LTC- SOUTH INDIA TOUR 06 SANDEEP PANWAR
त्रिरुपति
मन्दिर की पहाड़ी त्रिरुमला से सुबह 5 निकलने की सोच रहे थे लेकिन जब 5:20 बस अड़ड़े पर ही हो गये तो दिल में
धुकड़-धुकड़ सी होने लगी थी कि अब बीस किमी नीचे जाकर ट्रेन पकड़ना मुमकिन नहीं हो
पायेगा। हमने ट्रेनों का क्रमवार आरक्षण कराया हुआ था यदि गलती से एक भी ट्रेन छूट
जाती है तो अगली ट्रेन तक पहुँचने के लिये हमें पापड़ बेलने की नौबत आ जायेगी।
लेकिन कहते है ना ऊपर वाले के यहाँ देर है लेकिन अंधेर नहीं है। अचानक एक बस नीचे
से आयी और सवारी उतारकर तुरन्त नीचे जाने को तैयार हो गयी। हमने उसके कन्ड़क्टर से
पूछा कि क्या नीचे त्रिरुपति स्टेशन तक बैठा लोगो? उसके
हाँ कहते ही हम उस बस में जा घुसे। अब ट्रेन चलने में 30 मिनट बाकि थे लेकिन हमारी ट्रेन से
दूरी अभी भी लगभग 20 किमी बची हुई थी।
सुबह अंधेरे का समय था जिस कारण सड़क पर शायद
की कोई वाहन/इन्सान दिखायी दिया हो। बस चालक तेजी से बस को नीचे रेलवे स्टेशन तक
ले आया। हमारी ट्रेन जाने में अभी 4 मिनट बचे हुए थे। हम फ़टाफ़ट सामान उठाकर स्टेशन की ओर दौड़
पड़े। प्लेटफ़ार्म पर पहुँचकर ही हमारी जान में जान आयी। लेकिन यह क्या जितनी
दिक्कत उठाकर हम स्टेशन तक पहुँचे थे हमें रेलवे की घोषणा ने चौका दिया कि बंगलौर
जाने वाली रेलगाड़ी आधा घन्टा की देरी से चल रही है। खैर आधा घन्टा बाद ही सही
ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर पहुँच गयी। हमने इस ट्रेन में सिर्फ़ इसलिये आरक्षण कराया था
कि बंगलौर से आगे कोपरगाँव जाने वाली कर्नाटक एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ सके।
त्रिरुपति से बंगलौर पहुँचने में उस ट्रेन ने 6-7 घन्टे का समय लिया होगा। रात को ठीक से सो नहीं पाये थे
आरक्षण कराने का लाभ इस ट्रेन में 3-4 घन्टे सो कर उठाया गया था। हमारी ट्रेन बंगलौर स्टेशन पर
अपने सही समय 1:30 बजे पहुँच गयी थी। इस ट्रेन के पहुँचने के ठीक एक घन्टे बाद
एक ट्रेन मनमाड़ होकर निकलती है। लेकिन हमें ड़र था कि यदि किसी भी कारण से
त्रिरुपति से बंगलौर पहुँचने वाली ट्रेन देरी से पहुँचती है तो हमारी वह ट्रेन
निकल जायेगी। फ़िर बंगलौर से बिना आरक्षण कराये 1000 किमी दूर मनमाड़ पहुँचना टेड़ी खीर साबित हो जायेगा। इस
कारण मैंने शाम को पूरे 5-6 घन्टे के अन्तराल पर जाने वाली दूसरी ट्रेन कर्नाटक
एक्सप्रेस में टिकट बुक कराया था।
शुरु के आधे घन्टे तो हम प्लेटफ़ार्म पर ही
बैठे रहे, उसके बाद ध्यान आया कि चलो
अपनी सीट की स्थिति देख लेते है क्योंकि हमारी सीट कर्नाटक एक्सप्रेस में 73 दिन पहले से ही 3 AC में वेटिंग चल रही थी। AC डिब्बें में यात्रा करने का यह पहला
अनुभव था इस कारण यह पता नहीं था कि AC डिब्बे में सीट कन्फ़र्म होने की उम्मीद नहीं के बराबर ही
होती है। मैं और सुनील स्टेशन के बाहर बने आरक्षण कार्यालय में जा पहुँचे। वहाँ पर
हमें बिना लाइन में लगे सबसे आगे बढ़ता देख कई लोग चिल्लाये कि लाइन में लगो।
मैंने उन्हे अपना टिकट दिखाया व बोला कि हमारा टिकट हो चुका है मुझे केवल यह पता
करना है कि हमारी सीट पक्की हुई है कि नहीं। लेकिन लोग इतने बेसब्र निकले कि हमें
बात तक नहीं करने दी।
हमारी नजर कम्प्यूटर मशीन पर गयी जिसपर PNR नम्बर ड़ाल कर टिकट की स्थित पता लगायी जा सकती थी। हमने
अपना टिकट चैक किया तो पता लगा कि हमारी टिकट की स्थिति उसी हालत में है जिस में 73 दिन पर थी। हमारी आखिरी उम्मीद चार्ट बनने को लेकर टिक गयी।
जिसमें हम आश लगाये बैठे रहे कि काश 5 में से 2 सीट भी पक्की हो जाये, ताकि
हम आराम से बैठकर तो चले जाये। लेकिन ऊपर वाले को लगता था कि कुछ नाराजगी थी जिस
कारण हमारी 5 में से 1 भी सीट पक्की नहीं हुई। अब क्या किया जा सकता था? अपने तय समय पर टेन प्लेटफ़ार्म पर लग गयी। हम बेचारे टिकट
होते हुए भी बिना टिकट जैसे लाचार वहाँ पर कई घन्टे पहले से बैठे होने के बावजूद
भी सीट पर नहीं बैठ सकते थे। जब ट्रेन चलने का समय हो गया तो हम भी AC 3 डिब्बे में जाकर खड़े हो गये।
कुछ देर तक खड़े रहने के बाद हमने रात बिताने
की कोई तरकीब निकालने के लिये खोपड़ी खर्च करनी शुरु कर दी। डिब्बे मे अन्दर टीटी
ने लगभग मना सा ही कर दिया था कि दिन की तो कोई बात नहीं रात में आप लोग सीट पर
लेटने वालों को तंग करोगो। कहते है ना कि यदि एक मार्ग बन्द हो जाता है तो दूसरा
मार्ग बन्द हो जाता है। ट्रेन में AC डिब्बे में स्टाफ़ लोगों के सामान रखने के लिये एक 5 फ़ुट की अलमारी जैसी जगह होती है जिसमें तीन खाने बने हुए
होते है। ऐसे ही एक अलमारी की कुन्ड़ी टूटी हुई थी जिससे उसमें सामान नहीं रखा हुआ
था। मैंने इसमें लेट कर देखा तो पैर पूरे नहीं खुल पा रहे थे। लेकिन पैर इतने भी
नहीं मुड़ रहे थे कि रात को नीन्द नहीं आये। एक खाने में मैं और मेरी पत्नी और
दूसरे खाने में सुनील और उसकी पत्नी व तीसरे खाने में उसकी माताजी आराम से लेट गये।
रात को कोई दस बजे एक रेल कर्मचारी हमें बोला
कि इसमें लेटना मना है इसमें हमें सामान रखना है। मैंने कहा कि ठीक है सामान तो ले
लाओ। लेकिन वह झूठ बोल रहा था वह सामान लेकर नहीं आया। मैंने भी सोच लिया था यदि
वह हमें तंग करने के मकसद से थोड़ा बहुत सामान रखेगा तो उसे सुबह तक उसका सामान
यहाँ नहीं मिलने वाला। अलमारी में कुन्ड़ी नहीं थी बिना कुन्ड़ी के सामान का मालिक
कौन होता? शायद रेलवे किनारे किसी गाँव वाले को सुबह वह
सामान मिलता। लेकिन लगता था कि हमें उसमें लेटता देख वह कर्मचारी किसी सवारी से
पैसे लेकर उसमें लेटाना चाहता हो लेकिन जब उसको सिर्फ़ दिखाने के लिये वहाँ रखने
लायक सामान नहीं मिला तो वह लौट कर नहीं आया।
हमारी आँख सुबह 7 बजे जाकर खुली, जब हम सोकर उठे तो रात भर से
उस अलमारी के बाहर लेटा एक बन्दा बोला सर यदि आप सो लिये हो तो क्या अब मैं अन्दर
लेटकर सो सकता हूँ। मुझे उस बन्दे की मासूमियत/परिस्थिति ने सोच में ड़ाल दिया कि
हम तो बहुत अच्छे रहे जो आराम से सोते हुए आये है। उन 5-6 लोगों की हालत बेहद बुरी थी जो रात भर सही ढंग से बैठ कर भी
नहीं आ पाये थे। उनमें एक औरत लगभग मेरी पत्नी की उम्र की ही थी। रात को वह शर्म
के मारे सुनील की माताजी के साथ नहीं लेटी, अन्यथा
वह भी आराम से सोती हुई जाती। दिन निकलने पर हमारे अलमारी खाली करते ही अलमारी को
उन लोगों ने फ़िर से भर दिया जो रात भर डिब्बे के बाहर गैलरी में बैठ/खड़े होकर
समय बिता रहे थे।
दोपहर को कोई 1:30 मिनट पर हमारी ट्रेन कोपर गाँव स्टेशन पहुँच गयी। यहाँ
ट्रेन मुश्किल से एक मिनट ही रुकती है इतने में ही उतरने-चढ़ने वाली सवारियाँ का
काम हो जाता है। हमने स्टॆशन से बाहर निकलते ही एक शॆयरिंग वाला ऑटो में बैठना ठीक
समझा। जब सभी शिर्ड़ी जाने के लिये तैयार खड़े हो तो अलग से ऑटो करने का क्या लाभ
था? स्टेशन से कोई 17-18 किमी दूर शिर्ड़ी आता है। आधे घन्टे में ही ऑटो ने हमें
शिर्ड़ी साँई की कब्र (समाधी हिन्दू सन्यासियों की कही जाती है जहाँ पर वे जीते जी
समाधी ले लेते थे) पर पहुँचा दिया। साँई समाधी मन्दिर के पास ही हमने एक कमरा ले
लिया। मन्दिर वालों ने भी काफ़ी कमरे बनाये हुए है लेकिन उस समय कमरा खाली नहीं
था। खाली होने को तो एक मिनट में खाली हो जाये ना होने को 6-7 घन्टे में भी खाली ना हो।
कमरे में सामान रख पहले तो सभी ने स्नान किया।
उसके बाद काफ़ी देर आराम किया तब साँई मन्दिर देखने का विचार मन में आया। शाम को
दिन ढलने के समय हम मन्दिर में समाधी देखने गये। इस मन्दिर में लोगों को
नियन्त्रित करने के लिये स्टील के पाइप व स्टील की कुर्सियाँ लगायी गयी है लाइन
टेड़ी-मेड़ी बनायी गयी है ताकि भीड़ को काबू में रखा जा सके। लाइन में लगने से
पहले हमारी तलाशी ली गयी थी। जिस कारण हम अपने मोबाइल आदि कमरे पर ही रख कर आये
थे। अन्दर जाने वाले काफ़ी लोग लाल गुलाब का फ़ूल लेकर जा रहे थे। अन्दर जाकर देखा
कि गुलाब के फ़ूल साँई बाबा की कब्र पर चढ़ाने के लिये थे। मैं कभी किसी मन्दिर
में कुछ नहीं चढ़ाता (अपवाद भोलेनाथ को गंगा जल के अलावा) हूँ। किसी मृत वयक्ति की
कब्र पर भक्ति की नजर से जाने का शौक भी नहीं है। यहाँ भी एक पयर्टक की हैसियत से
ही आया था।
साँई की कब्र/समाधी देखकर बाहर आये, शाम का समय था। जोर की भूख लगी थी। साँई मन्दिर के बाहर से
दूसरे आँगन से साँई भोजनालय ले जाने के लिये मन्दिर प्रशासन की बस चलती है।
जो हर आधे घन्टे बाद ईधर से उधर चलती रहती है वैसे भी भोजनालय मन्दिर से मुश्किल
से 500-600 मीटर दूरी पर ही होगा। उस समय भोजनालय में एक समय का खाने
के बदले मात्र 6 रुपये का शुल्क लिया जाता था। आज शायद यह बढ़कर 10-15 कर दिये गये होंगे। इस भोजनालय की सबसे बड़ी खास बात यह थी
कि सारा भोजन सौर ऊर्जा से तैयार किया जाता है, भोजन
हॉल इतना विशाल है कि एक साथ 2000-2500 हजार
लोग खाना खाने के लिये बैठ सकते है। हमने अगले दिन सुबह के समय भी वहाँ भोजन किया
था।
अगले दिन हमारी ट्रेन अलग-अलग होने वाली थी।
सुनील रावत व उसका परिवार कोपरगाँव से सीधे दिल्ली जाने वाला था। जबकि मैं
नान्देड़ होकर, एक दिन वहां रुकने के बाद उसके अगले दिन दिल्ली
जाने वाला था। सुनील का टिकट कोपरगाँव से दिल्ली का भी वेटिंग ही बता रहा था इसके
लिये अपने कार्यालय में तैनात डायरेक्टर की आशुलिपी कर्मचारी को फ़ोन किया गया
उनके पति रेलवे में कार्य करते है उन्होंने अपने स्तर पर सुनील के परिवार की तीनों
सीट आरक्षित करा दी। हमने कार्यालय पहुँचकर उनका धन्यवाद किया था। अगली सुबह हमारी
ट्रेन सचखन्ड़ एक्सप्रेस थी जो हमें मनमाड़ से सुबह 10:30 बजे नान्देड़ के लिये पकड़नी थी। सुनील रावत की ट्रेन वही
दोपहर 01:30 वाली ही थी जिसकी अलमारी में लेटकर हमने AC टिकट का लाभ लिया था। (क्रमश:)
दिल्ली-त्रिवेन्द्रम-कन्याकुमारी-मदुरै-रामेश्वरम-त्रिरुपति बालाजी-शिर्ड़ी-दिल्ली की पहली LTC यात्रा के क्रमवार लिंक नीचे दिये गये है।
2 टिप्पणियां:
जय साईं राम..
jai sairam
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