दोस्तों यह तो आपको पता ही है कि मैं दिल्ली के एक कोने में ही रहता हूँ। मेरे ब्लॉग पर आपने अभी तक दिल्ली की एक आध ही पोस्ट देखी है। एक कहावत तो आपने सुनी ही होगी कि घर की मुर्गी दाल बराबर होती है। दिल्ली वालों के यही दिल्ली दाल बराबर होती है। जिन ऐतिहासिक आलीशान ईमारते देखने के लिये लोग पर्यटक घुमक्कड़ हजारों लाखों किमी दूर से दौड़े चले आते है। उन्ही खूबसूरत ईमारतों को देखने के लिये अधिकांश दिल्ली वालों के पास समय ही नहीं है। दोस्तों मुझे आलसी दिल्ली वालों में मत समझ लेना। मैं आपको बताता हूँ कि दिल्ली की कौन सी ईमारत मैंने कितने बार देखी है? सबसे पहले बात करते है पहले फ़ोटो वाली कुतुब मीनार को ले लीजिए। आज तक मैंने कुतुब मीनार को छ या सात बार देखा है।
नीचे वाले फ़ोटो को देखकर आपको अंदाजा लगाना बहुत ही मुश्किल हो रहा होगा कि यह फ़ोटो आखिर दिल्ली में कहाँ का है? चलिये दोस्तों आपको ज्यादा तंग ना करते हुए इस सस्पेंस को यही विराम देता हुआ इस राज को खोल ही देता हूँ कि यह फ़ोटो राजघाट नामक स्थान पर ऊपर घास वाली ढ़लान पर लिया गया है। यहाँ पर पीछे आपको जो पेड़ दिखायी दे रहा है,वह पेड़ गाँधी की समाधी के ठीक सामने खड़ा हुआ है। हम गाँधी की समाधी देखने कई बार जा चुके है। मैं मन से गाँधी की कोई इज्जत नहीं करता हूँ। फ़ोटो से आप मुझे इसका भक्त मत समझ लेना, वो तो मेरे पास यहाँ का पुराना वाले फ़ोटो में से यही बचा हुआ था इसलिये यही लगा दिया है। इसकी एक पोस्ट अलग से एक दिन लगाऊँगा।
दिल्ली में आकर भी जिसने लालकिला नहीं देखा हो उसका दिल्ली देखना बेकार है। यह वही किला है जहाँ इसकी प्राचीर से भारत का प्रधानमन्त्री 15 अगस्त को देश को गुमराह कुछ करने का भाषण देता है। कुछ वर्ष पहले तक लाल किले पर भारतीय सेना का नियन्त्रण हुआ करता था। मेरा सेना से सम्बन्ध रहा ही है। इस कारण लाल किले के अन्दर मेरा सबसे ज्यादा बार जाना हुआ है। जहाँ तक मेरे याद आ रहा है मैंने इस किले को लगभग 50-55 बार से ज्यादा बार अन्दर जाकर देखा हुआ है। इसके अन्दर के बहुत सारे फ़ोटो भी मेरे पास है उसको किसी अन्य दिन एक पोस्ट में दिखाऊँगा। मैंने 12 वी तक की पढ़ाई दरियागंज के DAV स्कूल से ही की थी इस कारण मैं हर सुबह व दोपहर को लाल किले के आगे या पीछे से बस में आया जाया करता था।
आज के अंतिम फ़ोटो को देख कुछ बन्धु तो समझ ही गये होंगे कि यह कौन सी जगह है? और जो इसे देखकर भी समझ नहीं पाये कि यह क्या है तो उनके लिये बता देता हूँ कि यह दिल्ली का लोहे का पुल है जिसे अंग्रेजों ने सन 1867 में बनवाया था। आज भले ही यह पुल 150 साल से ज्यादा का हो चुका हो, लेकिन आज भी यह उतना ही मजबूत है जितना अपने शुरुआती दिनों में हुआ करता होगा। इस पुल पर नीचे से बस जैसी गाड़ियाँ व ऊपर से रेल गाड़ियाँ आज भी गुजरती है। इसके भी बहुत सारे फ़ोटो मेरे पास है इसके बारे में भी कभी अलग से एक पोस्ट लगायी जायेगी।
दोस्तों आज के लेख में बस इतना ही था। अगले कुछ दिनों तक एक/दो ही पोस्ट में समाप्त होने वाले लेख दिखाये जायेंगे। यह वे लेख है जो मैंने रील वाले कैमरे के फ़ोटो स्कैन कर लेख लायक बनाये है। ऐसे कुल आठ-दस लेख ही है। इसके बाद फ़िर से नयी व लम्बी यात्राएँ दिखायी जायेगी, जिनमें 10-12 लेख वाली कई सीरिज अभी लिखनी शेष बची हुई है। यदि मैं एक साल तक भी कही घूमने ना जाऊँ तो भी मेरे पास प्रतिदिन लेख लिखने के लिये ढ़ेर सारी सामग्री बची हुई है।
अगले लेख में आपको 15000 फ़ुट ऊँचे पहाड़ की ट्रेकिंग पर ले जाया जायेगा।
6 टिप्पणियां:
आपका ये सफर यूं ही जारी रहे
बहुत बहुत शुभकामनाएं
bahut badhiya sandeep bhai... Akhir dilli ki yaad Aai hi gyi... Maine lal kila, kutubminar to dekha hain
jat bhai delhiki sair karwane ke liye dhnyawad
यात्रा संस्मरण बहुत अच्छा लगा!
लालकिले के मामले में तो सच में रिकार्ड तोड़ दिया भाई :)
अंदर की तस्वीरों की भी तस्वीर है क्या? एक तस्वीर थी जिसमें बादशाह मजे से बैठे निशाना लगा रहे हैं और बंदूक नौकरों के कंधे पर हैं। बहुत हँसी आती थी वो देखकर।
ऊँचे आकार निर्माण के।
एक टिप्पणी भेजें