सोमवार, 17 सितंबर 2012

TREKKING TO GANGOTRI-BHOJBASA-CHEEDBASA भाग 4 गंगौत्री-भोजबासा-चीडबासा तक ट्रेकिंग


सीरिज गंगौत्री-गौमुख


गंगौत्री मन्दिर देखने के बाद, अगले दिन आसपास के स्थल देखने की चाह मन में उठ रही थी। मैंने भाई को कहा कि कल मैं यहाँ घूम लेता हूँ, उसके बाद परसो गौमुख चले चलेंगे। हमारी बाते भाई के स्टाफ़ के दो अन्य साथी पुलिसवाले भी सुन रहे थे। उन्होंने कहा कि गौमुख तो हम भी जाना चाहते है। मैंने कहा ठीक है चलना है तो कल तो नहीं, परसो तो पक्का चलना ही है। क्योंकि मैं कल यहाँ घूमना चाहता हूँ। इस तरह हमारी गौमुख यात्रा के लिये चार मस्त-मलंग की मस्त चौकडी जाने के लिये तैयार हो गयी थी। अगले दिन मैं सुबह-सुबह उठकर पुलिस चौकी के ठीक सामने सूर्य कुन्ड नाम की जगह जा पहुँचा, मुझे भाई ने बताया गया था कि यहाँ सुबह-सुबह इस झरने नुमा पानी की धार पर जब सूर्य की किरणे पडती है तो यह शानदार इन्द्गधनुष बनाती है। मुझे वह इन्द्रधनुष आज भी अच्छी तरह याद है कि कैसे सूरज की रोशनी पडते ही वहाँ उस झरने नुमा भागीरथी की तेज पानी की धार में  उठते पानी की फ़ुहार में सात रंग अलग-अलग दिखाई पड रहे थे। मैं वहाँ सात-आठ दिन रहा था और शायद ही मैंने कोई दिन उसे देखे बिना जाने दिया हो। इसको देखने के बाद मैं आसपास के बाकि स्थल देखने के लिये चल पडा।



पुलिस चौकी से आगे बढने पर गंगा यानि भागीरथी पार करने के लिये एक लकडी का छोटा सा पुल पार करना होता है पुल पार करने के बाद, इस इन्द्रधनुष वाले झरने के सामने से ही आगे बढते हुए, पास में ही थोडा सा आगे चलने पर केदारगंगा नामक नदी की धारा दिखाई देती है। मैंने सोचा चलो कुछ आगे तक इसे देख कर आता हूँ वैसे तो वहाँ जिधर भी देखे पानी भयंकर शोर करता हुआ पहाड से नीचे की ओर उतरता हुआ चलता था। अरे हाँ याद आया इसी केदारगंगा के ठीक ऊपर इसे पार करने के लिये एक लकडी का विशेष तकनीक वाला पुल बनाया गया था वैसे वह पुल आज भी वही होगा, क्योंकि तीन साल पहले जब मैं आखिरी बार यहाँ गया था तो तब भी यह उसी स्थिति में था जिस स्थिति में मेरी इस पहली गौमुख पद यात्रा के समय रहा था। जब मैं पहली बार इस लकडी के पुल को पार करने लगा तो मुझे बडा डर लग रहा था। लेकिन उसे पार करने के अलावा कोई चारा न था मैं भी पुल को आजमाये बिना पार नहीं करना चाहता था। मैं मन में यही सोच रहा था कि कही यह पुल मेरे भार से टूट ना जाये। अत: मैं तब तक वहाँ खडा रहा जब तक एक बन्दा उस पुल से पार नहीं चला गया था। जब मेरी आँखों के सामने एक हटटा-कटटा भारी-भरकम आदमी सही सलामत पुल पार कर गया और पुल में थोडी सी चू-चा की आवाज के अलावा और कुछ खास नहीं हुआ तो मेरी भी हिम्मत बंधी और मैं भी डरता-डरता सा उस पुल को पार कर ही गया। अपना डर दूर करने के लिये मैंने वह पुल कई बार पार किया, यहाँ तक की मैं उस पुल के बीच में भी काफ़ी देर तक खडे होकर उसे देखता रहा। बनाने वाले कारीगर भी कैसे-कैसे गजब-गजब चीजे बनाते है कि देखने में डरावने लगे, लेकिन मजबूती में किसी से कम ना हो। इसके बाद मैं कई बार गंगौत्री गया हूँ और मैं हर बार इस लकडी के पुल को देखने अवश्य गया हूँ। अगर आपमें से कोई भी गंगौत्री जाये तो इस पुराने लकडी के पुल को जरुर देख कर आये।

मैं तो वहाँ पर लगभग सात दिन रहा था अत: मैने वहाँ आसपास देखने लायक सब जगह छान मारी थी। एक बार भाई के जानने वाले किसी दुकानवाले ने मुझे कहा था कि पांडव गुफ़ा देख आओ, पांडव गुफ़ा का नाम सुनकर मेरे चेहरे पर अचानक से रोशनी सी चमकनी शुरु हो गयी थी। मैं तो ऐसे ही स्थलों की तलाश मे था जिससे कि मेरा समय वहाँ आसानी से व्यतीत हो सके। अत: मैं उसी दिन उस पांडव गुफ़ा को देखने के लिये चल पडा। मुझे बताया गया था कि जिस ओर गंगा का पानी जा रहा है उसी ओर लगभग आधा किमी चलने पर एक बडे से पत्थर के नीचे यह गुफ़ा मौजूद है। मैं चीड के घने जंगलों के बीच से होता हुआ चलता गया। कोई आधा किमी के आसपास जाने पर मुझे यह पांडव गुफ़ा दिखाई दी। लेकिन जिस उम्मीद से जोश-खरोश से मैं यहाँ आया था उसके एकदम विपरीत मेरी उम्मीदे गंगा की पानी की गति से भी कई गुणा रफ़तार से ध्वस्त हो गयी। कारण मैंने मन ही मन इसको बहुत बडी गुफ़ा मान लिया था लेकिन जब मैं यहाँ  पहुँचा तो मैंने पाया कि यह पांडवों के लिये तो क्या शरण स्थली रही होगी? मुझे लगता है कि यह मेरे जैसे आम मानव के लिये भी तंग जगह रहेगी। खैर उस गुफ़ा का अन्दर से कितना विशाल इलाका होगा मैं नहीं कह सकता क्योंकि मैं बाहर से देखने के बाद ही उसके अन्दर जाने से मन ही मन टाल गया था, जिस कारण मैं उसके अन्दर भी नहीं गया था। बाहर से देखने पर यह जरुर दिखाई दे रहा था कि उसमें दो तीन साधु अपना डेरा जमा कर बैठे हुए थे। मेरी साधु महात्माओं में ज्यादा दिलचस्पी कभी नहीं रही। आजकल कई बन्धु ऐसे मिल जायेंगे जिसमें से कोई आसाराम बापू को गुरु मानता होगा, कोई श्री श्री रविशंकर को, कोई धन-धन सत्यगुरु को, कोई साई बाबा को, कहने का तात्पर्य यह है कि आज के माहौल में लोगबाग अपने माँ-बाप को गुरु मानने के बजाय इन आधुनिक गुरुओं के चक्कर में पडे हुए है। मेरा तो एक गुरु है जिसे सब परमात्मा कहते है। जिसने यह दुनिया बनायी है जिसको किसी ने नहीं देखा है। रही मूर्ति व तस्वीर आदि की बात तो कई लोग इस पर वाद-विवाद कर सकते है लेकिन मैं इसके बारे में कुछ नहीं कहना चाहता क्यों कि सबके आचार-विचार अलग-अलग होते है। सब अपने-अपने गुरुओं को मानिये अगर किसी का हो तो लेकिन पहले अपने माँ-बाप का आदर करिये जिनकी बदौलत हमारा इस संसार में आना हुआ, जिन्होंने हमारा पालन पोषण किया। जिनकी बदौलत हम यह जानने लायक हुए कि यह दुनिया आखिर क्या बला है?



मैं आपको बता रहा था पांडव गुफ़ा के बारे में लेकिन बीच में गुरु वाली बात टपक पडी। गुरु वाली बात से याद आया पहले मैं गुरु घंटाल शब्द का अर्थ यह मानता था कि बहुत बडे गुरु महात्मा को गुरु घंटाल कहा जाता होगा। जिस कारण मैंने एक साधु बाबा को यह कह कर पुकार दिया था कैसे हो गुरु घंटाल? मेरे इतना कहते ही, पूछना मत, उस गुरु घंटाल ने कैसे जमकर मेरी बैंड बजायी थी? साथ ही साथ उसने मुझे गुरु घंटाल का असली अर्थ भी समझाया था। जब उसने मुझे गुरु घंटाल का असली अर्थ बताया था तो उस समय मेरे पैरो के नीचे से जमीन खिसकने की नौबत आ गयी थी। इसलिये मैं कहना चाहता हूँ कि कभी भी मेरी तरह किसी शब्द का अर्थ जाने बिना किसी को कुछ भी बोलना नहीं चाहिए। एक बार कुछ ऐसा ही हास्यवाद जनाना व जनानी शब्द के कारण भी हो चुका है। वैसे ऐसी मजेदार घटनाएँ लगभग ज्यादातर मानवों के साथ जीवन में कई बार जरुर घट जाती है। 

चलो चलते है अपनी आगे की यात्रा पर... जिस दिन हमें गौमुख जाना था। मैं सुबह-सुबह उठकर बिना नहाये धोये तैयार हो गया था। मेरे साथ तीन अन्य पुलिस वाले भी जा रहे थे। उन सबके साथ एक सबसे बडी व सही बात यह थी कि वे कुछ दिन पहले ही अपनी पुलिस ट्रेनिंग पूरी करके आये थे इस कारण सब से सब शारीरिक रुप से एकदम मस्त थे। जबकि मैं लगभग एक साल से एक स्कूल में अध्यापन देने तथा घर पर बच्चों को ट्यूशन आदि दे रहा था, जिस कारण शारीरिक रुप से आलसी जैसा बना हुआ था। मैं यह नहीं जानता था कि यह यात्रा मेरे लिये कैसे होने वाली है? अत: मैं तीनों पुलिस वालों के साथ अपने बैग में मात्र एक पानी की बोतल लेकर गौमुख की ओर पैदल अपनी पहली गौमुख ट्रेकिंक की ओर चल पडा था। लगभग एक किमी चलने पर ही मैं जान गया था कि यह यात्रा मेरे लिये उतनी आसान नहीं रहेगी, जितनी कि मैंने अपनी पहली ट्रेकिंग वाली नीलकंठ महादेव की ऋषिकेश वाली यात्रा कई साल पहले की थी। 

एक सवा किमी चलने के बाद वन विभाग का एक चैक-पोस्ट आया था जिसमें हमसे यह कहा गया कि आगे के मार्ग से कोई जडी-बूटी आदि उखाड कर या काट कर नहीं लानी है। आजकल वन विभाग के इस चैक-पोस्ट का उपयोग गौमुख में पोलीथीन-पन्नी की रोकथाम के लिये ज्यादा हो रहा है साथ ही इस चैक-पोस्ट से आगे जाने के लिये गंगौत्री या उतरकाशी स्थित वन-विभाग कार्यालय से ली गयी इजाजत/आज्ञा Permission यहाँ जरुर दिखानी पडती है। बल्कि एक डायरी में उसका रिकार्ड भी रखा जाता है। इसलिये अगर कोई यहाँ से आगे जाना चाहता है तो गंगौत्री के वन विभाग कार्यालय से पहले दिन ही अपना आज्ञा पत्र बनवा कर रख ले, क्योंकि यहाँ पर बताया गया है कि अब एक दिन में शायद सौ के करीब लोगों को ही आगे जा सकने की आज्ञा मिलती है। सही सँख्या के बारे में गंगौत्री स्थित वन विभाग के कार्यालय में अवश्य पता कर ले। 

अरे हाँ एक बात तो रह ही गयी है कि गंगौत्री में सरकारी गढवाल मंडल का विश्राम भवन व अन्य बहुत सारे निजी होटल बने हुए है अत: जून के महीने को छोड दिया जाये तो यहाँ पर रुकने में किसी भी प्रकार की कोई समस्या नहीं आने वाली है। कमरे का किराया भी कुछ खास मंहगा नहीं है बस यह ध्यान रखे कि पहले केवल एक बन्दा कमरे को देखने जाये, तथा एक बार में ही कई सारे होटल को देख कर आये ताकि आपको यहाँ पर कई होटल के बारे में साफ़-सफ़ाई व किराये का ज्ञान हो सके। यहाँ कई धर्मशाला भी बनी हुई है जहाँ रहना-खाना मुफ़्त मिलता है। बदले में आप अपनी इच्छा से जो देना चाहे वो दे सकते है लेकिन इन धर्मशाला में सुख-सुविधा की ज्यादा उम्मीद बिल्कुल ना रखे तो बेहतर रहेगा। यहाँ साधारण खाना भी मिलता है मैं एक बार ऐसी ही धर्मशाला में रुका था जहाँ सोने के लिये सिर्फ़ कम्बल मिलता है। होटल के किराये यहाँ पर 200 से शुरु होकर हजार भी पार कर जाते है। खाना खर्चा अलग से होता है। यहाँ पर मेरी इस यात्रा में तो क्या? गंगौत्री से केदारनाथ वाली यात्रा के समय तक भी बिजली की व्यवस्था नहीं हो पायी थी। बिजली का समाधान यहाँ पर डीजल जनरेटर व सौर ऊर्जा से चलने वाले इन्वर्टर के बल पर निकाला हुआ है जो रात के दस बजे तक बन्द कर दिये जाते है। अत: रात के समय जल्दी सोने की तैयारी कर ले।

अब फ़िर से चलते है अपनी पहली गौमुख यात्रा पर, वन विभाग के चौक पोस्ट तक तो मार्ग आसान सा ही है लेकिन इससे आगे-आगे जैसे-जैसे मार्ग आगे बढता है, चढाई बढने से शरीर से पसीना निकलना शुरु हो जाता है। यहाँ हम सुबह ठीक आठ बजे गंगौत्री से चले थे, जबकि गंगौत्री से जितना जल्दी हो सके चल देना चाहिए यदि दिन के दिन वापिस गंगौत्री तक आना हो। काफ़ी देर चलने के बाद मार्ग में चाय बेचने वाले व नीम्बू बेचने वाले बैठे मिल जाते थे। चूंकि अभी हमें पैदल चलते हुए सिर्फ़ एक घन्टा ही हुआ था अत: मैंने प्यास लगने पर किसी दुकान वाले से तो नहीं लेकिन अपनी बैग वाली बोतल से थोडा-थोडा सा पानी पी लिया करता था। चलते-चलते मार्ग में एक नदी नुमा पानी की तेज धारा हमारे बीच आ गयी थी। जिसे पार करने के लिये पेड की लकडी को उसके आर-पार लिटाया गया था, जिससे उसके ऊपर से बहुत ही सावधानी से चलते हुए पार करना पडा था। उस लकडी नुमा पुल पर जब हम पार कर रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि अब गिरे पानी में। पानी तो ज्यादा गहरा नहीं था। लेकिन ठन्डा इतना था कि मेरी हिम्मत नहीं पड रही थी कि उसमें हाथ पैर धो लिया जाये।


यह पैदल मार्ग लम्बा जरुर है लेकिन बहुत आसान है कोई खतरे वाली चढाई नहीं है, चीडबासा तक पहुँचने में हमें ज्यादा परेशानी नहीं हुई, बीच-बीच में जहाँ भी चढाई का जोर का झटका आता था उसे पार करने के बाद थोडी देर सुस्ता कर आराम कर लिया जाता था। पहाड में मिलने वाले भेड-बकरी, व घोडे-खच्चर जैसे कई जानवर ऐसे होते है कि वे खडे-खडे ही आराम करते है, जबकि मानव प्रजाति बैठकर सुस्ता लेती है कई-कई बन्दे तो बेहाल होकर बैठने की जगह जमीन पर ही सीधे लम्ब लेट हो जाते है, थकावट में इन्सान यह भी नहीं देखता है कि वह कहाँ लेट रहा है? उसे बस थोडी देर आराम करने की इच्छा से मतलब होता है। हम चारों आसानी से कई जगह नीम्बू पानी पीते हुए, भोजबासा तक आ गये थे। भोजबासा में उस समय भी कई सारे भोजवृक्ष के पेड मैंने देखे थे, दुबारा की गयी गौमुख यात्रा में भी मैंने वहाँ पर भोजवृक्ष के कई पेड वहाँ देखे थे। आजकल भले ही इन पेड की संख्या बहुत कम रह गयी हो लेकिन पहले इन्ही पेड की छाल को उतार कर उसका उपयोग कापी किताब वाली डायरी के पेज की तरह लिखने में किया जाता था। आजकल भी संग्रहालय में जाने पर आपको इन पेडों की छाल पर लिखे हुए कई ग्रंन्थ आसानी से मिल जायेंगे। वर्तमान में इन छाल का प्रयोग पूजा-पाठ करने में प्रयोग किया जाता है। 

भोजबासा में जहाँ पर आजकल गढवाल मंडल विकास निगम का विश्राम भवन बना हुआ है पहले उसके पास कई टैंट व आश्रम बने हुए थे। लेकिन मेरी दूसरी यात्रा में सरकारी भवन के अलावा एक आश्रम वहाँ मिला था, जो आश्रम वहाँ बचा हुआ है वह लाल बाबा का आश्रम है। मेरी इस यात्रा के समय लालबाबा जीवित थे। हमने नीचे दिखाई दे रहे आश्रम व भवन में जाने की कोई कोशिश नहीं की थी। क्योंकि इनके पास पहुँचने के लिये हमें काफ़ी नीचे उतना पडता। वापिस आने के लिये वह चढाई फ़िर से चढनी पडती, जिस कारण हम वहाँ नहीं गये थे। 

भोजबासा में पहुंचते ही जहाँ से मार्ग उल्टे हाथ थोडा सा घूमकर समतल भूमि पर होते हुए आगे बढता रहता है, ठीक वही हमने पहाड की पहली मैगी खायी थी, मैंने पहाड में इससे पहले कभी मैगी नहीं खायी थी। मैगी कहते समय वहाँ तेज ठण्डी हवा चल रही थी जिस कारण हमने कानों की पट्टियाँ निकाल कर सिर पर लगा ली थी। इस लेख का इकलौता फ़ोटो इसी जगह का है। यहाँ तक आने में मार्ग में कई सारे रुकने के स्थान मिले थे जिसमें आसानी से रात बिताने के लिये रजाई-गददे बेहद ही कम किराये पर मिल जाया करते थे। लेकिन आज हालात यह है कि गंगौत्री से गौमुख के बीच सिर्फ़ भोजवासा में ही रुकने के यह दो साधन बचे हुए है। अत: यहाँ जाने से पहले यह सोच कर जाये कि अगर भीड ज्यादा हुई तो रात रुकने में समस्या आ सकती है। 

मैगी खाकर हमारी पुलिस चौकडी फ़िर से आगे के लिये बढ चली। आगे का गौमुख गलेशियर तक व वापसी का वर्णन अगले भाग में किया जायेगा। जिसमें हमने गौमुख में मस्ती की व वापसी में मेरी नानी याद आ गयी वाली घटना के बारे में बताया जायेगा।   
(कुल शब्द 2515)
  




7 टिप्‍पणियां:

S.N SHUKLA ने कहा…


इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.

कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नवीनतम पोस्ट पर भी पधारें , आभारी होऊंगा.

Krishna/കൃഷ്ണ ने कहा…

Sandeepji nice post

thanks for sharing

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बड़ी रोचक यात्रा..

Vishal Rathod ने कहा…

एक बेहेतरीन पोस्ट के लिए धन्यवाद संदीप भाई. वह लकड़ी का पूल की कहानी का वर्णन बढ़िया है . क्या आज भी है वह पूल.

दो गज़ब वाली बाते

“मेरा तो एक गुरु है जिसे सब परमात्मा कहते है” और
” सब अपने-अपने गुरुओं को मानिये अगर किसी का हो तो लेकिन पहले अपने माँ-बाप का आदर करिये जिनकी बदौलत हमारा इस संसार में आना हुआ, जिन्होंने हमारा पालन पोषण किया ”

पुराने गुरुओ की महिमा में उनकी सिद्धि और शुद्धि से आती थी. आज कल के गुरुओ की महिमा धन और सम्पति से आती है. हमारे गुरु के पास १००० करोड , १५०० करोड , ३५० आश्रम आदि आदि . इनके बीच में भी competition चलता है की किसके पास ज्यादा आश्रम या followers है. लेकिन फिर भी कुछ गुरु है आजकल जो बहुत अच्छा काम कर रहे है और मनुष्य को परमात्मा की ओर लेके जाने में सहायता करते है जोकि उनका सही कर्म और लक्ष्य है.

यह पोस्ट भी बहुत काम आयेगी.

Vishal Rathod ने कहा…

और हाँ ब्लॉग के नए चेहरे के लिए बहुत बहुत बधाई. अब एक दम organised लग रहा है. थोडा और काम कर लो तो एक दम बहुत झकास और मजबूत लगेगा.

बेनामी ने कहा…

I am not in a position to view this web site properly on firefox I think there's a problem.

ApsApn ने कहा…

गोमुख तक की यात्रा का सजीव बर्णन पढ़ना बेहद अच्छा लगा |हिमालय की देवभूमि पर मेरी रचना अग्रवत है ;
हवाएँ मुअत्तर फज़ायें मुअत्तर , ज़मी भी यहाँ की मुअत्तर मुअत्तर |
हिमालय है देवों की वह देवभूमि , खाक भी है जहाँ की मुअत्तर मुअत्तर |

#खाक = धूल , मुअत्तर = सुगन्धित

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