LTC- SOUTH INDIA TOUR 06 SANDEEP PANWAR
रामेश्वरम स्टेशन से सप्ताह में एक बार
चलने वाली ओखा-रामेश्वरम ट्रेन से हमने अपने टिकट त्रिरुपति तक बुक किये थे। हमारी
ट्रेन रात को 8:30 मिनट पर जाने वाली थी, हम स्टेशन लगभग 6:30 बजे ही जा पहुँचे थे। दो घन्टे बैठकर प्लेटफ़ार्म पर ट्रेन लगने का इन्तजार
किया। ठीक आठ बजे ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर लगा दी गयी। अपनी-अपनी सीट देखकर उस पर अपना
डेरा जमा दिया। जब हमने इस ट्रेन के टिकट बुक किये थे तो उस समय हमारी वेटिंग चल
रही थी जो मात्र 2/3 ही थी इसलिये यात्रा वाले दिन से पहले
ही हमारी टिकट पक्की हो चुकी थी। लेकिन इस ट्रेन में शयनयान के टिकट हमने बुक किये थे।
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रात का खाना ट्रेन में ही खाने का इरादा
था इसलिये रामेश्वरम में शाम से कुछ भी नहीं खाया था। दो दिन से चावल खाकर चावलों की तरह पक चुके थे।
ट्रेन चलने के कुछ मिनट बाद ही खाने के आर्ड़र लेने वाला बन्दा आ गया। हमने खाने का
आर्ड़र देने से पहले उससे यह पता कर लिया कि खाने में चावल तो नहीं मिलेगा। उस
बन्दे की एक बात जोरदार लगी, उसने बड़े गर्व (घमन्ड़ अलग चिडिया का नाम होता है।) से
कहा था कि इस ट्रेन में आने वाली ज्यादातर यात्रियों को सबसे बड़ी शिकायत यही होती
है कि यहाँ के चावल से ऊब चुके होते है। वे अधिकतर गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र
या दिल्ली के आसपास के इलाके से आने वाले अधिकतर उत्तर भारतीय ही होते है। हम उनकी हालत देखते हुए सप्ताह
में चलने वाली इस ट्रेन में जबरदस्त खाना बनाते है। आप खाकर देखिये, यदि आपको खाना
पसन्द नहीं आया तो पैसे मत देना। साथ ही मुझे ढेर सारी खरी-खोटी भी सुना देना।
मैं पम्बन पुल की प्रतीक्षा में ट्रेन के दरवाजे पर खड़ा पहले ही
दरवाजे पर जमा हुआ था। जैसे ही ट्रेन रात के अंधेरे में पम्बन ब्रिज पार कर रही
थी। हम सारे के सारे यह नजारा अनुभव करने के लिये दरवाजे पर लगभग लटक गये थे।
दरवाजे पर मैंने कुछ देर सबसे नीचे वाले पायदान पर रुक कर यह अनुभव किया था कि
जैसे हमारी ट्रेन समुन्द्र के पानी के अन्दर से होकर जा रही हो। अगर ट्रेन थोड़ी सी
भी ऊपर-नीचे झूलते हुए चलती तो यह पक्का हो जाता कि हम पुल पर नहीं पानी के ऊपर चल
कर समुन्द्र पार कर रहे थे। ट्रेन रामेश्वरम से चलने के बाद पम्बन पुल पार करते ही
आने वाले स्टेशन पर कुछ देर के लिये रुकी थी। इस स्टेशन पर ट्रेन में कुछ सामान
लादा गया था, सवारी के नाम पर मुझे वहाँ कोई दिखायी नहीं दे रहा था।
इस स्टेशन से ट्रेन के चलते ही मैं भी
अपनी सीट पर आकर बैठ गया। कुछ देर बाद ही वेटर ताजा गर्मागर्म खाना लेकर आ गया। जब
उसका लाया गया खाना खाकर देखा तो उसकी बात से ज्यादा स्वाद (दम) उसके खाने में दिखायी
दिया। खाने में गर्मागर्म दो पराँठे के साथ आलू गोभी की बेहद ही स्वादिष्ट सब्जी
खाने के लिये मिली थी। उसकी बातों में उसका जो आत्मविश्वास दिखायी दे रहा था। खाना
खाकर उसकी बात याद आ गयी कुछ लोग इस आत्मविश्वास को अपनी सोच अनुसार शब्दों में बदलने में
माहिर होते है। बाद में जब वह पैसे लेने आया तो सबने उसके खाने की जमकर तारीफ़ की
थी।
मदुरै आने तक लगभग सभी सो चुके थे, लेकिन
जैसे ही ट्रेन मदुरै स्टेशन पर रुकी तो हमारे डिब्बे में मानो जैसे भूचाल आ गया
हो। हमारे डिब्बे में लगभग 50-55 औरतों के झुन्ड़ (समूह कहना गलत होगा, समूह 10-15 तक ही सही लगता है।) ने
हमला बोल दिया। जिसे जहाँ जगह दिखायी दी वो वहाँ लेटती बैठती चली गयी। उनकी भाषा के कारण उनकी आपसी बातचीत
भी हमारे पल्ले नहीं पड़ रही थी। हमारा डिब्बा उन्होंने ऐसा खचाखच भर दिया कि रात
में यदि किसी को सू-सू या सू-सू की चाची आ जाये तो उसका टायलेट तक पहुँचना बेहद ही
मुश्किल होने वाला था। रही सही कसर उनमें से एक औरत ने आने-जाने वाले मार्ग में
उल्टी करके कर दी। रात का समय था इसलिये सब चुपचाप पड़े रहे, जब दिन निकला तो
डिब्बे की दुर्दशा देखी।
सुबह के लगभग 11 बजे
के करीब हमारी ट्रेन त्रिरुपति स्टेशन पर पहुँच चुकी थी। स्टेशन से बाहर निकलते ही
हमने त्रिरुमला पर्वत माला स्थित त्रिरुपति मन्दिर जाने के लिये बस व जीप आदि खड़ी
हुई मिल जाती है। हमने पहले तो एक बस से ऊपर पहाड़ तक जाने का इरादा किया लेकिन बस
की सारी सीट हमारा नम्बर आने से पहले ही भर चुकी थी। अगली बस काफ़ी देर तक नहीं आयी
तो हमने एक जीप से ही ऊपर पहाड़ पर 20-22 किमी की दूरी तय
करने का फ़ैसला लिया। जीप में सवार होकर हम लोग पहाड़ के लिये चल दिये। अभी जीप ने
दो-तीन किमी ही पार किये होंगे कि एक जगह सबको जीप से उतार कर सघन चैंकिग/तलाशी ली
गयी। यहाँ तक की सामान की भी तलाशी हुई, उसके बाद हमें वापसी तक किसी ने चैक नहीं
किया था।
मन्दिर के पास पहुँचकर जीप वाले ने हमें
उतार दिया। अब मन्दिर दर्शन करने से पहले हमें अपना सामान रखने के लिये एक कमरा
चाहिए था कमरा लेने के लिये नजदीक ही एक काऊंटर बनाया गया है जो पूर्णयता आधुनिक
है और मन्दिर की ओर से बनाये गये हजारों कमरे में किसी कमरे के खाली होते ही
डिजीटल बोर्ड़ पर पता लगता रहता है कि कितने कमरे खाली है और कितने भरे हुए है। मैं
और सुनील लाइन में लगकर कमरा बुक कर आये। यहाँ पर अकेले बन्दे के लिये कमरा नहीं
दिया जाता है। अकेले बन्दे को कमरा लेने की जरुरत भी नहीं होती, क्योंकि सामान जमा कराने के काऊँटर बने हुए है।
अपना सामान रखने के लिये कमरे की ओर चल
दिये। हमारा कमरा जिस ब्लॉक में बना हुआ था वह ब्लॉक मन्दिर के प्रवेश मार्ग से
काफ़ी दूर बना हुआ था। कमरे में अपना सभी सामान, यहाँ तक की मोबाइल बेल्ट, पैन आदि
हमने वही छोड़ने बेहतर समझे। वैष्णों देवी में भी इसी तरह पैसे के अलावा कुछ भी ले
जाना मना है। नगद-नारायण ले जाने पर कोई रोक नहीं है, अगर पैसे पर भी रोक लगा दे तो इनका व्यापार बन्द हो सकता है। मन्दिर
तक पहुंचने के लिये मन्दिर समिति की ओर से फ़्री बस सेवा चलती है जो हर कुछ मिनट
बाद आती रहती है। यह बस पूरी दिन-रात चलती रहती है जिससे यात्री अपने-अपने ठिकाने
पर बिना किसी परॆशानी के पहुँचते रहते है
मन्दिर में अन्दर जाने के लिये एक जगह
हमारे अंगूठे के निशान बाय़ोमिट्रिक मशीन से चैक किये गये थे, यह निशान हमने साउथ
दिल्ली के वैंकटेश्वर कालेज के पास मन्दिर के कार्यालय में दिये थे। शायद भारत में
जगह-जगह ऐसा प्रबन्ध किया गया होगा? दर्शन का टिकट व रुपयों के अलावा हम कुछ और
नहीं लाये थे जिससे हमें अन्दर जाने में कोई परेशानी नहीं हुई, बहुत सारे लोग
मोबाइल आदि के चक्कर में वहाँ खड़े हुए थे। अन्दर जाते ही हमें एक बड़े से हॉल में
भेज दिया गया, यहाँ हमारे जैसे सैकडों लोग पहले से ही मौजूद थे। ऐसे-ऐसे वहाँ पर
बीसियों हॉल बनाये गये थे जिसमें आम जनता को रोककर आगे भेजा जाता था।
हमें लगभग घन्टे भर से ज्यादा प्रतीक्षा
करने के बाद उस हॉल की कैद से मुक्ति मिल सकी। धीरे-धीरे रेंगते हुए हम एक गली नुमा मार्ग से
आगे बढ़ते रहे। आगे जाकर हमारी लाइन में ही 300 रुपये वाली लाइन भी आकर मिल गयी। हमारी
लाइन 50 रुपये वाली लाइन थी। मन्दिर के गेट के समीप पहुँचकर
फ़्री वाली लाइन भी इसी लाइन में आकर मिल जाती है। यहाँ पता लगा कि फ़्री वाली लाइन
में लोगों सुबह से लगे पड़े है तब जाकर उनका अब रात को 10-11 बजे
तक नम्बर आने वाला है। मुख्य परिसर में प्रवेश करने के लिये लाइन को बेहद ही पतला
कर दिया जाता है। यहाँ पर VIP लोगों के कारण आम लोगों को
रोका जाना बहुत बुरा लगा।
जब हमारा नम्बर इस मन्दिर के मुख्य मूर्ति
करने का आया तो हमें मुश्किल से 10 सेकिंन्ड़ का समय ही मिल पाया होगा। यहाँ
भी मदुरै जैसी आदमकद मूर्ति बनायी हुई है। मन्दिर से बाहर निकलते ही एक जगह हुन्ड़ी
के नाम से लोगों को रुपया ड़ालने को प्रेरित किया जाता है लोग भी दिल खोल कर अपनी
जेब यहाँ ढीली करने आते है। हमने भी थोड़ी सी जेब ढीली करने की सोची थी। इसके बाद हम वहाँ से
बाहर निकलने के लिये चल दिये।
मन्दिर से बाहर आने के लिये यहाँ मिलने
वाले विशेष प्रकार के स्वादिष्ट लड़डू वितरण केन्द्र के बीचो बीच से होकर निकलना
पड़ा। हमारे पास जो टिकट था उसे दिखाकर सबके लिये 2-2 लडडू ले लिये गये। हमने
अपने लड़डू में से एक-एक लड़डू वही चट कर दिया। इसके बाद हमने वहाँ से कमरे पर आने
के लिये मन्दिर की ओर से चलने वाली बस का सहारा लिया और अपने कमरे पर आकर सो गये।
हमारी अगले दिन की ट्रेन सुबह 7 बजे त्रिरुपति से बंगलौर की
थी। बंगलौर से कोपरगाँव होकर शिर्ड़ी जाना था। (क्रमश:)
दिल्ली-त्रिवेन्द्रम-कन्याकुमारी-मदुरै-रामेश्वरम-त्रिरुपति बालाजी-शिर्ड़ी-दिल्ली की पहली LTC यात्रा के क्रमवार लिंक नीचे दिये गये है।
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6 टिप्पणियां:
उम्दा वर्णन |अगले लेख की प्रतीक्षा रहेगी
जय हो तिरुपति बालाजी....वन्देमातरम...
भैया फोतुवा तो तब होवे तुम्हारा जब कैमरा ले जाने देवें .
पर्यटन के संग तीर्थयात्रा भी..
यात्रा का आनन्द देने वाला रोचक विवरण....
sandeep ji kai jageh to asi aati hai line me ki aap puri trah se pack ho jate ho yani ki aap hill bhi nahi sekte ho .fir wo galeyare aate hai jinper 12345 no likha hota hai unke gate itne chhote ki pucho mat jaan hi nikal jate hai.ha laddu bade swadist hote hai.
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