सीरिज गंगौत्री-गौमुख
4. TREKKING TO GANGOTRI-BHOJBASA-CHEEDBASA भाग 4 गंगौत्री-भोजबासा-चीडबासा तक ट्रेकिंग
भोजबासा में एक दुकान पर मैगी खाकर, हमारी पुलिस चौकडी फ़िर से गौमुख यात्रा के लिये आगे बढ चली। सामने ही गौमुख गलेशियर तक हमें एकदम सीधा दिखाई दे रहा था। यहाँ से आगे का ट्रेकिंग मार्ग ज्यादा कठिन नही है। भोजवासा से आगे चलते हुए हम एकदम सीधे घाटी में नहीं उतरे थे, क्योंकि घाटी में उतर कर दुबारा ऊपर चढना पडता जो उस थकावट में बहुत तकलीफ़ देय होता। इस कारण हमने थोडा सा लम्बा मगर आसान मार्ग अपनाया था जो पहाड के समानान्तर दिखाई दे रहा था। कोई एक किमी चलने के बाद इस मार्ग पर पर कच्ची पगडन्डी के स्थान पर पत्थरों का बना हुआ मार्ग आ जाता है यह मार्ग लगभग एक-डेढ किमी से ज्यादा का था। जिसपर पैदल चलने में बहुत परॆशानी आ रही थी। पत्थर मार्ग में बिछाये जरुर गये थे लेकिन उनमें कुछ भरा नहीं गया था जिससे उनके बीच में मेरा पैर कई बार अटक गया था। जिससे मुझे कई बार झटका सा लगा था। फ़िर भी ज्यादा परेशान हुए बिना, हम वह पथरीला मार्ग भी पार कर गये। पथरीले मार्ग के बाद कुछ दूर तक मार्ग बहुत ही आसान था।
जैसे ही आसान मार्ग समाप्त हुआ तो हमें पता लग गया कि अब आफ़त आने वाली है। देखने में तो मार्ग बहुत आसान था लेकिन वहाँ उल्टे हाथ वाला पहाड बहुत ही कच्चा था। कच्चे पहाड पर ढलान भी बेहद तीखी थी जिससे हर पल यह डर बना रहता था कि कहीं यह पहाड खिसक ही ना जाये। यह कच्चा पहाड मुश्किल से एक किमी ही था बल्कि उससे भी कम ही होगा, लेकिन यात्रा का यह छोटा सा टुकडा आज भी बेहद ही डरावना बीतता है। इस कच्चे पहाड पर पगडन्डी के एकदम किनारे पर कुतुबमीनार की तरह दिखने वाली मिट्टी व गोल-गोल पत्थर से बनी हुई कच्ची मीनारे थी, ये मीनारे देखने में जितनी हसीन लग रही थी उसके उलट यह उतनी ही डरावनी खूंखार साबित हो सकती थी। यहाँ वापसी में एक जगह बहुत बुरी तरह फ़ँस गये थे। जाते समय तो फ़िर भी हम आसानी से इसे पार कर गये थे लेकिन वापसी में इसने हमारी जान पर बना दी थी।
आसान कच्चे मार्ग के तुरन्त एक मैदान पार करना पडा था। बाद बडे-बडे पत्थर बीच में आ गये थे। इन पत्थरों पर चलना किसी भी तरह बच्चों का खेल नहीं था, यहाँ जरा सी लापरवाही बेहद खतरनाक साबित हो सकती थी। अत: हमने उन पत्थरों को बहुत सम्भल-सम्भल कर पार करना शुरु किया था। पत्थरों को पार करते समय कई बार ऐसा भी हुआ कि हमें आगे का मार्ग नहीं सूझा तो दाये-बाये वाले पत्थरों पर चढकर आगे का मार्ग तलाशना पडा था। यहाँ इन पत्थरों पर मैं एक बार फ़िसल भी गया था, फ़िसलने से बचने के लिये मैंने एक अन्य पत्थर को पकडने की कोशिश भी की थी जिससे मेरे हाथ की हथेली वाली खाल थोडी सी छिल गयी थी। जिससे मैं थोडा सा चोटिल हो गया था। वैसे चोट बहुत ही मामूली थी। सिर्फ़ थोडी सी खाल ही उतरी थी। ज्यादा खून-खान नहीं निकला था।
इन पत्थरों को पार करते ही हम गौमुख ग्लेशियर के ठीक सामने एकदम नजदीक पहुँच चुके थे। यहाँ जाते ही सबसे पहले हम चारों एक बडे से पत्थर के ऊपर चढकर बैठ गये। हम लगातार चार किमी से बिना रुके चले आ रहे थे, जिस कारण हमारा शरीर गर्म था। जिससे ठन्ड महसूस नहीं हो रही थी। गौमुख में जब हम पहुँचे तो घडी में समय देखा, उस समय दोपहर के एक बजने वाले थे। सब पर थोडी बहुत थकान हावी हो चुकी थी। जिस कारण कुछ देर वहाँ बैठकर सबने पहले थकान उतारने का निश्चय किया। जहाँ हम बैठे हुए थे, हमारे पास कुछ बिस्कुट थे जब हम बिस्कुट खा रहे थे तो तीन-चार पहाडी कौए हमारे आसपास चक्कर लगाने लगे थे। कौए को पहले हमने दूर से बिस्कुट दिये उसके बाद कौए हमारे हाथ से बिस्कुट लेकर जाने लगे। हमने एक पैकेट कौए को ही खिला दिया। काफ़ी देर बाद जैसे-जैसे हमारा शरीर ठन्डा होता जा रहा था वैसे ही गौमुख की जबरदस्त ठन्ड का अहसास होता जा रहा था। जब हमें वहाँ बैठे-बैठे काफ़ी देर हो गयी तो हमारे एक साथी के सिर में वहाँ की जबरदस्त ठन्ड के कारण दर्द होने लगा। हमने वहाँ अपने फ़ोटो खींच कर वापसी चलने में ही भलाई समझी। गंगौत्री के मुकाबले यहाँ गौमुख में अत्यधिक ठन्ड थी। मैंने ग्लेशियर के पास से बर्फ़ के टुकडे को बहते पानी से फ़ोटो खिचवाने के लिये उठा लाया था। इसके बाद अपने साथ लाया पानी की बोतल भरनी शुरु कर दी। बर्फ़ीले पानी में बोतल भरते समय मेरा जितना हाथ पानी के भीतर रहा था, वह दर्द करने लगा, उसको मैं दर्द के मारे काफ़ी देर तक झटकता रहा था। पानी की वो भयंकर ठन्ड मुझे आज भी अन्दर तक हिला देती है। नवम्बर का पहला सप्ताह था दिन में सूर्य की तेज धूप में भी ठन्ड हमारे बरदास्त से बाहर हो रही थी।
मुझसे बोतल लेकर दूसरे साथी ने बेहद ही सावधानी से बोतल को फ़िर से भरना शुरु किया। उसकी हाथ की अंगुलियाँ भी पानी में बोतल भरते समय डूब गयी थी जो बोतल भरते-भरते लगभग सुन्न पड गयी थी। किसी तरह हमने बोतल भर ही ली। इसके बाद हमें सभी को पानी में पडे हुए बर्फ़ के टुकडे को हाथ में उठाकर फ़ोटो लेने की शरारत सूझ गयी। फ़िर तो देखा-दाखी चारों के चारों ही पानी में तैरते बर्फ़ के टुकडों को निकालने में जुट गये। एक बार किसी ने बोला कि देखते है कि कौन सबसे बडा बर्फ़ का टुकडा पानी से बाहर लायेगा? सबने कई कोशिश की लेकिन कोई भी दस किलो से ज्यादा भार का टुकडा बर्फ़ से बाहर नहीं निकाल सका था। भाई का एक साथी जिसके सिर में ठन्ड के कारण दर्द हो रहा था वह यह कहकर चल दिया कि तुम आते रहना, मुझसे सिर दर्द सहन नहीं हो रहा है अत: मैं यहाँ से जा रहा हूँ। लगता था कि उससे सिर दर्द सहन नहीं हो रहा था।
उसके चलते ही हम भी वहाँ से वापसी के लिये चल दिये। यहाँ तक मेरी हालत एकदम ठीक थी। साथी के सिर में दर्द ठन्ड के कारण था। वह अपना मफ़लर या टोपी भी नहीं लाया। हमारे पास ऐसा कोई कपडा भी नहीं था जिसको वह अपने सिर पर लपेट सकता। मैंने अपनी पतलून के नीचे हल्की पाजामी भी पहनी हुई थी। साथी की मजबूरी देखते हुए मैंने अपनी पाजामी उतार कर उसे दे दी, उसने पाजामी अपने सिर पर लपेट ली। इसके बाद हम वापसी की ओर चलते रहे। सिर गर्म होते ही लगभग आधे घन्टे में ही उसके सिर दर्द से उसे मुक्ति मिल गयी। वापसी में फ़िर से उन्हीं पत्थरों से होकर आना पडा जिन्होंने आते समय बहुत तंग किया था।
गौमुख जाते समय भोजबासा से आगे जो कुतुबमीनर के बच्चे जैसे दिखने वाले उसके भाई-बहन आये थे। वापसी में जब हम यहाँ आये तो एक मीनार लुढकी हुई मिली थी। उस मीनार का मलबा मार्ग पर इस प्रकार फ़ैला था कि वहाँ से उसे पार करना टेडी खीर लग रहा था। वहाँ रुक कर ज्यादा समय खराब भी नहीं किया जा सकता था क्योंकि हमारे ऊपर दूसरी मीनार के लुढकने का खतरा बना हुआ था। कुछ मीनार तो पचास-पचास फ़ुट ऊँची बची हुई थी। कुछ मात्र आठ-दस फ़ुट की शेष रह गयी थी। हमने एक दूसरे का हाथ पकडकर उस मलबे पर अपने पैर गडाते हुए उसे पार करने लगे। जब भी पैर के नीचे से मिट्टी सरकती थी तो ऐसा लगता था, जैसे कि पैरों के नीचे से पूरी धरती ही सरक रही हो। हम भी दम साधे पहाड पर लगभग चिपकते हुए से उसे पार कर ही गये। बीच-बीच में दो-तीन छॊटे-मोटे मिट्टी के अवरोध और मिले लेकिन उनसे कोई खास समस्या नहीं आयी थी। जहाँ कही भी हल्का सा सा पत्थर या पत्थर या उसकी आवाज आती थी तो सबका गला सूख जाता था। खैर राम-राम जपते हुए वो खतरनाक पल भी पार हो ही गये थे।
वैसे मैंने दुबारा भी यहाँ की ट्रेकिंग की है लेकिन वह दूसरी वाली पद यात्रा इस यात्रा के मुकाबले काफ़ी आसान थी। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि मार्ग देखा हुआ था अत: इसलिये कठिन नहीं लगा। दुबारा की गयी यात्रा में तो मैं और मेरे मामा का छोरा बस हम दो ही थे। जिसके बारे में मैंने यहाँ पहले ही एक सीरिज में लिखा था। इस मार्ग में इस टुकडे में हमारा ध्यान मार्ग पर कम व पहाड व इन कच्ची मीनारों पर ज्यादा था, डर इस यात्रा जितना ही था कि कही कोई सी मीनार धराशायी होकर हमें यही ढेर ना कर दे। डर मरने से नहीं लगता, डर तडपने से लगता है। ठीक उसी तरह जैसे किसी ने कहा है कि साहब थप्पड से डर नहीं लगता, डर प्यार से लगता है।
किसी तरह भोजवासा तक तो आसानी से आ गये थे लेकिन भोजवासा के आगे आने के बाद मेरे सीधे पैर के घुटने में थोडा-थोडा दर्द होना शुरु हो गया था। जिससे बचने के लिये मैंने घुटने को ज्यादा सीधा रखना शूरु किया। जिसका नतीजा यह हुआ कि घुटने के ऊपर के हिस्से जाँघ वाले जोड पर ज्यादा जोर पडना शुरु हो गया था। चीडवासा आते-आते मेरे सीधे पैर ने जवाब दे दिया कि बेटे बहुत हो गया अब मजा चख। अब तक तो मैं अपने पुलिस वाले साथियों का साथ बखूबी निभा रहा था लेकिन अब पैर के कारण मैं उनसे पिछडता जा रहा था। मंजिल अभी लगभग आठ-दस किमी दूर बची हुई थी। दिन छिपने में दो घन्टे का समय बचा हुआ था। सब कुछ ठीक था बस पैर के दर्द के कारण, अंधेरा होने का डर सताने लगा था।
यहाँ से आगे के तीन किमी चलने में मुझे एक घन्टे से ऊपर लग गया था। दर्द से तकलीफ़ बढती जा रही थी। अब आखिरी के केवल 5 किमी बचे थे जिसमें मेरे दर्द सहन करने की परीक्षा होने वाली थी। मैंने अपने साथियों को कह दिया था कि अब खतरे वाली तो कोई बात नहीं है अत: तुम लोग अपनी चाल से चलते रहो मैं आराम-आराम से अपना पैर घसीटता हुआ आ रहा हूँ। वैसे तो अब ढलान ही ढलान ही थी लेकिन फ़िर भी बीच-बीच में कही-कही पत्थर आ जाते थे जब उन पर चढना पडता था तो मुँह से निकलता था ऊई माँ कहाँ फ़ँस गया? जब मैंने देखा कि मेरी वजह से सबको परेशान होना पड रहा है तो मैंने उन्हें आगे चलते रहने के लिये कह दिया था। मैं भी किसी तरह उनका पीछा करने की कोशिश करता रहा, जब एक किमी चलने में ही मैं उनसे कई सौ मीटर पीछे रह जाता था। तब वे रुक कर मेरा इन्तजार कर लेते थे। जैसे ही मैं वहाँ पहुँचता वैसे ही उन्हें बोल देता था कि चलो तुम जाओ। अब तो गंगौत्री मात्र दो किमी ही बचा है। मैं आ जाऊँगा।
अब तुम मुझे उस चैक पोस्ट पर बैठे हुए मिलना जिसे पार करते समय हमारा रिकार्ड रखा जाता है। यहाँ मैं जिस चैक पोस्ट की बात कर रहा हूँ। वह वन विभाग का चैक पोस्ट है जहाँ से गौमुख की ओर आने वाले यात्रियों पर नजर रखी जाती है कि कही वे यहाँ से कोई जडी-बूटी आदि तो नहीं ले जा रहे है। आजकल इस चैक-पोस्ट का उपयोग गौमुख में पोलीथीन ले जाने की पाबंदी के कारण ज्यादा बढ गया है। यह चैक-पोस्ट गंगौत्री से कोई एक किमी आगे बना हुआ है। यह ऐसी जगह बना हुआ है जहाँ से इनकी नजर से बचे बिना आगे जाना सम्भव नहीं है। मेरी इस यात्रा के समय (सन 1999 में) तो यहाँ से आगे जाने का कोई शुल्क भी नहीं लगता था लेकिन लगभग तीन साल से यहाँ से आगे जाने पर प्रति व्यक्ति पचास रुपया लगने लगा है।
किसी तरह लगभग मन ही मन कराहता हुआ सा अपने पैर के दर्द का मारा मैं हाय राम करता हुआ, इस चैक पोस्ट तक पहुँचा था। वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते अंधेरा होना आरम्भ हो गया था जिस कारण अब बचा हुआ एक किमी हमें जल्दी पार करना था। मैंने इस बचे हुए एक किमी में अपनी सारी सहन शक्ति की परीक्षा लेनी चाही। मैंने कहा चलो कुछ देर बैठ जाऊँ फ़िर सब साथ चलेंगे। अब सब के सब बचे हुए एक किमी के मार्ग में साथ-साथ चल रहे थे। दर्द होने के बावजूद मैंने अंधेरा होने के डर से अपनी चलने की गति बढा दी थी। जिससे हम कुछ देर बाद गंगौत्री जा पहुँचे थे। गंगौत्री जब दिखाई देने लगा था तो मेरा दर्द मुझे कम लगने लगा था। आखिरकार मैंने लगभग कराहते हुए या कह लो कि मन ही मन रोते-पीटते हुए आखिर के चार-पाँच किमी कैसे काटे थे मैं ही जानता हूँ। यह मेरी जिन्दगी का पहला सफ़र था जिसमें मेरे साथ इतनी बुरी बीती थी। गंगौत्री आने के बाद एक दुकान से दर्द की गोली ली जिसके कारण आधे घन्टे बाद दर्द छूमन्तर हो गया था। इसके बाद मैंने जितनी भी यात्राएँ की किसी में भी मेरी हालत ऐसी नहीं हुई।
अगले लेख में हर्षिल में बगौरी गाँव जाकर सेब के बाग से सेब खरीदना व बस में लगातार चौबीस घन्टे सफ़र कर, घर वापसी तक का वर्णन किया जायेगा।
(कुल शब्द 2166)
जैसे ही आसान मार्ग समाप्त हुआ तो हमें पता लग गया कि अब आफ़त आने वाली है। देखने में तो मार्ग बहुत आसान था लेकिन वहाँ उल्टे हाथ वाला पहाड बहुत ही कच्चा था। कच्चे पहाड पर ढलान भी बेहद तीखी थी जिससे हर पल यह डर बना रहता था कि कहीं यह पहाड खिसक ही ना जाये। यह कच्चा पहाड मुश्किल से एक किमी ही था बल्कि उससे भी कम ही होगा, लेकिन यात्रा का यह छोटा सा टुकडा आज भी बेहद ही डरावना बीतता है। इस कच्चे पहाड पर पगडन्डी के एकदम किनारे पर कुतुबमीनार की तरह दिखने वाली मिट्टी व गोल-गोल पत्थर से बनी हुई कच्ची मीनारे थी, ये मीनारे देखने में जितनी हसीन लग रही थी उसके उलट यह उतनी ही डरावनी खूंखार साबित हो सकती थी। यहाँ वापसी में एक जगह बहुत बुरी तरह फ़ँस गये थे। जाते समय तो फ़िर भी हम आसानी से इसे पार कर गये थे लेकिन वापसी में इसने हमारी जान पर बना दी थी।
इन पत्थरों को पार करते ही हम गौमुख ग्लेशियर के ठीक सामने एकदम नजदीक पहुँच चुके थे। यहाँ जाते ही सबसे पहले हम चारों एक बडे से पत्थर के ऊपर चढकर बैठ गये। हम लगातार चार किमी से बिना रुके चले आ रहे थे, जिस कारण हमारा शरीर गर्म था। जिससे ठन्ड महसूस नहीं हो रही थी। गौमुख में जब हम पहुँचे तो घडी में समय देखा, उस समय दोपहर के एक बजने वाले थे। सब पर थोडी बहुत थकान हावी हो चुकी थी। जिस कारण कुछ देर वहाँ बैठकर सबने पहले थकान उतारने का निश्चय किया। जहाँ हम बैठे हुए थे, हमारे पास कुछ बिस्कुट थे जब हम बिस्कुट खा रहे थे तो तीन-चार पहाडी कौए हमारे आसपास चक्कर लगाने लगे थे। कौए को पहले हमने दूर से बिस्कुट दिये उसके बाद कौए हमारे हाथ से बिस्कुट लेकर जाने लगे। हमने एक पैकेट कौए को ही खिला दिया। काफ़ी देर बाद जैसे-जैसे हमारा शरीर ठन्डा होता जा रहा था वैसे ही गौमुख की जबरदस्त ठन्ड का अहसास होता जा रहा था। जब हमें वहाँ बैठे-बैठे काफ़ी देर हो गयी तो हमारे एक साथी के सिर में वहाँ की जबरदस्त ठन्ड के कारण दर्द होने लगा। हमने वहाँ अपने फ़ोटो खींच कर वापसी चलने में ही भलाई समझी। गंगौत्री के मुकाबले यहाँ गौमुख में अत्यधिक ठन्ड थी। मैंने ग्लेशियर के पास से बर्फ़ के टुकडे को बहते पानी से फ़ोटो खिचवाने के लिये उठा लाया था। इसके बाद अपने साथ लाया पानी की बोतल भरनी शुरु कर दी। बर्फ़ीले पानी में बोतल भरते समय मेरा जितना हाथ पानी के भीतर रहा था, वह दर्द करने लगा, उसको मैं दर्द के मारे काफ़ी देर तक झटकता रहा था। पानी की वो भयंकर ठन्ड मुझे आज भी अन्दर तक हिला देती है। नवम्बर का पहला सप्ताह था दिन में सूर्य की तेज धूप में भी ठन्ड हमारे बरदास्त से बाहर हो रही थी।
मुझसे बोतल लेकर दूसरे साथी ने बेहद ही सावधानी से बोतल को फ़िर से भरना शुरु किया। उसकी हाथ की अंगुलियाँ भी पानी में बोतल भरते समय डूब गयी थी जो बोतल भरते-भरते लगभग सुन्न पड गयी थी। किसी तरह हमने बोतल भर ही ली। इसके बाद हमें सभी को पानी में पडे हुए बर्फ़ के टुकडे को हाथ में उठाकर फ़ोटो लेने की शरारत सूझ गयी। फ़िर तो देखा-दाखी चारों के चारों ही पानी में तैरते बर्फ़ के टुकडों को निकालने में जुट गये। एक बार किसी ने बोला कि देखते है कि कौन सबसे बडा बर्फ़ का टुकडा पानी से बाहर लायेगा? सबने कई कोशिश की लेकिन कोई भी दस किलो से ज्यादा भार का टुकडा बर्फ़ से बाहर नहीं निकाल सका था। भाई का एक साथी जिसके सिर में ठन्ड के कारण दर्द हो रहा था वह यह कहकर चल दिया कि तुम आते रहना, मुझसे सिर दर्द सहन नहीं हो रहा है अत: मैं यहाँ से जा रहा हूँ। लगता था कि उससे सिर दर्द सहन नहीं हो रहा था।
उसके चलते ही हम भी वहाँ से वापसी के लिये चल दिये। यहाँ तक मेरी हालत एकदम ठीक थी। साथी के सिर में दर्द ठन्ड के कारण था। वह अपना मफ़लर या टोपी भी नहीं लाया। हमारे पास ऐसा कोई कपडा भी नहीं था जिसको वह अपने सिर पर लपेट सकता। मैंने अपनी पतलून के नीचे हल्की पाजामी भी पहनी हुई थी। साथी की मजबूरी देखते हुए मैंने अपनी पाजामी उतार कर उसे दे दी, उसने पाजामी अपने सिर पर लपेट ली। इसके बाद हम वापसी की ओर चलते रहे। सिर गर्म होते ही लगभग आधे घन्टे में ही उसके सिर दर्द से उसे मुक्ति मिल गयी। वापसी में फ़िर से उन्हीं पत्थरों से होकर आना पडा जिन्होंने आते समय बहुत तंग किया था।
गौमुख जाते समय भोजबासा से आगे जो कुतुबमीनर के बच्चे जैसे दिखने वाले उसके भाई-बहन आये थे। वापसी में जब हम यहाँ आये तो एक मीनार लुढकी हुई मिली थी। उस मीनार का मलबा मार्ग पर इस प्रकार फ़ैला था कि वहाँ से उसे पार करना टेडी खीर लग रहा था। वहाँ रुक कर ज्यादा समय खराब भी नहीं किया जा सकता था क्योंकि हमारे ऊपर दूसरी मीनार के लुढकने का खतरा बना हुआ था। कुछ मीनार तो पचास-पचास फ़ुट ऊँची बची हुई थी। कुछ मात्र आठ-दस फ़ुट की शेष रह गयी थी। हमने एक दूसरे का हाथ पकडकर उस मलबे पर अपने पैर गडाते हुए उसे पार करने लगे। जब भी पैर के नीचे से मिट्टी सरकती थी तो ऐसा लगता था, जैसे कि पैरों के नीचे से पूरी धरती ही सरक रही हो। हम भी दम साधे पहाड पर लगभग चिपकते हुए से उसे पार कर ही गये। बीच-बीच में दो-तीन छॊटे-मोटे मिट्टी के अवरोध और मिले लेकिन उनसे कोई खास समस्या नहीं आयी थी। जहाँ कही भी हल्का सा सा पत्थर या पत्थर या उसकी आवाज आती थी तो सबका गला सूख जाता था। खैर राम-राम जपते हुए वो खतरनाक पल भी पार हो ही गये थे।
वैसे मैंने दुबारा भी यहाँ की ट्रेकिंग की है लेकिन वह दूसरी वाली पद यात्रा इस यात्रा के मुकाबले काफ़ी आसान थी। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि मार्ग देखा हुआ था अत: इसलिये कठिन नहीं लगा। दुबारा की गयी यात्रा में तो मैं और मेरे मामा का छोरा बस हम दो ही थे। जिसके बारे में मैंने यहाँ पहले ही एक सीरिज में लिखा था। इस मार्ग में इस टुकडे में हमारा ध्यान मार्ग पर कम व पहाड व इन कच्ची मीनारों पर ज्यादा था, डर इस यात्रा जितना ही था कि कही कोई सी मीनार धराशायी होकर हमें यही ढेर ना कर दे। डर मरने से नहीं लगता, डर तडपने से लगता है। ठीक उसी तरह जैसे किसी ने कहा है कि साहब थप्पड से डर नहीं लगता, डर प्यार से लगता है।
यहाँ से आगे के तीन किमी चलने में मुझे एक घन्टे से ऊपर लग गया था। दर्द से तकलीफ़ बढती जा रही थी। अब आखिरी के केवल 5 किमी बचे थे जिसमें मेरे दर्द सहन करने की परीक्षा होने वाली थी। मैंने अपने साथियों को कह दिया था कि अब खतरे वाली तो कोई बात नहीं है अत: तुम लोग अपनी चाल से चलते रहो मैं आराम-आराम से अपना पैर घसीटता हुआ आ रहा हूँ। वैसे तो अब ढलान ही ढलान ही थी लेकिन फ़िर भी बीच-बीच में कही-कही पत्थर आ जाते थे जब उन पर चढना पडता था तो मुँह से निकलता था ऊई माँ कहाँ फ़ँस गया? जब मैंने देखा कि मेरी वजह से सबको परेशान होना पड रहा है तो मैंने उन्हें आगे चलते रहने के लिये कह दिया था। मैं भी किसी तरह उनका पीछा करने की कोशिश करता रहा, जब एक किमी चलने में ही मैं उनसे कई सौ मीटर पीछे रह जाता था। तब वे रुक कर मेरा इन्तजार कर लेते थे। जैसे ही मैं वहाँ पहुँचता वैसे ही उन्हें बोल देता था कि चलो तुम जाओ। अब तो गंगौत्री मात्र दो किमी ही बचा है। मैं आ जाऊँगा।
अब तुम मुझे उस चैक पोस्ट पर बैठे हुए मिलना जिसे पार करते समय हमारा रिकार्ड रखा जाता है। यहाँ मैं जिस चैक पोस्ट की बात कर रहा हूँ। वह वन विभाग का चैक पोस्ट है जहाँ से गौमुख की ओर आने वाले यात्रियों पर नजर रखी जाती है कि कही वे यहाँ से कोई जडी-बूटी आदि तो नहीं ले जा रहे है। आजकल इस चैक-पोस्ट का उपयोग गौमुख में पोलीथीन ले जाने की पाबंदी के कारण ज्यादा बढ गया है। यह चैक-पोस्ट गंगौत्री से कोई एक किमी आगे बना हुआ है। यह ऐसी जगह बना हुआ है जहाँ से इनकी नजर से बचे बिना आगे जाना सम्भव नहीं है। मेरी इस यात्रा के समय (सन 1999 में) तो यहाँ से आगे जाने का कोई शुल्क भी नहीं लगता था लेकिन लगभग तीन साल से यहाँ से आगे जाने पर प्रति व्यक्ति पचास रुपया लगने लगा है।
किसी तरह लगभग मन ही मन कराहता हुआ सा अपने पैर के दर्द का मारा मैं हाय राम करता हुआ, इस चैक पोस्ट तक पहुँचा था। वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते अंधेरा होना आरम्भ हो गया था जिस कारण अब बचा हुआ एक किमी हमें जल्दी पार करना था। मैंने इस बचे हुए एक किमी में अपनी सारी सहन शक्ति की परीक्षा लेनी चाही। मैंने कहा चलो कुछ देर बैठ जाऊँ फ़िर सब साथ चलेंगे। अब सब के सब बचे हुए एक किमी के मार्ग में साथ-साथ चल रहे थे। दर्द होने के बावजूद मैंने अंधेरा होने के डर से अपनी चलने की गति बढा दी थी। जिससे हम कुछ देर बाद गंगौत्री जा पहुँचे थे। गंगौत्री जब दिखाई देने लगा था तो मेरा दर्द मुझे कम लगने लगा था। आखिरकार मैंने लगभग कराहते हुए या कह लो कि मन ही मन रोते-पीटते हुए आखिर के चार-पाँच किमी कैसे काटे थे मैं ही जानता हूँ। यह मेरी जिन्दगी का पहला सफ़र था जिसमें मेरे साथ इतनी बुरी बीती थी। गंगौत्री आने के बाद एक दुकान से दर्द की गोली ली जिसके कारण आधे घन्टे बाद दर्द छूमन्तर हो गया था। इसके बाद मैंने जितनी भी यात्राएँ की किसी में भी मेरी हालत ऐसी नहीं हुई।
अगले लेख में हर्षिल में बगौरी गाँव जाकर सेब के बाग से सेब खरीदना व बस में लगातार चौबीस घन्टे सफ़र कर, घर वापसी तक का वर्णन किया जायेगा।
(कुल शब्द 2166)
4 टिप्पणियां:
क़ुतुब मीनार के बच्चों की तस्वीर नहीं ली? :)
हमको अपनी यात्रा याद आ रही है..
शुभकामनाएं. संदीप...
यूं ही आगे बढ़ते चलो ,मंजिलों पे चढ़ते चलो ........साथ हमको लेते चलो ,प्यार यूं हीं देते रहो ...हौसलों से पलते रहो ...
एक टिप्पणी भेजें