देहरादून-मालदेवता यात्रा-03 लेखक -SANDEEP
PANWAR
देहरादून की इस यात्रा में अभी तक गंधक पानी में स्नान सहस्रधारा व टपकेश्वर मंदिर
के दर्शन उपरांत मालदेवता की यात्रा हो चुकी है। मालदेवता से आगे ट्रैकिंग मार्ग
में गंधक पानी के श्रोत में स्नान के बाद कुन्ड गाँव तक की भयंकर चढाई के सुख-दुख, के पलों के
बारे में पढने के इच्छुक है तो इस यात्रा पर साथ बने रहिए।
इस लेख की यात्रा दिनांक 14 & 15-08-2016 को की गयी थी
दोस्तों, पिक अप गाडी से उतरने के बाद सामने
नदी पार एक गाँव सौंदणा दिखाई दे रहा है हमें
उसी में जाना है। सामने वाला गाँव टिहरी गढवाल जिले में आता है जबकि हम अभी तक
देहरादून जिले में ही खडे है। एक जिले से दूसरे जिले की सीमा में प्रवेश करने के
लिये बहुत जत्न करने पडेंगे। सामने वाले गाँव तक पहुँचना बच्चों का खेल नहीं है।
सामने वाले गाँव का नाम सौंदणा है। वह किसी भी तरह के सडक
मार्ग या पुल से नहीं जुडा है और तो छोडो, यहाँ तक पहुँचने के लिये झूला पुल तक
नहीं है। उसके बाद भी गाँव वालों के हौंसले को नमन करता हूँ। गाँव खेती करता है।
गाँव में स्कूल तक नहीं है। बच्चों को कई किमी दूर गवाली-डांडा पढने के लिये जाना
पडता है। यदि सरकार सिर्फ एक पुल ही इस गाँव को जोडने के लिये बनवा दे तो गाँव
वाले उसी के शुक्रगुजार रहेंगे।
कुदरती सुन्दरता के मामले में पूछोगे तो बस इतना ही कहूँगा कि
यदि दिल्ली के नजदीक कही स्वर्ग है तो यही है। आपने पहाडों में बहुत से गाँव देखे
होंगे। यदि सुन्दरता के मामले में उनसे इस गाँव की तुलना की जाये तो सौंदणा कही
आगे है। इसके कारण देखिये। यहाँ गाँव के दोनों ओर दो अलग-अलग नदी है। कुन्ड गाँव
की ओर से आने वाली बडी नदी का नाम सौंग है। गवाली डांडा की ओर से आने वाली नदी का
नाम चिफल्डी है। बरसात के दिनों को छोड दिया जाये तो इन दोनों में शीशे जैसा साफ
पानी चमकता दिखाई देगा।
गाँव से बाहर निकलते ही जंगल भी आरम्भ हो जाता है। जंगल है तो
जाहिर है कि जंगली जानवर भी जरुर मिलेंगे। गाँव में पक्के मकान बने है। सब सुख-सुविधा
लोगों ने अपनी मेहनत से जुटायी हुई है। गाँव के चारों और ऊँचे-ऊँचे पहाड है जिनकी
चोटी तक पहुँचते-पहुँचते नानी याद आने लगेगी।
अंशुल जी ने बताया कि उस पार जाने के लिये गाँव वालों ने अपने
खुद के दम पर एक रस्सी वाला टोकरी पुल बनाया है। इसमें सरकार का कोई योगदान नहीं
है। वैसे एक साल पहले की यात्रा है हो सकता है कि एक साल में सरकार ने कुछ योगदान
कर दिया हो।
नदी के दोनों छोर पर मोटॆ-मोटॆ पेड के तने गाडकर उनके ऊपर एक
लोहे का मोटा तार बाँध दिया गया है। उस तार के ऊपर घिरडी (पहिये) के सहारे एक
टोकरी बाँधी हुई है टोकरी के दोनों ओर नदी की लम्बाई जितनी रस्सी बांधी हुई है।
रस्सी नदी के दोनों किनारों से बंधी हुई है। जिस किनारे पर किसी को आना-जाना होता
है। वह टोकरी में बैठ कर रस्सी को खींचता हुआ आगे बढता जाता है।
आज इस टोकरी में बैठ कर उस पार जाने की हमारी बारी आ गयी है।
शुरु में थोडा जिझक हो रही थी। इसलिये हममें से उस पार जाने को कोई उतावला नहीं हो
रहा था। पहले गाँव वाले गये। गाँव वालों को उस पार व इस पार आते-जाते देखा तो सबकी
हिम्मत बंधी। गाँव वाले तो एक बार में दो-दो टोकरी में लटक रहे थे।
टोकरी नदी के बहाव से काफी ऊँची थी। यदि कोई चक्कर खाकर ऊपर से
नदी में गिरा तो नदी का बहाव, उसे अपने साथ लेकर चला जायेगा। हम नये थे इसलिये
टोकरी में बैठकर सावधानी बरती गयी। शरीर को टोकरी की झंझीर के अंदर रखने के लिये
सभी को समझाया गया। टोकरी के अन्दर शरीर रखने का लाभ यह हुआ कि यदि किसी को ऊँचाई
के कारण या डर के कारण चक्कर भी आया तो झंझीर में अटका तो रह जायेगा।
गुरुदेव अंशुल डोभाल सबको बारी-बारी से रस्सी खींच कर हवाई सैर
कराते हुए दूसरे जिले में पहुँचाते जा रहे थे। हमारी टीम के दो हैवी वैट सदस्य
जांगडा जी व योगेश जी बडी मुश्किल टोकरी में घुस पाये। एक घंटे की मेहनत के बाद
सभी लोग देहरादून से टिहरी गढवाल जिले पहुँच पाये।
हमारे साथ एक डोगी भी था। अनुराग पंत भाई अपनी ससुराल से एक
डागी साथ लेकर आये थे। उस डागी को सौंदणा गाँव छोडना है। डागी को टोकरी में बैठाते
समय चैन से बाँध दिया गया कि कही यह नदी में छलाँग न लगा दे। डागी बहुत समझदार
निकला। उसने एक बार कान तक न फडफडाया। डागी की साथी डागिन अंशुल जी के पडौस के घर
में उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। पहले दिन दोनों में थोडी नौक-झौक हुई। बाद में
दोस्ती हो गयी।
नदी पार करते ही गाँव है। गाँव में घुसते ही पहला घर अंशुल जी
का है। अपनी टीम ने अंशुल भाई के आवास पर कब्जा जमा लिया। घर के सामने धान का खेत
है। अंशुल भाई ने नदी साइड कुछ पौधे लगाये हुए है। जो अभी बहुत छोटे है। उन्हे बडा
होने में कुछ वर्ष लगेंगे। अंशुल भाई अगर अपने घर को दो-तीन मंजिला बना ले, तो
बहुत सारे लोगों के ठहरने का प्रबंध हो जायेगा। अगर गाँव के लोग जागरुक हो तो
पर्यटन की दृष्टि से यह गाँव पिकनिक स्पाट बन सकता है। मालदेवता तक तो लोग पिकनिक
मनाने आते ही है।
सभी अपना सामान रख आराम फरमाने लगे तो सबको बताया कि अपनी-अपनी
बोतले निकाल लो। नदी किनारे चलकर पीने के लिये प्राकृतिक मिनरल वाटर भरकर लायेंगे।
अंशुल जी ने दो बाल्टी ले ली। अन्य सभी अपनी-अपनी बोतले लेकर नदी किनारे चले दिये।
नदी का किनारा मुश्किल से 100 मीटर दूरी पर ही है। नदी का साफ जल
देखकर सबका ईमान बिगड गया। हर कोई फटाफट पानी में घुस जाना चाह रहा था। सभी को
पानी की ओर बढते देख अंशुल जी बोले, “सावधान पानी में पत्थर बहुत फिसलन भरे है।
बहुत सम्भल कर घुसना, नहीं तो चोट लगनी तय है।“ अधिकतर साथी सैंडिल पहनकर आये थे।
फिसलन वाली बात सुनकर सावधानी से नदी में घुसा, तो पता लगा गया कि पत्थर अत्यधिक
चिकनाई वाले है। पत्थरों में काई जैसी चिकनी चीज लगी हुई है।
कुछ देर पानी में बैठे रहे। हाथ मुँह धोये, शाम का समय था।
मौसम खुशनुमा हो गया था। नहाने का मन तो नहीं था। अंशुल जी बोले यदि कोई मछली खाने
का इच्छुक है तो बोलो। ताजी मछली पकडते है। इस नदी में मछली भी है। मछली की बात
सुनकर कई लोगों की आँखों में टार्च जैसी रोशनी व चेहरे पर कातिलाना मुस्कान दिखाई
देने लगी। तीन बन्धु मछली पकडने के लिये नदी किनारे ऊपर की ओर चले गये। मछली वाली
टीम आधा घंटा बाद लौटी तो उनके पास कई मछली थी। अब ये मछलियाँ एक आध घंटे की
मेहमान है। दो-तीन घंटे बाद इनका नामौनिशान भी नहीं बचने वाला।
नदी से पानी व मछली लेकर हमारी टीम वापिस कमरे पर आ गयी। अंशुल
जी ने रहने व खाने का प्रबंध गाँव में नजदीक के घर में किया हुआ था। अभी तो अंधेरा
भी नहीं हुआ है। खाना तो दो घंटे बाद मिलेगा। तब तक खीरे आदि की दावत उडायी गयी।
जिन लोगों ने मछली के लिये मेहनत की थी उन्होंने मछलियों का काम-तमाम कर डाला।
जालिम मछलियों की पकौडी बनाकर खा गये। भगवान यदि कही होगा तो अगले जन्म में इनको
मछली बनायेगा। आज इन्होंने मछली को खाया, अगले जन्म में मछली इनको खायेगी। यदि
भगवान नहीं होगा तो इनका कुछ न बिगडने वाला है।
रात का भोजन करने के बाद सोने के लिये पडौस के घर गये। पहाड के घरों में भोजन बडा स्वादिष्ट मिलता है। मैं अब तक पहाडों के लगभग 100 विभिन्न
स्थानों पर भोजन कर चुका हूँ। स्वाद
हमेशा लाजवाब मिला है। पहाड में एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि बे-स्वाद भोजन करना पडा
हो। रात के भोजन के बाद पडौस के घर में सोने का प्रबध किया गया था। पता लगा कि जिस परिवार के यहाँ सोने आया हूँ वह भी पवाँर सरनेम वाले है। दिन भर की थकी हारी टीम शीघ्र
सो गयी।
सुबह उठने की कोई जल्दी नहीं थी। आज हमें सिर्फ 15
किमी का
ट्रैक करना है। इसलिये सुबह 7
बजे तैयार हो नाश्ता कर, मेजबान परिवार
से विदा लेकर चल दिये। आज हमें अंधेरा होने तक कुन्ड गाँव पहुँचना होगा। कुन्ड
गाँव पहुँचना आसान कार्य नहीं है।
तीन साथी, जिसमें सचिन जांगडा, विकास त्यागी व संजय सिंह ने
समय की कमी के कारण ट्रैकिंग पर जाने से पहले से मना कर दिया था। उनका यह फैसला
हमें शुरु में तो अजीब लगा कि यहाँ तक आये तो दो दिन का ट्रैक तो करना चाहिए था।
लेकिन ट्रैकिंग में हमारे साथ जो कठिनाई आई, उसे देखते हुए उनका लौटना बहुत सही
फैसला रहा। योगेश भाई भारी भरकम होते हुए भी हमारे साथ जा रहे है। ट्रैक की कठिनाई
योगेश भाई से पूछना कि कैसे रही!
नदी पार करने के लिये एक बार उसी टोकरी व रस्सी के सहारे एक
बार भी सडक पर आ गये। इस बार सभी साथियों को इस पार आने में आधे घंटा का समय लग
गया। शुरु के करीब 5 किमी की पैदल यात्रा नदी के साथ-साथ बनी
जीप रोड पर ही चलती रही। नजारों का लुत्फ उठाते हुए आराम से आगे बढते रहे।
चार किमी चलने के बाद एक जगह कई जीप खडी मिली। बरसात के दिनों
में यहाँ तक ही जीप आ पाती है। यदि बरसात नहीं होती तो नदी का पानी कम होता है तब
जीप और तीन किमी आगे तक चली जाती है। अब कुछ दूरी तक जीप वाला मार्ग पानी के अन्दर
गायब हो गया था। जिन भाईयों ने जूते पहने हुये थे, उन्हे जूते निकालकर पानी में
घुसना पडा। हमने सैंडिल पहने थे हम तो पानी में बेखौफ घुस जाते थे।
पानी वाला इलाका पार होते ही जीप वाली सडक नदी के दूसरी पार
दिखाई देने लगी। जबकि हम अभी तक नदी के इस किनारे पर ही थे। नदी में पानी ज्यादा
था तो नदी पार नहीं हो सकती थी। थोडा आगे जाने पर, एक छोटा सा पुल मिला इस पुल से
नदी पार कर कच्ची सडक फिर मिल गयी। यहाँ कुछ पुरानी दुकाने दिखाई देने लगी। ऐसा
लगा जैसे कोई पुराना बाजार हो। अंशुल जी ने बताया कि यहाँ के पहाडों में जिप्सम व
चूना पत्थर की अकूत सम्पदा है। जिनकी सैंकडों ट्रकों से लगातार कई वर्षों तक ढुलाई
होती रही थी। जिसके कारण यहाँ बहुत सालों तक ट्रकों का आना-जाना लगा रहता था। ये
दुकाने उसी समय की है। आज जब ग्राहक नहीं है तो ये बन्द हो गयी है।
यहाँ सौंदणा गाँव के ही एक बन्धु ने हलवाई की दुकान खोली हुई
है। दुकान वाले भाई बल्ली भाई पवाँर है। रात मैं इनके भाई के यहाँ ठहरा था। दुकान पर आसपास के गाँव वाले मिठाई, समौसा आदि यहाँ से ले जाते है। अंशुल
जी ने बताया कि ये दुकानदार उनके बडे भाई है, जिनके यहाँ हम रात को ठहरे थे। दोपहर
के भोजन के लिये पूरी और दाल बनवाई गयी। दाल एक डिब्बे में भरवा ली गयी। दिन भर
पहाड पर चढना ही चढना है तो तय है कि भूख भी जमकर लगने वाली है।
आधा किलो घेवर लेकर वही दुकान पर ही चट कर दिया गया। दोपहर के
भोजन का प्रबंध होते ही आगे बढ चले। अभी तक सारा खर्चा अंशुल जी ही कर रहे है। एक
साथ उनका हिसाब चुकता कर दिया जायेगा। दुकान से आगे बढने के बाद जीप लायक सडक
समाप्त हो गयी। अब हम धान के खेतों के बीच बनी पगडंडी पर चल रहे है। दोनों तरफ
भरपूर हरियाली छायी हुई है। इस गांव का नाम रगड गाँव है। रगड गाँव में बारहवी तक का स्कूल है। रगड गाँव समाप्त होने के बाद कच्ची पगडंडी आ गयी।
नदी से काफी ऊँचाई पर आ गये थे। यहाँ एक जगह नदी किनारे उतरने
का मार्ग देखा गया। बारिश के पानी से बने
एक मार्ग से उतरते हुए नदी किनारे पहुँचे। अब हमें नदी पार करनी थी। उस पार गंधक
कुन्ड में स्नान करना, दोपहर तक का लक्ष्य था। काफी देर तक अनुमान लगाते रहे कि
आखिर भरपूर यौवन में बह रही नदी को कहाँ से पार करना सुरक्षित रहेगा? एक जगह नदी
का बहाव दो हिस्सों में बँटा हुआ था।
सामूहिक फैसला रहा कि जो होगा देखा जायेगा। यही से पार करते
है। सभी लोग अपने कपडे उतार कर निक्कर बनियान में आ गये। अपने कपडे बैग में भर
लिये। नदी पार करने की अगुवाई अंशुल डोभाल जी ने सम्भाली। सैंडिल को दुबारा कसकर
बाँधा गया। नदी में कम से कम तीन-साढे तीन फुट पानी है। पहाडी नदी में दो फुट पानी
आफत बन जाता है, ये तो उससे भी ज्यादा है। सभी पाँचों साथियों ने एक दूसरे के हाथों
में जकडकर चैन बना ली।
धीरे-धीरे नदी के बीच पहुँच गये। हमारे सामने मुश्किल से 6
फुट दूरी पर एक बडा पत्थर है। हमें उसी
तक पहुँचना है। पानी ने पैर उखाडने शुरु कर दिये है। पानी का वेग इतना तीव्र हो
चुका है कि पैर उठाने के बाद दुबारा जमीन पर रखने में बहुत मुश्किल आ रही थी।
डोभाल जी के बराबर में अनुराग जी, फिर योगेश भाई सबसे भारी है जो यहाँ बहुत काम
आये। उनके बराबर में मैं, मेरे साथ सबसे आखिर में सबसे हल्के अजय त्यागी लटके हुए
थे। त्यागी जी है ही इतने हल्के की कही भी अटका दो।
जब आगे बढना मुश्किल हो गया तो पीछे लौटने का विचार आया। अब
फँस चुके है पीछे लौटना ज्यादा खतरनाक है। पीछे लौटने के चक्कर में सभी अलग-अलग हो
सकते थे अलग होते ही पानी के साथ बह जाते। पानी का वेग इतना है कि बीस मीटर में ही
कई बार उल्टा-पुल्टा कर देता। फिर बन्दा किसी लायक नहीं रहेगा। सोचने का समय हमारे
पास नहीं है। डोभाल जी बोले, सभी एक साथ आगे झपट्टा मारो। एक साथ सबका झटका लगते
ही हम बडे पत्थर के सामने पहुँच गये।
पानी की गति के बीच के वो 6 फुट पार करना हमेशा याद रहेगा। बडे
पत्थर के पास आकर सुरक्षित थे। आगे बढे तो अबकी बार नदी की छोटी धार मिली। जिसमें
केवल घुटनों तक ही पानी मिला। इसे बिना किसी सहारे के पार कर गये। नदी पार करके
अपने कपडॆ पहने। लगभग एक किमी चलने के बाद गंधक पानी का कुन्ड मिला। इस कुन्ड के
पास तक पुरानी कच्ची सडक के निशान साफ देखे जा रहे थे।
कुन्ड के पास पहुँचते ही स्नान की तैयारी होने लगी। कुन्ड
ज्यादा गहरा नहीं था। ज्यादा से ज्यादा दो फुट गहरा होगा। कुन्ड में से पानी
लगातार निकल रहा था। दूधिया रंग आसपास फैला हुआ था। हमने उस दूधिया पाउडर को शरीर
पर मलकर स्नान किया। नहा-धोकर आज की भयंकर चढाई की तैयारी करने लगे। एक बार फिर
नदी किनारे पहुँचे।
इस बार पहले वाली गलती नहीं दोहराना चाहते थे। इसलिये एक गाँव
वाले से पूछा कि आप लोग कहाँ से पार करते हो? गाँव वाले ने किनारे पर झंडे लगा
निशान बताया। हम उस निशान पर पहुँच, निक्कर बनियान में आकर नदी में घुस गये। अभी
नदी के आधे में भी नहीं पहुँचे थे कि पानी ने हमारे पैर उखाडने शुरु कर दिये। यहाँ
पानी ज्यादा गहरा था। तेजी तो थी ही।
आखिरकार फैसला हुआ कि नहीं, यहाँ से नदी पार करना जानलेवा हो
सकता है। जहाँ नदी चौडी मिलेगी वहाँ वेग भी कम होगा व पानी की गहराई भी कम होगी। जीवन
बचा रहेगा तो रास्ते बन जायेंगे। यहाँ नहीं तो कुछ किमी आगे सही, तो चलो दोस्तो
पहाडों में आगे बढते है देखते है पता लगा कि तीन-चार किमी बाद एक पहाड पार करके
नदी पार करने लायक जगह मिलेगी।................... (शेष अगले भाग में)
10 टिप्पणियां:
आपको इतना डिटेल में याद कैसे रहता है? बहुत ही रोचक विवरण।
Great place for hiking. I am sure you had a gala time.
शानदार विवरण। लेख पढ़कर इधर जाने का मन करने लगा है। इधर देर लेकिन दुरुस्त आया। अब अब चलता हूँ अगली कड़ी की ओर।
संदीप भाई,
एडिट कीजिये।
रात का भोजन अपने ही आशियाने पर हुआ था। सिर्फ सोने आप दो लोग दूसरे घर में गए थे।
सुबह का नाश्ता उन लोगों ने सबको करवाया, विशेष आग्रह से।
मकानमालिक का नाम श्री कृपाल सिंह पंवार व् उनके 4 बेटे हैं, जिनमे से तीन आपको मिले थे-- बलबीर सिंह पंवार, बचन सिंह पंवार, कपूर सिंह पंवार।
कुण्ड गाँव में आतिथ्य शिक्षक साथी एवं परम मित्र श्री नरेंद्र सिंह चौहान जी की ओर से था।
संदीप भाई,
एडिट कीजिये।
रात का भोजन अपने ही आशियाने पर हुआ था। सिर्फ सोने आप दो लोग दूसरे घर में गए थे।
सुबह का नाश्ता उन लोगों ने सबको करवाया, विशेष आग्रह से।
मकानमालिक का नाम श्री कृपाल सिंह पंवार व् उनके 4 बेटे हैं, जिनमे से तीन आपको मिले थे-- बलबीर सिंह पंवार, बचन सिंह पंवार, कपूर सिंह पंवार।
कुण्ड गाँव में आतिथ्य शिक्षक साथी एवं परम मित्र श्री नरेंद्र सिंह चौहान जी की ओर से था।
वाह...संदीप भाई मजा आ गया। फोटो मे मजेदार कैप्शन लगाते रहा करो।
इतनी छोटी जगह का रोचक विवरण मज़ा आ गया गुरुदेव।
सभी भाई पंगे लेने वाले थे पहाड़ी नदियों का कोई भरोसा नही कब अचानक उफान पर आ जाये यात्रा विवरण बहुत ही रोचक है
पहली बार केदारनाथ-बदरीनाथ की यात्राा और फिर इस बार तुंगनाथ-चंद्रशिला में टोकरी में नदी पार करने वाला जुगाड़ देखा। मेरी भी बहुत हसरत है ऐसे झूले से पार करने की, देखते है। कब पूरा होता है। अच्छा ऐसे पार करते हुए क्या हवाई जहाज जैसा लगता होगा न। चिकने पत्थरों से पर फिसलने का मजा वैसे बहुत ही आनंद दायक होता है पर तब जब पत्थर सपाट और समतल हो। मैं गिरा था रामघाट पर। वाह देवता की जय हो, यात्राा करने गए और बेचारी मछलियों का भी शिकार कर लिए। जालिम मछलियां मत कहो भाई जी बेचारी मछलियां कहो। बहुत अच्छा विवरण मजा आ गया पढ़कर आज एक दिन में ही हमने आपके चारों पोस्ट पढ़ लिए। गलती एक हुई कि पहले चैथा भाग पढ़ा फिर पहला फिर दूसरा फिर तीसरा।
आज की पोस्ट बहुत रोमांचक थी। नदी को पार करना सोचने में सिहरन पैदा कर देता है। फोटो व कैप्शन अच्छे है।
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