UJJAIN-JABALPUR-AMARKANTAK-PURI-CHILKA-25 SANDEEP PANWAR
लिंगराज मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्धार के ठीक सामने वाली सड़क पर सीधा चलता चला गया। यह सड़क हाईवे वाली उस सड़क में मिलती है जो मुझे जगन्नाथपुरी चिल्का या कोणार्क तक लेकर चली जायेगी। 7-8 मिनट की पैदल यात्रा में मैं मुख्य सड़क पर पहुँच गया। मैं सड़क पर पहुँचा ही था लेकिन सड़क पार नहीं कर पाया कि पुरी की दिशा में जाती हुई एक बस आ गयी। जब तक मैं सड़क पार करता वह बस निकल गयी। यहाँ बस रुकने के लिये बस स्टैन्ड़ जैसा कुछ स्थायी ठिकाना तो बनाया हुआ नहीं था इसलिये सड़क किनारे खड़े होकर बस का इन्तजार करने लगा। लगभग 10-12 मिनट बाद दूसरी बस आ गयी। पहले वाली बस बड़ी बस थी जबकि यह वाली बस मिनी बस थी। ठीक वैसी जैसी दिल्ली में RTV बसे होती है जो मैट्रो तक सवारी लाने ले जाने में काम आती है। ऊडिया भाषा में बस के शीशे पर एक छोटा सा बोर्ड़ भी लगा था। लेकिन उसपर लिखा मेरी समझ से बाहर था मैंने तुक्के से से समझ लिया था कि दो अक्षर का नाम है तो पुरी ही होगा। अगर बड़ा नाम होता तो समस्या खड़ी हो जाती। फ़िर भी बस में घुसने से पहले मैंने संवाहक से पूछा था कि पुरी! उसने हाँ की तो मैं अन्दर जा घुसा।
पीछे मुड़कर लिया गया फ़ोटो। |
बस में लगभग सारी सीट भरी हुई थी जब सारी सीट भरी हो तो खड़े होने के लिये सबसे आखिर में जाना अच्छा रहता है क्योंकि आखिर में जाने से उतरने व चढ़ने वाली सवारियाँ से होने वाली परेशानी से बचा जा सकता है। मिनी बस के आखिर में पहुँचा तो देखा कि सबसे आखिरी वाली सीट पर एक सवारी लायक स्थान रिक्त है मैंने मौके का लाभ उठाया। उस सीट पर बैठी सवारियों को इशारा किया ताकि वे ढ़ंग से बैठकर सीट खाली कर दे। लेकिन लगता था कि वे हिन्दी नहीं समझना चाहते थे। जब मैंने थोड़े सख्त उच्चारण में कहा कि एक तरफ़ हो जाओ तब जाकर एक परिवार के तीन लोग सही तरीके से बैठे थे। अन्यथा उन्होंने पूरी सीट पर ही कब्जा किया हुआ था। दरवाजे वाली दिशा में खिड़की पर एक लड़का बैठा हुआ था उसके पास में मैं भी बैठ गया। वह स्कूल जाने वाला लड़का था उससे हिन्दी में बातचीत हुई थी लेकिन उसके चेहरे को देखकर लगता था कि हिन्दी बोलने में उसको परेशानी हो रही है।
7-8 किमी जाने के बाद वह लड़का बस से उतर गया था। बस से बाहर का नजारा देखने के लिये खिड़की से बेहतरीन सीट, भला और भी कोई हो सकती है? अब तक बराबर वाली सीट पर बैठा था जिससे यात्रा का आनन्द नहीं आ रहा था लेकिन खिड़की की सीट मिलने के बाद बाहर के नजारे देखकर तबीयत खुश हो चुकी थी। मार्ग में आने वाले नदी-नाले देखता हुआ सफ़र कब बीतता रहा याद ही नहीं। मोबाइल जेब में ही था इससे जैसे ही कोई अच्छा सा सीन दिखायी देता तो उसका फ़ोटो ले लिया जाता था। आगे पीछे जैसे भी मौका लगता फ़ोटो ले लिया जाता था। यात्रा धीरे-धीरे आगे बढ़ती जा रही थी। जिस सड़क से होकर हमारी बस चल रही थी उस सड़क का निर्माण कार्य अभी पूर्ण नहीं हुआ था जिससे बीच-बीच में कभी बस इस तरफ़ तो कभी उस तरफ़ आ जाती थी।
आगे चलकर सड़क किनारे एक मन्दिर आता है नाम याद नहीं कि कौन सा था लेकिन बस चालक ने वहाँ पर कुछ देर बस रोकी थी शायद दो-चार भक्त मन्दिर के अन्दर गये थे। मन्दिर से आगे बढ़ने के बाद पुरी की दूरी भी ज्यादा नहीं रह जाती है। आगे जाने पर पुरी जाने वाली रेलवे लाईन का फ़ाटक पार कर बस आगे बढ़ती गयी। कुछ किमी आगे जाने पर रेलवे लाइन भी सड़क के साथ ही चलती दिखायी दी, जबकि फ़ाटक पार करते समय लग रहा था कि रेलवे लाईन कही और चली गयी है। यदि साथ में रेलगाड़ी चलती हुई दिखायी ना देती तो शायद पता भी नहीं चलता कि रेलवे लाईन बराबर में आ गयी है। रेलगाड़ी की गति हमारी बस से काफ़ी तेज थी जिससे रेलगाड़ी जल्द ही आगे निकल कर आँखों से ओझल हो गयी। यहाँ सड़क में काफ़ी घुमावदार मोड़ थे जिससे यह पता नहीं लग पा रहा था कि हम किस दिशा में चल रहे है।
आखिरकार पुरी शहर की आबादी शुरु हो गयी थी। बस ने एक बड़े से तालाब के किनारे से होकर उल्टे हाथ मुड़ते हुए कई मोड़ मुड़े उसके बाद सीधे पुरी के बस अड़्ड़ा पहुँच गयी। सभी सवारियों के साथ मैं भी बस से उतर गया। यहाँ पहुँचते सुबह के 10 बजने जा रहे थे इसलिये मैंने सोचा कि पुरी का मन्दिर बाद में देखेंगे पहले चिल्का चला जाये अभी वहाँ आने-जाने का समय भी है। चिल्का जाने वाली बस कहाँ से मिलेगी? पता लगा कि चिल्का वाली बस एक घन्टा बाद जायेगी। एक घन्टा यानि खाने-पीने के लिये काफ़ी समय था बस अड़ड़े से पुरी मन्दिर जाने वाले गेट पर चला तो खाने-पीने के ढ़ेर सारे स्टाल दिखायी दिये। इन्ही एक स्टाल में बड़े दिखायी दिये तो एक प्लेट के लिये बोल दिया।
बड़े के साथ सांभर वाली सब्जी खाने की आदत थी लेकिन यहां बड़े के साथ मटर वाली सब्जी देकर माथे पर बल पड़ना लाजमी बात थी। लेकिन सोचा कि चलो जब स्थानीय लोग मटर के साथ बड़ा खाते है तो मुझे खाने में कौन सा लद्धाख को चीन हड़प जायेगा वो अलग बात है आने वाले कुछ सालों में सारा लद्धाख चीन खा जायेगा। पैंगोंग लेक तो 100 किमी हड़प कर ही चुका है जल्द ही भारत के कब्जे वाली 15-20 किमी झील पर हड़प लेगा। इसलिये सोच रहा हूँ कि अगले साल लेह का दूसरा बाइक ट्रिप बना ही ड़ालू। अरे यार बड़ा व मटर वाली बात चीन तक पहुँच गयी। चीन सोचेगा यह जाट पुरी जाकर चीन की सोचता है केरल जाकर सिक्किम की सोचता है। सोचने में भाड़ा थोड़े ही ना लगता है? मटर बड़ा का मिलन अदभुत लगा। मसाले की मात्रा कम होने के कारण ज्यादा चटपटी तो नहीं थी लेकिन स्वाद ठीक-ठाक था। पेट भी दूसरी प्लेट लेने व उसे खाने के बाद फ़ुल हो गया था अब शाम तक कुछ खाने की आवश्यकता ही नहीं पडेगी।
बड़ा-मटर खान के बाद उसी जगह जा पहुँचा जहाँ से चिल्का वाली बस जाने वाली थी। अभी कुछ सीट ही भरी थी मैंने भी अपनी सीट हथिया ली। अबकी बार सीधे हाथ किनारे खिड़की वाली सीट मिल गयी थी। 11 बजे पुरी से चलने के बाद यह बस चिल्का पहुँचने तक इतना सताती रही कि मन करता था कि इस बस से तो अच्छा रहता कि मैं पैदल चल देता तो शायद इससे पहले पहुँच जाता। बस ने चिल्का पहुँचने में मात्र 3 घन्टे लगा दिये थे। बस एकदम नयी थी लेकिन लोकल बस थी जिस कारण बस एक किमी में कई बार रोकनी पड़ती थी लगता था कि स्थानीय लोग अपने-अपने घर या गली के सामने से ही बैठना व उतरना पसन्द करते थे। एक गाँव में कम से कम 5-6 जगह बस रोकनी पड़ती थी। बस चालक का सब्र भी जवाब दे जाता होगा। खैर किसी तरह रो-पीट कर बस आगे बढ़ती गयी और चिल्का पहुँचा गयी।
चिल्का पहुँचने के बाद बस संवाहक बोला कि चलो चिल्का वाले उतर जाओ। अरे आ गया चिल्का, यकीन नहीं आता था। बस भले ही बैलगाड़ी की चाल से चलती हुई यहाँ तक आयी होइ लेकिन बाहर खिड़की से जो नजारे दिख रहे थे वे लाजवाब थे। उन्हे देखता हुआ समय आसानी से पार हो गया था। बस से उतरने के बाद झील किनारे पहुँचने के लिये 200-300 मीटर पैदल दूरी तय करनी पड़ती है। झील किनारे जाते समय सड़क किनारे बने हुए सरकारी भवन दिखायी दिये। उन्हे देखकर ऐसा लगता था जैसे हम समुन्द्र के जहाज की ओर जा रहे हो और कस्टम वाले हमारी तलाशी लेने के लिये आने वाले हो। झील किनारे ही पर्य़टकों को लुभाने के लिये बोर्ड़ भी दिखायी दिये। यहाँ रहने व घूमने के लिये हर तरह की सुविधा मिल जाती है, मुझे उनसे कोई काम नहीं था, मुझे चिल्का भारत की खारे पाने की सबसे बड़ी झील के एक टापू तक की यात्रा करने की इच्छा थी। जहाँ सड़क समाप्त हुई वहाँ एक बड़ी बोट तैयार खड़ी थी। जैसे ही मैं बोट में चढ़ा तो उसने अपना साइरन बजा दिया। चलिये चिल्का की समुन्द्री सैर करते है। (यात्रा अभी जारी है)
बड़े के साथ सांभर वाली सब्जी खाने की आदत थी लेकिन यहां बड़े के साथ मटर वाली सब्जी देकर माथे पर बल पड़ना लाजमी बात थी। लेकिन सोचा कि चलो जब स्थानीय लोग मटर के साथ बड़ा खाते है तो मुझे खाने में कौन सा लद्धाख को चीन हड़प जायेगा वो अलग बात है आने वाले कुछ सालों में सारा लद्धाख चीन खा जायेगा। पैंगोंग लेक तो 100 किमी हड़प कर ही चुका है जल्द ही भारत के कब्जे वाली 15-20 किमी झील पर हड़प लेगा। इसलिये सोच रहा हूँ कि अगले साल लेह का दूसरा बाइक ट्रिप बना ही ड़ालू। अरे यार बड़ा व मटर वाली बात चीन तक पहुँच गयी। चीन सोचेगा यह जाट पुरी जाकर चीन की सोचता है केरल जाकर सिक्किम की सोचता है। सोचने में भाड़ा थोड़े ही ना लगता है? मटर बड़ा का मिलन अदभुत लगा। मसाले की मात्रा कम होने के कारण ज्यादा चटपटी तो नहीं थी लेकिन स्वाद ठीक-ठाक था। पेट भी दूसरी प्लेट लेने व उसे खाने के बाद फ़ुल हो गया था अब शाम तक कुछ खाने की आवश्यकता ही नहीं पडेगी।
बड़ा-मटर खान के बाद उसी जगह जा पहुँचा जहाँ से चिल्का वाली बस जाने वाली थी। अभी कुछ सीट ही भरी थी मैंने भी अपनी सीट हथिया ली। अबकी बार सीधे हाथ किनारे खिड़की वाली सीट मिल गयी थी। 11 बजे पुरी से चलने के बाद यह बस चिल्का पहुँचने तक इतना सताती रही कि मन करता था कि इस बस से तो अच्छा रहता कि मैं पैदल चल देता तो शायद इससे पहले पहुँच जाता। बस ने चिल्का पहुँचने में मात्र 3 घन्टे लगा दिये थे। बस एकदम नयी थी लेकिन लोकल बस थी जिस कारण बस एक किमी में कई बार रोकनी पड़ती थी लगता था कि स्थानीय लोग अपने-अपने घर या गली के सामने से ही बैठना व उतरना पसन्द करते थे। एक गाँव में कम से कम 5-6 जगह बस रोकनी पड़ती थी। बस चालक का सब्र भी जवाब दे जाता होगा। खैर किसी तरह रो-पीट कर बस आगे बढ़ती गयी और चिल्का पहुँचा गयी।
चिल्का पहुँचने के बाद बस संवाहक बोला कि चलो चिल्का वाले उतर जाओ। अरे आ गया चिल्का, यकीन नहीं आता था। बस भले ही बैलगाड़ी की चाल से चलती हुई यहाँ तक आयी होइ लेकिन बाहर खिड़की से जो नजारे दिख रहे थे वे लाजवाब थे। उन्हे देखता हुआ समय आसानी से पार हो गया था। बस से उतरने के बाद झील किनारे पहुँचने के लिये 200-300 मीटर पैदल दूरी तय करनी पड़ती है। झील किनारे जाते समय सड़क किनारे बने हुए सरकारी भवन दिखायी दिये। उन्हे देखकर ऐसा लगता था जैसे हम समुन्द्र के जहाज की ओर जा रहे हो और कस्टम वाले हमारी तलाशी लेने के लिये आने वाले हो। झील किनारे ही पर्य़टकों को लुभाने के लिये बोर्ड़ भी दिखायी दिये। यहाँ रहने व घूमने के लिये हर तरह की सुविधा मिल जाती है, मुझे उनसे कोई काम नहीं था, मुझे चिल्का भारत की खारे पाने की सबसे बड़ी झील के एक टापू तक की यात्रा करने की इच्छा थी। जहाँ सड़क समाप्त हुई वहाँ एक बड़ी बोट तैयार खड़ी थी। जैसे ही मैं बोट में चढ़ा तो उसने अपना साइरन बजा दिया। चलिये चिल्का की समुन्द्री सैर करते है। (यात्रा अभी जारी है)
भुवनेश्वर-पुरी-चिल्का झील-कोणार्क की यात्रा के सभी लिंक नीचे दिये गये है।
मन्दिर किनारे वाहनों की भीड़ |
मन्दिर के ठीक सामने |
चिल्का पहुँच गये। |
4 टिप्पणियां:
Enjoy with u.
उड़ीसा का परिवेश अधिकतम ग्रामीण और सुन्दर है
hi
Thanking you for sharing a great blog.
These best places in India. A lot of fun and Activity available
Keep Sharing useful blogs.
Jaipur Zoo
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