भारत
में कुल 12 ज्योतिर्लिंग बताये जाते है। आज मैं आपको
उन्हीं में से एक ओम्कारेश्वर मन्दिर के दर्शन कराने जा रहा हूँ। यह यात्रा मैंने सन 2007 के
दिसम्बर माह में की थी। मैं और मेरी श्रीमती यानि कि जाट और जाटनी ने मध्य प्रदेश के इन्दौर शहर में रहने वाले बड़े ताऊजी (ताऊजी का देहांत जून 2012 को हो गया है।) के पास मिलने का कार्यक्रम बनाया हुआ था। हम दोनों
इन्दौर पहुँच गये थे। इन्दौर में एक दो दिन व्यतीत करने के उपरांत हमने वहाँ आसपास देखने लायक स्थान घूमने की योजना बनायी तो ताऊजी ने हमें सलाह दी कि हमें
ओम्कारेश्वर देखकर आना चाहिए। इस ओम्कारेश्वर में ऐसा क्या खास है कि ताऊजी मुझे
वहाँ जाने की सलाह दे रहे थे। इस एक यात्रा में कई चीजे देखने को मिल रही
थी। सबसे पहली चीज थी छोटी मीटर गेज वाली रेल की यात्रा। इन्दौर से ओम्कारेश्वर जाने के लिये
मीटर गेज वाली रेलवे लाईन से जाना सुविधाजनक रहता है। इसके लिये हम लोग बड़वाह
रेलवे स्टेशन का टिकट लेकर इस छोटी रेल में बैठ गये थे। इस छोटी रेल के बारे में
भी एक दो दिन बाद, अलग से एक लेख आने वाला है।
पहले नर्मदा में नाव की सवारी हो जाये। |
जाट के पीछे सफ़ेद रंग का मन्दिर ही ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर है। |
INDORE, MHOW,
PATALPANI, KALAKUND होते हुए हमारी
छॊटी लाईन की ट्रेन ओंकारेश्वर रोड़ नामक स्टेशन के लिये चली थी। समय तो ध्यान
नहीं है कि हम सुबह किस समय इस छोटी रेल में बैठे थे। लेकिन जहाँ तक याद आ रहा है
कि हम लगभग आठ बजे घर से स्टॆशन के लिये चले थे और दोपहर में शायद एक बजे
ओम्कारेश्वर पहुँच भी गये थे। वैसे अन्जान लोग तो ओम्कारेश्वर रोड़ नामक स्टेशन पर
उतर कर ही ओम्कारेश्वर की बस पकड़ते है। लेकिन इन्दौर से आने वाले लोगों के लिये
इससे पहले वाला स्टेशन बड़वाह ज्यादा उचित रहता है एक तो यहाँ से मन्दिर की दूरी
कम होना दूसरा यहाँ से मन्दिर के लिये बहुत सारी बस उपलब्ध रहना है। हम इस रेल
मार्ग पर पहली बार आये थे। लेकिन यहाँ आने से पहले मैंने इस रुट के बारे में काफ़ी
सुना हुआ था कि यह रेल मार्ग पहाड़ों, सुरंगों व खाईयों से होकर
जाता है। इस रेल मार्ग पर ढ़लान इतनी ज्यादा है कि उतराई के समय रेल को रोक-रोक कर
चलाया जाता है। चढ़ाई में दो इन्जन लगाने पड़ते है। इस यात्रा के बाद मैंने कई
यात्रा इस रेल मार्ग पर की है। अगले कुछ दिनों में एक लेख इसी मार्ग पर आने वाला
है।
यहाँ पर श्रीमति जी भी साथ थी। |
यह फ़ोटो इन्दौर में ताऊजी के घर का है। |
रेल से उतरते ही एक बस ओम्कारेश्वर जाने को
तैयार खड़ी हुई थी। हम भी अन्य सवारियों सहित उसमें जाकर बैठ गये। 15-20 मिनट में बस ने हमें ओम्कारेश्वर में उतार दिया था। इसके
बाद हम उल्टे हाथ पर नर्मदा नदी पर बने हुए पुल पर पहुँचे। यहाँ
पुल पर खड़े होकर नीचे देखते हुए रोमांच महसूस हो रहा था। पुल की ऊँचाई भी पानी से
बहुत ऊपर है। सामने ही मन्दिर दिखायी दे रहा था। हम सीधे मन्दिर की बढ चले। मन्दिर
के पास जाकर पता लगा कि आज सोमवार होने के कारण बहुत ज्यादा भीड़ है। लम्बी लाईन
देखकर हमने वही से प्रणाम किया उसके बाद हम नीचे नर्मदा किनारे चले गये और
वहाँ घाट पर पानी किनारे बैठ गये। जब हम नर्मदा किनारे बैठे हुए थे तो एक पुजारी
हमारे पास आया और बोला "क्या आप मन्दिर के दर्शन कर आये"। हमने कहा कि
यहाँ कई घन्टों में नम्बर आयेगा। उतना समय हमारे पास नहीं है। हमें शाम तक गौगाँव
जाना है। पुजारी फ़िर बोला मन्दिर के दर्शन और पूजा मैं आपको बिना लाईन के ही करवा
दूँगा। हम समझ गये कि पुजारी पूजा करने के बदले जो दक्षिणा मिलने वाली है उसकी
उम्मीद में हमारे पीछे लगा है। मैंने कहा ठीक है कराओ दर्शन, लेकिन
पहले अपनी दक्षिणा साफ़-साफ़ बता तो कही बाद में तुम ज्यादा बताओ और मैं जो मेहनताना तुम्हे
दू, तुम्हे कम लगे। पुजारी और भिखारी में एक समानता होती है कि
वह हमेशा कहेंगे कि जो आपकी श्रद्धा हो दे देना। इस पुजारी ने भी अपनी रटी-रटाई बात
दोहराई थी। मैंने कहा कि 51 रुपये दूँगा। तो पुजारी तैयार हो गया और हमें लेकर मन्दिर
के उस दरवाजे की ओर बढ़ चला, जहाँ से आम लोग दर्शन कर बाहर आ रहे थे। निर्गम मार्ग से
आगम करते समय पुजारी साथ होने के कारण किसी ने हमें नहीं रोका था। अकेले जाकर देखो कितने भूखे शेर रास्ता रोकते हुए मिल जायेंगे। हम सीधे मन्दिर
के गर्भ गृह पहुँचे, वहाँ पर हमने मुश्किल से 15-20 सैकिंड़
का समय लगाया, इसके बाद पुजारी शिवलिंग से लायी गयी फ़ूल-पत्ती लेकर बाहर
बरामदे में एक स्थान पर बैठ गया। वहाँ कुछ अन्य पुजारी भी हमारे जैसे पटा कर लाये
गये लोगों को बैठाकर पूजा-पाठ करा रहे थे। पुजारी ने हमें आधे घन्टे तक अपने मन्त्रों के जाल में बाँधे रखा उसके बाद मैंने पहले से तय 51 रुपये का दान पुजारी को दे दिया था। मेरी पत्नी ने भी 50 रुपये पुजारी को अलग से दिये। पहले वाले रुपयों से पुजारी के चेहरे पर चमक नहीं थी लेकिन बाद वाले 50 रुपये मिलने पर पुजारी का चेहरा चहकने लगा था। मुझे खुशी थी कि इस पुजारी ने जो मेहनत की उसका इनाम उसे मिल गया था। अब मन्दिर के बाहर दूसरे पुजारी अरे-अरे भिखारी भी वहाँ खड़े थे। लेकिन भिखारी भी यदि पुजारी की तरह कुछ कर्म करके मुझसे माँगते तो मैं शायद उन्हे कुछ दे देता लेकिन निट्ठलों को मैं कभी कुछ नहीं देता हूँ। हम यहाँ से गौगाँव पहुँच गये। दो दिन वहाँ रुकने के बाद हमारा दिल्ली चलने का टिकट पहले से ही बुक था। अत: हम एक बार फ़िर इन्दौर पहुँचे और वहाँ से ट्रेन पकड़ सीधे दिल्ली पहुँच गये। इस यात्रा के बाद कई बार इन्दौर आना हो चुका है।
अगली यात्रा पोस्ट में आपको पहाड़ पर 15000 फ़ुट की ऊँचाई पर -डिग्री के तापमान में घूमाया जायेगा। आप अंदाजा लगा सकते है तो लगाइये नहीं तो कल सुबह देख लीजिएगा।
11 टिप्पणियां:
पहले तो ओंकारेश्वर नाम है यहाँ का---? ओम्कारेश्वर नहीं (onkareshawar)...यहाँ कभी मैं ट्रेन से नहीं गई .हमेशा कार या बस से ही गई हूँ यहाँ ट्रेन बी जाती है पता नहीं था ...यदि ट्रेन पातालपानी होकर जाती है तो वहां का सफ़र अपने आप में बहुत रोमांचक होगा क्योकि पातालपानी मैं कई बार जा चुकी हूँ ...अगली बार कभी जाना हुआ तो ट्रेन से जरुर जाउंगी ...फोटू में बहुत स्मार्ट और यंग लग रहे हो ...बहूजी को प्यार !
वैसे तुमने ठीक लिखा है स्पेलिंग के अनुसार ओम्कारेश्वर ही होता है पर बोलचाल की भाषा में इसे ओंकारेश्वर ही कहते है
जय भोलेनाथ।
बढ़िया पोस्ट और बढ़िया जगह ....
jai bhole ki... Aapke sath omkareshwar ghum kr accha lga
पांच साल पहले गजब के हैण्डसैम थे भाई .
बढ़िया
जाट भाई। राम्-राम,,, मेरा इस महीने के आखिरी सप्ताह में पहली बार ओंकारेश्वर और उज्जैन जाने का प्रोग्राम है। कोई खास सलाह हो तो बतायें॥ धन्यवाद …नरेश सहगल, अम्बाला
हैंडसम तो अपने जाटदेवता अब भी कम नहीं हैं, सिर्फ देखने वाले की नज़र चाहिये। ऊम्र के साथ-साथ और इतनी तूफानी यात्राएं करते करते चेहरे पर अनुभव की कुछ लकीरें दिखाई देने लगती हैं। मैं अभी फरवरी में इन्दौर गया पर ओंकारेश्वर दर्शन हेतु नहीं जा पाया, अगली बार के लिये प्रस्तावित है। मुझे ऐसी पहाड़ी रेल से यात्रा करना बहुत रुचिकर है पर मैं इस यात्रा के लिये समय नहीं निकाल पाया। हां, मांडू अवश्य हो आया था जिसका विवरण घुमक्कड़ पर दे भी चुका हूं। आपकी इस यात्रा का विवरण बढ़िया रहा। पुजारी को 101 रुपये देना खलने वाली बात नहीं रही होगी।
ओंकारेश्वर ही सही है व्याकरण की दृष्टि से। हिन्दी की वर्णमाला इतनी वैज्ञानिक है कि पुराने जमाने के ऋषि मुनियों की बौद्धिक क्षमता देख कर दंग रह जाता हूं। सारे अक्षर उच्चारण के अनुसार वर्गीकृत किये गये हैं। आप बोल कर महसूस कीजिये - क ख ग घ । इन सब के उच्चारण में मुंह के अंदर दांत, जीभ और तालु का प्रयोग एक समान है। अब च छ ज झ बोल कर देखिये। प फ ब भ म, त थ द ध न और ट ठ ड ढ ण - ये सब अपने अपने ग्रुप में बिल्कुल सही क्रम से लगाये गये हैं।
ओंकारेश्वर में अनुस्वार क से पहले आया है, ऐसे में या तो अनुस्वार की बिन्दी लगाई जाती है या फिर क ख ग घ पंक्ति वाला अंतिम अक्षर (जिसे मैं यहां टाइप नहीं कर पा रहा हूं)। इसी प्रकार, यदि त थ द ध से पहले लगाना हो तो या तो आधा न लगाया जायेगा या फिर अनुस्वार ! जैसे अंतिम और अन्तिम दोनों ही सही हैं। पम्प और पंप दोनों सही हैं, इंटरमीडियेट और इण्टरमीडियेट - दोनों ही सही हैं। या तो उस पंक्ति का पांचवा अक्षर आधा लगाओ या फिर अनुस्वार लगाओ! य र ल व श ष स ह क्ष त्र ज्ञ से पहले कोई अंतिम अक्षर नहीं होता, सिर्फ अनुस्वार ही लग सकता है। मगर अन्याय को अंयाय कभी मत लिखियेगा ।
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