बरसूडी गाँव- हनुमान गढी-भैरो गढी यात्रा के सभी
लेख के लिंक यहाँ है। लेखक- SANDEEP PANWAR
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दिल्ली से रात
लगभग दस बजे चलकर यह ट्रेन सुबह करीब छ: बजे कोटद्वार
उतार देती है। पूरी रात में यह ट्रेन जहाँ मात्र 200 किमी की दूरी ही तय करती है
वहीं इतने समय कुछ गाडियाँ तो 500-600
किमी
पार कर जाती है। वैसे भी रात को बस में बैठकर नीन्द खराब करने से यह ट्रेन बहुत
बढिया रही। गाजियाबाद पार करते-करते सभी सोने की तैयारी करने लगे। नटवर भाई के बाल
काफ़ी उड चुके है जबकि मैं बाल आने ही नहीं देता हूँ। नटवर भाई बराबर वाली दो सीटों
वाली साइड पर बैठे थे। उस सीट के ऊपर वाली सीट एक लडकी की थी उसकी उम्र 25-26 साल के आसपास तो रही ही होगी। हम अपनी बातों
में मस्त थे कि उस लडकी ने नटवर भाई को अंकल कहकर कुछ बोल दिया। यह सुनकर कुछ पल
सभा में सन्नाटा छा गया। नट्वर के साथ हम सब चुप कि इसे क्या जवाब दे? इतने में हम
में से किसी ने बोला कि नटवर ये तेरा नहीं,
तेरी मूँछ व तेरी टकली खोपडी का कसूर है। नटवर भाई शुक्र मनाओ कि उसने मुझको ताऊ
ना बोला। वैसे भी किसी को ओये, अरे कहने से अंकल
जी कहना ज्यादा सही है कम से कम बन्दा या बन्दी साथ में जी तो लगाते है।
यह ट्रेन रात में
करीब दो-तीन घन्टे नजीबाबाद स्टेशन पर खडी रहती है। यदि
कोई कुम्भकर्ण की तरह सोने वाला हो तो भी उसकी आँख नजीबाबाद खुल ही जायेंगी। यहाँ के मच्छर आपको सोने नहीं देंगे। यहाँ के मच्छरों ने रेल के डिब्बे में ऐसा कब्जा
जमाया कि कोटद्वार जाकर ही इनसे पीछा छूट सका। मैं इस यात्रा से पहले भी कोटद्वार आ
चुका हूँ। पहली बार रुपकुण्ड यात्रा से वापसी करते हुए मैं और मनु इस रुट से वापिस
लौटे थे। तब हम बिजनौर मेरठ होकर आये थे। कोटद्वार स्टेशन पर उतरते समय अंधेरा था।
जिस कारण बाहर का नजारा दिखायी नहीं दिया। बीनू के पीछे-पीछे हो लिये। यह
स्टेशन भी काठगोदाम वाले की तरह सडक के मुकाबले थोडी गहराई में बना है जिस कारण
स्टेशन से बाहर आने के लिये कुछ सीढियाँ चढकर बाहर आना पडता है। स्टेशन से बाहर
आते ही सौ मीटर चलने पर उल्टॆ हाथ पर यहाँ का बस अड्डा है जहाँ से श्रीनगर, ऋषिकेश या अन्य
स्थलों की सीधी बस मिलती है। बीनू ने बताया था कि यहाँ से हमें द्वारीखाल नामक जगह
की सीधी बस मिल जायेगी। यहाँ कोटद्वार से जो बस सीधी ऋषिकेश जाती है वह द्वारी खाल
होकर ही जाती है।
बीनू बस अडडे के
पूछताछ पर गया तो बताया गया कि वह बस पाँच मिनट पहले जा चुकी है। अब हमें दो बस
बदल कर द्वारीखाल तक पहुँचना पडेगा। कोटदवार से श्रीनगर जाने वाली एक मिनी बस आ
गयी। उस बस वाले से पूछा तो वह हमें गुमखाल तक ले जाने को तैयार हो गया। कोटद्वार
से श्रीनगर 176 किमी लम्बा रुट
है जबकि गुमखाल से हमें ऋषिकेश रुट की बस बदलनी थी गुमखाल कोटद्वार से मात्र 35 किमी दूरी पर ही है। कई बार लम्बे रुट वाली बस,
छोटे रुट की सवारियाँ नहीं बैठाती है इसलिये पहले पता करना सही रहता है। गुमखाल से
ऋषिकेश व श्रीनगर वाले रुट अलग-अलग हो जाते है।
मनु और मैं बाइक पर श्रीनगर वाले रुट से होकर आये थे। इस यात्रा की तैयारी कैसे
करे, जैसा प्रश्न मेरे दिमाग में एक बार भी नहीं आया
था क्योंकि यह यात्रा मैंने ही सुझायी थी इसलिये मैं पहले से ही इस यात्रा की
तैयारी कर चुका था। बस में अभी काफ़ी सीटे खाली थी। मुझे सबसे आगे की या सबसे आखिरी
वाली सीट सबसे ज्यादा अच्छी लगती है। इन दोनों सीटों पर कोई तंग नहीं करता है।
यह बस रास्ते में
काफ़ी ऊँचाई वाले पहाडों से होकर निकलती है। चीड के पेड व उसके वहाँ की जमीन बता
रही थी कि यहाँ बरसात व बर्फ़ गिरने के हालत पैदा होने में देर नहीं लगती होगी। इस
बस से गुमखाल में जिस स्थान पर उतरे उसके ठीक सामने एक अन्य बस खडी थी। वह वही बस
थी जो कोटद्वार से सीधे ऋषिकेश जा रही है। यह बस हमसे कोटद्वार में तो छूट गयी
लेकिन यहाँ से नहीं छूट पायेगी। बस चलने ही वाली थी। बस में घुसकर पता लगा कि
इसमें कोई सीट खाली नहीं है वैसे भी इस बस में मात्र 12 किमी की दूरी ही तय करनी है। अत: सीट ज्यादा जरुरी
भी नहीं है। लगभग 20 मिनट बाद हम इस
बस से द्वारीखाल उतर गये। द्वारीखाल से बीनू के गाँव बरसूडी तक कच्ची सडक बनकर
तैयार हो चुकी है। कुछ महीनों में वह पक्की भी हो जायेगी। अभी तो हमें पैदल ही
जाना होगा। यहाँ से बरसूडी गाँव की दूरी करीब 7 किमी है। अच्छी बात यह है कि चढाई नहीं है।
अमित के पास एक घडी है जो ऊँचाई बता रही है। दवारी खाल की ऊँचाई करीब 1630 मीटर थी जबकि बीनू क गाँव की ऊँचाई करीब 1300 मीटर ही निकली। यह ऊँचाई ठन्ड में बर्फ़ गिरने वाली
नहीं होती है बर्फ़ लगभग 2000 मीटर के आसपास
के पहाडॊं पर आरम्भ होती है।
द्वारीखाल से ही
हनुमान गढी (1845 मी) की दूरी दो किमी है यहाँ द्वारीखाल से शुरु में
थोडी सी चढाई वाला ट्रैक आरम्भ होता है। जो भैरो गढी (1880 मी) तक पहुँचा देता है। हनुमान गढी से भैरव गढी की
दूरी करीब तीन किमी है। वहाँ से सीधा दो किमी के ढलान में सडक पर कीर्तिखाल (1625 मी) उतर सकते है।
कीर्तिखाल से द्वारीखाल की सडक दूरी लगभग 6 किमी है। दिल्ली से कोटद्वार का रेल का किराया 185 रु है जबकि कोटद्वार से द्वारीखाल का बस का
किराया मात्र 70 रु ही है। द्वारीखाल
से बरसूडी की सडक से दूरी करीब 9 किमी है जबकि
पैदल मार्ग से दो किमी कम हो जाते है। द्वारीखाल बस से उतर कर सडक पार करते ही
सामने ऊपर की ओर चढाई पर छोटा सा बाजार है इसी बाजार में घुसते ही खाने-पीने की कई
दुकाने है। यदि किसी को कुछ अन्य सामान चाहिए तो यही से ले लेना। हमारे दोस्तों ने
भी आलू, बिस्कुट, दाल, चावल आदि जरुरी
सामान यही से ले लिया था।
चाय पीने वाले
दोस्तों ने एक-एक कप चाय भी पी। सुबह के साठे आठ बज चुके थे। गांव अभी सात किमी
दूर है पैदल जाने में दो घन्टे का समय लग जायेगा इसलिये तय हुआ कि यही नाश्ता करके
चलते है क्योंकि गांव में जाकर भी तो खुद ही बनाना ही पडेगा। उसमें भी घन्टा भर लग
ही जायेगा। यहाँ एक दुकान पर आलू की स्वादिष्ट सब्जी के साथ गर्मागर्म रोटियाँ
बनवाकर खायी गयी। किसी ने कहा भी है पहले पेट पूजा, उसके बाद काम दूजा। जैसे खाली
दिमाग शैतान का घर कहा जाता है उसी तरह खाली पेट चूहे का मैदान बन जाता है। मैदान
है तो जाहिर है धमाल-चौकडी मचनी ही है। खाली बैठकर धमाल करना हो तो समझ आता है
लेकिन पैदल चलते हुए धमाल मचाना ठीक नहीं है। खाना खाने के बाद चाय वाली दुकान से
पीने के पानी के लिये अपनी बोतले भर ली गयी। मैं दो लीटर की पानी की बोतल दिल्ली
से घर से ही लेकर आया था। उसमें अभी भी आधा लीटर पानी बचा हुआ था वह मेरे लिये
बहुत था। वैसे मैं भूखा पूरे दिन चल सकता हूँ लेकिन बिन पानी के सोच भी नहीं सकता!
इसी 5-7 दुकानों वाले बाजार में उल्टे साथ पर एक पतली
सी गली बरसूडी की ओर जाती है। इस पर चलते ही भारतीय स्टेट बैंक दिखायी दे जाता है।
इस बैंक से बराबर से होकर आगे बढते है। यहाँ बीनू ने बताया कि कुछ साल पहले इस
बैंक की दीवार तोड कर चोरी हो गयी थी। पहाड में दीवार तोडने वाले चोर भी रहते है।
यह सुनकर थोडा अजीब लगा। लेकिन क्या कर सकते है? खराब नीयत वाले तो स्वर्ग में भी
मिल जाते है। खैर बुराई ना कभी किसी से मिटी है ना कभी मिटाई जा सकेगी। इतिहास
उठाकर देख लो सारा इतिहास जोर जबरदस्ती के उदाहरणों से भरा पडा है। जिसकी लाठी
उसकी भैंस की कहावत ऐसी थोडे ना बनी होगी? द्वारीखाल से कच्ची सडक का मार्ग भी
लगभग बन गया है। अगर अपनी बाइक से जाओगे तो घर तक पहुँच जाओगे। हमारे पास ना कार
थी ना बाइक अत: पैदल पगडन्डी पर चलते रहे। इस मार्ग में चढाई नहीं के बराबर ही है
बल्कि उतराई ज्यादा है। पगडन्डी पर चलते समय पहाड की ट्रेकिंग का भूरा आभास हो
जाता है।
इस पगडन्डी पर
लगभग एक डेढ किमी चलने के बाद गाडी चलने वाली कच्ची सडक पर आ ही गये। मैं सोच रहा
था कि यहाँ से पगडन्डी सडक कि दूसरे किनारे से कही आगे-पीछे से जारी रहती होगी,
लेकिन पगडन्डी यहीं समाप्त हो गयी। अब इसी कच्ची सडक पर ही गांव तक की यात्रा थी।
द्वारीखाल से करीब तीन किमी आने के बाद एक ऐसी जगह आती है जहाँ पर बडी गाडियाँ
आती-रहती है। यहाँ पर एक गांव भी है नाम याद नहीं है। थोडा और आगे बढे तो पहाडों
की पहचान चीड का मस्त जंगल शुरु हो गया। इस जंगली मार्ग में चलने का अलग ही मजा
है। नटवर और मैं एक दूसरे के फ़ोटो लेते हुए जा रहे थे। बाकि साथी भी फ़ोटो लेने में
पीछे नहीं थे। इस मार्ग में सफेद रंग के फूल वाले पेड बहुत दिखायी दिये। पता लगा
कि ये आडू के पेड है। अभी तो फ़ूल आया हुआ है कुछ दिन में इन पर फ़ल आयेगा।
एक जगह चीड के
पेड के गिरे हुए गुच्छे काफ़ी मात्रा में दिखायी दे रहे थे। इन गुच्छों को देखकर
यहाँ आने वाले हर बन्दे का मन बचपन में लौट ही आता है। हम तो बचपन को हमेशा साथ लेकर
चलते है। इसलिये इन्हे देखते ही मस्ती करनी ही थी। पहले तो कई सारे गुच्छे उठाये।
उसके बाद इन्हे लेकर फ़ोटो खिचने लायक बढिया जगह देखते हुए आगे चलते रहे। जल्दी ही
बीनू का गाँव दिखायी दे गया। यहाँ एक जगह बैठकर इन गुच्छों को लेकर कई फ़ोटो
खिचंवाये गये। मैं कई बार कोशिश की थी कि एक फ़ोटो टकले सिर पर रखकर भी हो जाये। कई
बार गुच्छा सिर पर रखा भी था लेकिन तीन बार गुच्छा लुढक कर खाई में चला गया। अब
हमारे पास आखिरी मौका था जिसमें मेरे सिर पर गुच्छा रखा होने के साथ दोनों हाथों व
दोनों घुटनों पर भी था। शुक्र रहा है कि आखिरी में सिर वाला गुच्छा खाई में नहीं
गिरा नहीं तो सिर पर गुच्छे वाला फ़ोटो
नहीं ले पाते। नटवर का कैमरा भी कमाल का था। पहले फोक्स बनाने के लिये बटन को थोडा
दबाना पडता था जिससे वह ऐसा लगाता था जैसे किसी को देखकर आँख मार रहा है। इस बारे
में नटवर को कहा भी कि तुम्हारा कैमरा आँख मारता है यह किसी महिला से पिटवा कर रहेगा।
फ़ोटो लेकर बीनू के गाँव की ओर चल पडे। गाँव अभी दो किमी बाकि होगा। मार्ग में कई
महिलाये हमारी ओर आती हुई मिली। ये सब बीनू को जानती थी। शायद बीनू की बुआ या ताई
थी। लगभग 11 बजे गाँव पहुँच गये। (क्रमश:)
14 टिप्पणियां:
बढ़िया देवता। नटवर भाई की मूछों के सभी पीछे पड़ गए।
चलते चलो आनंद आ रहा है,इन पलों को खोने का बहुत मलाल है। पर साथ ही ख़ुशी है कि आपके द्वारा इन यादगार पलों के हम भी साक्षी बन रहे हैं। एक और मजेदार यात्रा।
जाट देवता जी राम राम।
आपकी लेखन में वही चुलबुला पन नजर आ रहा है, ये कौन सा आसन कर रहे हो।
आप ऐसी जगह जा पहुचे है जो अभी तक अंजान है, आशा है की आप इस जगह के बारे मे विस्तार से बताएगे।
मेरा जाना काफी पहले ही निश्चित था इसकी सुचना ग्रुप में भी दी थी .. तो मैंने सोचा राजस्थान से जा रहा हूँ तो गांव में भी लगे कोई राजस्थानी आया हैं . तो उसी दिन से नाई को बोल दिया मूछ रखनी हैं ..
जब से आपके ब्लॉग पढ़ रहा हूँ . .तब से मैंने सोच रखा था कि एक ट्रेकिंग आपके साथ करूँगा और बीनू भाई ने यह सच कर दिया अपने गांव जाने का प्रोग्राम बना के .. आप सब का काफी सहयोग रहा और मुझे पूरी यात्रा में कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं अपने परिवार से दूर हूँ और आते वक़्त आपके साथ मुझे पूरा दिन रहने का मौका मिला .. सभी का धन्यवाद् मुझे इस यात्रा का सहभागी बनने का मौका दिया ..मेरी सबसे यादगार ट्रेक में यह ट्रेक रहेगी ..
जैसे जैसे यात्रा आगे बड़ रही है इसमें एक रवानी आती जा रही है। आशा है कि अगली कड़ी में इस यात्रा में गए सदस्यों और बीनू के गाँव के कुछ अनसुने पक्ष भी सामने आएंगे जो अन्य घुम्मकड़ों को भी इस तरह के यात्रा प्रोग्राम बनाने में मदद करेंगे।
Hahaha
संदीप भाई आपका का ब्लॉग बढ़ कर हमेशा ही ऐसा लगता है की हम लोग भी साथ में यात्रा कर रहे हैं। ये सब आपकी शैली का ही चमत्कार है । और एक आप है की आप लिखना ही नहीं चाहते। पिछले एक साल से हर रोज आपका ब्लॉग खोल कर देखता हु की शायद आप ने कुछ लिखा हो।आशा करता हु की आप आगे लिखते रहेगें
सच कहा आपने चीड़ के पेड़ के गुच्छो को देखकर किसी का भी बचपन लौट आयेगा।रही बात चोरी की तो चोर तो कहीं भी मिल जायेंगे। गुमखाल में अचानक पड़ने वाली बर्फ की साक्षी में भी रही हूँ।
गंजो का जमाना है भाई ... अब तो बीनू के गाँव पहुँच गए ....जय हो -^-
जाट देवता की अपनी विशिष्ट शैली में लिखा गया बढ़िया वृतांत । सुन्दर जगह है बीनू का घर
एक अनजान सी जगह अब पॉपुलर होने लगी है और इसका श्रेय जितना बीनू को है उतना ही आप लोगों को भी ! ये प्रयास लगातार बना रहे तो बेहतर ! संदीप भाई सही बैलेंस बनाया है आपने फोटो में ! क्या है वो जो आपने सर पर रखा हुआ है ? आड़ू के पेड़ को पहली बार देखा है !!
पढ़ने में मजा आ रहा है संदीप भाई, ऐसे ट्रैक ज्यादा बढ़िया लगते हैं। देखकर अभी तो लग रहा है हम जैसे ढीले ढाले लोग भी ट्राई मार सकेंगे :)
सही है बीनू भाई का गाँव प्रसिद्ध हो गया है। ऊपर से संदीप भाई आप का लिखने का स्टाइल एक दम मस्त है।
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