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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

NAUKUCHIATAL LAKE नौकुचियाताल झील


भीमताल देखने के लिये यहाँ चटका लगाये।
भीमताल देखने के बाद अब "नौकुचियाताल" की ओर चलते है, भीमताल के मुख्य बिन्दु के ठीक सामने से ही एक मार्ग भीमताल के विपरीत दिशा यानि कि पूर्व की ओर जाता हुआ दिखाई देता है यहाँ एक बोर्ड भी लगा हुआ है जिस पर नौकुचियाताल की दिशा में तीर बना कर जाने के बारे में लिखा हुआ भी है। यहाँ से यह ताल 5 किमी के आसपास है। भीमताल से चलते ही लगभग 100 मी की ठीक-ठाक चढाई आ जाती है। इसके बाद आगे का मार्ग साधारण सा ही है जिस पर वाहनों की रेलमपेल भी कोई खास नहीं थी। मार्ग के एक तरफ़ यानि उल्टे हाथ की ओर पहाड थे जबकि सीधे हाथ की ओर ढलान थी। मार्ग में जगह-जगह नये भवनों का निर्माण कार्य चल रहा था एक जगह तो बोर्ड भी मजेदार लगा हुआ था कि यह आम रास्ता नहीं है। बीच में एक जगह जाकर मार्ग में काफ़ी ढलान थी जिस पर वापसी में चढने में काफ़ी जोर भी लगाना पडता है। मार्ग के दोनों ओर अच्छी हरियाली थी जिसे देखता हुआ मैं अपनी मस्ती भरी चाल से आगे बढता जा रहा था। ताल से कोई दो किमी पहले एक बोर्ड नजर आया था जिस पर ताल की खूबियाँ आदि लिखी हुई थी मैं समझा कि ताल नजदीक ही है लेकिन काफ़ी दूर चलने पर भी ताल तो दिखाई नहीं दी बल्कि हनुमान जी की एक विशाल  मूर्ति दिखाई दी।
यह बोर्ड आम लोगों के लिये चेतावनी है।

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

"SAMPLA BLOGGER MEET साँपला ब्लॉगर मिलन समापन किस्त "


सांपला सम्मेलन का पहला भाग देखना चाहते हो तो यहाँ क्लिक करे

हॉल में सभी अपना परिचय देते हुए।

तीन बजे तक लगभग सभी मिलन समारोह स्थल पर आ चुके थे जो दो चार लेट-लतीफ़ थे बस वहीं रह गये थे। जो पहले ही समय से आ गये थे उनमें खूब विचार विमर्श हुआ। जो देरी से आये उनको सिर्फ़ जरुरी विचार विमर्श से काम चलाना पडा था। ठीक एक बजे चाय के साथ पनीर वाले ब्रेड, बिस्कुट का प्रबन्ध किया गया था जिसका वहाँ उपस्थित बंधुओं ने पूरा लुत्फ़ उठाया था। इसके बाद अन्दर विशाल हॉल में सबका एक दूसरे से परिचय हुआ। सबने अपना परिचय स्वयं दिया था। नाम से हम सभी को जानते ही थे चेहरे से भी सभी को जाना-पहचाना, कईयों को तो मैं तो पहचान ही नहीं पाया था। जितनी महिला ब्लॉगर वहाँ आयी हुई थी उनमें सबसे अच्छी आदत मुझे ईन्दु पुरी जी की लगी। ईन्दु जी में अपनापन झलक ही नहीं रहा था बल्कि उनका व्यवहार  माँ बहन सरीखा ही था। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि किसी महिला से मैं या कोई और पहली बार मिल रहा हूँ। जिस समय मैंने अपना परिचय दिया कि मैं हूँ जाट देवता तो उस समय ईन्दु जी के चेहरे की आश्चर्य जनक खुशी देखने लायक थी। यहाँ से पहले मैं संजय अनेजा जी, बाबा जी, संजय भास्कर जी, केवल राम जी, अन्तर सोहिल जी से मिल चुका था। लेकिन यहाँ एक बार फ़िर सबसे मिलकर बेहद खुशी हुई है। यहाँ एक गडबड हो गयी कि मैं राकेश कुमार जी को नहीं पहचान पाया जब राकेश जी ने कहा और भई जाट देवता क्या मौज हो रही है? तब दिमाग पर जोर डालकर याद आया कि अरे यह तो अपने जिले के ही रहने वाले राकेश कुमार जी है। इसके बाद तो मैं खुशी से राकेश जी के गले लग गया था। 

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

SAMPLA BLOGGER MEET साँपला ब्लॉगर मिलन 1


यह साँपला का रेलवे स्टेशन है।

साँप ला, साँप ला, साँप ला, साँप ला, साँप ला, "साँपला" नाम ऐसा कि जैसे कोई साँप ला रहा हो यहाँ आने से पहले मैंने भी यही सोचा था कि यहाँ जाने के लिये साँप लेकर जाना होगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं था हमारे घर लोनी से पुरानी दिल्ली से होती ट्रेन सीधी साँपला तक जाती है बल्कि उससे आगे रोहतक तक भी जाती है। मुझे तो साँपला में ब्लॉगर मिलन में जाना था अत: अपुन तो साँपला के रेलवे स्टेशन पर उतर गये, यहाँ स्टेशन से बाहर निकास वाले द्धार पर अन्तर सोहिल जी व्यंजना शुक्ला जी को लेने के लिये आये हुए थे। व्यंजना जी लखनऊ से आयी थी। मैंने दोनों को देख लिया था लेकिन अन्तर सोहिल जी ने मुझे/मेरी ओर नहीं देखा। मैं उन दोनों के पीछे जाकर खडा हो गया। अब देखो कमाल कि जैसे ही ये दोनों वहाँ से चलने लगे तो ये मेरे पीछे से घूमकर निकल चले मैंने पीछे से अन्तर सोहिल जी की स्वेटर पकड ली लेकिन मेरा चेहरा उनकी तरफ़ नहीं था। जैसे ही सोहिल जी ने मेरा चेहरा देखा तो उनके चेहरे की खुशी शब्दों में ब्यान नहीं की जा सकती है, हम दोनों खुशी से एक-दूसरे के गले से लिपट गये। बल्कि सोहिल जी जो कि खुद 60-65 किलो वजन के ही है मुझे 77-78 किलो वजन को गले लिपटे-लिपटे ही उठा लिया था।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

BHIMTAL भीमताल (दर्शन) , भाग 4


भीमताल भाग 1 दिल्ली से भीमताल
भीमताल भाग 2 ओशो आश्रम
भीमताल भाग 3 ओशो दर्शन/प्रवचन
भीमताल आने के बाद रहने-खाने का प्रबन्ध तो ओशो आश्रम में हो ही गया था। पहला आधा दिन बिल्कुल ठाली बैठ कर बिताया गया था, अगले दिन सुबह का खाना खाकर मैं तो निकल पडा अपनी इच्छा पूरी करने। कल से भीमताल नजरों के सामने दिखाई दे ही रहा था अत: सबसे पहले इसे ही देखना था। सडक पर आते ही सबसे पहले इस ताल के किनारे यहाँ का भीमताल का पुलिस थाना आता है। पुलिस थाना भीमताल के एकदम सटा हुआ है बीच में सडक ही है। थाने से आगे चलते ही एक तिराहा आता है जहाँ से उल्टे हाथ जाने पर भवाँली होते हुए नैनीताल व अल्मोडा की ओर जाया जाता है भीमताल से नैनीताल व काठगोदाम 22 किलोमीटर तथा अल्मोड़ा 64 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यदि इसके विपरीत सीधे हाथ पर जाये तो भीमताल के साथ-साथ एक किमी से भी ज्यादा चलना होता है। मैंने वो सवा किमी की दूरी लगभग 30-35 में तय की होगी। मैं मजे से इस ताल के दर्शन करता हुआ आगे टुलक-टुलक बढ रहा था। पैदल टहलते हुए यह साफ़ दिखाई दे रहा था कि भीमताल एक त्रिभुजाकर आकृति/आकार की झील है। इस ताल के आखिरी छोर पर जाने के बाद एक बाँध दिखाई देता है जहाँ से गौला नदी की शुरुआत होती है जो आगे जाकर दूसरी नदी में मिल जाती है। इस बाँध पर आगे चलते हुए एक मन्दिर दिखाई देता है जिसके बारे में पता चला कि यह प्राचीन भीमेश्वर महादेव का मन्दिर है। यह मन्दिर भीम या किसी और ने व किसकी याद में बनाया, यह तो पता नहीं लेकिन यहाँ पर पूजा-पाठ लगातार हो रही है।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

BHIMTAL भीमताल, भाग 3, (सम्भोग से समाधी तक)

इस यात्रा की शुरु से सैर करने के लिये यहाँ क्लिक करे।
भीमताल के ओशो कैम्प के प्रवचन हॉल में मुझे सिर्फ़ दो प्रवचन में बैठने का मौका मिला जिससे काफ़ी कुछ सीखने को मिला। यह मैं पहले ही बता चुका हूँ कि मेरी दिलचस्पी ओशो के प्रवचन में कम तथा वहाँ के ताल घूमने में ज्यादा थी। वैसे यहाँ का कैम्प इतनी प्यारी जगह बना हुआ है कि अगर कोई कैम्प में शामिल भी ना होना चाहे तो भी उसको वहाँ दो-चार दिन बिताने में कोई परेशानी नहीं है। ओशो कैम्प में एक बात अजीब लगी कि वहाँ पर परायी औरतों को माँ कहकर बुलाया/पुकारा जाता है। वैसे उस समय मैंने यह ध्यान नहीं दिया था लेकिन अब सोचता हूँ कि अपनी घरवाली को क्या कहकर पुकारा जाता होगा? किसी को मालूम हो तो बताने का कष्ट करे। मैं दिन में तो वहाँ ठहरता ही ना था, लेकिन अपने दोनों सहयात्री तो सिर्फ़ ओशो के नाम से ही आये थे। उन्होंने वहाँ के प्रवचन के बारे में जमकर लाभ/आनन्द उठाया था। वहाँ पर मेरे दूसरे प्रवचन के दौरान संचालक/स्वामी ने एक बार कहा कि अब सबको खुलकर रोना है, तो सचमुच वहाँ पर सभी लोग (जाट देवता को छोडकर) खुल कर रोने लगे थे। मैं उन्हें रोता देख हैरान हो रहा था कि आखिर यहाँ ऐसा क्या कमाल है? लेकिन थोडी देर बाद अगले प्रवचन में बारी आयी हसँने की तो सभी खुलकर हसँने लगे थे यहाँ सबको हसँता देख मैं भी उनमें मुस्कुराता हुआ शामिल हो गया था। । 
ओशो भक्त एक ऊँची जगह से भीमताल का अवलोकन करते हुए।

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

BHIMTAL भीमताल, भाग 2 (सेक्‍स sex को दबाए नहीं, उसे समझें)


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भीमताल के ओशो कैम्प में जाने के बाद हम तीनों में अन्तर सोहिल ने अपनी पहचान दिखा कर वहाँ के अभिलेख में अपना नाम-पता प्रविष्ट कराया। उनके द्धारा वहाँ की तय फ़ीस जमा की जो हम तीनों की 4500 रु तीन दिनों के लिये थी। दोपहर में हम पहुँचे ही थे। कुछ समय इधर-उधर घूमने में बिताया गया उसके बाद शाम को वहीं ओशो आश्रम में प्रवचन कक्षा में हमने भी भाग लिया था वैसे मैं सुबह-शाम की कक्षा में भाग लेने की सोच रहा था लेकिन वहाँ के स्वामी जी ने पहली सभा में ही फ़रमान सुना दिया कि सही कपडों (वेश भूषा) के बिना किसी को कक्षा में हिस्सा नहीं लेने दिया जायेगा। ये बात अपने को खटक गयी जिससे मैंने सिर्फ़ दो कक्षा के बाद सुबह-शाम कमरे में लेटकर आराम किया था। तीन दिनों के कैम्प में 15-16 बन्दे थे जिसमें से 5-6 बन्दी भी थी। सभी औरते भी अपने-अपने पति के साथ ओशो कैम्प में भरपूर ज्ञान उठा रही थी। वैसे मैंने ये देखा कि इन कैम्पों में इन्सानों के जीवन में बिताये जाने वाले पलों के बारे में खुल्लम-खुल्ला बताया जाता है। इन प्रवचन का एक ही उद्धेश्य देखा कि कैसे भी हो हर हालात में खुश रहना चाहिए। कभी-कभी तो मेरे जैसे बन्दे शरमा जाते थे। लेकिन जो लोग ऐसे कैम्प के अनुभवी है उन पर कोई फ़र्क नहीं पड रहा था। कैम्प में सुबह सबको चाय, बिस्कुट, नमकीन आदि दिया जाता था दोपहर को खाना ठीक एक बजे दिया जाता था, शाम को खाना ठीक आठ बजे दिया जाता था मैंने दोपहर का खाना एक बार भी नहीं खाया क्योंकि दोपहर को मैं किसी ना किसी ताल पर भ्रमण करने चला जाता था। पूरे दिन में 2-2 घन्टे की तीन कक्षा होती थी जिसमें प्रवचन के साथ योग आदि का समायोजन रहता था। प्रवचन में रोमांस, उत्तेजना, शिक्षा, जोश, होश जैसी भावना रहती थी।

भीमताल में ओशो कैम्प का बोर्ड जो सडक पर उल्टे हाथ लगा हुआ है।

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

BHIMTAL भीमताल, भाग 1

अब तक सुनते आये थे कि तालों में ताल नैनीताल, भीमताल, नौकुचियाताल, सातताल जैसी कई ताले है जो कि नैनीताल के आसपास फ़ैली हुई है। इन सब तालों को देखने की इच्छा कई सालों से मन में हिलोरे मार रही थी। वैसे तो मैं भारत में बहुत सी जगह घुमक्कडी कर चुका हूँ लेकिन अभी तक मेरा चक्कर उतराखण्ड के कुमायूँ क्षेत्र में नहीं हुआ था। बनारस से आते ही सोच लिया था कि जैसे भी हो अबकी बार तो नैनीताल का एक चक्कर जरुर लगाना ही है। अपने एक ब्लॉगर बंधु जो अन्तर सोहिल के नाम से लिखते है। एक बार मैंने उन्हें नैनीताल के घूमने की इच्छा बतायी तो उन्होंने कहा कि अगर आप भीमताल आदि देखना चाहते हो तो मैं भी साथ चलूँगा। अन्तर सोहिल जी जो कि ओशो के आश्रम में जाकर वहाँ पर उनकी शिक्षा का आनन्द उठाते रहते है। उन्होंने बताया कि भीमताल में एक ओशो आश्रम है जिसमें जुलाई की दिनांक 15.06.2011 से तीन दिन का कैम्प लगने जा रहा है। मैंने सोचा कि अच्छा मौका है दो जानकारी एक साथ देखने को मिलेगी। पहली प्राथमिकता तो वहाँ घूमने की ही थी, दूसरी ओशो के आश्रम के बारे में जानने का मौका था कि आखिर ओशो आश्रम में क्या होता है लगे हाथ ये भी समझने का मौका मिलेगा। पहली बार तो हम दोनों का ही जाने का कार्यक्रम बना हुआ था। जिस कारण मैं तो अपनी नीली परी पर जाने की खुशी में तैयार ही था। लेकिन जिस दिन हमें जाना था उससे एक दिन पहले अन्तर सोहिल जी का फ़ोन आया उन्होंने कहा जाटदेवता जी एक दोस्त और साथ हो लिया है अब बाइक पर कैसे जायेंगे। बाइक एक; जाने वाले तीन मामला वाकई परेशानी करने वाला था। आखिरकार इसका समाधान निकला कि बाइक से ना जाकर बस से जाया जाये। तब तय हुआ कि रात के ठीक 9 बजे आनन्द विहार बस अडडे पर मिलते है वहाँ से रात की बस में बैठकर भीमताल चला जाये।
भीमताल के थाने के पास लिया गया फ़ोटो है।

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

DEHRADOON TO DELHI देहरादून से दिल्ली

हर की दून बाइक यात्रा-
चकराता से देहरादून तक आने में पूरे 3 घन्टे लग गये थे। देहरादून के स्टेशन पर ठीक 11 बजे पहुँचे, वहाँ रेलवे आरक्षण केन्द्र पर भीड देखकर सांगवान के होश ही उड गये। फ़िर भी उसने प्रयत्न जारी रखा कि कैसे भी बात बने, लेकिन पूरे एक घन्टा बीत जाने पर भी जब किसी तरह भी उम्मीद नहीं रही कि अब काऊंटर बाबू तक पहुँचने में अभी घन्टा और लग जायेग, तो सांगवान बाहर आ गया, मैं भी घन्टे भर से अपनी बाइक पर बैठा-बैठा सांगवान को मन ही मन में उल्टी-सीधी बके जा रहा था कि बडा आया पैसे बचाने के लिये अब 12 बजने वाले है लगता है कि अब शाम 7:50 बजे की राजधानी भी निकल जायेगी। राजधानी का टिकट तो तत्काल में कराया गया था उसके तो टिकट वापसी में कुछ भी नहीं मिलने वाला था। अब सांगवान ने वो टिकट वहाँ के पार्किंग वाले को मुफ़्त में देने की कोशिश की, लेकिन उसने भी यह कहकर टिकट नहीं लिया कि इतनी भीड में कौन लाईन में लगेगा। आखिर सांगवान ने गुस्से में वो टिकट वहीं फ़ाड दिया, टिकट फ़ाडा यानि पूरे 450 रु गये काम से। 

देहरादून स्टेशन के बाहर का फ़ोटो है, ठीक 12 बजे लिया गया था।

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

LARGEST PINE TREE TRUNK IN ASIA एशिया का सबसे मोटा चीड/देवदार पेड/वृक्ष


   इस यात्रा का पहला भाग यहाँ है।                               इस यात्रा का इस पोस्ट से पहला भाग यहाँ है।

एशिया के सबसे लम्बे पेड की समाधी देखने के बाद आज रात तक चकराता से आगे पौंटा साहिब के पास तक जाने का इरादा था। लेकिन यही(लम्बे पेड के पास) शाम के चार बजने वाले थे, जिस कारण चकराता पहुँचना सम्भव नहीं दिख रहा था। लम्बे पेड के पास मुश्किल से 15-20 मिनट रुकने के बाद हम अपने आगे से सफ़र पर चल दिये थे। हम अभी कोई 8-10 किमी ही गये होंगे कि तभी एक बोर्ड नजर आया जिस पर कुछ लिखा था। बाइक रोकने के बाद देखा तो उस पर लिखा था, हनोल देवता प्राचीन शिव मंदिर। ये मन्दिर कोई 1500-1600 वर्ष पुराना बना हुआ है। इसके बारे में एक विशेष बात और पता चली कि उतराखण्ड सरकार इसको यमुनौत्री, गंगौत्री, केदारनाथ व बद्रीनाथ के साथ पाँचवे धाम के रुप में अगले सीजन यानि 2012 में प्रचारित करने जा रही है। यह मन्दिर सडक से सौ मी की दूरी पर ही है, सडक के साथ ही एक विश्राम भवन भी बना हुआ है जो कि यहाँ आने वाले लोगों के बहुत काम का है अगर कोई यहाँ आना चाहता है तो यहाँ तक आने व रुकने में कोई समस्या नहीं है। मैंने दूर से भगवान जी को जाट देवता का नमस्कार किया व फ़िर कभी आमने-सामने होने की कह आगे की ओर चल दिया। आप भी सोच रहे होंगे कि इस मन्दिर को क्यों छोडा? बताता हूँ अगर मैंने इसे भी देख लिया होता तो अगली बार यहाँ इतनी दूर आने का कोई कारण नहीं रहता।  
ये है भारत का सबसे मोटा चीड का पेड।

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

TALLEST TREE IN ASIA एशिया का सबसे लम्बा चीड महा वृक्ष/पेड

हर की दून बाइक यात्रा-
हर की दून से वापसी में आते समय हम उसी मोरी नामक जगह आ गये थे, जहाँ पर हमने जाते समय सांगवान को चाय पिलायी थी। इस जगह से एक मार्ग सांकुरी, तालुका, गंगाड, ओसला, सीमा होते हुए हर की दून की ओर जाता है। दूसरा मार्ग पुरोला, नौगाँव, नैनगाँव, यमुना पुल, विकासनगर, हर्बटपुर, की ओर जाता है, जहाँ से होते हुए हम यहाँ तक आये थे। अब बचा तीसरा मार्ग जो कि मोरी से त्यूनी की ओर जाता है मोरी से त्यूनी 30 किमी की दूरी पर है। वापसी में भी सांगवान ने पुन: यहाँ उसी दुकान पर चाय पी थी, जिस पर जाते समय चाय पी थी। 
महावृक्ष तक जाने का मार्ग दिखाई दे रहा है।

सोमवार, 21 नवंबर 2011

HAR KI DOON हर की दून, भाग 5

हर की दून बाइक यात्रा-
हर की दून से वापसी में कुछ दूर चलते ही एक मैदान नुमा ढलान आ जाती है जिस पर अपने जोडीदार को पता नहीं क्या ऊपाद सूझी कि वह अचानक से भागने लगा, मैं समझा था कि फ़िर से कोई जंगली जीव दिखाई दिया है, अत: मैं भी कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे भागा और उसको रुकने को कहा। मैंने उसे भागने का कारण पूछा, जब उसने अपने भागने का कारण बताया तो मैंने अपना सिर पकड लिया। आप सोच भी नहीं सकते कि सांगवान क्यों भागा था। चलो बताता हूँ सबसे पहले धर्मेन्द्र सांगवान की जोरदार बढाई करता हूँ कि बन्दा पहली बार किसी पैदल भ्रमण पर आया था और देखो कि पहली बार में ही कितने जबरदस्त व खतरनाक रोमांचक स्थल पर आना हुआ। यहाँ से पहले सांगवान केवल हरिद्धार व ऋषिकेश से आगे नहीं गया था। जब भाई ने कोई खास पहाडी यात्रा भी नहीं की तो उसे पता ही था कि पहाड पर कैसी-कैसी आफ़त आती है। वो तो शुक्र रहा कि पहले दिन मात्र 14 किमी पैदल चले थे, मैं तो उसी दिन हर की दून चला जाता यदि वहाँ रहने का पक्का प्रबंध होता। अब ये ठीक ही रहा सांगवान के हिसाब से कि हम पहले दिन मात्र 14 किमी चलने पर ही रुक गये थे यदि हम उसी दिन आगे चले जाते तो भाई का तो काम पहले दिन ही हो गया था। वैसे मैंने पहले पूछा भी था कि पैदल चलने का कुछ अभ्यास भी किया है कि नहीं, मुझे बताया कि मैं प्रतिदिन 7-8 किमी तो पैदल चल ही लेता हूँ, अत: मैं पूरी तरह आश्वस्त था कि हर की दून की पैदल यात्रा में हम दोनों को कोई समस्या नहीं आयेगी। दूसरे दिन की पैदल यात्रा में हमे ओसला/सीमा से हर की दून जाकर वापस ओसला तक तो आना ही था, अगर हम ओसला दिन 4 बजे तक भी आ जाते तो रात में ताल्लुका रुकने की सोच सकते थे।

यह झरना उसी जगह था जहाँ भालू नजर आया था।

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

HAR KI DOON हर की दून, भाग 4

हर की दून बाइक यात्रा-
भालू शब्द पर पिछला लेख अधूरा छोडा था, बात ही कुछ ऐसी थी कि जब हम हर की दून से कोई एक-दो किमी पहले ही होंगे तभी मुझे भालू के पाँव के ताजा निशान नजर आये, दिमाग में तुरन्त भारी उथल-पुथल मच गयी कि यार आज मारे गये भालू के हाथों, लेकिन हम भी ठहरे पूरे ऊँत खोपडी के जाट, बिना लडे हार मानने वाले तो हम भी ना थे, सबसे बडी बात जो उस समय थी कि हम दोनों में से कोई भी जरा सा भी नहीं थका हुआ महसूस नहीं कर रहा था, अत: भालू के निशान देखते ही सबसे पहले मैंने चारों और नजर घुमायी, भालू नजर नहीं आ रहा था, लेकिन ये भी पक्का था कि भालू कहीं आस-पास ही मौजूद था जिस कारण मैंने सांगवान को कहा देख भाई ये है भालू की निशानी, अब बता: लड कर जीतने की कोशिश करेगा या चुपचाप भालू का खाना बनना है, तो सांगवान ने कहा कि अब करना क्या है? उस जगह जहाँ हम खडे हुए थे एकदम घनघौर जंगल था मार्ग के नाम पर मुश्किल से दो फ़ुट की पगडंडी ही थी, सबसे पहले हमने एक लठ जैसी लकडी तलाश की, जो कि सांगवान को दे दी, साथ ही हम दोनों ने 5-5 पत्थर अपनी पतलून की जेब में भी भर लिये और जितने हो सकते थे उतने अपने-अपने हाथ में भी ले लिये। इतना सब करने के बाद हमने सामने दिखाई दे रहा लकडी का पुल पार किया, भालू जरुर यहाँ पर पानी पीने के लिये आया होगा, जिस कारण उसके पैरों के निशान यहाँ पुल के पास नजर आये थे। अब तक तो हम खूब धमाधम करते हुए आ रहे थे, लेकिन अब अचानक दोनों को जैसे साँप सूँघ गया हो। हम चुपचाप धीरे-धीरे चलते रहे, तेज ना चलने के दो कारण थे। पहला कि तेज चलने से हमें भालू की आवाज नहीं सुन पाती, दूसरा जंगली जानवर तेज चलने व डर कर भागने वाले प्राणी पर आसानी से हमला कर देते है। अगर आप हिम्मत करके जंगली जानवर के सामने डट जाओ तो जंगली जानवर ज्यादा देर मुकाबला नहीं कर पाता है, जल्दी मैदान छोड भाग खडा होता है। पुल से थोडा ही आगे बढे थे कि मार्ग से थोडा सा हटकर नीचे ढलान पर भालू कुछ तलाश कर रहा था अब हम एकदम चुपचाप लगभग आधा किमी शान्ति से चल रहे थे व बार-बार पीछे मुड कर देखते भी रहे थे कि कहीं भालू पीछॆ से हमला ना कर दे, भालू बहुत तेज जानवर होता है आप स्टेमिना व फ़ुर्ती में उसका मुकाबला नहीं कर सकते हो। जंगली जानवर हमेशा लापरवाह प्राणी पर हमला करते है।

स्वर्गरोहिणी पर्वत का आधार सामने दिखाई दे रहा है।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

HAR KI DOON हर की दून, भाग 3

हर की दून-
सुबह दस बजे से चलते-चलते दोपहर के एक बजने वाले थे, अपुन को तो कुछ नहीं हुआ क्योंकि पानी जगह-जगह उपलब्ध था। लेकिन सांगवान को चाय की हुडक लगी थी मार्ग में एक दो जगह इस बारे में बात भी होती रही कि अगर चाय की इच्छा हुई तो बेहिचक बोल देना, मेरे चक्कर में मत रहना। एक जगह तो मार्ग पूरा खिसक कर नदी में समाया हुआ था कुछ पहले किसी ऊपर के मार्ग से आना-जाना किया हुआ था। यहाँ मैं तो एक छ्लांग लगाकर खाई में कूद गया लेकिन जब सांगवान की बात आयी तो भाई ने सबसे पहले तो अपना बैग फ़ैका था उसके बाद जाकर सम्भलते हुए आराम से उस खाई में उतर गये थे। इसी खाई में वापसी में तो चढने की कोशिश भी नहीं की थी, किसी और पगडंडी से चढ गये थे। यहाँ खाई से आगे बढने पर बडा ही खतरनाक मार्ग हो चला था जिसके कारण ऊपर से पत्थर गिरने का भय था। खैर बिना किसी परेशानी के ये खाई पार हो गयी थी। 
ये फ़ोटो ओसला या कहो सीमा जाकर लिया गया है।

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

HAR KI DOON हर की दून, भाग 2

हर की दून बाइक यात्रा-
सुबह पाँच बजे का अलार्म लगाया था जिसकी जरुरत ही नहीं पडी थी क्योंकि अलार्म बजने से पहले ही आँख खुल गयी थी। धर्मेन्द्र सांगवान में भी आलसीपन नहीं था। जिससे हम दोनों समय पर नहा धो-कर तैयार हो गये व ठीक पौने छ: बजे होटल वाले को उठाया कि भाई दरवाजा तो खोल दो ताकि हम जा सके, होटल वाले को हमने रात में बता दिया था कि हम सुबह छ: बजने से पहले यहाँ से आगे चले जायेंगे। होटल के बाहर ही हमारी बाइक सडक पर खडी हुई थी, पहाडों में वाहन चोरी होने का डर बहुत ही कम होता है जिस कारण ज्यादातर वाहन रात में सडक पर खडे ही होते है, कुछ शरारती बच्चे बाइक से पेट्रोल निकाल लेते है जिस कारण यहाँ ज्यादातर बाइक में पेट्रोल टंकी पर ताला लगाया हुआ होता है अपना भी पहाड पर आना-जाना लगा रहता है अत: ये ताला मैंने भी लगवाया हुआ है। रात में बाइक पर काफ़ी ओस गिरी हुई थी जिससे कि बाइक काफ़ी भीगी हुई थी, साफ़ सफ़ाई के बाद पुरोला से आगे की यात्रा पर चल दिये।
नैटवाड में वन विभाग चैक-पोस्ट के साथ ये नक्शा बना हुआ था।

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

HAR KI DOON हर की दून, भाग 1

हर की दून बाइक यात्रा-
हर की दून जाने की इच्छा बहुत दिनों से मन में थी। दो महीने पहले श्रीखण्ड महादेव से वापस आते ही सोच लिया था कि बारिश समाप्त होते ही हर की दून के लिये कूच कर देना है, इसलिये मैंने ब्लॉग पर दिनांक भी कोई पक्की नहीं की थी। अहमदाबाद के रहने वाले धर्मेन्द्र सांगवान ने कई बार फ़ोन कर के पता किया कि जाट भाई हर की दून जा रहे हो या नहीं, उसे हर बार बताया कि अभी पहाडों में बारिश बन्द नहीं हुई है अत: कुछ समय बाद ही जाया जायेगा, लेकिन बन्दा परेशान कि आपका क्या, आप तो अपनी बाइक उठाओगे व चल दोगे लेकिन मुझे तो अहमदाबाद से दिल्ली तक आने में बीस घन्टे लग जायेंगे कुछ दिन पहले बता दोगे तो मैं अपना ट्रेन का आरक्षण करवा लूँगा नहीं तो बिना आरक्षण रेल से आने में तो ऐसी की तैसी हो जायेगी। मैंने कहा हाँ भाई बात तो तुम्हारी ठीक है चलो दशहरा वाले दिन दिल्ली से चलते है तब तक मौसम भी ठीक हो ही जायेगा। बन्दे ने फ़िर पूछा दिनांक तो पक्की है न, अरे भाई जब मैंने किसी जगह जाने की एक बार बोल दी तो फ़िर तो ऊपर वाला मेरी हर तरह से सहायता भी करता है, फ़िर किसी की मजाल की मेरी यात्रा को रोक-टोक सके, जय भोले नाथ, हर दम सबके साथ। इस यात्रा में दो बाइक सवारों का फ़ोन और आया था कि अगर आप(मैं) लोग एक दिन बाद चलो तो हम भी आपके साथ चलेंगे लेकिन मैंने कहा कि कोई बात नहीं आप लोग बाद में आओ, मुझे अपना कार्यक्रम नहीं बदलना है हाँ हो सकता है कि हम आपको पैदल मार्ग में टकरा जाये।

इस यात्रा का पहला फ़ोटो आपनी नीली परी का सडक के बीचोंबीच।

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

PANWALI KANTHA पवाँली कांठा(बुग्याल)

बुढाकेदार से पैदल यात्रा के लिये दूरी


आज आपको PANWALI KANTHA पवाँली कांठानाम के शानदार बुग्याल के बारे में बता रहा हूँ। इस दिलकश जगह पर मैं दो बार गया हूँ। यहाँ जाने के लिये दिल्ली के मुख्य बस अडडे से उतराखण्ड रोडवेज की बस घनस्याली के लिये मिलती है जो पूरी रात चलकर सुबह घनस्याली पहुँचा देती है। घनस्याली जाने के दो मार्ग है एक चम्बा नई टिहरी होते हुए व दूसरा श्रीनगर से आगे केदारनाथ वाले मार्ग की ओर, तीसरा मार्ग भी है जो कि उतरकाशी से चौरंगीखाल, लम्ब गाँव होते हुए घनस्याली तक ले जाता है। घनस्याली पहाडों के हिसाब से एक काफ़ी बडा शहर है यहाँ हर तरह की सुख सुविधा आसानी से मिल जाती है। यहाँ से आगे घुत्तू जाना होता है जिसके लिये बसे नहीं मिलती है वहाँ जाने के लिये लोकल जीप पर निर्भर रहना होता है, पहाडों में खासकर उतराखण्ड में बसों की सुविधा कम ही है, जीप के भरोसे ही यहाँ का जीवन चलता रहता है। वैसे यहाँ पर आने के लिये एक पैदल मार्ग और है जो आपको बुढाकेदार से यहाँ तक ले आता है उसके लिये पहले बुढाकेदार जाना होता है, वहाँ से बुढाकेदार दर्शन करने के बाद विनयखाल नामक जगह से होते हुए, भैरों चटटी मन्दिर के दर्शन करते हुए घुत्तू तक शाम होने तक आ सकते हो। इस मार्ग में सिर्फ़ तीन-तीन किमी के दो बार चढाई के झटके झेलने पडते है बाकि तो ढलान ही ढलान है।


ये तो आगाज है।

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

आपने क्या कहा (भाग 2)


संजय @ मो सम कौन ? said...
सॉरी भाई, एक साथ पढ़ने के चक्कर में एक-एक पोस्ट नहीं पढ़ी थी, यूँ समझ लो नीरज की तरह रपट गया था: अब एक एक पोस्ट पढ़नी पड़ेगी, लेकिन मन में उल्लास है कि पूरी तफ़सील से चौकड़ी की घुमक्कड़ी समझने को मिलेगी।
जवाब------क्रम से पढो, इस सफ़र में ना पढने में, ना ही चलने में शार्टकट ठीक नहीं है।

Vidhan Chandra said...
एक बात तो तय है की आप लोग यात्रा का मजा नहीं लेते हैं , रिकार्ड बनाने की "धुन" में रहते है!! नीरज भी कोई भगवान नहीं है ! इन्सान ही है, उसे पछाड़ने के चक्कर में अगर आप कहीं (भगवान न करे ) गिर जाते या आप को कुछ हो जाता तो? हम घुमक्कड़ हैं और उसका आनंन्द स्वयं के लिए लेते हैं , वो अलग बात है कि ब्लॉग के जरिये अपनी भावनाएं दूसरों से शेयर कर लेते हैं. बीस मिनट लेट ही सही नीरज पहुंचा न आप के पास अगर मैं होता तो एक घंटा लेट होता! अगर हमें जल्दी नहीं है तो बिना बात जल्दी क्यों करें संदीप जी !! आपके फोटो अच्छे हैं , नीरज कि सलाह मानकर फोटो वाटरमार्क नहीं किये इसके लिए धन्यवाद!!
जवाब------घुमक्कड़ तो हर तरह का मजा उठाते है कभी तेज कभी धीमे, जब सभी तेज चल सकते हो तो क्यों नहीं चले? पहले जाने वाले को आराम भी सबसे ज्यादा मिलता है। उस समय कुछ तो उन्हे उतराई की रफ़्तार भी दिखानी थी दूसरी बारिश होने का डर भी था जिससे कि मार्ग फ़िसलन भरा हो जाता, रात की बारिश ने तो वैसे ही ऐसी-तैसी की हुई थी।

मदन शर्मा said...
मैं समय न मिलने और कुछ व्यक्तिगत कारणों से बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ. बहुत सुन्दर चित्र मय प्रस्तुति  लेकिन एक बात याद रखिये ये तीर्थ स्थल हमें एक दुसरे से जोड़ने के लिए ही बनाये गए हैं देवी देवताओं की पूजा तो एक बहाना है एक दुसरे के नजदीक आने का !!

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

आपने क्या कहा (भाग 1)


chandresh kumar said...
बहुत अच्छा आगाज़ है तो अंजाम तो बहुत ही धांसू होगा. आपके लिए बस यही कहना है की हम किस किस की नजर को देखें हम तो सबकी नजर में रहते है.क्या करे दोस्त हमने तो किस्मत ही ऐसी पाई है कि हमेशा सफ़र में ही रहते हैं. आगे भी ऐसे ही जरी रखें आपकी आँखों से नीले गगन, प्रकृति का यौवन फूलों कि नाजुक कलियाँ देख कर मन प्रफुल्लित हो जाता है.
जवाब------जब तक इस शरीर में जान है ये घूमना लगा ही रहेगा।

ब्लॉ.ललित शर्मा said...
एकाध कोई उल्टा बोल्या के नही। :)
जवाब------लठ चार-चार हाथ में हो फ़िर किसकी मजाल की कोई उल्टा बोल दे।

नीरज जाट said...
मैं पहले दिन ही दिल्ली से नारकण्डा पहुंच गया और आप बाइक होते हुए भी पिंजौर ही पहुंच सके हैं। सालों लगेंगे आपको अभी मेरी बराबरी करने में। हा हा हामुझे भी बाइक चलानी सीखने दो, फिर देखना भरपूर टक्कर मिलेगी आपको और आपके जोडीदार को। लाइसेंस तो बन गया है। खाना और सोना मेरी कमजोरी नहीं बल्कि मेरी ताकत है। जरा एक बार इस यात्रा में से खुद को हटाकर देखो, कौन भारी पडा? आप को मैं अपना फिटनेस गुरू मानना चाहता हूं। अब मेट्रो में भी एस्केलेटर की जगह सीढियों का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। बढिया शुरूआत। और हां, लिंक डालना भी सीखो। जहां पहली बार मेरा नाम लिखा है, वहां ब्लॉग का लिंक लगाया करो।
जवाब------सीख लो बाइक चलानी भी, ये अच्छा किया एस्केलेटर की जगह सीढियों का इस्तेमाल, इस दुनिया में सब गुरु है कोई अपने को कम नहीं मानता है।

निर्मला कपिला said...
तस्वीर चंदाल चौकडी से शुरू हुये मगर अगली हर तस्वीर मे से एक चंडाल गायब होता रहा। सुन्दर यात्रा वृतांट। शुभकामनायें।
जवाब------क्या करते फ़ोटो खींचने के लिये कोई मिलता ही नहीं था।

प्रवीण पाण्डेय said...
उत्तरी सड़को पर धौंकती फटफटिया उतरी।
जवाब------हमारे गाँव में बाइक को फ़िटफ़िटी भी कहते है।

Vidhan Chandra said...
श्रीखंड की यात्रा कठिन है, जो आप लोगों ने सफलता पूर्वक पूरी की!! सहस के धनी आप जैसे लोग चंडाल चौकड़ी न होकर "स्वर्णिम चतुर्भुज" है!!
जवाब------चारों बेहद ही हिम्मत वाले हैं, घूमने के मामले में किस्मत वाले भी।

veerubhai said...
संदीप जाट भाई बहुत सुन्दर प्रस्तुति .नीरज भाई के ब्लॉग पर भी यह वृत्तांत पढ़ा .आपका अंदाज़-ए-बयाँ आपका अपना शानदार नज़रिया प्रस्तुत करता है .
जवाब------शानदार नज़रिया कहो या कि जो देखा जो महसूस किया वो मान लो।

Bhushan said...
बढ़िया यात्रा वृत्तांत. बिण मांग्या सुझाव सै- बाद में इसे संपादित करके पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित कर दें.
जवाब------सोच तो रहा हूँ लेकिन ऐसी तो कई पुस्तक हो जायेगी।

डॉ टी एस दराल said...
भाई ये लट्ठ लेकर यात्रा तो जाट ही कर सकते हैं। बहुत दिलचस्प ।
जवाब------नहीं जी लठ लेकर कोई भी यात्रा कर सकता है बस हिम्मत होनी चाहिए।

सोमवार, 26 सितंबर 2011

SHRIKHAND MAHADEV YATRA की तैयारी




SHRIKHAND MAHADEV YATRA श्रीखण्ड महादेव यात्रा के चार महारथी के बारे में संक्षेप में।

(1) नितिन जाट,        (2) नीरज जाट,        (3) विपिन गौड,        (4) संदीप पवाँर,

(1) नितिन जाट, 
सबसे पहले उस 27 वर्ष के महारथी के बारे में जिसने इस यात्रा के बारे में जमकर तैयारी की थी। लेकिन सारी तैयारी उसकी आशिकी भरी लापरवाही में धरी की धरी रह गयी। नितिन ने 10 दिन पहले ही जाने की हाँ कर दी थी जिस कारण उसने अपने कार्यालय से घर तक आना जाना जो कुल मिलाकर आठ-नौ किलोमीटर के आसपास है पैदल ही शुरु कर दिया था ताकि उसे इस कठिन यात्रा में कोई परेशानी न आये। सबसे बढिया तैयारी के बाद भी बंदा ये जानदार यात्रा पूरी नहीं कर पाया क्योंकि उसने पहाड में पैदल पगडन्डी पर चलते समय घोर लापरवाही बरती थी, जहाँ सावधानी से चलते हुए भी इन्सान के गिरने का भय रहता है वहाँ पर नितिन मोबाइल से बात करते हुए जा रहा था जिसका खामियाजा वो तीन बार गिर कर ऐसा भुगत चुका था जिससे कि वो दस किमी में ही आगे चलने लायक नहीं बचा था तीन बार गिरने से उसके घुटने व कुल्हे में जबरदस्त चोट आयी थी। हम चारों में सबसे हंसमुख मस्त बंदा था। बाइक व कार का तगडा चालक है। बस में यात्रा करने से बचता है।

बुधवार, 21 सितंबर 2011

पौंटा साहिब गुरुद्धारा से दिल्ली तक


देख लो हथनीकुण्ड बैराज जाने का मार्ग बोर्ड के मोड पर खडे होकर भीगे हुए कपडे दिखाये जा रहे है।

हमारी यह श्रीखण्ड महादेव यात्रा आज अन्तिम (समाप्ति) भाग 14 तक आ पहुँची है। 
अब तक हम दिल्ली (DELHI) से पिन्जौर गार्डन (PINJORE GARDEN, शिमला (SHIMLA), कुफ़री (KUFRI), नारकण्डा (NARKANDA), सैंज (SAINJ), जलोडी जोत (JALORI PAAS), रघुपुर किला (RAGHUPUR FORT), सरेउलसर झील (SAROLSAR LAKE), अन्नी (ANNI), रामपुर बुशहर (RAMPUR BUSHAHR), बागीपुल (BAGHIPUL), जॉव (JAON), सिंहगाड (SINHAGAD), थाचडू (THACHADU), काली घाटी (KALI GHATI, काली कुंड (KALI KUND), भीम डवार (BHEEM DWAR), पार्वती बाग (PARVATI BAGH), नैन सरोवर (NAIN SAROVAR), भीम शिला (BHEEM SHILA), एवं श्रीखण्ड महादेव दर्शन (SRIKHAND MAHADEV DARSHAN) करने के बाद वापसी में रामपुर (RAMPUR) से रोहडू (ROHRU), त्यूणी (TUNI), चकराता(CHAKRATA), टाईगर फ़ाल (TIGER FALL), कालसी (KALSI), सम्राट अशोक का शिलालेख (ASHOK SHILALEKH), विकास नगर (VIKAS NAGAR), हर्बटपुर (HERBERTPUR), आसन्न बैराज (AASAN BAIRAJ) यमुना पुल (YAMUNA RIVER BRIDGE) होते हुए यहाँ श्री पौंटा साहिब गुरुद्धारे (PAONTA SAHIB GURUDWARA) तक आ पहुँचे है। 
यहाँ से अब सिर्फ़ सहारनपुर (SAHRANPUR), शामली (SHAMLI), कांधला (KANDHLA), बडौत (BARAUT), बागपत (BAGHPAT), खेकडा (KHEKRA), लोनी (LONI), होते हुए दिल्ली (DELHI) तक जाना है। जो यहाँ से सिर्फ़ 235 किमी दूर है अगर अम्बाला से जायेंगे तो 305 किमी जाना होगा।   

पहाड समाप्त होते ही कुछ आगे जाने पर हथनीकुण्ड बैराज जाने का मार्ग भी आता है।

इस यात्रा को शुरु से देखने के लिये यहाँ चटका लगाये।


रविवार, 18 सितंबर 2011

PAUNTA SAHIB पौंटा साहिब गुरुद्धारा


पौंटा साहिब का कवि दरबार से लिया गया चित्र है।


हमारी यह यात्रा श्रीखण्ड महादेव भाग 13 में यहाँ तक आ पहुँची है। हम पौंटा साहिब गुरुद्धारे शाम को अंधेरा होने से काफ़ी पहले आ चुके थे। चारों ही यहाँ पहली बार आये थे, इसलिये यहाँ के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था कि अन्दर कहाँ रुकना है किससे पूछे इसी उधेडबुन में मुख्य दरवाजे के बाहर पास में ही अपनी-अपनी बाइक खडी कर दी व अन्दर जाकर सबसे पहले तो रात को रुकने के बारे में मालूम किया तो पता चला कि अन्दर घुसते ही उल्टे हाथ पर एक खिडकी से रात को रुकने वालो को परची दी जा रही है इसी परची को दिखाकर अपनी-अपनी बाइक भी गुरुद्धारे की चारदीवारी के अन्दर ला सकते हो। तो जी हम भी लग गये लाइन में जब हमारा नम्बर आया तो परची काटने वाले बंदे ने कोई भी पहचान पत्र दिखाने को कहा, उस समय मेरे पास पहचान पत्र नही था नीरज ने अपना पहचान पत्र दिखाया, अपना नाम पता व कितने बंदे हो सब कुछ लिखवाया था। जब सब खानापूर्ति हो गयी तो उसने हमें परची दे दी, हम परची ले बाहर आये व अपनी-अपनी बाइक को मुख्य द्धार से चारदीवारी के अन्दर ले आये। मुख्य द्धार से प्रवेश करते ही जहाँ से परची ली थी ठीक उसी के सामने ही कुछ दूरी पर बाइके खडी करने का स्थान है जहाँ पर सैंकडों की संख्या में बाइक खडी हुई थी। हमने भी अपनी-अपनी बाइक स्थान देख कर वही पर लगा दी। यहाँ पर ज्यादातर बाइक वाले हेमकुंठ साहिब की यात्रा से आने वाले या यात्रा पर जाने थे। वैसे मैं हेमकुंठ साहिब की यात्रा पाँच साल पहले इसी नीली परी पर कर चुका हूँ। वो यात्रा फ़िर कभी होगी आज तो सिर्फ़ और सिर्फ़ पौंटा साहिब के बारे में ही होगा। 
                               
                                इस यात्रा को शुरु से देखने के लिये यहाँ चटका लगाये।
दूसरा कोना

रविवार, 11 सितंबर 2011

ROCK EDICT ASHOKA, KALSI सम्राट अशोक का शिलालेख, कालसी


ये रहा भारत का राजकीय प्रतीक/चिन्ह चार शेर।

   ये नेट से लिया गया है।

कालसी अशोक का शिलालेख देखने की इच्छा बहुत दिनों से थी, जो आज पूरी होने जा रही थी। एक बार चार साल पहले भी इस जगह के बहुत पास से होकर जा चुका हूँ, महाराष्ट्र वाले दोस्त अपनी सूमों में तथा मैं अपनी इसी नीली परी पर सवार था। चार धाम के लिये गये थे, उसी सफ़र में यमुनोत्री के बाद गंगोत्री जाते समय डबरानी के पास पहाड खिसक जाने पर हम गंगनानी के गर्मागर्म पानी में नहा धोकर जब वापिस आ रहे थे तो भटवाडी से पहले भी सडक खिसक कर गंगा में समाती हुई देखी है, सडक पर एक सीमेंट से भरा हुआ ट्रक भी उसके साथ-साथ मैंने पानी में जाता हुआ देखा था। सडक खिसकने के बाद सिर्फ़ इतना मार्ग बचा था जिसपर पैदल यात्री या बाइक ही जा सकती थी। मेरी बाइक तो निकल गयी थी महाराष्ट्र वाले दोस्तों की सूमो तीन दिन बाद जाकर निकल पायी थी। वो सफ़र फ़िर कभी?
यहाँ से यमुना घाटी का प्यारा सा नजरा।

सोमवार, 5 सितंबर 2011

CHAKRATA चकराता (TIGER FALL टाइगर फ़ाल)


ये है चकराता।


ये हमारी यात्रा श्रीखण्ड महादेव भाग 11 से वापसी में यहाँ चकराता तक आ पहुँची है। इस यात्रा को शुरु से पढने के लिये यहाँ क्लिक करना होगा फ़िर लीजिए इस यात्रा का पूरा आनन्द। सहिया नामक जगह पर हम लोग रात में रुके थे। यह ठीक-ठाक कस्बा है, जहाँ हर तरह की सुविधा उचित कीमत पर मिल जाती है, ये जगह चकराता से सिर्फ़ 22 किलोमीटर दूरी पर है। सुबह ठीक 8 बजे नहा धो कर चकराता का विश्व प्रसिद्ध झरना, जो कि टाइगर-फ़ॉल के नाम से जाना जाता है को देखने के लिये चल दिये थे, वापसी भी इसी मार्ग से आना था, अत: अपने बैग व लठ भी यहीं पर छोड दिये थे, जब वापसी इसी मार्ग से है तो बेवजह 80 किलोमीटर सामान को क्यों ढोया जाए? जब यहाँ से चले तो मौसम के हालात कुछ ठीक नहीं लग रहे थे, अत: अपने-अपने रैन-कोट पहन लिये थे, यहाँ सडक बहुत ही अच्छी थी जिससे सफ़र का पता ही नहीं चला।

ये है चकराता की साफ़ व शान्त सडक।

बुधवार, 31 अगस्त 2011

MANMAUJI JAAT JATDEVTA मनमौजी जाट का 36 वाँ जन्मदिन


मामा की गोद में, ये मामा अभी कैंसर से गम्भीर रुप से बीमार है। जीवन की उम्मीद नहीं के बराबर बची है।
ये फ़ोटो उस समय का जब मेरी उम्र एक साल भी नहीं हुई थी।

मेरा व मेरे छोटे भाई का गाँव में घेर में तैंतीस साल पहले का फ़ोटो है।। जाटों के यहाँ घर के अलावा घेर भी होता है।

रविवार, 28 अगस्त 2011

श्रीखण्ड महादेव वापसी (रामपुर-रोहडू-चकराता) भाग 10

रामपुर में ये दूरी का बोर्ड एक दीवार पर बना हुआ था।

रामपुर में मजे से सारी रात पंखे के नीचे गुजारने के बाद आज बारी थी, घर की ओर जाने की दिल्ली से रामपुर तक आने के लिये शिमला होते हुए आना होता है, व वापसी भी शिमला होते हुए ही जाया जाता है, लेकिन मैं ठहरा कुछ अलग खोपडी का इंसान अरे जब वाहन अपना, चालक हम स्वयं तो फ़िर क्यों बसों की सवारियों की तरह लाचार होकर, उन मार्गों से ही वापस जाया जाये जहाँ से हम आये थे जबकि हमारे पास दूसरे विकल्प भी हो तो। तो जी मेरी इस मार्ग से जाने की राय तीनों ने मानी, वैसे दो तो बेचारे हमारे साथ मौज-मस्ती के लिये थे, मार्ग से उन्हे कोई लेना देना नही था। मार्ग कि चिंता तो दो को ही थी, वो भी कुछ खास नहीं थी। हमने यहाँ आने से पहले नक्शा खोल के भी देख लिया था।
रामपुर में ये पुल नदी के दोनों ओर शहर में आने जाने के लिये बना हुआ है।

शाम को तो सब नहाये थे ही फ़िर भी सब सुबह नहा धो कर तैयार हो गये थे। समय वही पुराना 7 बजने वाले थे, जब यहाँ से चले तो सामने ही एक दीवार पर दूरी दर्शाने वाला बोर्ड था। रामपुर काफ़ी बडा शहर है, अत: हमने यहाँ से ही अपनी बाइक में पेट्रोल लेना उचित समझा, तो जी हम चल दिये पेट्रोल पम्प की तलाश में, ये दो-तीन किलोमीटर का शहर पार हो गया पर हमें पम्प नहीं मिला, जब एक जीप वाले से पूछा कि भाई पेट्रोल पम्प कहाँ है? वो उल्लू की पूँछ पम्प तो बताने से रहा बल्कि हमारे लठ देखकर बोला कि पहले गन्ना खिलाओ तब बताऊँगा कि पेट्रोल पम्प कहाँ है, जब उसके मुँह के आगे लठ अडा दिये तो उसकी आँखे फ़टी की फ़टी रह गयी कि गन्ने लठ कैसे हो गये। खैर हमें जब पम्प नहीं मिला तो हम वापस शिमला की ओर चल दिये, रामपुर से 10 किलोमीटर पहले एक पम्प आता है। यहाँ से अपनी बाइक की टंकी फ़ुल करा कर आगे की यात्रा पर चल दिये।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

श्रीखण्ड महादेव वापसी (भीमडवार-रामपुर) भाग 9


आज तो सब के सब बडॆ खुश थे, बात ही ऐसी थी, यहाँ से सही-सलामत वापस जो जा रहे थे। विपिन गौरनीरज जाट जी के मन की तो मुझे नहीं पता, लेकिन मैं अपने मन की कहता हूँ कि यहाँ दुबारा फ़िर आना है, वो भी अपने परिवार के साथ, बाकि भोले नाथ की इच्छा। तीनों मस्त बंदे, किसी को कोई थकान नहीं, कोई परेशानी नही, कोई भय नहीं, तीनों अपनी-अपनी  मर्जी के मालिक जब जी करा चल पडे, जब जी करा रुक गये। टैंट वाले का हिसाब किताब किया। उससे पहले आज भी सुबह-सुबह उठकर दो-दो पराठे खा कर चले थे, ताकि किसी को खचेडू से पहले भूख तंग ना करे, वैसे मुझे भूख कुछ कम ही तंग करती है, अरे अपनी सहनशक्ति भी इन तीनों से कई गुणा बढकर है, वो चाहे किसी भी तरह की हो। मैं किसी भी यात्रा पर जाने से पहले पूरी तरह मानसिक व शारीरिक दोनों रुप से पूरा तैयार होकर ही घर से बाहर जाता हूँ।
लो जी हम श्रीखण्ड महादेव से वापस आ रहे है, ये भक्त अभी जा रहे है।
                                          इस यात्रा का असली आनन्द लेना है तो शुरु से पढो

तीनों कुछ अलग किस्म के है, ये तो सब को पता चल ही गया होगा। अपने आलसी छोटे जाट सुबह उठने में कुछ नखरे दिखाते थे, उसका इलाज मैंने ये निकाला था कि भाई हम तो जा रहे है, तुम आते रहना, ये शब्द सुनते ही छोटे जाट तुरन्त तैयार होने लगते थे। सुबह के पौने सात बजने वाले थे नीरज अभी जूते पहन ही रहा था कि हम आगे वापसी के लिये चल दिये थे, वैसे भी आज नीरज का दिन था, मतलब आज उतराई थी, लेकिन कल शाम को पार्वती बाग से उतरते समय फ़िसलकर जो धडाम से नीरज गिरा था, उसके बाद अब उतराई में नीरज की वो शताब्दी वाली चाल नजर नहीं आ रही थी। जिससे वो हमें पछाड सके, नीरज को जब भी हम देखते तो वो हमें 100-150 मीटर पीछे ही नजर आता था, मार्ग का पूरा मजा लेते हुए हम, तीनों चले आ रहे थे, यहाँ पीने के पानी की कोई समस्या नहीं थी, हर आधा किलोमीटर के आसपास पानी का स्रोत आ ही जाता था। मैं प्यास लगते ही पानी पी लेता था। विपिन को मैंने बोल दिया था कि आज उतराई ज्यादा है, अत: आज नीरज हमसे तेज चलेगा, इसलिये आज नीरज को दिखाना है कि हम भी तेजी से उतरना जानते है, बस ये बात उसे बताना मत। कही हमारे से आगे निकलने के चक्कर में कल की तरह फ़िर से ना गिर पडे।
बर्फ़ के बीच में खडॆ हो या बैठ कर फ़ोटो खिचवाना अच्छा लगता है।

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

SHRIKHAND MAHADEV श्रीखण्ड महादेव (साक्षात-दर्शन) भाग 8

दिनांक 20 जुलाई सन 2011 दिन बुधवार, को हमारी यात्रा की आज सबसे कठिन मंजिल थी। जहाँ हम रुके हुए थे, उस टैंट में कुछ अन्य लोग भी ठहरे हुए थे, जिन्होंने हमें बताया कि असली यात्रा तो नैन सरोवर से आगे जाकर शुरु होती है, नैन सरोवर तक पहुँचने के बाद भी बंदे वापिस आते देखे गये है, हमारे साथ चल रहे एक बंदे ने बताया था कि मेरी लडकी दो बार नैन-सरोवर तक आ चुकी है, लेकिन इससे आगे जाने की उसकी हिम्मत नहीं पड रही है। मैं उसकी बात सुन कर मन ही मन डरा जा रहा था, कि यार ये नैन-सरोवर से आगे आखिर आफ़त क्या है।  दो दिन से लोग हमें, सच बता रहे थे या हमें डरा रहे थे, कि बडे-बडॆ पत्थरों को पकड-पकड कर चढना पडता है, एक पूरा ही दिन तो पत्थर ही खा जाते है, ऐसी-ऐसी बाते सुन कर मन बैठा जा रहा था। फ़िर सोचा यार, जब सिर ओखली में दे ही दिया है, तो मूसल से क्या डरना।

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भीम डवार से पार्वती बाग, व पार्वती झरने का खूबसूरत नजारा दिखाई दे रहा है। एकदम ऊपर जाना है।

आज हमारा सफ़र भीम-डवार से श्रीखण्ड महादेव मात्र नौ-दस किलोमीटर जाना व इतना ही वापस ढलान पर आना था। भीम-डवार से यात्री; रात्रि के कहो या भौर के 3-4 बजे से ही यात्रा शुरु कर देते है, जल्दी चलने का फ़ायदा ये होता है कि चढाई को  ठण्ड-ठण्ड में पूरा कर लेते है,  मैंने भी सुबह जल्दी चलने का सुझाव दिया तो अपने कुम्भकर्ण के दहाडने की आवाज आयी कि मैं अंधेरे में नहीं चलूँगा। मतलब साफ़ था कि नीरज को अपनी नींद ज्यादा प्यारी थी, मार्ग की कठिनाईयों की कोई चिंता नही थी। लेकिन यहाँ व ऐसी किसी और दुर्गम जगह जाने वाले बंदे, एक बात हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि आपको अपना सफ़र हमेशा सुबह जितना जल्दी शुरु कर दोगे, मार्ग में उतनी ही परेशानी कम होती जाती है। जितना देर से सफ़र शुरु करोगे, उतनी कठिनाई से  मुकाबला भी करना पडता है।
सुबह चलते ही, ये खोखला होता हुआ ग्लेशियर आ गया था। विपिन की हवा खराब रहती थी, ऐसी जगह पर।

शनिवार, 13 अगस्त 2011

श्रीखण्ड महादेव की ओर (काली कुंड-भीम डवार) भाग 7

आखिर दस मिनट चलने के बाद वो घडी भी आ ही गयी, जिसका हमें कल शाम चार बजे से इंतजार था। जब हम उस जगह आ गये जहाँ से ढलान शुरु हो रही थी, तथा आगे ढलान दिखाई दे रही थी, सच में उस समय दिल को कितनी तसल्ली हुई थी, वो मैं ब्यान नहीं कर सकता हूँ, भले ही मैं सबसे काफ़ी आगे था, लेकिन खुश भी सबसे ज्यादा, शायद मैं ही हो रहा था। बाकि दोनों का तो थकान से ही बुरा हाल था। इस काली घाटी पर जो बिल्कुल एक दर्रे की तरह से ही थी, जिसके दोनों ओर गहरी खाई थी, यहाँ हम लगभग 15-20 मिनट तक रुके थे, आराम कर जब आगे बढे तो अब दूसरी समस्या आगे आ गयी थी। मेरे व विपिन के जूतों के तलवे काफ़ी घिसे हुए थे, जिससे हमें उतरने में फ़िसलने का डर होने के कारण आराम से उतर रहे थे, यहाँ नीरज कुछ आगे निकल गया था, जैसे ही फ़िसलन भरा मार्ग समाप्त हुआ तो फ़िर से तीन तिगाडा काम बनाने साथ-साथ हो लिये थे। 

काली घाटी का स्वागत करते है, ये शानदार फ़ूल।
                                            इस यात्रा को शुरु से पढने के लिये यहाँ क्लिक करे।
रंग बिरंगे फ़ूल हर तरफ़ फ़ैले हुए है।

सफ़ेद फ़ूल शांति की निशानी है। चारों ओर शांति ही शांति है।

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

श्रीखण्ड महादेव की ओर (सिंहगाड-काली घाटी) भाग 6

लो जी अब चलते है सिंहगाड से आगे के सफ़र पर, है ना चारों को मिलाकर चंडाल चौकडी।

हम चार बन्दों की मस्त चंडाल चौकडी, दिन के ठीक तीन बजे सिंहगाड में आ चुकी थी। यहाँ पर दो-तीन भंडारे लगते है, रात में रुकने का पूरा प्रबंध है। यही पर इस यात्रा में जाने वाले सभी यात्रियों का विवरण लिखा जाता है, जिसमें नाम पता व मोबाइल नम्बर लिखना होता है, इसे हम यात्रा का पंजीकरण भी कह सकते है। एक दिन में यहाँ 400 से 500 के आसपास तक यात्री इस बेहद कठिन पैदल यात्रा पर, यात्रा के दिनों में आ जाते है। यह यात्रा मुश्किल से पंद्रह दिनों की होती है। सरकार की तरफ़ से इस यात्रा में कैसी भी, किसी प्रकार की कोई मदद नहीं दी जाती है। सब कुछ गिने चुने टैंट वालों व सब मिलाकर सात-आठ भंडारे ही, इस दुर्गम पैदल यात्रा पर आने वाले यात्रियों की बहुत मदद करते है।
                                        इस यात्रा को शुरु से पढने के लिये यहाँ क्लिक करे।

जलेबी का भूखा नम्बर एक। दूसरा कौन बताओ तो जाने?

सोमवार, 8 अगस्त 2011

श्रीखण्ड महादेव की ओर (सैंज-निरमुंड-जॉव) भाग 5


अन्नी में रात बडे आराम से गुजारी, जिस कमरे में हम ठहरे हुए थे, उसमें पूरे छ: पलंग थे, हम थे चार, जिसका मतलब दो खाली थे, ये खाली वाले पलंग हमारे कपडे सुखाने के काम आये थे। कल पूरे बीस किलोमीटर के आसपास तो चल ही चुके थे। सबने अपने मोबाइल चार्ज किये, मुझे छोड कर, नीरज जाट जी व विपिन ने अपने कैमरों की बैटरी भी चार्ज की, क्योंकि आगे का पता नहीं था कि कहीं चार्ज करने का मौका भी मिलेगा या नहीं। सुबह अपनी तो नींद छ: बजे से पहले ही खुल जाती है। बस मेरी व नीरज की यही इस नींद वाली बात पर गडबड होती थी। सबको साढे छ: बजे जगाया, लेकिन नीरज सात बजे जाकर ही उठा। आज सब कुछ पेशाब-ट्टटी, नहाना धोना, दाढी बनाना, रात में ही तय कर लिया था, कि सतलुज के किनारे जाकर ही किया जायेगा। 

अपनी चाल व दाढी रोकना किसी के वश की बात नहीं है। बनारस में भुगता था, इसलिये यहाँ खुद ही बनायी जा रही है।
                                       इस यात्रा को शुरु से पढने के लिये यहाँ क्लिक करे।
नहाते समय भी लठ, अरे भाई इस नदी के पानी का कोई भरोसा नहीं है।

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

श्रीखण्ड महादेव की ओर (सरेउलसर झील व रघुपुर किला) भाग 4

देखो जी इस पेड में कैसे घुसे खडे है, ये सिरफ़िरे मस्ताने जाट

मैं व नितिन अपनी-अपनी बाइक ले कर, सबसे पहले जलोडी पास पर आ गये थे, समय हुआ था साढे ग्यारह। नीरज व विपिन बस में बैठ कर इस पास पर आये थे, जिस कारण उन्हे यहाँ आने में लगभग बीस मिनट ज्यादा लग गये थे। तब तक मैं व नितिन इस पास पर बनी गिनी-गिनाई चार-पाँच दुकानों में से एक पर कब्जा जमा कर बैठ गये थे, जैसे ही ये दोनों बस से आये तो हमने दुकान वाले को खाने के लिये मैगी बनाने का आदेश दे दिया। सब ने एक-एक मैगी खायी            इस यात्रा के    भाग 1     भाग 2       भाग 3      क्लिक करे
एक फ़ोटो यहाँ भी हुआ, इस स्वर्णिम चतुर्भुज का (गप्पू जी द्धारा दिया गया नाम)

सब ठीक दोपहर बारह बजे, पहले से तय आज की मंजिल सरेउलसर झील व उसके किनारे पर बने मंदिर देखने के लिये चल पडे। दुकान वाले ने बताया था कि लगभग पाँच किलोमीटर का मार्ग है, कोई खास कठिन नहीं है, लेकिन नीरज ने फ़िर भी अपना लठ साथ ले लिया था। इस मार्ग पर लगभग आठ सौ मीटर जाने पर सीधे हाथ नीचे की ओर कुछ टैंट लगे हुए थे, जो कि यहाँ आने वालों के लिये ही रहे होंगे। एक किलोमीटर तक मार्ग समतल सा ही है, उससे कुछ आगे जाने पर पूरे एक किलोमीटर तक उतराई-ही उतराई थी, इससे आगे जाने पर मार्ग कभी ऊपर की ओर व कभी नीचे की ओर जा रहा था, यानि पूरा उबड-खाबड मार्ग था। एक पचास साल के व्यक्ति जो हमारे से पहले पैदल चले हुए थे, हमें ढलान शुरु होते ही मिले थे, उनकी रफ़्तार इतनी तेज थी कि जब हम इस झील को देख कर वापस आ रहे थे तो ये हमें झील की ओर जाते हुए मिले थे, वो भी झील से आधा किलोमीटर पहले। इन महाशय का नामकरण किया गया "शामली एक्सप्रेस" जो इन पर पूरी तरह फ़िट बैठता था।

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

श्रीखण्ड महादेव की ओर (पिंजौर से जलोडी जोत) भाग 3


ये देखो छोटी रेल लाईन देखते ही कैसे उतावले हो रहे है।
                               
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आज शाम तक हमने शिमला, कुफ़री, होते हुए नारकंडा से आगे सैंज या उसके आगे अन्नी तक जाने की सोच रखी थी। ताकि कल हम जलोडी पास व उसके पास एक झील व एक किले के खण्डहर देख कर शाम तक आगे  की यात्रा पर जॉव/निरमुंड तक पहुँच सके।  पिंजौर गार्डन देख कर, जैसे ही आगे गये तो यहाँ की मुख्य सडक के किनारे पर बारिश से बचने के रैन कोट टंगे हुए थे। विपिन ने रैन कोट दिल्ली से ही ले लिया था। नीरज ने अपने लिये व मेरे लिये मेट्रो द्धारा दिये गये रैन कोट ले कर आया था। क्योंकि मेरा वजन इन तीनों से बीस किलो ज्यादा होगा, अत: नीरज ने मेरे लिये अपने कार्यालय में कार्य करने वाले मंदीप का रैन कोट संदीप के लिये लाया था। मंदीप व संदीप एक जैसे डील डौल के है। नितिन ने एक रैन कोट ले लिया, उसकी हालत ज्यादा अच्छी तो नहीं थी, ठीक ठाक कही जा सकती थी। 
ये रहा दूसरा उतावला अनाडी ठहरा ना।

वैसे मैं रैन कोट की जगह पन्नी के बने हुए बुर्के ही ज्यादा प्रयोग किया करता हूँ। पन्नी के बुर्के हल्के होने के साथ-साथ पानी से बचाव का एकदम सुरक्षित साधन है। हाँ बाइक पर चलते समय यह फ़ट सकते है, जिसका बचाव है, विंड-शीटर यानि हल्की वाली जैकेट, पन्नी वाले बुर्के के ऊपर पहन ली जाये तो कैसी भी बारिश हो आपको नहीं भिगो सकती है। रैन कोट में भी एक किलो से कम वजन ना था। और पन्नी के बुर्के में मात्र 100 ग्राम ही वजन होता है। जब हम रैन कोट खरीद रहे थे तो तभी एक कार जो सडक पर सामने किसी छोटे से मार्ग से मुख्य सडक पर आ रही थी कि मुख्य सडक पर जा रही एक अन्य स्कारपियो गाडी ने उस कार को ठोक दिया, जिससे कार का बोनट जो कि प्लास्टिक का बना हुआ था टूट गया, अब कुछ तो तमाशा होना ही था। फ़ैसला क्या रहा, हमने उसका इंतजार नहीं किया।

रविवार, 31 जुलाई 2011

श्रीखण्ड महादेव की ओर (पिंजौर गार्डन) भाग 2

तीन-तीन खीरे जैसे केले खा कर हम इस गार्डन के टिकट घर पर जा पहुँचे। पिंजौर गार्डन के मुख्य द्धार पर ही हम खडे थे। यहाँ अंदर जाने के लिये बीस रुपये का टिकट लेना पडता है। हमनें चार लिये, चंडाल चौकडी के लिये चार ही चाहिए थे। अन्दर जाने का और रास्ता नहीं था। यह गार्डन चंडीगढ़ से मात्र 22, पंचकूला से 15 किलोमीटर दूर है। यह अम्बाला जिरकपुर से कालका जाने वाले मार्ग पर आता है। चंडी मंदिर भी इसी रास्ते में आता है।
लो जी कर लो आप भी इस गार्डन के दर्शन जी।

इस गार्डन के बारे में                      इस यात्रा को शुरु से पढने के लिये यहाँ क्लिक करे।

इस गार्डन को यदविन्दर गार्डन भी कहा जाता है, नवाब फ़िदैल खान द्धारा इसका नमूना बनाया गया था। कई अंग्रेज अफ़सर भी यहाँ रहे थे। जो लोग कश्मीर का मुगल गार्डन नहीं देख सकते है, उनके लिये ये उसकी लगभग वैसी ही नकल है। इसे भी कभी मुगल गार्डन कहा जाता था। यह लगभग एक सौ एकड जमीन पर बना हुआ है, चारों तरफ़ ऊंची-ऊंची दीवार है, यह आयताकार बना हुआ है, हर दीवार में दरवाजा है, हर कोने में एक सीढियों वाला जीना बना हुआ है, हम भी उस जीने पर जा पहुँचे थे। जीने से ऊपर जाकर एक अलग नजारा नजर आता है। इस गार्डन का अपना एक छोटा सा नन्हा सा चिड़ियाघर, पौधों की नर्सरी, जापानी बगीचा और पिकनिक लॉन आदि-आदि है।
ऐसा ही शानदार है ये गार्डन

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

श्रीखण्ड महादेव की ओर भाग 1, SRIKHAND MAHADEV

चंडाल चौकडी का सबसे पहला फ़ोटो यहाँ पर जाकर हुआ।

मैं श्रीखण्ड जाना चाहता था, सोच रहा था कि कोई और भी साथ हो जाये तो, ज्यादा अच्छा रहेगा, इसलिए मैंने अपने ब्लॉग पर आगामी भ्रमण में लिख दिया था कि कोई और जाने का इच्छुक हो तो बता दे। नीरज जाट से तो हाँ पहले ही हो गयी थी, अब मेरी बाइक व उस पर सवारी भी साथ में, देखना ये था कि कोई और भी जायेगा कि नहीं, कि चलने से दस दिन पहले एक ईमेल मेरे पास आया जिसमें लिखा था कि संदीप भाई क्या मैं भी आपके साथ इस यात्रा पर चल सकता हूँ। मैंने कहा कि भाई पहले अपने बारे में थोडा विस्तार से बताओ कि अब तक कहाँ-कहाँ घूम चुके हो क्योंकि मेरे साथ अगर कोई पहली बार जाता है तो उसे मेरी कुछ बाते ऊँट-पटाँग लगती है, जैसे सुबह जल्दी उठना-चलना, खाना सुबह आठ बजे के बाद ही खाना, व शाम को जल्दी रुक जाना।
ईमेल भेजने वाले बंदे का नाम है पण्डित विपिन जी, इन्होंने अपने बारे में विस्तार से बताया कि मैं यहाँ-वहाँ तक घूम चुका हूँ, सुन कर बडी खुशी हूई, व इन्हे साथ चलने की हरी झण्डी दे दी। लेकिन विपिन को बाइक चलानी नहीं आती थी, अत: ऐसा बंदा चाहिए था जिसके पास बाइक हो व हमारे जैसा सिरफ़िरा हो, दो बाइक वालों ने मुझसे सम्पर्क किया व तीसरे ने नीरज के साथ, पहले संतोष तिडके नांदेड वाले, दूसरे सिद्धांत नीरज के जानने वाले, व तीसरे नितिन जाट।
पीठ पीछे ढाबा है, नीरज बिस्कुट से काम चला रहा है। सफ़ेद कमीज वाला नितिन व गुलाबी वाला विपिन है