शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

Puri beautiful sea beach पुरी का खूबसूरत समुन्द्र तट

UJJAIN-JABALPUR-AMARKANTAK-PURI-CHILKA-29         SANDEEP PANWAR
जगन्नाथ पुरी के मुख्य मन्दिर से पुरी का समुन्द्र तट जहाँ मैं पहुँचा था वह लगभग 3-4 किमी की दूरी पर है। मैंने एक रिक्शे वाले से बात की उसने 50 रुपये माँग लिये। एक ऑटो वाले को रोका उसने भी 50 रुपये कहे। पचास रुपये फ़्री में तो आते नहीं है मेरे पास समय की कोई कमी थी ही नही, इसलिये मैंने पैदल ही पुरी के समुन्द्र तट की ओर चलना आरम्भ किया। चिल्का से रिक्शा में आते समय जिस चौक पर मैं रिक्शा से उतरा था वह मुझे अच्छी तरह याद था। मैं सीधा उसी तरफ़ चल दिया। रथ यात्रा मार्ग काफ़ी चौड़ा है जिससे भीड़-भाड़ होने की गुंजाइस समाप्त हो जाती है। चौराहे तक आते हुए मैंने यहाँ के बाजार को अच्छी तरह देख ड़ाला था। एक जगह गन्ने का रस बेचा जा रहा था अपुन तो मीठे व आइसक्रीम के दीवाने जन्म से ही है अत: रस के दो गिलास ड़कारने के बाद आगे चलना शुरु किया। चौराहे तक पहुँचने तक सूर्य महाराज सिर पर विराजमान हो चुके थे। अब यहाँ से समुन्द्र तट की ओर जाने वाले कालेज नामक मार्ग पर चलना शुरु कर दिया।



वैसे मैं तो कालेज रोड़ से होता हुआ पुरी के समुन्द्र तट तक पहुँचा था लेकिन यह मुझे घर जाकर नक्शा देखने पर पता लगा कि मैं लम्बे मार्ग से होकर समुन्द्र तक गया था जबकि मन्दिर के आगे से ही सीधा मार्ग समुन्द्र तक चला जाता है जो बेहद ही कम दूरी वाला है। मुझे पैदल चलना वैसे भी बहुत भाता है। जब भी मुझे मौका लगता है कि तो लम्बी पैदल दूरी तय करने में संकोच नहीं करता हूँ। कालेज रोड़ नामक सड़क से होता हुआ समुन्द्र की बढ़ता रहा। यह मार्ग कई जगह आड़ा-तिरछा मुड़ता है लेकिन आखिर में समुन्द्र पर जाकर ही मिलता है। समुन्द्र में मिलने से पहले यही मार्ग मरीन ड्राइव वाले मार्ग में जाकर मिल जाता है। इसी मार्ग पुरी क्लब नामक स्थान भी आया था। यहाँ पहुँचकर मुझे एक बार यह पूछना ही पड़ा कि समुन्द्र किनारा कितनी दूर है? पता लगा कि बस सामने ही है।

पुरी क्लब के पास वाले समुन्द्र तट तक जा पहुँचा। यहाँ पर काफ़ी लोग स्नान करते हुए दिखायी दिये। यहाँ फ़ैली सुबहरी रेत देखकर मुझे गोवा के समुन्द्रतट की याद हो आयी। कुछ देर तक मैं यहाँ के समुन्द्रतट किनारे बैठा रहा। यहाँ पर बाहरी लोगों की काफ़ी भीड़ थी। बाहरी लोग जिसमें अधिकतर उत्तर भारत के हिन्दी भाषी राज्यों के दिखायी दे रहे थे। एक सरदार जी व उनके बच्चे को पानी में मस्ती काटते देखने के चक्कर में कब घन्टा बीत गया पता ही नहीं लगा। यहां ऊँट वाले लोगों को बैठा कर ऊँट की सवारी करने में लगे हुए थे। मुझे यहाँ सोमनाथ बीच की तरह घोड़े दिखायी नहीं दिये। जब काफ़ी देर तक वहाँ पर पर्यटकों की मौज मस्ती देखकर मन भरने लगा तो मैंने फ़िर से अपना बैग कंधे पर लाध दिया।

जिस मार्ग से होकर मैं यहाँ इस समुन्द्री किनारे तक पहुँचा था वहाँ एक दिशा सूचक बोर्ड़ बता रहा था कि रेलवे स्टेशन किधर है? पुरी के बीच पर पैदल ट्रेकिंग करते समय गोवा की यात्रा याद आ गयी। मैंने इस यात्रा में भी वही चप्पल पहनी हुई थी जो गोवा की दो दिवसीय समुन्द्री ट्रेकिंग में पहनी थी। इस यात्रा में किसी पहाड़ पर नहीं चढ़ना था इसलिये मैं घर से ही चप्पल में गया था जूते की आवश्कता तो कठिन पहाड़ी चढ़ाई में ही पड़ती है। मैंने तो महाराष्ट्र के भीमाशंकर की कठिन चढ़ाई सीढी घाट वाले खतरनाक मार्ग से इन्ही चप्पलों से की थी। उस चढ़ाई में मेरे साथ बोम्बे का विशाल था। जो जूते पहनकर भी काफ़ी परेशान हुआ था। जबकि इस यात्रा में मैं मनमौजी अकेला। अकेला होने का फ़ायदा भी है तो नुकसान भी है सिक्के के दोनों पहलू अपनी जगह फ़िट है। चाहे जितनी बात बना लो?

मस्ती करते लोगों को किनारे पर छोड़कर मैंने समुन्द्र किनारे चलना आरम्भ किया। शुरु में मेरा इरादा सिर्फ़ 2-3 किमी तक ही जाने का था। इससे आगे जाने पर रेलवे स्टेशन पीछे छूट जाता। उसके लिये फ़िर वापिस आना पड़ता। जब मुझे समुन्द्र किनारे चलते हुए एक किमी से ज्यादा हो गया तो शहर की दिशा यानि उल्टे हाथ से एक नाला समुन्द्र में मिलता हुआ मेरे सामने आ गया। यदि मैंने जूते पहने होते तो यहाँ जूते अवश्य उतारने पड़ते। पानी में घुसे बिना आगे जाने का कोई मार्ग नहीं था। नाला शहर से आ रहा था शहर भी काफ़ी दूर दिख रहा था जिससे उस पर नजदीक मॆं पुलिया होने की सम्भावना नहीं के बराबर थी। नाले के दोनों तरह काफ़ी दूर तक समुन्द्र का पानी काला रंग धारण किये हुए था जबकि नाले से दूर समुन्द्र का पानी काफ़ी साफ़ था जिसमें नीचे का साफ़ दिखायी देता था।

नाला पार करने के बाद आगे बढ़ता रहा। आगे चलकर समुन्द्र किनारे खड़ी एक नाव दिखायी दी। धूप में चलते हुए काफ़ी देर हो गयी थी सोचा चलो कुछ देर इस नाव की छाँव में विश्राम किया जाये। जैसे ही मैं उस नाव के पीछे छाँव वाली दिशा में गया तो वहाँ का नजारा देख मेरी आँखे खुली रह गयी। उस नाव के पीछे एक प्रेमी जोड़ा आपत्तिजनक हालत में एक दूसरे से चिपका हुआ, अपने खास काम में बिजी था। उनसे अपने को क्या काम? तुरन्त उन्हे उसी हालत में छोड़ वापसी मुड़ना पड़ा। मेरे जाने से उनकी निजता में दखल हुआ था जिससे वे दोनों कुछ देर के लिये अपने उस चूमा-चाटी वाले काम को बीच में छोड़ चुपचाप बैठ गये। मैंने फ़िर से आगे की राह पकड़ी। शायद मेरे आगे निकलते ही वे फ़िर से अपने कार्य को अंजाम देने बैठ गये होंगे। 

आगे जाने पर चक्र तीर्थ नामक स्थान आता है यहाँ मुझे समुन्द्र किनारे से शहर की आबादी में जाने का मार्ग दिखायी दिया। सड़क पर जाने का मार्ग दिखायी देते ही मैंने चक्र तीर्थ से समुन्द्र किनारा छोड़ दिया। समुन्द्र किनारा छोड़ने के बाद कुछ दूर रेत में ही चलना पड़ा। जहाँ रेत समाप्त हुआ, वही किनारे पर एक खीरे वाला बैठा हुआ था। मैंने उससे खीरे के दाम पता किये उसने कहा 5 रुपये का एक खीरा। मैंने दो खीरे पर मसाला लगाने को कहा, एक खीरा तो मैंने वही खा लिया जबकि दूसरे खीरे को लेकर खाता हुआ रेलवे स्टेशन की ओर चल दिया। खीरे वाले से खीरा खाने के दौरान बातचीत में पता लगा कि वह बिहार का रहने वाला है। बिहारी लोग भी पूरे देश में मिल जाते है। लेह से लेकर बोम्बे कलकत्ता आदि में बिहारी लोग आसानी से मिल जाते है। बिहार की एक खासियत है कि यहाँ के लोग या तो मजदूरी करते मिलेंगे या सरकारी बड़े अधिकारी के पद में मिलेंगे।

चक्र तीर्थ वाले किनारे से बाहर सड़क पर खीरा खाता हुआ चला आया। मैं अभी तक दो किमी से ज्यादा चल चुका था। इसलिये यह पक्का था कि मैं रेलवे स्टेशन से आगे निकल चुका था अब सड़क मिलते ही मैंने वापसी चलना शुरु किया लगभग आधा किमी जाने पर एक तिराहे से एक सड़क सीधे हाथ जाती दिखायी दी। शायद इस का नाम रेड़ क्रास रोड़ था उसी से होता हुआ मैं स्टेशन पहुँचा। स्टेशन के आने से कुछ सौ मीटर पहले उल्टे हाथ पर कई भोजनालय दिखायी दे रहे थे। अभी भूख नहीं लग रही थी लेकिन शाम को ट्रेन से में बैठने से पहले भोजन करने के लिये यही आना पड़ा था क्योंकि रेलवे स्टेशन पर भोजन की उचित व्यवस्था नहीं थी। सबसे पहले स्टेशन पहुँचा। स्टॆशन के आसपास का जायला लिया। मेरी दिल्ली वाली ट्रेन जाने में अभी कई घन्टे थे। यह समय मुझे खाली बैठकर ही बिताना था। समय बिताने के लिये सबसे अच्छा ठिकाना रेलवे स्टेशन ही होता है। स्टेशन के बाहर लगे एक बोर्ड़ ने मुझे बताया कि गाँधी के ना जाने के कारण पुरी मन्दिर अपवित्र होने से बच गया। (इस यात्रा का केवल अंतिम लेख बचा है।)

भुवनेश्वर-पुरी-चिल्का झील-कोणार्क की यात्रा के सभी लिंक नीचे दिये गये है।


































22 साल पुराने बैग की अंतिम घुमक्कड़ी भरी यात्रा। सन 1991 में मैंने 10 वी करने के बाद यह बैग मात्र 125 रुपये में लिया था।



यह सबूत काफ़ी है बताने के लिये कि गाँधी ने पुरी मन्दिर को अपवित्र नहीं किया?


8 टिप्‍पणियां:

Prakash ने कहा…

संदीप भाई,
आपको पूरी के समुद्र किनारे स्वर्ग द्वार की ओर जाना था.. वहाँ आपको पूरी जगनाथ धाम और इसके महत्वा की बात देखने मिलती...वैसे भी पूरी का मुख्या समुद्र किनारा सवर्ग ग्वार ही है, गो बहुत ही भीड़ भाड़ वाला इलाका है पर्यटकों की वजह से..
वैसे आपके जिस इलाके की फोटो ली है वह काफी शांत लग रहा है...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सुन्दर तो पुरी का भी तट है, पर यहाँ गहराई अधिक है और सहसा आ जाती है। गोवा का तट अधिक सपाट है, अतः वहाँ नहाने का आनन्द अधिक आता है।

Ajay Kumar ने कहा…

Sandeep bhai Ji,,,, bag ko auction karwana hai ya kisi museum mein rakhan hai??? or premijode ko disturb nahi kiya accha kiya ....

बेनामी ने कहा…

भाई जाट देवता जी आपकी यात्रा बहुत बढ़िया है और सुन्दर भी
पर बैग को समाल कर रखना क्यूकि पुरानी वस्तु कुछ यादे समो के रखते है

मुकेश पाण्डेय चन्दन ने कहा…

लाजवाब !

chandan ने कहा…

कमाल की लेखनी। मैं सोच रहा था कि आपने पूरी जाने का लंबा रास्ता ले लिया है।आपने उसे मान भी लिया तो मन को जैसे संतुष्टि मिली।☺☺☺

chandan ने कहा…

अपनी फेसबुक ID दे

SANDEEP PANWAR ने कहा…

इसी ब्लॉग पर सीधे हाथ फेसबुक लिक दिया हुआ है।

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