बीकानेर लडेरा गाँव व स्टेडियम यात्रा के सभी लिंक नीचे दिये गये है।
BIKANER LADERA CAMEL FESTIVAL-02
बीकानेर से गंगानगर जाने वाले हाईवे पर लगभग 30 किमी जाने पर, सीधे हाथ मुड़ने के बाद
लडेरा गाँव की दूरी 15 किमी बाकि थी। इस मोड से 11 किमी आगे मालासर आता है। मालासर से लडेरा ऊँट उत्सव स्थल मात्र 4 किमी है। जब लडेरा की दूरी 0 किमी सामने आयी तो हम
उलझन में पड़ गये कि ऊँट उत्सव कहाँ गायब हो गया? राकेश के बड़े भाई कार चला रहे थे।
वह पहले भी लडेरा उत्सव देखने आये हुए है इसलिये भटकने की आवश्यकता नहीं थी। कार
एक पेड़ की छाँव में रोक दी। राजस्थान में सर्दी के मौसम में भी दिन गर्म होते है
जबकि राते ठन्ड़ी होती है। मैं अपनी जैकेट अभी तक पहने हुए था, लेकिन बाहर का
गर्मागर्म मौसम देखकर ,मैंने अपनी जैकेट कार में ही छोड़ दी।
आज सुबह राकेश भाई के घर पर बीकानेर के अखबार में लडेरा ऊँट
उत्सव के बारे में जानकारी दी हुई थी। जिसमें लिखा था कि लडेरा ऊँट उत्सव 17 व 18
जनवरी को मनाया जायेगा। जबकि मैंने नेट से काफ़ी सर्च किया था जिसमें मैंने सब जगह 15-16
जनवरी ही देखा था। आखिर माजरा क्या है? यह जानने के लिये हम लडेरा आये थे। राकेश
के भाई ने कहा कि यहाँ पार्किंग थी। मैदान देखकर तो लग रहा था कि यह समतल सा दिखने
वाला स्थल पार्किंग ही होगा। अखबार के अनुसार, यहाँ दो दिन बाद इतना बड़ा मेला लगने
वाला है और हमारे अलावा अन्य वाहन या इन्सान आदि दिखाई ही नहीं दे रहा।
हो सकता है कि समारोह स्थल यहाँ से आगे हो! जब यह बात दिमाग
में आई तो राकेश कार लेकर आगे देखने चला गया, जबकि हम वही खडे हो गये। थोडी देर
बाद राकेश वापिस आया। जब राकेश ने बताया कि रेत के बड़े-बड़े टीले (जिसे राजस्थानी
लोग धोरे कहते है) तो पौना किमी आगे है। हम अभी तक इस जगह को ही लडेरा ऊँट उत्सव
स्थल मान रहे थे। कार में बैठकर आगे चले गये। लगभग आधा किमी जाने के बाद बडे-बडे
धोरे दिखाई देने लगे। इन धोरों को देखकर जैसलमेर के सम वाले धोरे याद आ गये। राजस्थान
के थार मरुस्थल में इस प्रकार के धोरे मिलना आम बात है।
यहाँ तक मार्ग की हालत कुछ कच्ची व कुछ पक्की हालत में थी।
काली सड़क तो बहुत पीछे रह गयी थी। रेत व पत्थरों के मिश्रण से बनी सड़क से होते हुए
हम यहाँ तक पहुँचे थे। कार को इस सड़क से नीचे नहीं उतारा जा सकता था। सड़क से हटते
ही रेत ही रेत थी जिसमॆं कार धंस सकती थी। कार के शीशे अच्छी तरह बन्द कर सामने
वाले धोरे पर चढने लगे। अगर हम अकेले होते तो शायद उस धोरे के ऊपर तक नहीं जाते।
लेकिन उस धोरे की चोटी पर पहले से ही 2-3 लोग दिखाई दे रहे थे। हम इस उम्मीद में
ही वहाँ चले गये कि देखते है कि वहाँ से कैसा नजारा दिखाई देगा? रेत में जूते पहन
कर चलने में उतना मजा नहीं आ रहा था। जितना मजा राकेश अपनी चप्पलों/जूती में ले
रहा था। हम जूतों को रेत से बचा कर चल रहे थे लेकिन फ़िर भी जूतों में रेत घुस गया।
हम अभी आधा धोरा ही चढ पाये थे कि हमें उल्टे हाथ एक गहरा
स्थल दिखाई दिया। धोरे के शीर्ष पर चढना छोड़ दिया। पहले इस गहराई वाले स्थल को
देखते है। हम स्टेडियम नुमा स्थल के करीब पहुँचे तो देखा कि वहाँ रेत के टीलों से
घिरा हुआ गोलाई का मैदान है। इस मैदान के चारों ओर रेत के धोरे है। जिन पर बिना
झाड़ के रेत ही रेत दिखाई दे रही थी।
मैदान में एक बड़ा सा कार्यालय भी बना हुआ था। यह एक मंजिली
भवन लडेरा ऊँट उत्सव में आने वाले कलाकारों व अधिकारियों के रहने-ठहरने के काम आता
होगा। हम तीनों इस स्थल के भवन व इसके सामने बने स्टेज को देखने के लिये रेत में
ही बैठ गये। रेत के मैदान में कई स्टेज बने हुए थे। जिन पर अलग-अलग कार्यक्रम होते
होंगे। हम रेत के धोरे पर बैठे रहे।
रेतीले मैदान में एक बाइक वाला दिखायी दिया। यह बाइक वाला
इस जगह किसी काम से आया होगा? कुछ देर रुकने के बाद बाइक वाला रेत के धोरों पर
बाइक चढाने की कोशिश करने लगा। बाइक वाले ने कई कोशिश की, लेकिन सभी असफ़ल रही।
बाइक वाला लगभग 100-150 मीटर दूर से बाइक भगाकर लाता लेकिन रेत के धोरे की तेज
ढलान पर चढते ही बाइक का मौसम टूट जाता था। आखिरकार 6-7 कोशिश बेकार जाने के बाद
बाइक वाला वापिस लौट गया। हम रेत के धोरे के ऊपर बैठे थे। बाइक वाले ने हमें देख
लिया था। बाइक वाला कुछ देर में हमारे पास आ गया।
जब बाइक वाला हमारे पास आया तो मैंने सोचा कि यह शायद धोरे
के ऊपर से नीचे उतरना चाहता होगा। लेकिन बाइक वाला हमारे पास आकर रुक गया। बाइक
वाले से बातचीत में पता लगा कि वह भी हमारी तरह यहाँ घूमने आया है। बाइक वाला कही
आसपास का रहने वाला था। उसने बताया कि वह यहाँ पहले भी आ चुका है। उसने मुझे रेत
में बाइक चलाने का अनुरोध भी किया था लेकिन मैंने रेत में बाइक चलाने के अनुरोध को
विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। बाइक वाले ने बताया कि सामने वाले धोरे के ठीक पीछे
ऊँट दौड़ वाला मैदान है।
हम ऊँट दौड़ वाले मैदान को देखने चल दिये। रेत में पैदल चलते
समय राकेश को मस्ती सूझ रही थी। इसलिये मैंने राकेश से कहा चलो भाई जरा दौड़ के
दिखाओ। तुम्हारी छलाँग लगाते हुए फ़ोटो लेता हूँ। राकेश के सफ़ेद कुर्ता-पाजामा
जबरदस्त लग रहे थे। राकेश को देखकर लग रहा था कि राकेश आज नेतागिरी करने के इरादे
से आया है। रेत में झूमते हुए धोरे की चोटी पर पहुँच गये।
जो बाइक वाला हमारे साथ आया था उसने कहा, क्या आप रेत में
हाथों के बल चल सकते हो? रेत में हाथों के बल चलना कौन सी बडी बात है? जब बाइक
वाला अपने दोनों पैरों को हवा में उठाकर हाथों के बल चला तो मुझे लगा कि यह काम
मेरे बस का नहीं है। वहाँ रेत ही रेत था एक बार कोशिश की भी जा सकती थी अगर कोशिश
नाकाम होती भी तो रेत में पीठ के बल गिरने से चोट भी नहीं आती। ऐसी शारीरिक
गतिविधियाँ करने के लिये अभ्यास करना आवश्यक होता है। अपुन का अभ्यास तो पैरों से
चलने का है।
ऊँट दौड़ ट्रेक (स्थल) पर कई बाइक सवार पहले से मौजूद थे।
वहाँ तीन-चार बाइक वाले रेत के ऊँचे धोरे पर अपनी बाइक चढाने की कोशिश करने में
लगे थे। दो बाइक वालों के पास 100cc की स्पलेन्ड़र बाइक थी। एक के पास 150cc पल्सर
थी। एक बाइक 125cc की सुपर स्पलेन्ड़र थी। इनके साथ कई अन्य साथी भी आये थे जो
हमारे साथ धोरे के ऊपर खडे होकर इनका जोश देख रहे थे। साईकिल वाले इस जगह
साईकिलिंग की सपने में भी नहीं सोच सकते। हम आधा घन्टा उनका मुकाबला देखते रहे।
आधा घन्टा बीतने के बाद भी कोई बाइक वाला हमारे पास ऊपर तक
नहीं पहुँच पाया। दो तीन बार ऐसा हुआ कि बाइक वाला हमारे करीब तक पहुँचा भी था
लेकिन दौड़ जीतना सम्भव नहीं हो पाया। हमने वहाँ खडे अन्य लोगों से व खुद भी अंदाजा
लगाया था कि जिस धोरे पर यह चढने की कोशिश कर रहे है इसकी ऊँचाई कितनी है? सबकी एक
ही राय थी यह धोरा नीचे समतल मैदान से कम से कम 50 फ़ुट ऊँचा तो जरुर होगा। मैदान व
धोरे के शीर्ष का कोण भी 60 डिग्री से कम नहीं लगा।
इतनी खडी चढायी पर बाइक चढ सकती है लेकिन धोरे की रेत होने
के कारण उनकी बाइक ज्यादातर बीच में ही अटक जाती थी। कई बार तो बाइक वाले अपना
संतुलन बहुत बुरी तरह खो देते थे जिससे बाइक कही पडी होती थी बाइक सवार कही ओर। एक
बार ऐसा भी हुआ था कि एक बाइक सवार के ऊपर ही गिर गयी लेकिन शुक्र रहा कि वहाँ रेत
ही रेत थी जिससे बाइक सवार को बचने में आसानी हुई। वहाँ खडे लोगों ने बताया कि
यहाँ कई लोग अपनी बाइक चढा चुके है इसलिये हम भी अपनी कोशिश करते रहते है।
जब आधा घन्टा बीतने पर भी कोई नहीं चढ पाया तो हम वहाँ से
लौटने लगे। बाइक सवारों के साथी बोले बस दो मिनट और रुक जाओ। राकेश और उनके भाई
लौटने लगे। मैंने दो मिनट और रुकना ठीक समझा क्या पता? बाइक वालों को इन्ही दो
मिनट में ही ऊपर चढना हो। दो मिनट में दोनों बाइक वाले ऊपर आने की कोशिश में असफ़ल
हो गये तो मैं भी कार के पास लौट आया। राकेश व उनका भाई मेरा इन्तजार कर रहे थे।
नीचे आते ही हम कार में सवार होकर बीकानेर के लिये चल दिये।
लडेरा से निकलते ही राजस्थान की शान ऊँट गाड़ी दिखायी दी।
राजस्थान के प्रत्येक गाँव के आसपास काफ़ी हरियाली दिखाई देती थी। मुख्य हाईवे पर
आने से कुछ पहले नहर के पुल को पार किया तो राकेश के भाई ने बताया कि यह इन्दिरा गाँधी
नहर परियोजना का हिस्सा है। इस नहर के पानी से बीकानेर के रेगिस्थान में हरियाली
छा गयी है। इससे पहली यहाँ हरियाली के बारे में सोचना असम्भव लगता था।
बीकानेर गंगानगर/ हनुमानगढ मार्ग पर आते ही कार हवा से बाते
करने लगी। शानदार सड़क पर चलते हुए मिनटों की दर से किमी पीछे छूटते गये। कार की
गति को गोदाम के सामने मिले जाम से रोकना पड़ा। ट्रकों के काफ़िले के कारण वाहनों की
लम्बी लाइन लग चुकी थी। कुछ देर बाद इस जाम से निकल सके। बीकानेर शहर में घुसते ही
भीड़ दिखायी दी। लाल बाग रेलवे स्टेशन वाले फ़ाटक से होकर राकेश भाई के घर जाना था
लेकिन फ़ाटक हमारे आने से एक मिनट पहले ही बन्द हो गया।
फ़ाटक खुलने में 15 मिनट लग गया। रेलवे फ़ाटक से राकेश भाई का
घर लगभग तीन किमी दूर है। फ़ाटक खुलने में देर होते देख, मैं कार से बाहर निकल कर
फ़ाटक पर पहुँच गया। इस फ़ाटक के एक ओर स्टेशन है तो दूसरी ओर रेलवे वर्कशाप है जिस
कारण रेलगाड़ी व इन्जन इधर से उधर आते रहते है। फ़ाटक काफ़ी देर तक बन्द रहता है।
फ़ाटक बन्द रहने के दौरान मैंने बीकानेर में रहने वाले
फ़ेसबुकिया दोस्त राघवेन्द्र को फ़ोन लगाया। राघवेन्द्र भाई बीकानेर में रहते है।
ब्लॉग पर लेख भी पढते रहते है। इन्होंने काफ़ी पहले ब्लॉग के पेज आगामी यात्रा पर
एक कमेन्ट किया था कि मैं भी आपके साथ यात्रा करना चाहूँगा। यात्रा तो जब होगी, आज
इनसे मुलाकात होनी है। रात को बीकानेर के करणी सिंह स्टेडियम में लडेरा से
सम्बंधित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम है। राकेश और मैं, वहाँ जायेंगे तब राघवेन्द्र
भाई से मुलाकात होगी। जिसके बाद बीकानेर की चौपाटी में पाव-भाजी भी खायी जायेगी। (यात्रा
अगले लेख में जारी है)
4 टिप्पणियां:
देख कर लगता नहीं कि इस मरुस्थल के बीच कभी सरस्वती बहती थी।
भाई फोटो व मरू भूमि देखकर मजा आ गया.
रेत का समुंदर ---- पर ऊंट के मेले का क्या हुआ ----?
ye kis ko ulta kar diya... BHAI JI
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