LTC- SOUTH INDIA TOUR 07 SANDEEP PANWAR
हमने सुबह 9 बजे ही शिर्डी छोड़ दिया
था मन्दिर से थोड़ा सा आगे बने हुए बस अड़ड़े पहुँचे तो वहाँ एक वैन वाला पीछे पड़
गया। जब हम बस अडड़े में घुस रहे थे तो हमसे वहाँ खड़े वैन वालों ने पूछा था कि कहाँ
जाओगे? मैंने कहा कि मनमाड़ जाना है लेकिन बस में जाना है, वैन में चलो, ना वैन में ज्यादा किराया
लगेगा, उतने पैसे हमारे पास नहीं है, लगता था कि वैन वाला भी खाली वैन लेकर मनमाड़
नहीं जाना चाहता था। उसने कहा बस में 40 रुपये लगते है आप
दोनों के 100 रुपये दे देना। अरे वाह, यह तो अपने आप ही ठीक
किराया माँग रहा है, लेकिन तुम कई सवारी लेकर जाओगे हमें 10:30 पर मनमाड़ से रेल पकड़नी है। वैन वाला बोला अपको आपकी ट्रेन से पहले पहुँचा
दूँगा। यहाँ सिर्फ़ 5-7 मिनट देखता हूँ, सुबह के समय मुश्किल
से ही सवारी मिलती है। अगर कोई और नहीं मिला तो आप दोनों को लेकर जरुर जाऊँगा। थोड़ी देर तक जब कोई सवारी
दिखायी नहीं दी तो वह हम दोनों को लेकर मनमाड़ की ओर चल दिया।
केले की फ़सल |
मुश्किल से घन्टा भर का समय मनमाड़ पहुँचने
में लगा होगा। बस में आते तो हम रेलवे स्टेशन से काफ़ी दूर पुल के पास उतरते। वैन
वाला हमें सीधे स्टेशन की पार्किंग में ही लेकर आ गया। उसको 100 रुपये
देकर हम प्लेटफ़ार्म की ओर चल दिये। हमारी ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर पहले ही आकर खड़ी थी। यहाँ यह
ट्रेन लगभग आधे घन्टे रुकती है, ठीक 10:30 पर ट्रेन नान्देड़
के लिये चल पड़ी। इससे पहले हमने मनमाड़ के प्लेटफ़ार्म पर बड़ा पाव खाकर अपनी सुबह की भूख
शाँत की थी। यहाँ मिलने वाले अनार के दाने भी खाने के लिये ले लिये। ट्रेन मनमाड़ के बाद लगभग 7-8 किमी तक एक लोकल स्टेशन आने तक कोपरगाँव की दिशा में ही चलती है यहाँ से हमने थम्ब रॉक के एक बार फ़िर दर्शन किये।
मैं कई बार इस पहाड़ के किनारे से रेल में यात्रा कर चुका हूं लेकिन कभी भी इस थम्ब
रॉक का ढंग का फ़ोटो नहीं ले पाया हूँ।
बंगलौर/कोपरगाँव वाली लाइन से अलग होने के
बाद हमारी ट्रेन औरंगाबाद वाले रूट पर दौड़ने लगी। मैं इस रुट पर पहली बार यात्रा
कर रहा था इससे पहले एक बार नान्देड़ तक आया तो जरुर था लेकिन तब हिंगोली-अकोला
वाले रुट से ही आना-जाना किया गया था। दिन का समय था बाहर के नजारे देखकर आराम से
यात्रा तय हो रही थी। औरंगाबाद परभणी आदि पार होते गये। पूर्णा पहुँचने के बाद
देखा कि यहाँ से बसमत वाली लाईन चालू हो गयी है। पिछली बार जब इस लाइन से आना
चाहता था तो यह उखाड़ी हुई थी छोटी/मीटर गेज की लाइन के बदले ब्राड़गेज लाइन में
बदली जा रही थी। मुझे आज शाम तक कुरुन्दा पहुँचना था। मैं चाहता तो पूर्णा से लोकल
ट्रेन या बस पकड़ कर सीधा बसमत पहुँच जाता। बसमत जाने के परभणी से बस पकड़ कर जाना
सबसे अच्छा रहता है जब तक बन्दा नान्देड़ पहुँचता है तब तक बन्दा बसमत भी पहुँच
जाता है।
हमें दोनों को नान्देड़ का गुरुदारा भी
देखना था उसके लिये पहले नान्देड़ जाना जरुरी था। हमारी ट्रेन शाम के चार बजे नान्देड़
पहुँच गयी। नान्देड़ स्टेशन के बाहर मदन वाघमारे हमारा इन्तजार करते हुए मिले।
स्टॆशन से बाहर आते ही बिना समय गवाये हम एक ऑटो में बैठकर नान्देड़ के श्री सचखन्ड़
गुरुद्धारे पहुँच गये। यहाँ 10 मिनट में दर्शन आदि करके मुक्त हुए। इसके
बाद हम सीधे मदन के घर पहुँचे। वहाँ पर ठन्ड़ा-आदि पीने के बाद हम बस अड़ड़े जा
पहुँचे। बस अड़ड़े से बसमत जाने वाली बस में बैठ गये। बसमत पहुँचने से पहले ही हऎं
अंधेरा हो गया था। हमे लेने के लिये बसमत के बस स्थानक पर बाबूराव व कैलाश अपनी
सूमो लेकर पहुँच गये थे। यदि अकेला होता तो बाइक से भी काम चल जाता।
रात को 8 बजे जाकर कुरुन्दा पहुँच
सके। अगला दिन भी यही रुकना था इसलिये रात को किसी से मिलना जुलना नहीं हुआ। रात
का खाना खाकर जल्द ही सो गये। अगले दिन कुरुन्दा में सभी जानने वालों को पता लग
गया कि दिल्ली वाले दोस्त आये हुए है। यहाँ पर अबकी बार एक कमाल देखने को मिला। गाँव
की महिलाएँ मेरी पत्नी को देखकर अंदाजा लगा रही थी कि क्या ये भाग कर आयी है उनका
अंदाजा गलत नहीं था? हम दो साल पहले भी यहाँ आये थे तब तो कोई बच्चा हमारे पास नहीं
था लेकिन अबकी बार हम अपनी बच्ची को घर पर अपनी दादी (मेरी माताजी) के पास ही छोड़ कर आये थे। गाँव
की महिला इसी वजह से शक कर रही थी कि इनके पास बच्चा व ज्यादा सामान आदि भी नहीं है।
यह साड़ी भी नहीं पहने हुए है। जब गाँव की महिलाओं की बाते हमें पता लगी तो हम काफ़ी
देर तक हँसते रहे थे।
दिन में खेतों में जाने का कार्यक्रम
बनाया गया था। बाबूराव-कैलाश और जाटदेवता अलग-अलग बाइकों पर अपनी-अपनी घरवाली को
बैठाकर खेत के लिये रवाना हो गये। खेत में पहुँचकर हमने काफ़ी देर तक वहाँ मौज
मस्ती की थी। खेत में बेरी का एक पेड़ था जिस पर उस समय पके हुए बेर लगे हुए थे। हमने उस
बेरी के पेड़ से काफ़ी बेर तोड़ कर खाये। पेड़ हिलाने से काफ़ी सारे बेर नीचे गिर गये
थे। जिससे उठाने में सभी को लगना पड़ा था। खेत में लगभग 3-4 घन्टे
बिता कर हम वापिस गाँव आ गये। हमें अगले दिन दिल्ली के लिये निकलना था। कैलाश की पत्नी
की आदत अन्य सबसे अलग है उसके व्यवहार से ऐसा लगता ही नहीं था कि हम महाराष्ट्र
में आये हुए है। अन्य महिलाएँ हिन्दी बोलने में अटक/झिझक रही थी, जबकि कैलाश के परिवार
में ऐसी कोई समस्या नहीं थी।
शाम को सबसे मिलना जुलना हुआ। अगले दिन
नान्देड़ स्टेशन छोड़ने के लिये बाबूराव व कैलाश हमारे साथ अपनी सूमो में लेकर नान्देड़
पहुँच गये। वहाँ पर मदन बाबू भी हमारा इन्तजार कर रहे थे। सचखन्ड़ ट्रेन नान्देड़ से
ही चलती है इसलिये ट्रेन के प्लेटफ़ार्म पर लगने का इन्तजार होने लगा। आज भी हमारी
सीट AC 3
टायर में ही आरक्षित थी लेकिन आज सुकून इस बात का था कि हमारी टिकट
पहले दिन से ही पक्की थी। ट्रेन के आते ही हमने सबको फ़िर मिंलेंगे कहकर अपना सामान
अपनी सीट पर ले जाकर रख दिया। थोड़ी देर में ही ट्रेन चल पड़ी। यहाँ कोई महिला हमारी सीट पर पहले ही बैठी हुई मिली। हमारे जाने के काफ़ी देर बाद उसने सीट खाली की थी।
आज बेशक हम AC 3 टायर
में ही यात्रा कर रहे थे लेकिन आज राजधानी रेल की तरह भोजन फ़्री में नहीं मिलने
वाला था। दिन भर के खाने क लिये वर्षा (कैलाश की बीबी) ने हमें चावल से बना हुआ पोहा
दे दिया था पोहा इतना स्वादिष्ट था कि हम घर से भी उसे ही खाकर चले थे। इस यात्रा
में वर्षा ने हमें सीताफ़ल से बना बेहद ही लजीज हलुवा खिलाया था। जिसकी बनाने की
विधि भी हमने खाते समय ही पता कर ली थी। दिल्ली में जब भी मन करता है तो पोहा व
सीताफ़ल का हलुवा बनाकर खा लिया जाता है। हमारी ट्रेन दिन के लगभग 1 बजे नई दिल्ली स्टेशन पहुँच गयी थी। स्टेशन से बाहर आते ही हमने एक ऑटो
किया और सीधे अपने घर जा पहुँचे। मार्ग में सुनील को फ़ोन किया, उसने बताया कि वह अभी
दोपहर की नौकरी पर जा रहा है। (समाप्त)
इस यात्रा में मोबाइल से काम चलाऊ कुछ ही फ़ोटू लिये गये थे। यदि फ़ोटो ज्यादा होते तो यात्रा और भी विस्तार से बतायी जाती!
दिल्ली-त्रिवेन्द्रम-कन्याकुमारी-मदुरै-रामेश्वरम-त्रिरुपति बालाजी-शिर्ड़ी-दिल्ली की पहली LTC यात्रा के क्रमवार लिंक नीचे दिये गये है।
बेरी के बेर की तलाश में |
संस्कृति |
बाबूराव इगोंले व कैलाश देशमुख |
तिलक वाले मदन वाघमारे जो नान्देड़ में ही रहते है। |
4 टिप्पणियां:
सुन्दर विवरण
बढ़िया रहा।
हलवा खाने आते हैं भाई हम भी किसी दिन :)
बहुत अच्छा था यात्रा का वर्णन ऐसा लग रहा था जैसे हम भी आपके साथ ही घूम रहे है ।
संदीपजी आप मेरे घर रुके थे खेत भी गये।
पर आपकी कहानी में मेरा नाम कही भी नही दीखा।
क्यों भाई कोई दुश्मनी है क्या पीछले जनम वाली करण अर्जुन जैसी
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