ग, बहुत अच्छा, और जाट भाई ऐसी धोखधड़ी तो भारत के अधिकतर पर्यटक स्थल पर होती ही हैं..हम लोग तो बस अपना खून जला कर रह जाते हैं...

Suresh kumar ने कहा…

sandeep bhai ram ram ....
Rajsthan ki yatra khubsurat taswiro ke sath badhiya chal rahi hai . samya ki kami ke kaaran com. bhi nahi kr pa raha tha lage rahiye......

Asha Lata Saxena ने कहा…

अच्छे चित्रों से सजा यात्रा लेख बहुत अच्छा लगा

travel ufo ने कहा…

सूर्योदय और गाय वाल चित्र लाजबाब हैं क्या कहने इन चित्रो ने समां बांध दिया वैसे तो जैसलमेर ही लाजबाब है । टिकट कन्फर्म हो गया ये बढिया रहा

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

हमें तो तस्वीरें देखकर ही रोमांच हो रहा है भाई।

Vishal Rathod ने कहा…

एक और जबरदस्त पोस्ट जबरदस्त वर्णन वाली.

टिकिट सबसे पहले जनता को देनी चाहिए न की मंत्री और रेल के कर्मचारियों को . वे लोग भारत की जनता के सेवक है . उन्हें सेवा करने के लिए ही चूना जाता है . लेकिन यहाँ पर सब उल्टा हो रहा है . सरकार का तो पता नहीं लेकिन कुछ दिनों से मुझे लग रहा है की क्रान्ति फिर से शुरू हो जानेवाली है .

जैसलमेर किल्ले का दूर से एक फोटो देखना था . बाकी बढ़िया है .

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