बरसूडी गाँव- हनुमान गढी-भैरो गढी यात्रा के सभी
लेख के लिंक यहाँ है। लेखक- SANDEEP PANWAR
गाँव में थोडे से
ही प्राणी दिख रहे थे वे। वे हमें चौकन्नी नजरों से देख रहे थे। जैसे कोई विदेशी
परिन्दे आये हो। अमित की वेशभूषा विदेशियों जैसी ही थी। गाँव के सन्नाटे जैसे
वातावरण से स्थिति का वास्तविक अनुमान लग गया। गाँव में ज्यादा आबादी दिखायी नहीं
दी। घर भी बहुत ज्यादा नहीं थे। पहाड के गाँव तो वैसे भी बहुत ज्यादा बढे नहीं
होते है, लेकिन जितने भी घर थे। अधिकतर खाली थे। अब यह तो हो नहीं सकता है कि सभी
एक साथ खेत में काम करने गये हो। सच्चाई यही थी कि सचमुच कुछ घर में कोई रहने वाला
ही नहीं था। पहाड में ऐसी स्थिति लगभग हर उस गाँव की है जहाँ सडक नजदीक नहीं है।
जो गाँव सडक से जुड गये है वहाँ ऐसी वीरानगी कम ही दिखायी देती है। सडक किनारे
रहने वाले ग्रामीण फ़िर भी अपनी आजीविका चलाने के लिये कुछ ना कुछ काम काज कर ही
लेते है। लेकिन दूर-दराज के गाँव सिर्फ़ खेती पर ही निर्भर होकर रह गये है। गाँव
में सामने ही ढलान में, एक महिला प्याज या लहसुन की खेती में लगी हुई थी। बीनू की
ताई के यहाँ कुछ बकरियाँ थी वे एक साथ मुझे व नटवर को देख रही थी। मैंने तुरन्त उन
बकरियों को कैमरे में कैद कर लिया। नटवर ने भी बकरियों का फोटो लिया। नटवर अपने
कैमरे से आँख मारता रह जाता है। बकरियाँ शायद हम दोनों की चाँद को देखकर असमंजस
में थी कि आज तक तो हमने एक ही चाँद के दीदार किये है। ये एक साथ दो चाँद कहाँ से
निकल आये? ताई के यहाँ भौटिया जैसी नस्ल का एक कुत्ता है। पहले तो उसने भी अपना
नमक का कर्ज उतारते हुए हमें डराया, लेकिन ताई जी ने उसकों चुप कराया। तब जाकर हम
घर में घुस पाये।
हमने घर पहुँचकर
कुछ देर आराम किया। उसके बाद दोपहर के भोजन के लिये नमकीन चावल बनाने की तैयारी
शुरु कर दी। पहले आलू छीले गये उसके बाद जाकर चावल बनाने की बारी आयी। इसी बीच ताई
जी के यहाँ से चाय बनकर आ गयी जिसे चाय की लत लगी हो, उसके लिये चाय
दारु से ज्यादा कीमती हो जाती है। पहाड में तो दारु भी चाय की तरह पी जाती है।
लेकिन मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि चाय व दारु का स्वाद
होता कैसा है? व लोग इन्हे पीते ही क्यों है? थोडी देर में चावल बनकर तैयार हो गये
तो जिसको जितनी भूख थी उसने चावल निपटाने में उतना सहयोग अवश्य दिया। आखिर में पता
लगा कि चावल ज्यादा बना दिये गये थे। जो बच गये वो ताई जी को दे दिये गये। खा पीकर
कुछ देर बातचीत में समय बिताया। घन्टा भर बाद याद आया कि श्याम सुन्दर भाई के लाये
गये अनानास व अमरुद वाले पेय के डिब्बे अभी तक ऐसे ही बचे हुए है। पहले अनानास
वाले डिब्बे को निपटा दिया गया। इसी बीच बीनू ने अपने बचपन वाला, अपना कमरा
दिखाया। शाम के करीब तीन बजे
गाँव छोडने की बारी आ गयी। हमारी मंजिल बीनू का गाँव नहीं था। हमें बीनू के गाँव
से करीब दो-तीन किमी दूर स्थित जंगल वाले घर में जाकर रात बितानी थी। इस जंगल वाले
घर के बारे में बडी खतरनाक बाते सुनी थी। रात को खतरनाक जंगली जानवर इस घर के आंगन
में घूमते हुए देखे जाते है। आसमान में दूर द्वारीखाल के ठीक ऊपर वाले पहाड पर
काले बादल दिख रहे थे। इसलिये तय हुआ कि जंगल वाले घर के लिये चलने में देरी नहीं
करनी चाहिए।
गाँव छोडते समय बीनू व मनु की यात्रा के दौरान भूत वाले पेड को देखते हुए जाना
तय हुआ। भूत वाला पेड पहाड की चोटी पर थोडी ऊँचाई पर है इसलिये हमें पहाडी पर चढना
पडा। इस पहाडी के दूसरी ओर निकल जाये तो घनघोर जंगली जानवरों व घने वन में पहुँच
जाते है। यहाँ इस ऊँचाई पर, गाँव के नाग देवता का मन्दिर है। यहाँ से झाडियों से
होकर उतरते हुए आगे बढे। थोडा आगे जाने पर बीनू की ताई जी अपनी बकरियों के साथ
पानी के एक ठिकाने के पास मिल गयी। इस गाँव में पीने के पानी का काफ़ी अभाव है। काफ़ी
दूर से पानी की पाईप लाईन द्वारा पानी यहाँ लाया गया है। जब कभी इस पाईप लाइन में
कुछ खराबी आती है तो गाँव वाली औरतों पर आफत आ जाती है। पानी लेने के लिये एक किमी
से भी ज्यादा ट्रेकिंग करनी पडती है। गाँव के सभी घरों में शहरों की तरह पानी की
पाईप लाइन नहीं है। एक दो जगह पानी की सुविधा दी गयी है।
आसमान में छाये
काले बादल, अब तक हमारे सिर के ठीक ऊपर तक आ चुके थे। बारिश से बचने का जुगाड
सिर्फ़ अमित के पास था। इसलिये तेजी से आगे बढ चले। बीनू कुकरेती गौत्र का है,
कुकरेतियों की कुल देवी का मन्दिर भी इसी मार्ग में है। लेकिन वह मुख्य पगडन्डी से
थोडा सा हटकर है। बारिश से बचने के चक्कर में कुल देवी मन्दिर कल सुबह देखने की
बात उठी। समय देखा अभी चार बजे थे। इसलिये तय हुआ कि नहीं, पहले
देवी के मन्दिर जायेंगे। वहाँ बारिश से बचने के लिये छज्जे बने हुए है। अगर बारिश
एक घन्टा भी होती रही तब भी चिंता की बात नहीं है क्योंकि जंगल वाला घर मन्दिर से
सिर्फ़ आधे घन्टे की दूरी पर ही है। अगर अंधेरा हो भी गया तो उसकी भी चिंता नहीं है।
टार्च भी हमारे पास है। अंधेरे में जंगली जानवर देखने का मौका भी लग जायेगा। मन्दिर
अभी दौ सौ मीटर दूर था कि बूंदा-बांदी आरम्भ हो गयी। भागकर कुल देवी मन्दिर में
शरण ली। नीरज व बीनू सबसे पीछे रह गये थे इसलिये उन पर कुछ ज्यादा बून्दे गिरी
होंगी। थोडी देर में ही जोरदार हवा चलने लग गयी। तेज हवा के साथ ओले भी गिरने लगे।
कुछ देर तक झमाझम ओले गिरते रहे। उसके बाद केवल बारिश होती रही। लगभग, घन्टा भर
बाद जाकर मौसम साफ़ हुआ। अचानक बदले मौसम ने ठन्ड बढा दी। पहाडों के मौसम का कोई
भरोसा नहीं होता है।
मन्दिर से कुछ दूरी तक, इसी मार्ग पर वापिस आने के बाद, वह पगडन्डी मिलती है
जो जंगल वाले घर की ओर जाती है। इस पर सीधा चलना होता है। इसी पगडन्डी पर आगे बढते
जा रहे थे। काफ़ी देर चलने के बाद बीनू बोला, “लगता है हम गलत रास्ते पर चल रहे
है”। अबे तेरी तो। पहले क्यों नहीं बताया। वैसे चिंता की बात नहीं, अभी ज्यादा दूर
तक नहीं आये है। हमारी मंजिल नीचे उतराई पर मिलेगी। हमें नीचे उतरना होगा। इसलिये
पहाड पर जंगल में धार के साथ नीचे उतरने लगे। धार पर कोई पगडन्डी भी नहीं थी आधा
घन्टे पहले बारिश होकर रुकी है जिस कारण फ़िसलन भी हो रही थी इसलिये धार पर सावधानी
से उतरते रहे। बरसात के पानी को रोकने वाले एक गडडे को देखते ही बीनू बोला हम ठीक
उतर रहे है। अब घर ज्यादा दूर नहीं है। धार पर कुछ जगह इतनी तीखी ढलान थी कि यदि
किसी से जरा सी चूक हो जाती तो उसका क्या होता? कोई नहीं जानता। कहते है ना, अन्त
भला तो सब भला। हम सब सुरक्षित पगडन्डी तक पहुँच गये। पगडन्डी पर जहाँ उतरे, वहाँ
कच्ची मिटटी से बनाया गया, हनुमान जी का जरा सा मन्दिर था। इस धार से आने में एक
बात गौर करने वाली दिखायी दी कि गाँव वालों के पलायन के कारण बहुत सारे खेत खलियान
उजाड हुए दिखायी दे रहे थे। जब काम करने वाले गाँव में नहीं रहेंगे तो खेत बचेंगे
ही कहाँ।
जंगल वाला घर भी आ गया है। यहाँ चारों ओर घनघोर जंगल है। रात में कमरे से बाहर
निकलने पर सख्य मनाही है क्योंकि रात में तेंदुए, हिरण जैसे जानवर आँगन में टहलते
हुए देखे गये है। बीनू के चाचा नीचे
सतपुली की ओर किसी गाँव में शादी की पूजा कराने गये हुए थे। इस जंगल में दो ही
परिवार रहते है। एक में बीनू के ताऊ व दूजे में चाचा का परिवार रहता है। चाय पीने
वालों को थोडी देर में चाय मिल गयी। मैं चाय नहीं पीता तो चाची जी ने मुझे आँवले
से बने शर्बत को पीने के लिये दिया। शर्बत इतना स्वादिष्ट लगा कि मैंने उसके
दो-तीन गिलास पी डाले। स्वाद इतना अच्छा कि पेट भर जाये लेकिन मन ना भर पाये। अभी
अंधेरा होने में घन्टा भर का समय बचा हुआ था। इसलिये आसपास टहलने चल दिये। चाचा जी
के घर के बाद ताऊजी के घर पहुँचे। यहाँ माल्टा के पेड पर बहुत सारे माल्टा लटकते
देख, हम अपने को रोक ना सके। यहाँ जंगल वाले घर के चारों ओर कई तरह के फ़ल-फ़ूल के
पेड-पौधे भरे पडे है। माल्टा का स्वाद इतना खट्टा निकला कि एक-दो माल्टा से
ज्यादा झेलने की हिम्मत किसी की ना हुई। माल्टा खाते समय आँखे अपने आप चलने लगती
थी। ताई जी ने बताया कि माल्टा का सीजन दो महीने पहले था अब तो सूखे हुए माल्टा
बचे हुए है। सीजन में आते तो हमें मीठे माल्टा मिल जाते। बिना सीजन भी माल्टा मिल
गये यही क्या कम था?
रात को खाना खाने के समय बीनू के चाचा जी भी आ गये। बीनू के चाचा जी उस घनघोर
जंगल में रात के अंधेरे में अकेले आये थे। चाचा जी नीचे नदी किनारे वाले किसी गाँव
में पूजा कराने के लिये गये हुए थे। पुजारी चाचा पुरोहित का कार्य भी करते है। उनका
बेबाक अंदाज मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं बहुत कम पुजारियों (खासकर बडे प्रसिद्द
मन्दिर में पूजा करने वाले) को प्रणाम करता हूँ चाचा जी की बेबाकी व साफ गोई के
कारण मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ। बिना लाग लपेट के अपनी बात कहने वाले बन्दे
हमेशा सच्चे होते है। कुछ को मेरी सोच के विपरीत, यह बात कडुवी लग सकती है। जिसे
कडुवी लगती हो, लगती रहे। उससे सच तो नहीं बदल सकता ना। चाची जी का व्यवहार भी
बहुत निर्मल लगा। मेरा मन कह रहा है
सपरिवार यहाँ एक चक्कर अवश्य लगाना ही है। चाचा जी का शादी की पूजा से लौटना सिर्फ़
हम सभी से मिलने के लिये ही था क्योंकि अगली सुबह वे हमारे साथ ही नीचे वाली घाटी
में लौट जायेंगे। बीनू ने इस जंगल वाले घर में जंगली जानवरों का इतना डर दिखाया था
कि एक बार तो लगने लग गया था कि रात को सू-सू आ गया तो मुश्किल हो जायेगी। अगर
हममें से कोई ज्यादा डरपोक हुआ तो उसकी तो शामत तय समझो। खैर अच्छी बात यह रही कि
रात को सोने से पहले सभी सू-सू कर के सोये ताकि डर वास्तविकता में ना बदल जाये।
चाचा जी के यहाँ काफ़ी सारी बकरियाँ के साथ भैंस व गाय भी थी। इनकी रखवाली के लिये
दो वफादार प्राणी घर में पाले हुए थे। जो रात को जरा सी आहट होने पर भौकना शुरु कर
देते थे। इनके कारण हिरण या कोई अन्य जानवर घर के पास नहीं आ पाते होंगे।
रात को बिजली नहीं थी। कारण, बारिश के साथ चली तेज हवा के कारण बिजली की लाईन
में गडबड हो गयी थी। जिस कारण आपातकालीन प्रकाश व्यवस्था बैट्री के प्रकाश के भरोसे
खाना-पीना किया गया। रात के खाने में सब्जी रोटी थी। पहाड में आकर मुझे सबसे बढिया
आलू की सब्जी लगती है। मेरी रात को कब आँख लगी पता ही ना लगा। सुबह आँख खुली तो
उजाला हो चुका था। रजाई से बाहर निकलते ही ठन्ड का अहसास हो गया। ठन्ड महसूस तो हो
रही थी लेकिन इतनी भी ज्यादा नहीं थी कि दाँत बजने लगे। नटवर ने बताया कि रात को
बारिश हुई थी। रात की बारिश का हमें पता नहीं लगा क्योंकि हमारे कमरे की छत लेंटर
वाली थी जिस कमरे में नटवर सोया था उस कमरे की छत टीन वाली थी जिस कारण उसे पता लग
गया होगा। दैनिक कार्यों से निपट कर मौसम का अनुभव करने के लिये बाहर ही बैठ गये।
सूर्योदय का समय हो गया था। आसमान लाल हो रहा था इसलिये सब अपने-अपने कैमरे लेकर
तैयार हो गये। यह घर ऐसी ढलान पर बना है जहाँ से घाटी का सुन्दर दृश्य दिखायी देता
है। सामने घाटी में बहती “नयार नदी” काफी दूर तक दिखायी देती है। नयार नदी
देवप्रयाग से नजदीक व्यासचट्टी में गंगा में समा जाती है। यहाँ पहाडों के पीछे से
उगता सूरज बडा मस्त दिखता है। सूर्य उग रहा हो या डूब रहा हो। मुझे दोनों समय की
लाली बहुत अच्छी लगती है। हम द्वारीखाल से आये थे और उसी से लौट जायेंगे लेकिन
सामने घाटी में एक गांव बांघाट आता है सतपुली इस गाँव से 6 किमी आगे है। यहाँ से भी घने जंगलों से होकर एक ट्रेकिंग वाला मार्ग है जो
हनुमान गढी व भैरो गढी के लिये जाता है। अबकी बार सपरिवार इस रुट को भी देखने का
इरादा है।
सुबह मौसम काफी ठन्डा था इसलिये नहाने का विचार किसी का नहीं बन पाया। सुबह के
नाश्ते में दाल भरी पूरी बनायी गयी थी। दाल पूडी की बात रात को सोने से पहले ही तय
हो गयी थी। यह दाल कोई एक दाल नहीं होती है इसमें मिक्स दाल होती है जिसमें पहाड
पर मिलने वाली गहथ की दाल व राजमा (छीमी) का मिश्रण होता है। यह जो गहथ की दाल
होती है ना यह चिकित्सा जगत में बहुत काम आने वाली दाल है इसे खाने से गुर्दे की
पथरी भी निकल जाती है। लगभग बीस साल पहले की बात है जब मेरी उम्र लगभग 21 साल की थी मुझसे दो
साल छोटा भाई प्रदीप पवाँर है जो अभी मेरठ में रहता है लेकिन उसका अधिकांश समय
उत्तरकाशी के ज्ञानसू गाँव में बीता है। पिता जी का देहांत हुए महीना भर नहीं हुआ था कि छोटे भाई को एक दिन तेज दर्द
हुआ। अल्टासाऊंड कराया तो पता लगा कि गुर्दे में पथरी हो गयी है। उस समय उसने
महीने भर ऐसी ही कोई दाल खायी थी जिससे उसकी पथरी बिना किसी परेशानी के निकल गयी
थी। अब यह सही से याद नहीं है कि वह दाल गहथ ही थी या कुलथ थी। चाचा जी के यहाँ
कटहल का आचार मैंने जीवन में पहली बार खाया। कटहल की सब्जी व अरहर की दाल हमारे घर
में साल भर में मुश्किल से एक-दो बार ही बनती होगी। यहाँ कटहल का आचार खाकर अलग
स्वाद मिला। अब तक गाजर, मूली, मिर्च, आम, नीम्बू का अचार तो खाया था ये पहली बार
देखा।
सुबह फोटो लेते समय एक बोर्ड पर नजरे ठहर गयी। यह बोर्ड गाँव के प्रधान भीम
दत्त कुकरेती के नाम से लगा हुआ था। चाचा जी महाभारत वाले भीम की तरह पहलवान जैसे
तो नहीं दिखते है लेकिन इन्होंने गाँव में कार्य कराने में भीम से कम मेहनत नहीं
की है। रात को बात-चीत करते समय चाचा जी के प्रधानी काल की कई बात सुनी। बीनू के
ताऊजी डा०विष्णु दत्त कुकरेती तो ज्ञानी जी है। सरदारों वाले ज्ञानी मत समझ लेना।
ताऊजी विष्णु जी ने कई पुस्तके लिखी हुई है। उनकी लिखी हुई पुस्तके तो बहुत सारी
है जिनमें से कुछ के बारे में बता रहा हूँ। नाथ साहित्य में ढोल सागर, दमौसागर,
घटस्थापना, चैडियावीर, मसाण, इन्द्रजाल, कामरुप जाप, गणित प्रकाश, गुरु पादिका
जैसे काव्य भी शामिल है। विष्णु दत्त जी ने बहुत अच्छा लिखा है। इनकी सबसे ज्यादा
प्रसिद्दी वाली पुस्तक का नाम “नाथ
पंथ: गढवाल के परिपेक्ष में” है।
अभी तो हम यहाँ से द्वारीखाल होकर हनुमान गढी से भैरव गढी तक के ट्रैक पर जा
रहे है। मैं यहाँ जिस शांति की उम्मीद लेकर आया था। वह शांति मुझे उम्मीद से दुगनी
मिली। शहरों में रहने वाले लगभग अधिकतर परिवारों की इच्छा होती है कि पहाडों में
कुछ दिन घूम कर आया जाये। लेकिन भेड-चाल का जोश कुछ ऐसा हो गया है कि
शिमला-मसूरी-नैनीताल के अलावा लोगों को कुछ और याद आता ही नहीं है। मैं पहाडों में
सन 1993 से घूम रहा हूँ अब
रहता भले ही पहाड पर नहीं हूँ लेकिन मेरा मन पहाड में ही अटका रहता है। मुझे अब तक
बहुत ही कम जगह ऐसी मिली है जहाँ मैं सपरिवार दुबारा जाकर दो-चार दिन ठहरना पसन्द
करुँगा। यह छोटा सा गाँव व दो परिवार वाला छोटा सा ठिकाना मुझे पसन्द आ गया है।
मैं जल्द ही सपरिवार यहाँ आ रहा हूँ। इस गाँव का मौसम बेहद सुहावना है। यहाँ अब तक
पंखे लगाने की आवश्यकता नहीं पडी है।
यहाँ आने के दौरान ठहरने व खाने की चिंता नहीं करनी है। रहने को कई कमरे है।
मनोरंजन के लिये टीवी है। अपने साथ बिस्कुट व अन्य निजी जरुरत की चीजे आदि लेकर आनी पडेगी क्योंकि दुकान
यहाँ से कई किमी दूर है। जिसमें आने-जाने में कई घन्टे लग जाते है। यदि आपकी भी
यहाँ आने की इच्छा हो तो होम स्टे की सब सुविधा यहाँ उपलब्ध है। बस ध्यान रखना कि
शहर की तरह बडे-बडे डबल बैड यहाँ ना मिलेंगे। कार दो किमी दूर छोडनी पडेगी।
भीमदत्त जी से बात कर ली है। वे मान गये है कि यदि आप लोग या आपके दोस्त यहाँ आओगे
तो रहने व खाने पीने की चिंता मत करना। जब भी आओगे तो बता के आना। सभी सुविधाएँ
उपलब्ध करा दी जायेंगी। चाचा जी भीम दत्त कुकरेती जी का मोबाइल मेरे पास है। जबकि बीनू की मेल
आईडी beenukukreti@gmail.com पर सम्पर्क कर लेना। मेरा
ई-मेल व मोबाइल तो
प्रोफाइल में लिखा हुआ ही है। अगर आवश्यक हो तो मेरे फोन की घन्टी बजा देना। यदि
किसी दोस्त का मन यहाँ जाने का बने तो ध्यान रहे कि आप अपना घर समझ कर जाना। यहाँ
एक दिन रहना व तीन समय का खाना शहरों के होटलों से कही अधिक पौष्टिक व स्वादिष्ट
मिलेगा। होटल में कमरे के ही हजार रुपये लगते है खाना-पीना अलग से जुडता है। इससे
आधे में तो मेरा यहाँ का रहना-खाना दोनों ही हो गये। चलो अब तो सब तैयार हो चुके
है। कल तो चाय के शिकारी चाय के पीछे पडे हुए थे। अब आँवला जूस पीकर दीवाने हुए जा
रहे है। मैं भी आंवला के जूस के तीन-चार गिलास गटक जाऊँ, एक दो गिलास से मेरा कुछ
न होने वाला। रात को सोचा था कि आंवले के इस जूस को पाँच लीटर कैन में पैक करवा कर
दिल्ली लेकर जाऊँगा लेकिन मुझे दिन भर ट्रेकिंग भी करनी थी। इसलिए बिना जूस लिये
आज की यात्रा पर चल दिये। जूस सपरिवार यात्रा के समय लेकर आ जाऊँगा। (क्रमश:J)
22 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया चित्र व् विवरण
शानदार लेख देवता।
गाँव का बढ़िया विवरण
गाँव का बढ़िया विवरण
बढ़िया चित्र , बढ़िया विवरण और मस्त यात्रा .. उस दिन हरिद्वार में न होने से आप सब को मिस कर दिया
जितना अच्छा लेख उससे भी अच्छा बीनू का गाँव .... " बीनू तेरा गाँव बड़ा प्यारा मैँ तो गया मारा आके यहाँ रे ....संदीप गाया या नहीं ☺☺☺
बहुत बढ़िया....शानदार लेख ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-04-2016) को "फर्ज और कर्ज" (चर्चा अंक-2300) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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मूर्ख दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर चित्रण गांव का, मजा आ गया, कम से कम एक बार तो यहां जाना बनता है।
बहुत सुंदर चित्रण गांव का, मजा आ गया, कम से कम एक बार तो यहां जाना बनता है।
बहुत बढ़िया लेख,बड़े हल्के फुल्के अंदाज़ में ग्रामीण जीवन की समस्या और पीड़ा को उजागर किया। साथ ही बरसूरी गाँव की सुन्दरता का लाजबाब वर्णन फ़ोटो सहित।
बहुत बढ़िया लेख,बड़े हल्के फुल्के अंदाज़ में ग्रामीण जीवन की समस्या और पीड़ा को उजागर किया। साथ ही बरसूरी गाँव की सुन्दरता का लाजबाब वर्णन फ़ोटो सहित।
जायेंगे भाई, हम भी जायेंगे।
गाँव के रहन सहन में बहुत कठिनाई है और शायद इसी कारण पलायन होता है
Maja aa gaya padh kar...agle ank ka intazaar rehega
मस्त भाई...!!!
बीनू जी का गाँव वाकई मस्त है।
बीनू भाई के ताऊ जी सच में ज्ञानी हैं ! इतना लिखना , इतना इतिहास समेटना अपने आप में मेहनत और योग्यता का काम है ! फोटो बहुत मस्त लग रहे हैं संदीप भाई ! आप भी अँगरेज़ लग रहे हो , हैट लगाकर !!
भाई अब तो लगता है बीनू भाई के गाँव जाना ही पड़ेगा। फोटो बहुत मस्त आये हैं संदीप भाई।
Aap ne gav ki prestbhoomi bhut acha leak lekha hai
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