सीरिज गंगौत्री-गौमुख
गंगनानी से 18-20 किमी आगे जाने पर इस मार्ग की सबसे ऊँची जगह आती है, जिसका नाम सुक्खी टॉप है। यहाँ चढने में बस हो, बाइक हो या कार, सबका जोर लग जाता है। जब बस ऊपर की ओर चढ रही थी तो ऐसा लग रहा था जैसे बस चल नहीं रही, बल्कि रेंग रही है। किसी तरह रेंगती हुई बस उस ऊँचाई पर पहुँच ही गयी जहाँ से आगे की विशाल घाटी का शानदारा नजारा दिखाई दे रहा था। जब बस ढलान से उतरनी शुरु हुई तो फ़िर से मन में थोडा सा रोमांच उभर आया, क्योंकि बस वाला ढलान पर तेजी से बस भगा रहा था। यह लगभग दस किमी लम्बाई की ढलान है जो सीधे झाला नामक गाँव में भागीरथी के पुल पर जाकर ही समाप्त होती है। यहाँ पुल के पास ही रात में रुकने के लिये आजकल कई अच्छे व सस्ते होटल बन गये है। यहाँ भागीरथी किनारे एक रात रुकना मन को सुकून दे जायेगा। हमारी बस ने यहाँ भी सावरियों को उतारा व चढाया। उसके बाद बस फ़िर से अपनी मंजिल की ओर चल पडी थी। पुल पार करते ही भागीरथी नदी के किनारे के आसपास ही मार्ग बना हुआ है। अत: चढाई ज्यादा नहीं है।
यहाँ से सात-आठ किमी आगे जाने पर संसार भर में मशहूर स्थल हर्षिल आता है। यहाँ पहले सेब नहीं होते थे लेकिन एक अंग्रेज इंग्लैंड से सेब के पौधे लेकर आया था। यहां के सेब में एक विशेष बात है कि इनके छिलके अन्य जगह के सेब से थोडे मोटे होते है। यही वह स्थान है जहाँ राजकपूर ने अपनी फ़िल्म राम तेरी गंगा मैली की ज्यादातर शूटिंग की थी। फ़िल्म की हीरोईन को यहीं के एक झरने में नहाते हुए दिखाया गया है, वह झरना भी यहाँ पर है। यहाँ पर भी यात्रियों के रुकने के लिये स्थान बना हुआ है अत: किसी को रात यहाँ बितानी हो तो कोई समस्या नहीं है। हर्षिल के बारे में सबसे खास बात यह है कि अगर किसी बंदे की आँख पर पहलगाँव(कश्मीर) से पट्टी बाँध कर यहाँ लाये और यहाँ लाकर उसकी पटटी खोल दी जाये तो वह एक बार को यही समझ बैठेगा कि वह पहलगाँव में ही है। यह स्थल पहलगाँव का जुडवाँ भाई जैसा लगता है। इसी से जुडा हुआ बगौरी गाँव है जहाँ पर सेब के बाग है। मैंने यहाँ से दिल्ली ले जाने के लिये कितने सेब खरीदे थे? है कोई जो बता सकता हो। नहीं तो सीरिज के आखिरी में तो मैं बता ही दूँगा। हर्षिल में भागीरथी का पानी सडक से मुश्किल से 5-6 फ़ुट गहरा है। जैसे-जैसे बस हर्षिल से आगे बढती जा रही थी वैसे ही सडक से भागीरथी (गंगा) की गहराई भी बढती जा रही थी। यहाँ से गंगौत्री मुश्किल से 26 किमी दूर रह जाता है। हर्षिल से आगे चलते ही सडक किनारे घने चीड के पेड लगातार बने रहते है जिस कारण सडक छायादार बनी रहती है। कही-कही तो अंधेरा सा छाया हुआ लगने लगता है।
गंगनानी से थोडा सा आगे चलते ही एक जगह पहाड से छोटे-छोटे पत्थर सडक पर गिर रहे थे। ड्राईवर को जैसे ही ऊपर से पत्थर आते दिखाई दिये, उसने तुरन्त बस के ब्रेक लगा दिये। चूंकि मैं आगे वाली सीट पर ही बैठा हुआ था अत: मुझे साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था कि पत्थर कहाँ से आ रहे है? साफ़ दिखाई दे रहा था कि पत्थर सामने वाली पहाडी के ऊपर से आ रहे थे। मैंने ड्राईवर से कहा, “क्या इन छोटे-छोटे से पत्थर के कारण गाडी रोकी है? चालक ने कहा हाँ, गाडी तो रोकी है लेकिन इन छोटे-छोटे पत्थर के कारण नहीं, बल्कि बडे-बडे पत्थर के कारण, मैंने कहा बडा पत्थर है कहाँ? चालक ने कहा लगता है कि तुम पहाड में पहली बार यात्रा कर रहे हो। जब मैंने उसे कहा कि हाँ कर तो रहा हूँ लेकिन उससे क्या हुआ? अब चालक ने मुझे बताया कि जब भी पहाड से छोटे-छोटे पत्थर या रेत आदि कुछ भी गिर रहा हो तो उसके नीचे से कभी नहीं निकलना चाहिए। क्योंकि बडे पत्थर से पहले हमेशा ऐसे ही छोटे मोटे पत्थर आते है उसके बाद बडा पत्थर आता है और बडा पत्थर जानलेवा व विनाशकारी होता है। जो एक बडी बस को भी अपने साथ खाई में धकेल सकता है। चालक की ये बाते सुनकर मेरी बोलती बन्द हो गयी। लेकिन ड्राईवर ने बहुत काम की बात बता दी थी जो मुझे आज तक भी याद है बाइक यात्रा में कई बार मेरे काम भी आयी है। खैर कुछ देर के इन्तजार के बाद, जब छोटे-मोटे सभी पत्थर आने बन्द हो गये तो हमारी बस आगे बढ चली। आगे-आगे जैसे ही हमारी बस बढती जा रही थी वैसे ही मार्ग भी खतरनाक होता जा रहा था। उस पर चढाई भी जबरदस्त आ गयी थी। एक तरह ऐसे पहाड जहाँ से पत्थर गिरने का भय, दूसरी ओर गहरी खाई जिसमें भागीरथी अपनी तूफ़ानी रफ़तार से नीचे की ओर शोर मचाती हुई लुढकती जा रही थी।
गंगनानी से 18-20 किमी आगे जाने पर इस मार्ग की सबसे ऊँची जगह आती है, जिसका नाम सुक्खी टॉप है। यहाँ चढने में बस हो, बाइक हो या कार, सबका जोर लग जाता है। जब बस ऊपर की ओर चढ रही थी तो ऐसा लग रहा था जैसे बस चल नहीं रही, बल्कि रेंग रही है। किसी तरह रेंगती हुई बस उस ऊँचाई पर पहुँच ही गयी जहाँ से आगे की विशाल घाटी का शानदारा नजारा दिखाई दे रहा था। जब बस ढलान से उतरनी शुरु हुई तो फ़िर से मन में थोडा सा रोमांच उभर आया, क्योंकि बस वाला ढलान पर तेजी से बस भगा रहा था। यह लगभग दस किमी लम्बाई की ढलान है जो सीधे झाला नामक गाँव में भागीरथी के पुल पर जाकर ही समाप्त होती है। यहाँ पुल के पास ही रात में रुकने के लिये आजकल कई अच्छे व सस्ते होटल बन गये है। यहाँ भागीरथी किनारे एक रात रुकना मन को सुकून दे जायेगा। हमारी बस ने यहाँ भी सावरियों को उतारा व चढाया। उसके बाद बस फ़िर से अपनी मंजिल की ओर चल पडी थी। पुल पार करते ही भागीरथी नदी के किनारे के आसपास ही मार्ग बना हुआ है। अत: चढाई ज्यादा नहीं है।
यहाँ से सात-आठ किमी आगे जाने पर संसार भर में मशहूर स्थल हर्षिल आता है। यहाँ पहले सेब नहीं होते थे लेकिन एक अंग्रेज इंग्लैंड से सेब के पौधे लेकर आया था। यहां के सेब में एक विशेष बात है कि इनके छिलके अन्य जगह के सेब से थोडे मोटे होते है। यही वह स्थान है जहाँ राजकपूर ने अपनी फ़िल्म राम तेरी गंगा मैली की ज्यादातर शूटिंग की थी। फ़िल्म की हीरोईन को यहीं के एक झरने में नहाते हुए दिखाया गया है, वह झरना भी यहाँ पर है। यहाँ पर भी यात्रियों के रुकने के लिये स्थान बना हुआ है अत: किसी को रात यहाँ बितानी हो तो कोई समस्या नहीं है। हर्षिल के बारे में सबसे खास बात यह है कि अगर किसी बंदे की आँख पर पहलगाँव(कश्मीर) से पट्टी बाँध कर यहाँ लाये और यहाँ लाकर उसकी पटटी खोल दी जाये तो वह एक बार को यही समझ बैठेगा कि वह पहलगाँव में ही है। यह स्थल पहलगाँव का जुडवाँ भाई जैसा लगता है। इसी से जुडा हुआ बगौरी गाँव है जहाँ पर सेब के बाग है। मैंने यहाँ से दिल्ली ले जाने के लिये कितने सेब खरीदे थे? है कोई जो बता सकता हो। नहीं तो सीरिज के आखिरी में तो मैं बता ही दूँगा। हर्षिल में भागीरथी का पानी सडक से मुश्किल से 5-6 फ़ुट गहरा है। जैसे-जैसे बस हर्षिल से आगे बढती जा रही थी वैसे ही सडक से भागीरथी (गंगा) की गहराई भी बढती जा रही थी। यहाँ से गंगौत्री मुश्किल से 26 किमी दूर रह जाता है। हर्षिल से आगे चलते ही सडक किनारे घने चीड के पेड लगातार बने रहते है जिस कारण सडक छायादार बनी रहती है। कही-कही तो अंधेरा सा छाया हुआ लगने लगता है।
हर्षिल से थोडा आगे जाने पर एक जगह से भागीरथी का नजारा बहुत ही शानदार दिखाई देता है। वैसे आजकल वहाँ उस स्थल को पक्का बनाकर आरामदायक बैठने लायक स्थान बना दिया गया है। आगे चलकर एक धराली नामक गाँव और आता है यहाँ पर भी रात में रुकने के लिये अच्छे होटल बन गये है। यहाँ इस गाँव में आसपास के छोटे गाँवों से लाये गये ताजे-ताजे सेब बेचे जाते है। एक बार मैं और मेरी श्रीमति जी ने यहाँ से गंगौत्री की ओर जाते हुए ताजे सेब खाये थे जिस कारण बाइक पर चलते हुए ठन्ड लगने लगी थी। वो सफ़र फ़िर कभी। इस गाँव में हमारी बस अपनी उसी क्रिया सवारी उतारना चढाना निपटा कर आगे की ओर चढना शुरु हो जाती है। यहाँ से आगे-आगे सडक पर चढाई कुछ ज्यादा तीखी होनी शुरु हो जाती है। सबसे आगे की सीट पर बैठने के कारण एक-एक पल का हर तरह से मैंने पूरा लुत्फ़ उठाया था। मार्ग मे एक छोटा सा लोहे का पुल आया था जब उससे होकर हमारी बस चल रही थी तो वह बहुत शोर कर रहा था। अब यह वाला पुल आपको शायद नहीं मिलेगा। क्योंकि उसकी जगह सीमेंट वाला पुल बना दिया गया है। जो मेरी गंगौत्री से केदारनाथ पद यात्रा के समय शुरु हो गया था।
सडक किनारे दूरी वाले बोर्ड पर लंका की दूरी वाला बोर्ड दिखायी देने लगा था। मैं समझा कि रावण वाली लंका तो कन्याकुमारी के पास बतायी गयी है यह यहाँ गंगौत्री के पास कहाँ से आ गयी? जैसे-जैसे लंका की दूरी घटती जा रही थी वैसे-वैसे मेरे दिल की धडकन बढती जा रही थी। जब लंका मात्र एक किमी दूर रह गयी तो मेरी उत्सुकता कुछ-कुछ बैचैनी में बदलती जा रही थी। मैं मन ही मन सोच रहा था कि शायद रावण का महल या उसके खण्डहर जरुर दिख जायेंगे। लेकिन जब सडक पर लंका की दूरी 0 किमी वाला बोर्ड देखा तो मेरे अरमानों पर पहाड गिर पडे। यहाँ पहाड में पहाड ही गिरेंगे। यहाँ लंका नाम की जगह पर पक्के निर्माण के नाम पर कुछ भी नहीं था। अब एक धर्मशाला बना दी गयी है। जो सावन के महीने में शिव भक्त कावँरियों के काम आती है। यहाँ से जाते समय पुल से पहले एक बैरियर हुआ करता था जिस पर वाहनों से पुल पर आने-जाने का कुछ शुल्क लिया जाता था। आजकल शायद वो शुल्क नहीं लिया जाता है।
सडक किनारे दूरी वाले बोर्ड पर लंका की दूरी वाला बोर्ड दिखायी देने लगा था। मैं समझा कि रावण वाली लंका तो कन्याकुमारी के पास बतायी गयी है यह यहाँ गंगौत्री के पास कहाँ से आ गयी? जैसे-जैसे लंका की दूरी घटती जा रही थी वैसे-वैसे मेरे दिल की धडकन बढती जा रही थी। जब लंका मात्र एक किमी दूर रह गयी तो मेरी उत्सुकता कुछ-कुछ बैचैनी में बदलती जा रही थी। मैं मन ही मन सोच रहा था कि शायद रावण का महल या उसके खण्डहर जरुर दिख जायेंगे। लेकिन जब सडक पर लंका की दूरी 0 किमी वाला बोर्ड देखा तो मेरे अरमानों पर पहाड गिर पडे। यहाँ पहाड में पहाड ही गिरेंगे। यहाँ लंका नाम की जगह पर पक्के निर्माण के नाम पर कुछ भी नहीं था। अब एक धर्मशाला बना दी गयी है। जो सावन के महीने में शिव भक्त कावँरियों के काम आती है। यहाँ से जाते समय पुल से पहले एक बैरियर हुआ करता था जिस पर वाहनों से पुल पर आने-जाने का कुछ शुल्क लिया जाता था। आजकल शायद वो शुल्क नहीं लिया जाता है।
बैरियर पार करते ही लोहे वाला पुल आ जाता है। पुल के किनारे पर ही पुलिस विभाग की चैक पोस्ट बनी हुई है जहाँ पर मैंने एक दिन आकर कई घन्टे बिताये थे। उसका विवरण क्रमानुसार जैसा-जैसा हुआ वैसा-वैसा बताया जाता रहेगा। वह घटना गौमुख से आने के बाद की है, अत: उसके लिये थोडा इन्तजार करना होगा। जब हमारी बस उस विशाल लोहे के पुल से होकर आगे बढती है तो बाहर नीचे नदी में देखने का जी चाह रहा था लेकिन उस समय मुझे नदी का तल दिखायी नहीं दे पाया क्योंकि यह पुल जमीन से नदी के पानी से लगभग 450 फ़ुट से भी ज्यादा ऊँचा है। ऊँचाई पर मुझे संदेह है अगर किसी को सही ऊँचाई पता हो बता देना सही कर दूँगा। किसी ने मुझे बताया कि इस पुल से नीचे देखने पर गहरी खाई में एक और पुल दिखाई देता है पहले पैदल यात्री उसी पुल से होकर गंगौत्री आया-जाया करते थे। उसका फ़ोटो भी मेरे पास है। बाद में दिखाऊँगा। पुल पार करते ही सीधे मार्ग गंगौत्री की ओर जाता है जो मात्र दस किमी रह जाती है जबकि एक और मार्ग जो उल्टे हाथ की ओर जाता है वहाँ एक बोर्ड लगा हुआ था जिस पर लिखा हुआ था नेलोंग 23 किमी। यह नेलोंग चीन की सीमा के नजदीक भारतीय सीमा का अन्तिम बेस कैम्प है।
यहाँ से थोडी देर बाद हमारी बस गंगौत्री पहुँच जाती है। गंगौत्री में जहाँ बस रुकती है उसके ठीक सामने ही नीचे सडक किनारे पुलिस चौकी बनी हुई है। जब मैं बस से नीचे उतरा तो सबसे पहले पुलिस चौकी वाला बोर्ड ही दिखायी दिया था। मेरी नजर चारों ओर घूमने लगी। जैसे-जैसे मैं चारों ओर देख रहा था। पहाडों की मदहोशी मेरे ऊपर हावी होने लगी थी। मन कर रहा था कि छोडो कमरे को, मैं तो बस यही बाहर सडक पर ही बैठा रहूँ। चूंकि पहाड देखने को मेरे पास कई दिन थे अत: मुझे उतावला होने की कोई जल्दी भी नहीं थी। मैं तो धीरे-धीरे प्रकृति के मन लुभावने, दिलकश, नजारे अपनी यादों में समा लेना चाहता था। ताकि मुझे आजीवन याद रहे। क्यों है याद कि नहीं? मैं वहाँ बैठा हुआ यही सोच रहा था कि भाई के पास चलूँ या अभी यहीं बैठा रहूँ कि तभी छोटा भाई सामने आकर बोला क्यों कहाँ खो गये? मैंने कहा नहीं, कही नहीं, बस यहाँ से हिलने का मन नहीं कर रहा था। सारा सामान भाई ने उठा लिया। और मैं उसके साथ सामने ही सीढियों से उतरता व चढता हुआ, उसके कमरे में जा पहुँचा। वहाँ मैंने सारी रात आराम किया। अगले दिन के बारे में हमने रात में ही यह तय किया था कि गंगौत्री में आसपास जो भी देखने लायक स्थल है पहले कल वे देखे जाये उसके बाद अगले दिन गौमुख जायेंगे।
यहाँ से थोडी देर बाद हमारी बस गंगौत्री पहुँच जाती है। गंगौत्री में जहाँ बस रुकती है उसके ठीक सामने ही नीचे सडक किनारे पुलिस चौकी बनी हुई है। जब मैं बस से नीचे उतरा तो सबसे पहले पुलिस चौकी वाला बोर्ड ही दिखायी दिया था। मेरी नजर चारों ओर घूमने लगी। जैसे-जैसे मैं चारों ओर देख रहा था। पहाडों की मदहोशी मेरे ऊपर हावी होने लगी थी। मन कर रहा था कि छोडो कमरे को, मैं तो बस यही बाहर सडक पर ही बैठा रहूँ। चूंकि पहाड देखने को मेरे पास कई दिन थे अत: मुझे उतावला होने की कोई जल्दी भी नहीं थी। मैं तो धीरे-धीरे प्रकृति के मन लुभावने, दिलकश, नजारे अपनी यादों में समा लेना चाहता था। ताकि मुझे आजीवन याद रहे। क्यों है याद कि नहीं? मैं वहाँ बैठा हुआ यही सोच रहा था कि भाई के पास चलूँ या अभी यहीं बैठा रहूँ कि तभी छोटा भाई सामने आकर बोला क्यों कहाँ खो गये? मैंने कहा नहीं, कही नहीं, बस यहाँ से हिलने का मन नहीं कर रहा था। सारा सामान भाई ने उठा लिया। और मैं उसके साथ सामने ही सीढियों से उतरता व चढता हुआ, उसके कमरे में जा पहुँचा। वहाँ मैंने सारी रात आराम किया। अगले दिन के बारे में हमने रात में ही यह तय किया था कि गंगौत्री में आसपास जो भी देखने लायक स्थल है पहले कल वे देखे जाये उसके बाद अगले दिन गौमुख जायेंगे।
मैंने शाम का खाना खाकर गंगौत्री माँ का मन्दिर देखने की इच्छा जाहिर की, अत: भाई व उसके दो दोस्त भी हमारे साथ हो लिये। हम पुलिस चौकी से पैदल चलते हुए मात्र तीन-चार मिनट में ही मन्दिर तक पहुँच गये थे। सबसे पहले जाकर मूर्ति को जाट देवता की राम-राम कही। फ़िर बाहर आकर आसमान की ओर मुँह उठाकर परमात्मा को ऐसी सुन्दर जगह बनाने का धन्यवाद भी कहा। मन्दिर में रात को आठ बजे के आसपास आरती के बाद प्रसाद (हलुआ) बांटा जाता था। जिसमें बाँटने वाले बन्दे को मैंने देखा कि वह पक्षपात (बदमाशी) कर रहा है। प्रसाद बाँटने वाला बन्दा अपने साथियों को ज्यादा-ज्यादा प्रसाद दे रहा था। जबकि कुछ 7-8 लोग जो लाईन में लग कर प्रसाद ले रहे थे। उन्हे मुश्किल से चम्मच भर हलुआ दे रहा था। उसकी बदमाशी के बारे में भाई के दोस्त ने मुझे पहले ही बता दिया था। अत: जब उसने मुझे भी चम्मच भर हलुआ दिया तो मैंने अकडकर कहा क्यों भई स्टाफ़ वालों को बडा चमचा भर के प्रसाद और अन्जान लोगों को एक छोटी चम्मच भर। यह बदमाशी नहीं चलेगी। इतने में भाई का दोस्त बोल पडा। महाराज यह नये दीवानजी है जरा ध्यान से देख लिया करो। इतना सुनते ही उसने मुझे भी चुपचाप बडा चमचा हलुआ भर के दे दिया था।
मैं पहले कभी पूजा पाठ करने वाले पंडित, पुजारी की बहुत इज्जत किया करता था लेकिन इनकी लूट खसोट वाली कई घटना देखकर, मेरे मन में इनके लिये पहले वाली भावना नहीं रही। इनमें से ज्यादातर ने भगवान की भक्ति को भी धन्धे में बदल कर रख दिया है। आजकल घर पर हवन करवाना हो तो भी पुजारी से पहले ही मोलभाव करना पडता है कि पुजारी जी कितनी दक्षिणा लोगे। लेकिन कहते है ना कि पाँचों अंगुली बराबर नहीं होती, आज भी ऐसे-ऐसे पुजारी जीवित है जो पूजा के लिये कभी अपने मुँह से नहीं माँगते है (इशारा भी नहीं करते) बल्कि कहते है “जजमान जो आपकी श्रद्धा हो वो दे दे, यह तो मेरा कर्म था। और सच में ऐसे पुजारी को देने के लिये हमारी इच्छा कुछ ज्यादा ही प्रबल हो जाती है। ऐसा ही नेक पुजारी मुझे मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में मिला था।
बताऊंगा कभी उसके बारे में भी। पहले गंगौत्री व गौमुख पद यात्रा तो हो जाये।
(कुल शब्द 2047)
बताऊंगा कभी उसके बारे में भी। पहले गंगौत्री व गौमुख पद यात्रा तो हो जाये।
(कुल शब्द 2047)
6 टिप्पणियां:
इसे ही लैंड स्लाइड (भू -स्खलन )कहतें हैं भैये ,देखते ही देखते पहाड़ नीचे आ जाता है यही हाल हिम -स्खलन में भी होता है जिसे कहतें हैं एव्लांश (avalanche )बोले तो पहाड़ों से लुढ़कती हिम चट्टानें .
ram ram bhai
शुक्रवार, 7 सितम्बर 2012
शब्दार्थ ,व्याप्ति और विस्तार :काइरोप्रेक्टिक
जय हो नए दीवान जी की :)
याददाश्त तो गज़ब की है यार, एब तक सब याद है| बहुत आनंद दायक|
खतरों के खिलाड़ी को प्रणाम. यह यात्रा भी जोखिम भरी रही.
रोचक यात्रा, हर्षिल आते ही यात्रा का आनन्द आ जाता है।
Sandeep bhai yatra bahut hi mazedaar chal rahi hai ..Aapne apple kitne liye the mai batata hoon mere hishab se 100 kg to nahi liye the akdam pakka...;-)
....Ram-ram.....
अब हो गया है आपका ब्लॉग झकास मुंबई भाषा में एकदम रापचिक..........
इसे कहते है क्वालिटी विवरण. केवल पढकर मैं जगहों का आनंद ले पा रहा था. पहलगाम तो आपने फिर याद दिला ही दिया हर्षिल द्वारा. हर्षिल के मोटे छिलके वाले सेब का स्वाद हम जरूर चखेंगे और वहा जरूर रूकेंगे. लंका , भैरो घटी और गंगोत्री का वर्णन भी अच्छा है.
” इनमें से ज्यादातर ने भगवान की भक्ति को भी धन्धे में बदल कर रख दिया है ” यह भी अगर सही ढंग से करे तो ठीक ही है इतनी मेहेंगाई में. लेकिन सबसे बड़ा पंगा तो यही बात का है कि धंधे में भी बेईमानी करते है . लेकिन ज्ञान को जो अमल करता है वही सही है वरना केवल ज्ञान का कोई मतलब नहीं.
यह पोस्ट मेरे बहुत काम कि है .
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