सोमवार, 23 जून 2014

Khajuraho to Orcha by local Train journey खजुराहो से ओरछा तक रेल यात्रा

KHAJURAHO-ORCHA-JHANSI-06

आज के लेख में दिनांक 27-04-2014 की यात्रा के बारे में बताया जा रहा है। खजुराहो रेलवे स्टेशन के प्लेटफ़ार्म पर पहुँचकर बोर्ड का फ़ोटो लिया। एक स्थानीय बुजुर्ग भी मेरे पीछे-पीछे पैदल चले आ रहे थे। उनको कैमरा थमा कर मैंने बोर्ड के साथ अपना फ़ोटो भी खिंचवा लिया। बुजुर्ग का फ़ोटो भी ले लिया साथ ही उन्हे धन्यवाद बोलकर स्टेशन आ पहुँचा। ट्रेन चलने के समय में अभी एक घन्टा बाकि है। सामने ठन्डे पानी दिखायी दे रहा था। ठन्डा पानी पीया व बोतल में भरकर रख लिया। थोडी देर में झांसी की ओर से एक सवारी गाडी आयेगी तो कुछ देर रुककर वापिस झांसी की दिशा में लौट जायेगी। जब तक ट्रेन आयेगी तब मैं टिकट भी ले लूँगा। सबसे पहले स्टेशन की मुख्य इमारत का फ़ोटो लेने के लिये बाहर आना पडा। स्टेशन की इमारत खजुराहो के मन्दिरों की तरह की निर्मित की गयी है। स्टेशन के बाहर काफ़ी शानदार पार्क बनाया गया है। यहाँ की पार्किंग भी काफ़ी बडी है जिसमें एक साथ सैकडो वाहन खडे हो जाते है।
इस यात्रा के सभी लेख के लिंक यहाँ है।01-दिल्ली से खजुराहो तक की यात्रा का वर्णन
02-खजुराहो के पश्चिमी समूह के विवादास्पद (sexy) मन्दिर समूह के दर्शन
03-खजुराहो के चतुर्भुज व दूल्हा देव मन्दिर की सैर।
04-खजुराहो के जैन समूह मन्दिर परिसर में पार्श्वनाथ, आदिनाथ मन्दिर के दर्शन।
05-खजुराहो के वामन व ज्वारी मन्दिर
06-खजुराहो से ओरछा तक सवारी रेलगाडी की मजेदार यात्रा।
07-ओरछा-किले में लाईट व साऊंड शो के यादगार पल 
08-ओरछा के प्राचीन दरवाजे व बेतवा का कंचना घाट 
09-ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर व राजा राम मन्दिर
10- ओरछा का जहाँगीर महल मुगल व बुन्देल दोस्ती की निशानी
11- ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी किले की ओर प्रस्थान
12- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का झांसी का किला।
13- झांसी से दिल्ली आते समय प्लेटफ़ार्म पर जोरदार विवाद


टिकट खिडकी अभी बन्द थी। रिजर्वेसन काउंटर जरुर खुला था लेकिन उसमें अपना काम नहीं हो सकता था। सवारी गाडी का टिकट लेने के लिये कुछ लोग लाइन में लगना आरम्भ हो गये थे। लाइन लम्बी हो उसके पहले मैं साधारण टिकट लेने के लिये लाइन में गया। कुछ देर में टिकट बाबू आया और टिकट देना शुरु कर दिया। कुछ लोग बहुत देर से टिकट खिडकी के पास खडे हुए थे। जब टिकट बाबू ने कहा कि लाइन के बिना टिकट नहीं दूँगा तो हिन्दी जानने वाले सभी लोग लाइन में घुस गये लेकिन एक अमेरिकन जो शायद हिन्दी नहीं जानता था।(या अच्छी हिन्दी नहीं जानता/समझता होगा) वह लाइन के बराबर में ही खडा रहा।
चार-पाँच टिकट के बाद जब उसने टिकट के लिये रुपये देने चाहे तो टिकट बाबू ने लाइन में ना होने का हवाला देकर टिकट नहीं दिया। टिकट देने से इन्कार होने की बात पर वह अमेरिकन काफ़ी देर तक बडबड करता रहा। मैने उसकी मदद करनी चाही तो उसने मेरी बात नहीं सुनी। ना सुन, जा भाड में। हो सकता है उसे उस समय मेरी देशी स्टाइल वाली अंग्रेजी समझ ना आयी हो। टिकट की लाइन में मेरा नम्बर 11 वाँ था। अब तक टिकट की लाइन लम्बी हो चुकी थी। धीरे-धीरे मेरा नम्बर भी आ गया मैंने ओरछा का एक टिकट ले लिया। खजुराहो से ओरछा की दूरी 190 किमी है और किराया 35 रुपये है।
मैं रेल व बस की यात्रा करते समय अधिकतर खुल्ले रुपये पैसे रखने की हर सम्भव कोशिश करता हूँ। इसलिये मुझे यहाँ समस्या नहीं आयी। जबकि कुछ लोग खुल्ले के चक्कर में परेशान हुए जा रहे थे। टिकट लेने के बाद मैंने देखा कि लाइन से निकाला गया वह अमेरिकी सबसे पीछे जाकर लग गया है। अब उसका नम्बर करीब 40 सवारी के बाद आयेगा। महिलाओं के लिये सामान्यत: अलग लाइन नहीं होती। महिलाएँ एक-एक कर इसी लाइन में से टिकटे लेती रहती है। अमेरिकी ने मेरी बात नहीं सुनी। मैं कौन सा उसे जानता हूँ? टिकट लेकर प्लेटफ़ार्म पर आया और जगह देखकर बैठ गया। ट्रेन अपने समय से आ गयी थी। जैसे ही ट्रेन आयी तो देखा कि यह ट्रेन से मात्र 5 डिब्बे वाली ही है इतनी छोटी ट्रेन?
यह ट्रेन तो शिमला/माथेरान/ऊटी/दार्जिलिंग वाली ट्रेन की तरह थी। उनमें भी 5-6 डिब्बे ही होते है। पहाड वाली ट्रेन के डिब्बे में 30 सवारियाँ भी नहीं आ पाती है जबकि इस ट्रेन के एक डिब्बे में 100 सवारियाँ आसानी से आ जायेगी। सवारियों के उतरते ही खिडकी वाली सीट पर कब्जा जमा लिया। मैं सोच रहा था कि कम डिब्बे होने के कारण ट्रेन में काफ़ी मारामारी मचने वाली है लेकिन थोडी देर बाद जब सब कुछ सामान्य हो गया तो डिब्बे में देखा। वहाँ तो अब भी कई सीटे खाली पडी है। ट्रेन में सीट पर बैठकर प्लेटफ़ार्म का नजारा देखने में बडा मजा आता है। ट्रेन से उतरी कुछ सवारियाँ अपना सामान समेटने में लगी थी तो कुछ सवारियाँ प्लेटफ़ार्म पर ही तैयार हो रही थी। ऐसी ही दो तीन ग्रामीण महिलाएं अपने बच्चों को तैयार करने में लगी थी। उनका परिवार काफ़ी बडा था थोडी में जब सभी तैयार हो गये तो उन्होंने अपना सामान अपने सिर पर लादा और बाहर चले गये।
ट्रेन अपने तय समय दोपहर 12:30 मिनट पर चलने के तैयार थी जैसे ही सिगनल मिला ट्रेन ने सीटी बजा दी। खजुराहो से महोबा के बीच सिर्फ़ दो सवारी गाडी चलती है एक सुबह सवेरे 5 बजे चलती है तो दूसरी यह दोपहर को चलती है। अगर आपको भारतीय रेल के किसी भी दो स्टेशन के बीच चलने वाली ट्रेनों का किराया, समय आदि जानना है तो erail.in पर क्लिक कर जान सकते हो। आपको यहाँ पर ट्रेनों में सीटो की स्थिति की जानकारी भी मिल जायेगी। खजुराहो से अगला स्टेशन राजनगर के के नाम से आता है। के का अर्थ कालोनी है या कुछ ओर नहीं मालूम। यहाँ पर दो बन्दों की ट्रेन छूट गयी थी। उनके पास कुछ सामान था जिसके चक्कर में उनकी ट्रेन छूट गयी थी।
इस स्टेशन से चलते ही एक चना बेचने वाली बुजुर्ग डिब्बे में दिखायी दी। आज सुबह तीन-चार लडडू व तीन मटठी खायी थी कुछ नमकीन खाने की इच्छा थी। नीम्बू चना देखकर यह इच्छा और तीव्र हो गयी। दस रुपये का नीम्बू चना ले लिया गया। कुछ देर तक नीम्बू चने का स्वाद लिया गया। रेलवे लाइन किनारे पानी का एक बडा सा तालाब दिखायी दिया। जिसके बारे में पता लगा कि यह पक्षी विहार या किसी अन्य परियोजना का हिस्सा है। जिस पर बाँध का निर्माण कार्य भी चल रहा है। आगे चलकर बांध का कार्य होता हुआ दिखायी भी दे जाता है।
अगला स्टेशन सिंहपुर डुमरा आया था। इसे आगे रगोली व चितहरी जैसे नाम वाले छोटे-छोटे हाल्ट/स्टेशन आते-जाते रहे। लगभग घन्टा भर की यात्रा के बाद महोबा आया तो एक साथ कई रेलवे लाइन दिखायी दी। अब तक सिर्फ़ स्टेशनों पर ही कई लाइन दिखायी देती थी। मेरे हाथ में बडा सा कैमरा देखकर कुछ लोग काफ़ी देर तक घूरते रहते थे। मैं आज नहाया नहीं था इसलिये घूरते थे या बडा कैमरा होने के चलते उनका हाव भाव ऐसा हो गया था।
महोबा स्टेशन पर हमारी ट्रेन में इलाहाबाद की ओर से आने वाली दूसरी सवारी गाडी के डिब्बे जुडेंगे। जब तक दूसरी गाडी नहीं आयेगी। हमारी गाडी के पाँच डिब्बे यही अटके रहेंगे। दूसरी सवारी गाडी जो इलाहाबाद से आ रही थी उसके बारे में उदघोषणा हुई कि उसके आने में एक घन्टा बाकि है। ट्रेन के अन्दर गर्मी लग रही थी। इसलिये प्लेटफ़ार्म पर घूमकर समय काटना शुरु कर दिया। मैं कैमरा लेकर महोबा के बोर्ड का फ़ोटो लेने पहुँच गया। यहाँ रेलवे लाइन पर नजर गयी तो नागिन की बलखाती हुई रेलवे लाइन दिखायी देने लगी। झांसी से आने वाली मुख्य रेलवे लाइन को कुछ मोडकर बना हुआ देखा तो मन में प्रश्न जगा कि ऐसा अटपटा कार्य करने के पीछे क्या कारण हो सकता है?
एक घन्टा की देरी से इलाहाबाद से आने वाली सवारी गाडी आ गयी। हमारी गाडी का इन्जन पहले ही अलग होकर एक तरफ़ खडा किया जा चुका था। जब इलाहाबाद वाली सवारी गाडी दूसरी ओर के प्लेटफ़ार्म पर आकर खडी हुई तो मन उतावला हो गया कि हमारे डिब्बे किस दिशा में लगने वाले है? इलाहाबाद वाली गाडी का इन्जन अलग कर दिया गया। इन्जन अलग होता या जुडता पहले भी कई बार देखा है लेकिन  हर बार ऐसा लगता है कि आज कुछ नया होने वाला है। इन्जन अलग होकर हमारी गाडी के पीछे वाले डिब्बे में आकर लग गया।
अब तक हमारी गाडी का जो डिब्बा सबसे पीछे वाला था महोबा के बाद वह सबसे आगे वाला बनने जा रहा है। इन्जन जुडते समय लोगों का काफ़ी हजुम था जिससे अभी आने किसी यात्री को यह अंदाजा लगाने में गलती हो सकती थी कि स्टेशन पर कोई दुर्घटना तो घटित नहीं हुई है। हमारी ट्रेन को खींचकर इन्जन झांसी की ओर कुछ दूर तक चला। उसके बाद इन्जन हमारे डिब्बों को वापिस धकेलता हुआ इलाहाबाद वाली गाडी के आगे लगा कर माना। थोडी देर में दोनों ट्रेन आपस में जुड चुकी थी। अब हमारी ट्रेन झांसी की ओर बढने लगी।
हरपालपुर नामक स्टेशन पर रेलवे लाइन में काफ़ी तिरछापन है जिससे दूसरी तरफ़ का प्लेटफ़ार्म दिखायी दे जाता है। यहाँ आसपास देखकर लगा कि यह कस्बा काफ़ी बडा होगा। यहाँ प्लेटफ़ार्म किनारे लगे एक बोर्ड से मालूम हुआ कि खजुराहो की दूरी यहाँ से केवल 100 किमी है। खजुराहो जाने के लिये यहाँ से सीधी सडक है जबकि ट्रेन महोबा होकर आती है। यहाँ एक अन्य ट्रेन का क्रास होने के बाद हमारी ट्रेन आगे बढी। यहाँ से हमारे डिब्बे में एक नया युगल सवार हुआ। जिन्हे उनकी माँ, हो सकता है कि लडकी की माँ प्लेटफ़ार्म तक विदा करने आयी थी। उनकी उम्र व हाव-भाव से साफ़ पता लग रहा था कि यह जोडा ज्यादा पुराना नहीं है।
बीच में कई छोटे-छोटे स्टेशन आये और गये। बरुआ सागर नामक स्टेशन आते ही प्लेटफ़ार्म के पीछे वाली दीवार पर सब्जियों की पन्नियाँ भरी लाइन लगी दिखायी दी। पहले तो कुछ समझ नहीं आया कि दीवार पर सब्जियों की पोलीथीन क्यों रखी हुई है? लेकिन ट्रेन रुकते ही उन पोलीथीन को लाने वाले/वालियों ने ट्रेन में बेचना शुरु किया तो सब समझ आ गया कि यह सब्जी बेचने वालो का जुगाड है। टमाटर, बैंगन, भिण्डी, करेले, ककडी आदि कई तरह की सब्जियाँ उन पोलीथीन में पैक थी। अधिकतर की सब्जियाँ बिक गयी।
जिनकी सब्जी बच गयी थी आखिर में उन्होंने औने-पौने दाम पर बेच डाला। सब्जियों की सभी थैली का एक ही दाम था मात्र 10 रुपये। सभी में एक किलो से ऊपर सब्जी थी। इतनी सस्ती सब्जी यहाँ कहाँ से आती होगी? इस बात का जवाब मेरे पास बैठे एक बुजुर्ग से मिला। उन्होंने बताया कि बरुआ सागर में नदी किनारे होने से पानी की समस्या नहीं है जिससे यहाँ काफ़ी सब्जियाँ पैदा होती है। कुछ महिला तो दुबारा जाकर और सब्जियाँ ले आयी थी। मैंने यहाँ ककडी ली थी। दस रुपये की ककडी खाने में पेट फ़ुल हो चुका था।
ओरछा स्टेशन आने से ठीक पहले बेतवा नदी का पुल आता है यह पुल लोहे का बना हुआ है। बेतवा काफ़ी चौडी नदी है। बरसात में इसमें बहुत पानी आ जाता है। लोहे के पुल में चलती ट्रेन से सामने सडक वाला पुल दिखायी दे रहा था। उसका फ़ोटो लेने के लिये कई फ़ोटो लिये तब जाकर नीचे लगाया गया फ़ोटो मिल पाया। नहीं तो बाकि फ़ोटो में लोहे वाले पुल के गार्टर आ गये थे। पुल पार करते ही ओरछा का रेलवे स्टेशन आ गया। ट्रेन से बाहर निकलते ही ओरछा जाने की आवाज लगाता एक शेयरिंग ऑटो दिखायी दिया।
मैं अभी ऑटो वाले से कुछ बात करता, उससे पहले वो खजुराहो वाला अमेरिकन भी वहाँ आ गया। अमेरिकन ने ऑटो वाले से किराया पूछा तो उसने 100 रुपये (हन्डरेड) बता दिया। मुझे लगा कि इस प्रकार के ऑटो (सभी लोगों) वालों के कारण हमारे देश की नकारात्मक छवि बन गयी है। मैंने उस अमेरिकन से कहा, यू नो हिन्दी, उसने कहा कि थोडी-थोडी। चलो अच्छा है मुझे यह पता लग गया कि इसे कुछ हिन्दी आती है अगर मैं इसके सामने हिन्दी में कुछ उल्टा-सीधा बोल बैठता तो क्या सोचता?
खैर, ट्रेन जाने की विपरीत दिशा में प्लेटफ़ार्म समाप्त होते ही फ़ाटक है। यहाँ से ओरछा के शेयरिंग ऑटो मिलते रहते है। एक ऑटो वाला अमेरिकन को देखते ही शिकारी की तरह झपटा तो मैंने कहा यह मेरे साथ है। मेरा जवाब सुनकर ऑटो वाले का जोश ठन्डा पड गया। हम दोनों एक ऑटो में सवार होकर ओरछा के एतिहासिक स्थलों को देखने चल दिये। ओरछा रेलवे स्टेशन से ओरछा नगरी की दूरी मात्र 6 किमी है। सडक पर वाहनों की ज्यादा रेलम पेल नहीं है| सडक की स्थिति बहुत शानदार है जिस पर ऑटो में आगे वाली सीट पर चालक के साथ यात्रा करने में मजा आया। ओरछा नगरी में देखने लायक स्थलों की सूची में राम राजा मन्दिर, चतुर्भुज मन्दिर, जहाँगीर महल, गगन चुम्बी सावन-भादो मीनार, शहीद चन्द्रशेखर आजाद स्थल, बेतवा नदी का कंचना घाट, प्रमुख है इनमें से कुछ स्थल आपको दिखाये जायेंगे जो मैंने अपनी ओरछा यात्रा में देखे है। ओरछा के बाद झांसी का रानी लक्ष्मी बाई का किला भी देखा है। (यात्रा जारी है।)

























गुरुवार, 19 जून 2014

Khajuraho- Vaman & Jwari temple वामन व ज्वारी मन्दिर

KHAJURAHO-ORCHA-JHANSI-05

आज के लेख में दिनांक 27-04-2014 की यात्रा के बारे में बताया जा रहा है। खजुराहो की यात्रा के अन्तिम पडाव में बचे दो मन्दिर देखने जा रहा हूँ। इन्हे देखने के लिये जैन मन्दिर देखकर वापसी में गाँधी चौक पर आना पडता है। यहाँ से वामन व ज्वारी मन्दिर के लिये जाना पडता है। इन दोनों मन्दिरों तक पहुँचने के लिये खजुराहो के एक अति पिछडे आवासीय इलाके के मध्य से होकर जाना पडा। जब आटो वाला इस इलाके से निकल रहा था तो मैंने सोचा था कि हो सकता है ऑटो वाले का घर यहाँ हो, या किसी काम से यहाँ होकर निकल रहा हो लेकिन जब वह उस बस्ती से आगे निकल गया तो माजरा समझ आ गया। बस्ती समाप्त होते ही सीधे हाथ एक तालाब दिखायी देने लगा। मार्ग की हालत एकदम गयी गुजरी थी। पक्की सडक की बात ही तो छोडो उसे तो कच्ची सडक भी कहना सही नहीं होगा।
इस यात्रा के सभी लेख के लिंक यहाँ है।01-दिल्ली से खजुराहो तक की यात्रा का वर्णन
02-खजुराहो के पश्चिमी समूह के विवादास्पद (sexy) मन्दिर समूह के दर्शन
03-खजुराहो के चतुर्भुज व दूल्हा देव मन्दिर की सैर।
04-खजुराहो के जैन समूह मन्दिर परिसर में पार्श्वनाथ, आदिनाथ मन्दिर के दर्शन।
05-खजुराहो के वामन व ज्वारी मन्दिर
06-खजुराहो से ओरछा तक सवारी रेलगाडी की मजेदार यात्रा।
07-ओरछा-किले में लाईट व साऊंड शो के यादगार पल 
08-ओरछा के प्राचीन दरवाजे व बेतवा का कंचना घाट 
09-ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर व राजा राम मन्दिर
10- ओरछा का जहाँगीर महल मुगल व बुन्देल दोस्ती की निशानी
11- ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी किले की ओर प्रस्थान
12- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का झांसी का किला।
13- झांसी से दिल्ली आते समय प्लेटफ़ार्म पर जोरदार विवाद
 


सडक किनारे नीम का एक पेड टूटा हुआ पडा था। यह पेड जरुर आँधी में ही टूटा होगा। पेड काफ़ी बडा था। तना खोखला होने के कारण यह कमजोर हो गया था। पेड की वे टहनियाँ काटी जा चुकी थी जिससे मार्ग अवरुध होने की गुंजाइ थी। ऑटो के सामने कुछ बकरियाँ आ गयी जिससे ऑटो को कुछ देर रुकना पडा। जैसे ही बकरियाँ हटी तो ऑटो आगे बढा। यहाँ सीधे हाथ मैदान के आखिरी छोर पर एक मन्दिर दिखायी दे रहा है। ऑटो वाला उस मन्दिर की ओर ना मुडकर सीधा चला जा रहा था तो मैंने सोचा कि यह कोई आलतू फ़ालतू मन्दिर होगा तभी तो ऑटो वाला मुझे वहाँ लेकर नहीं जा रहा है।
सडक पर थोडा आगे जाते ही उल्टे हाथ तालाब की ओर एक अन्य मन्दिर था जो देखने में ज्यादा पुराना नहीं लग रहा था। यह मन्दिर सफ़ेद रंग का था इसके प्रांगण में हनुमान जी की मूर्ती थी। जिससे देखकर आसानी से अनुमान लगा लिया कि यह हनुमान मन्दिर ही होगा। जब उस मन्दिर के सामने पहुँचे तो अपना अंदाजा सही निकला। इस मन्दिर में लाउडस्पीकर पर पूजा-पाठ/प्रवचन आदि की ध्वनि साफ़ सुनायी दे रही थी। मन्दिर के प्रांगण में कुछ भक्त जन भी विराजमान थे। उनसे अपना कोई लेना देना नहीं था अत: अपुन वहाँ नहीं रुके।
यहाँ से करीब 400 सौ मीटर आगे जाते ही खजुराहो की पहचान बन चुके मन्दिरों जैसा ही एक मन्दिर दिखायी दिया। एक ऑटो हमारे से थोडा सा आगे था जब वह ऑटो उस मन्दिर के सामने जाकर रुक गया तो तय हो गया कि अब अन्तिम बचे दो मन्दिरों में यह भी शामिल है। ऑटो वाले ने एक पेड की छांव में ऑटो खडा कर दिया। मैंने अपाना बैग वही छोड कैमरा सम्भाला और इस मन्दिरों को देखने चल दिया।
सबसे पहला फ़ोटो मन्दिर की चारदीवारी में लगे लोहे के ग्रिल वाले गेट से लिया गया। उसके बाद मन्दिर परिसर में दाखिल हुआ तो सम्पूर्ण मन्दिर देख लिया। इस मन्दिर का मुख्य दवार भी पूर्व की ओर ही बना हुआ है। यहाँ भी एक विशाल चबूतरे पर इस मन्दिर का निर्माण किया गया है। चबूतरे की ऊँचाई लगभग दस फ़ुट ऊँची तो रही होगी। इस मन्दिर का नाम वामन मन्दिर है जो वहाँ लगे एक बोर्ड से पता लगा। मन्दिर देखकर नीचे उतरा तो एक फ़ोटो ग्राफ़र पीछे पड गया कि फ़ोटो खिचवा लो। ना भाई, मुझे अपने फ़ोटो खिचवाने का ज्यादा शौंक नहीं है। उसने कुछ चित्र वाली पुस्तिका भी दिखायी लेकिन उसका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पडा। मेरा कैमरा पीठ पीछे था जब मैंने अपना कैमरा आगे की ओर किया तो वह चुपचाप खडा हो गया।
मन्दिर से बाहर आते ही ऑटो वाले से कहा, अब आखिरी मन्दिर कहाँ है? उसने कहा वो देखो सामने 300-400 मी के फ़ासले पर मैदान के उस किनारे पेडों के बीच जो मन्दिर दिख रहा है बस वही देखना बाकि रह गया है। ठीक है तुम ऑटो को थोडी देर में लेकर आना तब तक मैं पैदल देख आता हूँ। पेडों के बीच से होते हुए आगे बढने लगा तो गर्मी से बचने के लिये पेड की छांव में आराम करता एक खच्चर बैठा दिखायी दिया। मुझे नजदीक आते देख वह उठ खडा हुआ। मेरी इरादा उसे तंग करने का नहीं था। लेकिन जब वो खडा होकर मुझे घूरने लगा तो मैंने उसका फ़ोटो ले लिया। फ़ोटो लेने के बाद भी उसने घूरना नहीं छोडा तो मैं उससे बचता हुआ आगे बढने लगा। आगे निकलकर देखा कि वह गर्दन मोडकर भी घूर रहा है। कैमरे का जूम प्रयोग कर एक फ़ोटो और ले लिया।
आगे चलकर तालाब से निकली पानी की धार को पार करना था लेकिन उसके ठीक पहले आम का एक पेड था जिस पर छोटे-छोटे व कच्चे आम लगे हुए थे। कुछ आम स्वयं टूट कर नीचे गिरे पडे थे। जो सूख कर खराब हो गये थे। अगर आम अच्छी हालत में होते तो खाने पर विचार किया जा सकता था। चलो पानी की धार पार कर आगे चलते है। पानी की धार सम्भल कर पार की उसके बाद ज्वारी मन्दिर ज्यादा दूर नहीं बचा था। मन्दिर परिसर में दाखिल होने के बाद चबूतरे पर चढने का मार्ग तलाशते हुए पूर्वी छोर पर जाना पडा। यह मन्दिर भी पूर्वी दिशा की ओर बना हुआ है। चबूतरे पर चढकर मन्दिर देखा गया। इसका चबूतरा भी काफ़ी ऊँचाई पर जिससे आसपास का इलाका दूर तक दिखायी दे रहा था।
इन दोनों मन्दिरों में मध्य प्रदेश सरकार की ओर से कर्मचारी देखभाल के लिये तैनात मिले। जो इसकी साफ़-सफ़ाई के साथ रखवाली भी करते होंगे। मन्दिरों को देखने का क्रम पूरा हो चुका है। अब खजुराहो छोडने का समय आ गया है। ऑटो वाला अभी वही खडा है उसे मोबाइल पर कॉल कर बुलाया। जब तक ऑटो वाला घूम कर मेरे पास आता तब तक मैं उसकी ओर चल दिया था। ऑटो वाला उसी सफ़ेद मन्दिर के सामने मिला जहाँ लाउड स्पीकर पर प्रवचन चल रहे थे। यहाँ एक कुएँ पर दो महिलाएँ कपडे धोने में व्यस्त थी। आज भी कुएँ के पानी के भरोसे जीवन क्रिया चलते देख आश्चर्य होता है। ऑटो में बैठने से पहले तालाब के फ़ोटो लिये गये। आखिर में कुएँ पर कपडे धोने में लगी महिलाओं के फ़ोटो लेकर बस अडडे की ओर बढ चले।
थोडी देर में बस अडडे पहुँच गये। ऑटो वाले को 300 सौ रुपये देने थे लेकिन मेरे पास खुले नहीं थे। उसके पास 200 सौ खुले नहीं थे। 500 सौ खुले कराने के लिये एक कोल्ड ड्रिंक ली गयी। हम दोनों ने आधी-आधी कोल्ड ड्रिंक पी। खुले रुपये मिलने के बाद उसका हिसाब चुकता कर दिया। बस अडडे पर खजुराहो रेलवे स्टेशन जाने के लिये बस तैयार खडी थी। लेकिन मुझे ऑटो में बैठकर जाना था। इसलिये वहाँ खडे ऑटो वाले से बात की तो उसने कहा कि वह चाय पीने के बाद जायेगा। जब तक उसने चाय पी तब तक उसका ऑटो सवारियों से भर गया।
ऑटो में दो महिलाओं के साथ उनके दो बच्चे भी सवार थे। मेरे गले में कैमरा लटका देख उनका चेहरा कोतुहल से भर गया था। उनमें से एक अपनी माँ को इशारा कर कैमरे के बारे में कुछ कहना चाह रहा था। मैने उस गरीब की भावनाओं का सम्मान करते हुए उसके गले में कैमरा लटका कर कहा। लो फ़ोटो खीच कर देखो। पहले तो वह सकपका गया लेकिन उसके बाद उसने कई फ़ोटो खींचे तो उसका चेहरे की खुशी देखने लायक थी। उस गरीब बच्चे की कमीज में बटन भी नहीं थे। बाद में मैने उस बच्चे का एक फ़ोटो भी लिया। अपना फ़ोटो देखकर वह बहुत खुश हुआ। उस गरीब को इतने में ही बहुत सारी खुशी मिल गयी इसमें मेरा क्या घिस गया?
चाय पीते ही ऑटो वाला हमें लेकर खजुराहो की दिशा में चल दिया। खजुराहो रेलवे स्टेशन की केवल तीन सवारियाँ ही थी। बाकि अन्य सवारियाँ ग्वालियर व भोपाल की दिशा में किसी अन्य स्थल की रही होंगी। जब खजुराहो रेलवे स्टेशन वाला फ़ाटक आया तो खजुराहो की दो सवारियाँ वहीं उतर गयी। उनके साथ मैं भी फ़ाटक पर ही उतर गया। ऑटो वाले को सीधे चले जाना था यानि रेलवे स्टेशन पर जाना नहीं था इसलिये फ़ाटक पर उतरना सही फ़ैसला रहा। मेरे साथ उतरे दो बन्दे फ़ाटक पर बने रेलवे आवास में चले गये। मैंने रेलवे लाइन के साथ-साथ स्टॆशन की ओर बढना आरम्भ किया। (यात्रा जारी है।)





























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