बरसूडी गाँव- हनुमान गढी - भैरो गढी यात्रा के सभी
लेख के लिंक यहाँ है। लेखक- SANDEEP
PANWAR
कल चाय पीने वाले शिकारी भी सुबह आँवला जूस पीकर दीवाने हुए जा रहे है। मैंने भी आंवला
जूस के तीन-चार गिलास पीये। एक दो गिलास से मेरा कुछ न होने वाला था। रात को सोचा
था कि आंवले के इस जूस को, पाँच लीटर कैन में पैक करवा साथ लेकर जाऊँगा लेकिन हम
सभी को दिन भर ट्रेकिंग भी करनी थी। आज की ट्रेकिंग के लिये तैयार हो चुके है। इसलिए
बिना जूस लिये आज की यात्रा पर चल दिये। वैसे श्याम भाई का दिया बाबा राम देव
पतंजलि में पैक हुआ एक लीटर जूस अभी भी बचा था जो आज की ट्रेकिंग में बचने वाला
नहीं था। अगर मैंने आंवले वाला जूस ले भी लिया होता तो शत-प्रतिशत सम्भावना यही
बनती कि उसे हम ट्रेकिंग में ही निपटा डालते। हलवाई अपनी दुकान की मिठाई दूसरों के
लिये रखता है। हम ठहरे दूसरे किस्म के जीब, खाने-पीने घूमने वाले। बरसूडी के जंगल
वाले घर की समुंद्र तल से जो ऊँचाई अमित भाई की घडी ने बतायी। वह 1130 मीटर थी। यहाँ से करीब दो किमी पर बरसूडी गाँव आता है जिसकी ऊँचाई 1360 मीटर है। बरसूडी से द्वारीखाल सात किमी दूर है हमें द्वारीखाल से हनुमान गढी
होकर भैरो गढी तक जाना है वहाँ से कीर्तिखाल उतरने के बाद आज की ट्रेकिंग समाप्त
हो जायेगी। कीर्ति खाल से कोटद्वार तक बस में यात्रा जारी रहेगी उसके बाद कोटद्वार
से दिल्ली तक रेल से पहुँचा जायेगा तब यह यात्रा समाप्त हो पायेगी।
शुरु का एक किमी थोडी
हल्की सी चढायी है लेकिन गाँव के ठीक नीचे आने के बाद आधा किमी की अच्छी खासी
चढायी आती है। मौसम काफी अच्छा था जिस कारण गर्मी नहीं लग रही थी। पगडन्डी किनारे
ताजा खून दिखायी दिया। खून के आसपास किसी जानवर के बालों के निशान भी बिखरे हुए
थे। हालत बता रहे थे कि आज सुबह किसी मांसाहारी जानवर ने किसी शाकाहारी जानवर का
काम तमाम कर दिया है। अमित तिवारी मुझसे आगे चल रहा था। मेरे पीछे नटवर, बीनू व
नीरज चले आ रहे थे। यह चढाय़ी थी तो छोटी सी ही, लेकिन यह साँस फ़ूलाने के लिये काफी
है। साँस तो हमारी भी तेज हो चुकी थी इसलिये कुछ पल कुदरती नजारों को देखते हुए
अपने आपको सामान्य स्तर पर ले आये। तब तक पीछे आने वाले साथी भी आ चुके थे। बीनू
ने बताया कि पगडन्डी पर जो ताजा खून है वो किसी हिरण का है और हिरण का शिकार हुए
ज्यादा देर नहीं बीती है। तेंदुए ने हिरण का शिकार कर उसको झाडी में नीचे की ओर
घसीट लिया है।
चढाई समाप्त होते ही,
सामने एक मैदान दिखायी दे रहा था। इस मैदान के किनारे एक पेड था जिसकी शाखाएँ मुझे
बुला रही थी। कुछ ऐसे ही दिखने वाली पेड की जड मुझे अन्डमान निकोबार के समुन्द्र
तट पर भी दिखायी दी थी। जब मैं उस पर चढने से वहाँ नहीं माना था तो यह तो मेरे
प्यारे पहाड का पेड था। इस पर चढकर फ़ोटो सेसन हुआ। तब जाकर आगे चलना तय हुआ। चलते
ही बरसूडी गाँव का क्रिकेट का मैदान आ गया। थोडी देर यहाँ रुके। बीनू ने बताया कि
इस मैदान में एक बार क्रिकेट खेलते समय बर्फ़बारी शुरु हो गयी थी। थोडी देर इस
मैदान में रुके। बैट बल्ला मौजूद नहीं थे। विकेट जरुर गडे हुए थे। नटवर फोटो लेने
में लगा हुआ था। बीनू मेरे साथ बिना बल्ले व गेंद के क्रिकेट खेलने जुट गया। बीनू
ने दो बालकों को बल्ला व बोल लेने भेज दिया। वे बच्चे बल्ला व बोल लेकर आ भी गये
लेकिन तब तक हमारी टीम के दो साथी आगे निकल चुके थे। हम दोनों भी खेल बीच में छोड
आगे चल दिये। एक बार फिर बीनू के गांव वाले घर पर आ गये।
ताईजी ने रोटियाँ
बनाकर तैयार रखी थी लेकिन तय हुआ कि इन रोटियों को साथ लेकर चलते है। इन्हे हनुमान
गढी से भैरो गढी के बीच कही खुली जगह बैठकर खायेंगे। अभी तो सुबह के नौ ही बजे है।
रोटियाँ थेले में रख ली गयी। हमारे साथ एक साथी और
आने वाला था एकलव्य भार्गव, उसने पहाड से एक खुखरी लाने को बोला था। बीनू ने किसी
जानकार से एक खुखरी मँगायी। लेकिन दिल्ली ले जाने की बजाय गाँव में ही छोड दी।
एकलव्य को चाहिए तो गाँव से आकर ले जायेगा। आगे चलने की तैयारी होने लगी। दूर
पहाडों से ढोल की आवाज लगातार आती जा रही थी। अमित व नीरज आगे चल दिये। ताईजी हम
सबके लिये दूध लेकर आ गयी। एक-एक गिलास दूध सबके लिये था। दो साथी तो पहले निकल
लिये। बीनू अपना बैग यही घर में छोड कर गया था उसने बैग पैक करने के चक्कर में दूध
नहीं पीया। अब बचे दो, नटवर लाल और संदीप पवाँर। हम दोनों ने पी लिया। दूध गर्म भी
था इसलिये ज्यादा नहीं पीया गया। एक गिलास दूध बच गया जो ताईजी को वापिस दे दिया
गया। इसके बाद हम भी चल दिये। ढोल की आवाज नजदीक आती जा रही थी। पता लगा कि एक
बारात नीचे किसी गाँव में जा रही है जो बरसूडी के बाहर से होती हुई निकल जायेगी।
यह वही बारात है जिसके पुरोहित चाचा जी भीम दत्त कुकरेती जी है। भीम दत्त कुकरेती
को भूले तो नहीं ना, अरे वही जहाँ रात को रुके थे। आज सुबह वही से जंगल वाले घर से
तो चले थे।
गाँव से बाहर कुछ दूर
तक ही आये थे कि ढोल वाली बारात भी आ गयी। पहाडी गाँव की बारात बाइक चलाते समय तो
बहुत देखी हुई है लेकिन आज पहला मौका था जिसमें ट्रेकिंग करते समय बारात देखने को
मिल गयी। इस बारात में मुश्किल से तीस-चालीस बाराती होंगे। जिनमें से आधी महिलाएँ
थी। मैंने इस बारात की वीडियो बनायी। नटवर ने इस बारात के फोटो लिये। पहाड की बारात में एक बात पता लगी कि इसमें दो
रंग के झन्डे लेकर चलते है। एक झन्डा सफेद रंग का होता है व दूसरा झन्डा लाल रंग
का होता है। जब बारात दुल्हन को लेने के लिये जाती है तो सफेद झन्डा आगे होता है
लेकिन जब बारात दुल्हन को लेकर वापिस आ रही होती है तो लाल झन्डा आगे हो जाता है।
इस बारात में सभी बाराती को देखा। बारातियों में दुल्हा का रंग बहुत काला था। सभी
बारातियों को मैंने वीडियों में कई बार देखा लेकिन उनमें से मुझे एक भी दूल्हे
जितना पक्का रंग वाला नहीं मिला। अब भगवान ही जाने इस माया का राज या दुल्हे का
परिवार।
धीरे-धीरे चढाई चढते
हुए मंजिल द्वारीखाल की ओर चलते जा रहे थे। एक जगह जहाँ यह चढाई समाप्त सी होने
लगती है। दिल्ली से गाँव आता एक परिवार मिला। यह परिवार बीनू के आसपास ही कहीं
रहता है। वे शायद अपने साथ पीने का पानी भी नहीं लाये थे। उनके साथ आयी एक बच्ची
को जोर की प्यास लगी थी। उनसे मिल कर हम आगे बढे तो उस बच्ची ने बीनू को पीने का
पानी देने को कहा। उन्हे पानी पिला कर हम पुन: आगे बढ चले। अब चढाई वाला मार्ग
घन्टे भर नहीं आयेगा इसलिये ठीक-ठाक कदमों से द्वारीखाल की ओर बढते गये। द्वारीखाल
पहुँच कर उसी दुकान पर कुछ देर रुके जहाँ गाँव जाते समय चाय पीकर गये थे। चाय वाली
पार्टी ने चाय का आर्डर पहले ही दे दिया था। कुछ देर में चाय बनकर आ गयी। तब तक
सामने घूमता एक मुर्गा हमारा टाइम पास करता रहा। यह मुर्गा जोर-जोर से बांग दे रहा
था। अमित ने जंगल वाले घर से चलते समय GPS चालू कर दिया था जिससे
मोबाइल में एक नक्सा बनता जा रहा था। जिससे यह पता लग जायेगा कि हम कहाँ-कहाँ से
होते हुए निकल आये है।
चाय पी ली गयी। थोडा
आराम भी हो गया। अब आज की असली चढाई की बारी है अब तक हम लगभग दस किमी की पद
यात्रा कर चुके है। अभी जो यात्रा बाकि है वो दस किमी से थोडी सी कम रह गयी है। द्वारीखाल
पर हमें मुख्य सडक पर नहीं उतरना पडा। ऊपर से ही एक पतला सा मार्ग हनुमान गढी के
लिये चढता है। इस मार्ग पर शुरु के लगभग एक किमी का मार्ग घने जंगलों के बीस से
होकर बना है। जिसमें मार्ग बनाने के लिये पत्थर लगाये हुए है। जब इस पहाड के लगभग
सबसे ऊपर आते है तो पेड कम हो जाते है। हनुमान गढी पहुंचने में हमें एक घन्टा ही
लगा। हनुमान गढी पहुँच कर चारों ओर का नजारा मस्त दिखायी देता है। यहाँ एक कमरे का
छोटा सा मन्दिर बनाया हुआ है। जिसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। हो सकता है कि
मन्दिर वाले बाबा मंगलवार या शनिवार को ही पूरे दिन यहाँ रहते होंगे। या हो सकता
है कि बाबा नीचे किसी काम से गये होंगे। मन्दिर वाले बाबा से हमें काम नहीं था
हमें तो हनुमान जी से मिलना था वे हमें मन्दिर में मिल भी गये। हनुमान गढी के
मन्दिर की ऊँचाई 1800 मीटर निकली। इस मन्दिर में कुछ पेड पौधे लगाने की प्रकिया जारी है। जिसमें से कुछ सही
सलामत स्थिति में आ चुके है। मन्दिर की चारदीवारी पत्थरों से की गयी थी। कैमरे को
आटो मोड पर लगाकर सभी का फोटो लिया गया। इसके बाद इस ऊँचाई से चारो तरफ़ देख रहे थे
कि बरसूडी गाँव दिखायी दिया। यहाँ से बरसूडी गाँव की दूरी करीब 9 किमी है। कैमरे के पूरे जूम का उपयोग ऐसी जगह काम आ ही जाता है। इतनी दूर से
फोटो भले ही साफ़ न आता हो लेकिन समझ सब कुछ आ जाता है। समय देखा दोपहर के ठीक 12:20 मिनट हो गये थे।
हनुमान गढी में कुछ
देर रुके व आसपास के फोटो लेकर, पुन: आगे बढ चले। अब हमें सामने दूर भैरो गढी भी
दिख रही थी। यहाँ से भैरो तक चढाई कम ढलान ज्यादा लग रही है। जो चढाई दिख रही है
वो भी आखिर में भैरव नदी वाली पहाडी पर जाकर ही है बीच में समतल सा ही मार्ग है
जिस पर हम तेजी से चलते चले गये। दोपहर का एक बज चुका था। सबकी राय बनी की यहाँ
ठहरकर भोजन किया जाये। एक जगह पगडन्डी के दोनों ओर खेत थे। यहाँ खेत में कुछ
महिलाएँ बैठी विश्राम कर रही थी। उनसे थोडा पहले हम भी एक खेत में डेरा जमा कर बैठ
गये। यहाँ दोपहर का भोजन किया। श्याम सुन्दर भाई का दिया हुआ अमरुद वाले स्वाद का
रामदेव वाला पतंजलि जूस यहाँ काम में आया। ताईजी ने दाल भर के रोटियाँ बनायी थी।
रोटियों के साथ खाने के लिये देशी घी भी दिया गया था। देशी घी एक शीशी में डाल कर
दिया। मौसम ठन्डा था। हम लगभग दो हजार मीटर से कुछ ही कम थे। इतनी ऊँचाई पर ठन्ड
का अहसास इन्सानों को होने ही लगता है। देशी घी तो इन्सानों से भी ज्यादा
संवेदनशील होता है। अब समस्या यह आ गयी कि शीशी का मुँह जरा सा था इसे बोतल से
बाहर कैसे निकाले। ये तो घी था अगर कोई जिन्न होता तो शीशी को घिसने से ही जिन्न
बाहर निकल आता। इसका समाधान निकाला गया। पेड के टहनी के एक टुकडे को बोतल में
घुसा-घुसा के देशी घी बाहर निकलाने में लगे रहे। देशी घी निकालने में ज्यादा
परेशानी देख कर सभी साथियों ने घी निकालने की परेशानी नहीं उठायी।
भोजन के बाद हम भैरव गढी के लिये चल दिये। हमारे चलते ही सामने वाले खेत में बैठी महिलाएँ
भी अपनी-अपनी गठरी सिर पर लाधकर आगे-आगे हो ली। यहाँ से मार्ग अचानक ढलान में
पेडों के बीच होकर निकलता है। कुछ दूर तक महिलाओं के साथ-साथ चलते रहे। जल्दी ही
महिलाओं का गाँव आ गया। हम गाँव में नहीं गये। गाँव के बाहर से उल्टे हाथ पर कच्ची
पगडन्डी ऊपर जाती दिख रही थी। सामने भैरव गढी भी दिख रहा था इसलिये किसी से मार्ग
पूछने की आवश्यकता नहीं थी। सीधे हाथ जो गाँव आया
था इसके बीच से होकर पक्का मार्ग भी बना है। जबकि हम कच्चे से गये। सौ मीटर जाते
ही गाँव में गया मार्ग पक्की सीमेंटिड मार्ग में बदलकर निकलता है। हम जिस पगडन्डी
से आये थे वह इसी मार्ग पर आकर मिल जाती है। अब दोनों मार्ग मिल गये। यहाँ से थोडा
आगे चलते ही सीधे हाथ ढलान में कीर्तिखाल से आने वाला पैदल मार्ग भी दिखाई दिया।
वापसी में हमें सडक पर इसी ढलान वाले मार्ग से उतर कर जाना है।
यह पगडन्डी एक पहाडी
का चक्कर लगाती हुई खेतों के बीच से होकर ऊपर की ओर चलती रहती है। हमने आखिर तक
इसी सीमेंटिड पगडन्डे पर बने रहना था। पहली पहाडी का चक्कर पूरा होते ही एक मन्दिर
दिखायी दिया। यहाँ 2 दुकाने है। हम पहली
दुकान पर नहीं रुके। दूसरी दुकान पर जाते ही चाय का आदेश दिया गया। समय दोपहर के
दो बज गये थे। जब तक चाय बनी तब तक आसपास टहलते रहे। यहाँ दो मन्दिर बने हुए है।
एक काली माता का व दूसरा हनुमान जी का। चाय बन गयी। थोडी देर में चाय पीने के बाद
भैरव मन्दिर की आखिरी पहाडी की सिर्फ़ 3 सौ मीटर चढाई शेष थी।
अपना सामान यही दुकान पर छोडकर मन्दिर की ओर चल दिये। चढाई कोई ज्यादा नहीं थी
इसलिये 5-6 मिनट में भैरव गढी
मन्दिर पहुँच गये। मन्दिर से ठीक पहले देवदार के पेड काफ़ी संख्या में लगे देखे।
यहाँ भैरो गढी की
ऊँचाई लगभग 1880 मी है। इस ऊँचाई
पर देवदार के पेड होने की सम्भावना हो जाती है इससे ज्यादा नीचे जाने पर देवदार
होना मुश्किल है।
भैरवगढी से हनुमान गढी (1845 मी) दिख रहा है। हनुमान गढी से भैरव गढी तक करीब 3 किमी चलना पडा। यहाँ से सीधा दो किमी के ढलान
में सडक पर कीर्तिखाल 1625 मी उतरना है। कीर्तिखाल से गुमखाल की सडक दूरी
लगभग 6 किमी है। कर्तिखाल से लगभग इतनी दूरी द्वारीखाल की है। मन्दिर
प्रांगण में बैठने का अच्छा प्रबन्ध किया गया है। यहाँ मोरपंखी का एक पेड काफ़ी बडा
है। इतने बडे पेड मैंने सिर्फ़ ताजमहल में ही देखे है। मन्दिर ऊँचाई पर बने होने के
कारण चारों ओर के नजारे बहुत सुन्दर दिखायी देते है। अगर बारिश होने के तुरन्त बाद
यहाँ आया जाये तो हिमालय की कई चोटियाँ यहाँ से दिख जायेगी। अभी मौसम में थोडा
कोहरा सा है जिस कारण ज्यादा दूर तक दिख नहीं रहा है। पहले मन्दिर में भैरव जी के
दर्शन करते है। उसके बाद मौसम को देखते हुए नीचे उतरना है। सभी को मन्दिर में
प्रवेश करते देख पुजारी जी हमारी ओर चले आये। मन्दिर में ज्यादा भीड-भाड नहीं थी।
हमारे अलावा दो तीन कपल ही यहाँ आये हुए थे। पुजारी जी स्वभाव हाव-भाव से ही काफ़ी
सीधे-साधे लग रहे थे। हम सभी ने भैरव गढी के भैरव जी के दर्शन किये। दर्शन कर बाहर
आये। कुछ देर विश्राम किया।
दोपहर लगभग 3:30 पर ऋषिकेश से कोटद्वार
सीधी बस आने का समय बताया गया था। हमारा इरादा है कि बस के समय से पहले नीचे पहुँच
जाये। हम ठीक 02:30 पर भैरव गढ़ी
मन्दिर पहुँच गये थे। अभी समय देखा तो तीन नहीं बजे थे। 3 बजने में 10 मिनट बाकि थे। आसमान में
काले बादल छाने लगे थे। ऊँचे पहाडों की ये खासियत होती है कि इनमें दोपहर बाद
तीन-चार बजे के करीब मौसम खराब हो ही जाता है। बारिश की सम्भावना प्रबल हो जाती
है। इसलिये मैं हमेशा सुबह जल्दी चलने पर जोर देता रहा हूँ। अगर हमें किसी जगह को
देखने के लिये शाम को दो-चार घन्टे फ्री होकर मिल जाये तो उससे बेहतर कुछ नहीं हो
सकता। बारिश के डर से तेजी से नीचे उतरते चले गये। जब कीर्तिखाल पहुँचने में सिर्फ़
2 सौ मीटर बाकि थे। तभी
बारिश भी शुरु हो गयी। बारिश से कैमरों को बचाना जरुरी थी। इसलिये कैमरों को पन्नी
में पैक करना पडा। कैमरे पैक कर ही रहे थे कि द्वारीखाल से एक बस आती दिखायी दी।
बस को देखते ही हमने सडक की ओर दौड लगा दी। दौड लगाने का लाभ यह हुआ कि हम बारिश
में भीगने से बच गये।
सभी कीर्तिखाल सडक पर
पहुँच चुके थे। कुछ देर में बस भी आ गयी। अभी तक नीरज अवस्थी का कुछ पता नहीं था।
नीरज भाई को पहाडों में साँस फ़ूलने की बीमारी थी इसलिये वे रुक-रुक अपना पिक-अप
बनाते थे। बस वाले को कुछ देर रुकने के लिये बोल दिया। जल्द ही नीरज भी अपना पिक-अप
बनाकर बस में आ पहुँच गया। अमित तिवारी ने सुबह से अपने मोबाइल का GPS चालू किया हुआ
था जिससे यह पता लगे कि हम कहाँ-कहाँ से होकर आये है। अमित ने बस में बैठने के बाद
अपना GPS बन्द किया। बारिश में भीगने से हम थोडे से गीले हो गये थे।
जो बस में कुछ देर हवा लगने से सूख गये। इस बस में भी मुझे अपनी पसन्द की आखिर
वाली सीट मिली। गुमखाल आते-आते बारिश भी गायब हो गयी। गुमखाल जाकर खिडकी की तरफ
बैठी दो लडकियाँ भी उतर गयी। इसके बाद खिडकी की हवा का पूरा आनन्द लिया। बस में
पता लगा कि यह वो बस नहीं है जो ऋषिकेश से 03:30 पर आती है। यह
कोई और बस थी। हमने फालतू में दौड लगायी। दौड लगाने का लाभ यह हुआ कि हम साम 5 बजे कोटद्वार पहुँच गये।
हमारी ट्रेन रात दस बजे
की थी। अब ट्रेन आने तक क्या करे? कुछ देर बाजार में घूमते रहे। उसके बाद एक ढाबे
पर भोजन किया। जब कुछ नहीं बचा तो स्टेशन पर आकर डेरा जमा लिया। खाली बैठे थे तो
यात्रा का हिसाब किताब कर वही चुकता कर दिया गया। यात्रा की समाप्ति पर हिसाब
किताब चुकता करना ही समझदारी है। कई बार यात्रा समाप्त होने के बाद महीनों तक
मिलना नहीं हो पाता। जिससे हिसाब अटका रहता है। मेरे हिस्से में कुल एक हजार रुपये
का खर्चा आया। 500 रुपये खाने के व 500 रुपये में ट्रेन व बस का
किराया। इतने सस्ते में दिल्ली से शिमला मसूरी घूम के दिखा दो। रात को 10 बजे ट्रेन आयी। नटवर आज
भी दूसरे डिब्बे में था। रात कब बीती पता ना चला। सुबह आँख खुली तो बाहर देखा। अभी
हम गाजियाबाद भी नहीं आये है। धीरे-धीर दिल्ली भी पहुँच गये। पुरानी दिल्ली स्टेशन
आने से पहले ही आऊटर पर मैं और नटवर उतर गये। जबकि बाकि साथी स्टेशन पर उतर कर
मैट्रो से अपने घर गये। नटवर पूरा दिन मेरे साथ रहा। शाम को नटवर को यमुना किनारे
घूमाने ले गया। हमारी यात्रा भले ही सुबह समाप्त हो गयी थी लेकिन नटवर की यात्रा
कल सुबह समाप्त होगी। नटवर आज रात की ट्रेन से कुचामन सिटी के लिये जायेगा।
सूर्यास्त के बाद नटवर को बस जाने वाली इको वैन में बैठा कर घर वापिस आ गया। (यात्रा
समाप्त)
अब दो यात्रा है एक नन्दा देवी राजजात, जिसमें मदमहेश्वर, अनुसूईया, रुद्रनाथ की ट्रेकिंग शामिल थी तो दूसरी है अण्डमान निकोबार द्वीप की हवाई जहाज व पानी के जहाज की यात्रा। कौन सी पहले पढना व देखना चाहोगे?
14 टिप्पणियां:
बढ़िया, पर इस सम्पूर्ण यात्रा विवरण में आपने रँग बिरंगे उन पक्षियों का कहीं जिक्र नही किया, जो मनु और बीनू को यहाँ की यात्रा में मिले थे। यदि उन पक्षियों के भी चित्र हों तो अवश्य लगाइये, हो सकता है मेरी ही तरह किसी और पाठक की भी उनमे रुचि हो। वैसे, यह पूरी यात्रा सीरीज बढ़िया रही :)
Sandeep ji , as usual bahut sunder likha hai aap ne ......ek chiz kahin kahin pe font bold hai....ya font change hai. Kindly check.
बहुत बहुत धन्यवाद बीनू भाई को
जो उसने आपको लिखने को प्रेरित किया और हमें यह यात्रा पढ़ने मिली । अगली यात्रा नंदादेवी राजजात की पढ़वाईए ।
मजा आ गया ।
बहुत बहुत धन्यवाद बीनू भाई को
जो उसने आपको लिखने को प्रेरित किया और हमें यह यात्रा पढ़ने मिली । अगली यात्रा नंदादेवी राजजात की पढ़वाईए ।
मजा आ गया ।
शानदार यात्रा विवरण
संदीप भाई वाकई बीनू का गांव व आसपास देखने लायक जगह है, साथ में जंगल भी जंगली जानवरों से भरा है, पढ कर व फोटो देखकर मजा आया, आपकी लिखने की शैली बहुत अच्छी लगी।
और आगामी यात्रा अगर लिखे तो नंदा देवी राजजात वाली ही लिखना क्योकी उसकी प्रतिक्षा काफी दिनो से है।
आप लोगों की प्रेरणा से ही मैं भी भैरों गढ़ी तक जा पाया।आपका लेखन तो लाजबाब है ही।सुन्दर विवरण सुन्दर चित्रों के साथ,एक और यात्रा का समापन।संदीप भाई,नंदा देवी राजजात यात्रा का सभी की तरह हमें भी बेसब्री से इंतज़ार है।यदि यही पहले हो जाये तो आपका आभार।
आप लोगों की प्रेरणा से ही मैं भी भैरों गढ़ी तक जा पाया।आपका लेखन तो लाजबाब है ही।सुन्दर विवरण सुन्दर चित्रों के साथ,एक और यात्रा का समापन।संदीप भाई,नंदा देवी राजजात यात्रा का सभी की तरह हमें भी बेसब्री से इंतज़ार है।यदि यही पहले हो जाये तो आपका आभार।
पहले अंडेमान वाली यात्रा का विवरण पोस्ट कीजिये। थोडा पहाड़ो से अलग यात्रा हो जायेगी
शानदार लेख देवता। बाकी कोई सी भी यात्रा लिखो आगे, बस लिखते रहो।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-04-2016) को "जय बोल, कुण्डा खोल" (चर्चा अंक-2303) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
संदीप भाई आप के साथ यात्रा कर के मजा आ गया। भाई अगली यात्रा नंदा देवी राजजात की ही लिखना।
संदीप जी, यात्रा बहुत मस्त थी।
मेरा वोट भी नंदा देवी राजजात वाली यात्रा के साथ ।
सुन्दर विवरण सुन्दर चित्रों के साथ....एक और यात्रा का समापन..संदीप भाई आप के साथ यात्रा कर के मजा आ गया....
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