LTC- SOUTH INDIA TOUR 04 SANDEEP PANWAR
Note- इस लेख में एक भी फ़ोटो मेरा नहीं है।
कन्याकुमारी से मदुरै जाने के लिये हम दोपहर में बताये गये
समय पर एक मिनी बस में जा बैठे। लगभग आधा घन्टा बीतने पर भी जब बस आगे नहीं बढी तो
अन्य सवारियों के साथ हम भी, ड्राइवर से चलने के लिये बोलने
लगे। ड्राइवर बोला कि अभी पांच सीट खाली है थोड़ी देर में सवारी पहुँच रही है उनके
आते ही हम चल देंगें। उसका विश्वास कर हम इन्तजार करते रहे लेकिन फ़िर से आधा
घन्टा बीत गया लेकिन सिर्फ़ एक सवारी ही बस में आयी, अबकी बार सभी
सवारियों ने एक सुर में बस चालक से बस आगे बढ़ाने को कहा तो बस वाला धीरे-धीरे बस
को आगे बढ़ाने लगा। वह इतना शातिर था कि कन्याकुमारी की टेड़ी-मेड़ी गलियों से
होता हुआ फ़िर से किसी नजदीक की गली में ही बस को वापिस ले आया। मैंने सोच लिया कि
इससे कुछ कहना बेकार है। यह अपनी सीट फ़ुल करके ही आगे के लिये रवाना होगा।
आखिरकार पूरे डेढ़ घन्टे प्रतीक्षा कराने
के बाद बस वाला बस लेकर आगे बढ़ा। यहाँ बस वाले को तो हमने पैसे दिये नहीं थे जो
उससे वापिस माँग करते, माँगते तो वह यही बात करता। जिस दुकान पर हमने पैसे जमा करा
कर रसीद ली थी वह दुकान बस चलने वाली जगह से लगभग एक किमी के करीब दूरी पर थी। आगे
से ऐसी किसी निजी बस से यात्रा न करने की तौबा कर ली। लेकिन कहते है ना समय के साथ
आदमी पुराने गम भूल जाता है इस घटना को बीते हुए चार साल ही हुए थे कि मैं नैनीताल
जाने के एक बार फ़िर निजी बस वालों के चक्कर में फ़ँस गया था जिसके बारे में पूरी
कहानी उस यात्रा में बता चुका हूँ। यहाँ निजी बस में यात्रा करने का कारण साथ जाने
वाले बन्धु थे। नैनीताल से वापसी में भी उनका इरादा निजी बस से ही यात्रा करने का
था इसलिये मैं उन्हें राम-राम कर चला आया था।
बस ने जैसे ही कन्याकुमारी छोड़ा तो अपनी
जान में जान आयी और हम आराम से खिड़की की ठन्ड़ी हवा लेते हुए यात्रा का आनन्द उठाते
हुए मदुरै की ओर बढ़ते रहे। कन्याकुमारी की आबादी से बाहर आते ही बस की गति लगभग 70/80 के
आसपास पहुँच गयी। यहाँ के मुख्य हाईवे पर वाहनों की बहुत ज्यादा मारामारी दिखायी
नहीं दी। कन्याकुमारी से आगे निकलने के बाद समुन्द्र की ओर से आने वाली तेज हवाओं
का लाभ उठाने के लिये बिजली बनाने वाले विशाल पंखे वाले यंत्र अनगिनत संख्या में
लगे हुए दिखायी दिये। बिजली बनाने के यह यंत्र लगभग 10-15 किमी
इलाके में दिखायी दिये थे। हमारी बस इनके बीच से होकर मदुरै की ओर बढ़ती रही। ऐसे
ही सैंकड़ों यंत्र मैंने गुजरात यात्रा में भी देखे थे।
कन्याकुमारीच से चलने के बाद दो/अढ़ाई
घन्टे चलते हुए हो गये थे इसलिये ड्राइवर ने मदुरै पहुँचने से पहले बस एक ढ़ाबे पर
जाकर कुछ देर के लिये रोक दी। यहाँ मैंने सोचा कि चलो कुछ स्थानीय पकवान खाकर देखा
जाये। घरवाली बोली यह केले के पत्ते से बना वाला पकौड़ा खाकर देखते है। 5 रुपये
का एक पकौड़ा लेकर देखा गया, जैसे ही वह पकौड़ा मुँह के अन्दर गया तो उसे थूकने में
एक पल की भी देर नहीं लगायी गयी। बाकि साथी बोले क्या हुआ? मैंने कहा इसमें ढेर
सारा नमक भरा हुआ है। यह इतना कडुवा है कि मुँह में रखा ही नहीं जा रहा है। हाथ
में बचा हुआ पकौड़ा दूर फ़ैंक दिया। इसके बाद वहाँ से बिस्कुट के पैकेट लेकर काम
चलाया गया। कुछ देर में ही बस आगे के लिये चल दी। अभी मदुरै वहाँ से लगभग 100
किमी दूरी पर बचा हुआ था। धीरे-धीरे दिन ढ़लता जा रहा था।
मदुरै पहुँचते-पहुँचते हल्का-हल्का अंधेरा
होने लगा था। हमारे टिकट में रात को रुकने वह खाने के पैसे शामिल थे। इसलिये हम
कमरा तलाश करने व खाने के लिये भोजनालय देखने की चिंता से मुक्त थे। जैसे ही बस
वाले ने मदुरै शहर में मदुरै के रेलवे स्टेशन के सामने वाली सड़क पर गाड़ी मोड़ी तो
हम समझ गये कि अब नजदीक ही उतरने की बारी है। अन्य सवारियों के साथ हम भी उतर गये।
यहाँ 10-15
मिनट प्रतीक्षा कराने के बाद बस चालक ने एक बन्दे को हमारे होटल में
हमारे साथ भेज दिया। कन्याकुमारी से टिकट बुक करने वाले एजेन्ट ही अपने-अपने
जानकार होटल में कमरे बुक करते है। बस में हम पाँचों का होटल अन्य सवारियों से अलग
था। बाकि सवारियाँ किसी अन्य सड़क के विभिन्न होटलों में ठहरने के लिये चली गयी थी।
होटल में पहुँचने तक अंधेरा हो गया था।
होटल वाले से मीनाक्षी मन्दिर के दर्शन के बारे में पता किया उसने कहा कि यदि आप
अभी चले जाओगे तो आपको दर्शन हो जायेंगे, यदि आधा घन्टा बाद जाओगे तो कल सुबह
मन्दिर जा पाओगे। हमने एक मिनट की भी देरी किये बिना, वहाँ से वहाँ से होटल वाले
की बतायी गली से मन्दिर के लिये प्रस्थान कर दिया। मन्दिर पहुँचने में मुश्किल से 4/5 का
समय लगा होगा। मन्दिर के पास जाकर पता लगा कि यहाँ मन्दिर में प्रवेश करने के लिये
लगभग 300 मीटर लम्बी लाइन लगी हुई है हम भी उसी लाइन में लग
गये। कन्याकुमारी की तरह यहाँ पुरुष को शरीर के ऊपरी भाग के कपड़े नहीं उतारने पड़ते
है।
हम अभी मन्दिर की चारदीवारी में घुसने से
लगभग 100
मीटर दूर थे कि मन्दिर के सेवकों ने बोल दिया कि मन्दिर 5 मिनट में बन्द होने वाला है इसलिये फ़टाफ़ट मन्दिर में घुस जाओ। हमारे पीछे
मुश्किल से 30-35 लोग ही होंगे। उसके बाद मन्दिर वालों ने
किसी को लाइन में नहीं लगने दिया। मन्दिर के अन्दर घुसे तो वहाँ लाइन चलने की बजाय
भागती हुई दिखायी दे रही थी। हमारे आगे की लाइन भाग कर जगह खाली कर चुकी थी इसलिये
हम भी तेजी से आगे बढ़ते चले गये। जैसे ही सब लोग मन्दिर के अन्दर आये मन्दिर के
दरवाजे बन्द कर दिये गये। हमारी भागती हुई लाइन मुख्य मूर्ति के दर्शन करते समय ही
रुकी। मुख्य मूर्ति के लगभग 15-20 मीटर की दूरी से दर्शन कर
हम बाहर आने के लिये चल दिये। मीनाक्षी मन्दिर की मूर्ति आदम कद रुप में है।
जिस दरवाजे से हम यहाँ आये थे वह दरवाजा
तो बन्द हो चुका था। अब पब्लिक जिधर जा रही थी हम भी उधर ही चलते रहे। काफ़ी देर कई
मोड़ मुड़ने के बाद हम किले नुमा विशाल मीनाक्षी मन्दिर से बाहर आ पाये। बाहर आकर देखा
कि हम जिस दरवाजे से बाहर आये है वह दरवाजा देखने में तो उसी दरवाजे जैसा ही है
जिससे हम अन्दर गये थे, लेकिन उस दरवाजे के बाहर के घर इससे अलग थे। हमने तो होटल
का नाम भी नहीं देखा था सीधी गली थी इसलिये मन्दिर की चारदीवारी के साथ चलते हुए
आधा किमी चक्कर लगाकर उसी जगह पहुँच गये जहाँ हमारी चप्पले रखी हुई थी। मन्दिर के
चारों ओर किले की तरह मजबूत व बीस फ़ुट ऊँची चारदीवारी बनायी गयी है। चारदीवारी के
बाहर चारों ओर लगभग 30-40 फ़ुट जगह खाली रखी गयी है जो एक सड़क के बराबर काम करती है।
इस चारदीवारी के बाहर घर व होटल बने हुए है, मैंने एक दो जगह कमरे के बारे में पता
भी किया था। जिनका किराया 200/300/400 रुपये बताया गया था।
अपनी चप्पले पहन कर उसी गली से वापिस होटल
की ओर लौट चले, जहाँ से होकर मन्दिर की ओर आये थे। अबकी बार भी 4-5 मिनट
में ही होटल पहुँच गये। होटल में पहुँचने के बाद रात्रि भोजन के लिये कहा गया।
भोजन के रुप में सब्जी रोटी के बारे में बताया गया, लगभग आधे घन्टे बाद हमारे लिये
रात्रि का भोजन आया। रात के साढे नौ बज रहे थे। हाथ-मुँह धोकर खाने की तैयारी करने
लगे। जैसे ही रोटी का पहला निवाला मुँह के अन्दर गया तो समझ आ गया कि यहाँ के
लोगों को सब्जी खाने की समझ ही नहीं है। सब्जी का स्वाद इतना बेकार था कि उसे बिना
खाये ही एक तरह रख दिया गया। स्टेशन भी नजदीक ही था सोचा कि चलों, वहाँ जाकर समोसे
आदि खाकर पेट भरा जाये। रोटी की हालत ठीक-ठाक थी घरवाली बोली मैं अचार साथ लायी
हूँ फ़िर क्या था आधा किमी दूर रेलवे स्टेशन जाने की बात तुरन्त समाप्त हो गयी।
हमने आचार के साथ रोटी खायी और पानी पीकर सो गये। सुबह उठकर रामेश्वरम के लिये
निकलना था। (क्रमश:)
दिल्ली-त्रिवेन्द्रम-कन्याकुमारी-मदुरै-रामेश्वरम-त्रिरुपति बालाजी-शिर्ड़ी-दिल्ली की पहली LTC यात्रा के क्रमवार लिंक नीचे दिये गये है।
3 टिप्पणियां:
जय माता मीनाक्षी, खाना तो बस हमारे इलाके का ही हैं. बाहर जाकर तो आधा भूका ही रहना पड़ता हैं...राम राम
भोजन के लिये संघर्ष हो जाता है यहाँ पर..
लेख में कोई भी फोटो आपका नहीं तो फिर अपने नाम का टैग क्यूँ लगाया...
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