SACH PASS, PANGI VALLEY-13 SANDEEP PANWAR
11- हिमाचल के टरु गाँव की पद यात्रा में जौंक का आतंक व एक बिछुड़े परिवार को मिलवाना
12- रोहान्ड़ा सपरिवार अवकाश बिताने लायक सुन्दरतम स्थल
13- कमरुनाग मन्दिर व झील की ट्रैकिंग
14- रोहान्ड़ा-सुन्दरनगर-अम्बाला-दिल्ली तक यात्रा।
कमरुनाग मन्दिर की समुन्द्र तल से कुल ऊँचाई 3334 मीटर बतायी जाती है जबकि मैंने गुगल में तलाश कर देखा तो
यह 3200 मीटर ही दिखायी देती है। कमरुनाग का आधार रोहान्ड़ा
कस्बा/गाँव समुन्द्र तल से 2100 मीटर की ऊँचाई पर बसा हुआ है
इसका मतलब यह हुआ कि हमें 6 किमी की दूरी में 1200 मीटर ही चढना था। अगर देखा जाये तो यह चढ़ाई बहुत ज्यादा भारी नहीं पड़ती है
लेकिन रात को सोते समय सभी यह कहकर सोये थे कि सुबह जल्दी चलेंगे, देवेन्द्र रावत
जी तो रात को 2 बजे ही कमरुनाग के लिये निकलने की बात कर रहे
थे। मैंने उन्हे कहा रावत जी हिमाचल में भी अपने उतराखन्ड़ की तरह भरपूर संख्या में
भालू पाये जाते है रात को 2 बजे निकलने का मतलब होगा कि
जंगली जानवर से सीधा मुकाबला करना।
KAMRU NAAG TEMPLE |
भालू की बात सुनकर सबकी नानी मर गयी, सबकी मतलब
सबकी, यह मत सोचना कि मेरी नानी बच गयी होगी। सुबह चार बजे का अलार्म लगाया था
लेकिन नींद तो रात 3:30 पर ही खुल गयी थी इसके बाद
सोने की कोशिश करने में जोर लगा लिया लेकिन नीन्द नहीं आ पायी। जोर लगाने का लाभ
यह हुआ कि सबसे पहले नहा धोकर फ़्रेस हो गया। इसके बाद सबको उठाया। महेश के अलावा
सभी तीनों ट्रैकिंग के लिये तैयार हो गये। जब महेश तैयार नहीं हुआ तो उससे पूछा
क्या हुआ? वह बोला मेरी तबीयत ठीक नहीं है मैं नहीं जा रहा हूँ। आप लोग हो आओ। मैं
समझ गया कि बन्दा जोरदार चढ़ाई से बचने के लिये तबीयत का बहाना बना रहा है। चल ठीक
है हम 10 बजे तक आने की कोशिश करेंगे तब तक किसी दुकान से
दवाई लेकर ठीक हो जाना क्योंकि नीचे आते ही यहाँ से दिल्ली के लिये निकल लेना है।
इसके साथ ही हमने देर किये बिना वहाँ से चलना शुरु कर दिया।
अभी उजाला पूरी तरह नहीं हुआ था इसलिये मोबाइल
की रोशनी में रोहान्ड़ा के स्कूल के सामने वाली सीढियाँ चढ़ते हुए हम तीनों ऊपर चढ़ने
लगे। शुरु की इस थोड़ी सी चढ़ायी चढ़ते ही दम फ़ूलने लगा तो मलिक बोला बहुत दिनों बाद
चढ़ाई करने का मौका हाथ लगा है। क्यों कल की जौंक वाली चढ़ाई भूल गये क्या? कल वाली
चढ़ाई भी कोई चढ़ाई थी दो किमी की ही तो थी जिसमें जौंक के चक्कर में कब ऊपर आ गये
पता ही नहीं लग पाया। मैंने कहा, “हे भगवान फ़िर तो आज भी जौंक मिलनी चाहिए ताकि हम
दे दना-दन कमरुनाग पहुँच जाये।“ ना भाई साहब, जौंक का नाम ना लेना। नहीं तो वहाँ
से वापिस आना भारी पड़ जायेगा। अच्छा नहीं लेता, लेकिन मिल गयी तो! तो-तो देखी
जायेगी।
स्कूल के पास वाली चढ़ाई पार करने के बाद जैसे ही
आगे गये तो एकदम सफ़ाचट पगड़न्ड़ी देखकर तबीयत खुश हो गयी। यह साफ़ सुथरी पगड़न्ड़ी आधा
किमी की दूरी में बनी हुई थी। जहाँ यह पगड़न्ड़ी समाप्त होती है उसके ठीक आगे एक दो
मंजिला मकान बना हुआ है। उस घर में कोई दिखायी नहीं दिया। अगर कोई दिखायी देता तो
हम यही पता करते कि कमरुनाग वाली पगड़न्ड़ी यही है ना। इस मकान से आगे निकलते ही
चढ़ाई फ़िर तंग करने के लिये सामने खड़ी हुई थी। कुछ दूर तक ठीक मार्ग मिलने से शरीर
की हालत सही हो चुकी थी लेकिन सामने वाली चढ़ाई देखकर शरीर फ़िर से सिकुड़ने की हालत
में आ पहुँचा। यह चढ़ाई धीरे-धीरे ऊपर चढ़ती जा रही थी इस चढ़ाई को देखकर हर की दून
वाली यात्रा की याद हो आयी। उस यात्रा में भी कुछ मार्ग इसी प्रकार का था।
धीरे-धीरे चलते हुए यह चढ़ाई भी पार हो ही गयी।
अब तक एक किमी की चढ़ाई हम तय कर चुके होंगे। यहाँ चढ़ाई समाप्त होते ही उल्टे हाथ
एक घर दिखायी दिया, यहाँ भी कोई दिखायी नहीं दिया। हम आगे चलते गये। आगे बढ़ते रहने
पर एक बन्द ढका हुआ कुआ जैसा कुछ दिखायी दिया तो हम उसके पास जा पहुँचे। यह दूर से
देखने में भले ही एक कुएँ जैसा दिख रहा लेकिन यह कुआँ ना होकर एक ढकी हुई टंकी
जैसा था। ऊपर पहाडों से पाईप के जरिये यहाँ पानी लाया जाता होगा इसके बाद यहाँ से
नीचे कई जगह पानी का वितरण किया जाता होगा। इस टंकी से आगे जाने पर एक अधूरा घर या
धर्मशाला दिखायी दी। यहाँ पर भी हमें कोई दिखायी नहीं दिया। यहाँ पर रावत जी आगे
निकल गये। मैंने उन्हे आवाज देकर कहा कि आप गलत मार्ग पर जा रहो। जरा दाए-बाये भी
देखकर चला करो। इस घर की दीवार पर मन्दिर जाने वाले मार्ग के बारे में तीर का
निशान लगाया गया है। जिस मार्ग पर आप जा रहे हो वह नीचे जाता हुआ लग रहा है। हो
सकता है कि वह मार्ग किसी अन्य गाँव से आता हो।
यहाँ इस खाली घर या धर्मशाला जो भी बन रही हो, इससे आगे
जाने के बाद किसी से कही पता करने की जरुरत ही नहीं पड़ती है आगे का सारा मार्ग
पहाड़ की धार पर ही चलता रहता है जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ कि इस छोटी सी
पद यात्रा में भयंकर चढाई पार करनी होती है। चढ़ाई चढ़ते समय धीरे-धीरे चलते हुए
सारी यात्रा आसानी से कट जाती है अपुन का तो यह नियम होता है कि जहाँ साँस फ़ूलती
दिखायी दे वही कुछ सेकन्ड़ विश्राम कर लिया जाये। जैसे ही साँस सामान्य हो फ़िर से
अपनी मंजिल की ओर बढ़ लिया जाये। जितना ऊपर हम आते जा रहे थे उतने ही खूबसूरत नजारे
हमें दिखायी देते जा रहे थे। कैमरा हमारे पास था ही, लेकिन अभी दिन पूरी तरह नहीं निकल
पाया था इसलिये यह तय हुआ कि आज का पहला फ़ोटो कमरुनाग मन्दिर का ही लिया जायेगा,
उसके बाद वापसी यात्रा में इस मार्ग के फ़ोटो लिये जायेंगे।
शुरु के दो किमी की चढ़ाई थोड़ी आसान थी लेकिन उससे अगले दो
किमी तक लगातार तीखी चढ़ाई से सामना होता रहा जिससे हम सोचने लगे कि कब आयेगा
कमरुनाग? आगे चलकर एक खुली सी जगह दिखायी दी, यहाँ पर दो बन्दे एक पेड़ के नीचे
बैठे हुए थे। उन्हे देख कर लग रहा था कि वे कही दूर से आ रहे है यहाँ कुछ देर बैठ
कर अल्प विश्राम करने के लिये बैठे हुए है। हम उन दोनों से कुछ पूछना ही चाहते थे
लेकिन हमसे पहले ही वे बोल पड़े कि मन्दिर जा रहे हो। हाँ! कितना दूर है। बस सामने
ही मन्दिर का पक्का मार्ग आने वाला है यहाँ पक्के दरवाजे से मन्दिर की दूरी दो
किमी से भी कम है अब आप लोग चढाई पार कर आये हो। आगे का मार्ग बेहद आसान है। आसान
मार्ग का नाम सुनते ही हमारे चेहरे पर चमक आ गयी।
हम बिना रुके आगे चलते रहे। थोड़ा सा आगे चलते ही पक्का
मार्ग आ गया। यहाँ से आगे का मार्ग उनके बताये अनुसार ज्यादा चढ़ाई वाला नहीं था।
यहाँ से मन्दिर तक पक्की पगड़न्ड़ी का मार्ग बना हुआ है इस पगड़न्ड़ी का निर्माण कार्य
अभी चल रहा है जिससे थोड़ी बहुत पगड़न्ड़ी बची हुई है। आने वाले समय में यह पूरी तरह
पक्की हो जायेगी। मन्दिर के नजदीक पहुँचते-पहुँचते कोहरे ने अपना रुप दिखाना आरम्भ
कर दिया था। जैसे-जैसे हम मन्दिर के नजदीक पहुँच रहे थे कोहरा घना होता जा रहा था।
इस कोहरे में यह पता ही नहीं लगा कि हम कब कमरुनाग पहुँच गये?
सबसे पहले झील दिखायी देने लगती है। कोहरे के कारण झील पूरी
तरह दिखायी नहीं दे रही थी। झील के किनारे सामान बेचने वालों की दुकाने भी लगी हुई
है जो यहाँ आने वालों के लिये जरुरी सामान रखती है। सबसे पहले हम सीधे मन्दिर
पहुँचे। यहाँ का मन्दिर खुले में बना हुआ है एक ढ़की हुई छत के नीचे एक मूर्ति रखी
हुई है। मन्दिर की चारदीवारी के बाहर लिखा हुआ था अपने जूते यहाँ से आगे ना ले
जाये। हमने भी अपने जूते वहाँ उतार दिये। जूते उतारने के बाद वहाँ की ठन्ड़ देखकर
एहसास हुआ कि हम काफ़ी ऊँचाई पर पहुँच चुके है। मन्दिर की मूर्ति को राम-राम किया
और कहा कि फ़िर बुलाना। मन्दिर देखने के बाद वहाँ के कई फ़ोटो लिये गये। मन्दिर की
दीवार पर सफ़ेद रंग की एक तितली चिपकी हुई थी ठन्ड़ के कारण वह हिल नहीं पा रही थी।
हमने उसका फ़ोटो लेकर वहाँ से वापिस चलना शुरु किया।
वापिस चलते ही रावत जी बोले कि क्या प्रसाद नहीं चढ़ाओगे?
मैंने कहा मैं किसी मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने के चक्कर में नहीं रहता हूँ। मेरी नजर
में प्रसाद चढ़ाना भगवान को रिश्वत देने जैसा है। हम उस भगवान को क्या दे सकते है?
जो कुछ है उसी का दिया हुआ है। यह संसारिक सामग्री तो उसी परमात्मा की देन है।
हमें सिर्फ़ ऐसे काम करने से बचना चाहिए जिससे किसी का बुरा ना हो। रावत जी मेरा
प्रवचन अधूरा छोड़ प्रसाद लेने के लिये एक दुकान की ओर चले गये, हम दोनों सामने एक
चाय पकौड़ी की दुकान पर जा पहुँचे। जब तक रावत जी ने भगवान के नाम पर प्रसाद चढ़ाया,
तब तक हम आधी पकौड़ी चट कर चुके थे। इस दुकान के ठीक पीछे वाली पगड़न्ड़ी शिकारी देवी
मन्दिर जाती है लेकिन यहाँ से शिकारी देवी जाना मूर्खता है इससे अच्छा तो यह है कि
पहले शिकारी देवी जाया जाये उसके बाद शिकारी देवी से पैदल ही कमरुनाग आना चाहिए
ताकि शिकारी से कमरुनाग व आगे रोहान्ड़ा तक चढ़ाई तंग ना कर सके।
चाय पकौड़ी खाने के बाद हमने वहाँ से रोहान्ड़ा
के लिये वापिस चलना आरम्भ कर दिया। रोहान्ड़ा से कमरुनाग आने में हमें दो घन्टे का
समय लगा था वापसी में हम सोच रहे थे कि यह समय डेढ़ घन्टे से ज्यादा नहीं होना
चाहिए। कमरुनाग से चलते समय समय देखा तो सुबह के 8 बजे थे। हमने उसी मार्ग से वापसी चलना शुरु किया जिससे होकर
हम यहाँ तक आये थे। अबकी बार मौसम भी साफ़ था इसलिये कैमरा निकाल कर गले में ही
टाँगा हुआ था। पक्की पगड़न्ड़ी तक धड़ाधड़ उतरते चले आये। जब कच्ची पगड़न्ड़ी आरम्भ हुई
तो वहाँ पेड़ों से टपकने वाले पानी के कारण हल्की-हल्की फ़िसलन हो गयी थी सावधानी से
कई जगह नीचे उतरना पड़ा। वापसी में जितने शार्ट कट दिखायी दिये, सारे के सारे
आजमाये गये थे। बीच-बीच में फ़ोटो लेने के बहाने रुक-रुक कर आसपास के नजारे देखने
के लिये ठहर जाते थे।
ऊपर से देखने में आसपास दूर तक फ़ैली हुई
हरियाली देखकर मन खुश हो रहा था। एक जगह एक विशाल पेड़ पगड़न्ड़ी के ऊपर गिरकर पुल की
तरह बना हुआ था मलिक को इशारा किया और मलिक उस पर जा चढ़ा। वहाँ से मलिक को नीचे
कूदने को कहा लेकिन मलिक बोला मैं कूद तो जाऊँगा लेकिन रोहान्ड़ा तक मुझे उठा कर
कौन ले जायेगा? अच्छा ठीक है आराम से उतर आ। वापसी में हमें एक जगह कुछ स्थानीय लोग ऊपर
जाते हुए मिले।
उन लोगों के साथ एक बकरी भी थी बकरी देखते ही हम समझ गये कि इस
बकरी के जीवन के चन्द घन्टे बचे हुए है जैसे ही यह बकरी ऊपर कमरुनाग पहुँची तो
इसकी जीवन लीला समाप्त हो जायेगी। बकरी के साथ जाने वाले लोगों में से एक के हाथ
में कपड़े से ढ़का लम्बा फ़रसा/कुल्हाड़ा था। जिसके बारे में रावत जी मुझे बताया कि
हमारे उतराखन्ड़ में कपड़े से फ़रसे को ढ़कने वाले लोग राजपूत कहलाते है अगर यहाँ
हिमाचल में भी ऐसा ही है तो यह भी राजपूत ही होंगे। कपड़े से ढ़के फ़रसे के बारे में
एक बात और भी बतायी जाती है कि यदि गलती से भी फ़रसे से कपड़ा हट जाता है तो इसे
बिना खून लगाये वापिस नहीं रखा जाता है फ़िर भले ही खून पर अपने हाथ में एक चीरा
लगाकर ही क्यों ना लगाकर रखा जाये। अब रोहान्ड़ा का स्कूल सामने दिखायी दे रहा था। (इस
यात्रा का अंतिम भाग अगले लेख में)
इस साच पास की बाइक यात्रा के सभी ले्खों के लिंक क्रमवार नीचे दिये जा रहे है।
12- रोहान्ड़ा सपरिवार अवकाश बिताने लायक सुन्दरतम स्थल
13- कमरुनाग मन्दिर व झील की ट्रैकिंग
14- रोहान्ड़ा-सुन्दरनगर-अम्बाला-दिल्ली तक यात्रा।
6 टिप्पणियां:
इस मकान से आधा किलोमीटर तक ही जा पाया था मै फिर बारिश की वजह से वापस आना पडा
SANDEEP JI. LAJWAAB TRANKING. PARANTU AGAR AAP KAMRUNAAG SE WWPSI BYAY JHOUR SAROAA TEMPAL WALE TRACK SE HOKAR AATE TO SONE PAR. SUHAAGA HO JATI YE YATRA
Sandeep Bhai Ji photo to sunder hai... or mausam bhi, bus BHallu nahi dikhayi diya???
सुन्दर हरे भरे दृश्य
शानदार फोटो । प्रक्रति के इतने बेहतरीन सौन्दर्य के करीब, गज़ब एहसास है ।
जाट देवता बहुत अच्छी प्रस्तुति है
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