हर की दून बाइक यात्रा-
स्वर्गरोहिणी पर्वत का आधार सामने दिखाई दे रहा है।
गढवाल निगम का भवन और हर्षिल का पवाँर,
ओसला की ओर जाता हुआ नदी का जल।
सामने देखो वही से होकर आये थे।
भालू शब्द पर पिछला लेख अधूरा छोडा था, बात ही कुछ ऐसी थी कि जब हम हर की दून से कोई एक-दो किमी पहले ही होंगे तभी मुझे भालू के पाँव के ताजा निशान नजर आये, दिमाग में तुरन्त भारी उथल-पुथल मच गयी कि यार आज मारे गये भालू के हाथों, लेकिन हम भी ठहरे पूरे ऊँत खोपडी के जाट, बिना लडे हार मानने वाले तो हम भी ना थे, सबसे बडी बात जो उस समय थी कि हम दोनों में से कोई भी जरा सा भी नहीं थका हुआ महसूस नहीं कर रहा था, अत: भालू के निशान देखते ही सबसे पहले मैंने चारों और नजर घुमायी, भालू नजर नहीं आ रहा था, लेकिन ये भी पक्का था कि भालू कहीं आस-पास ही मौजूद था जिस कारण मैंने सांगवान को कहा देख भाई ये है भालू की निशानी, अब बता: लड कर जीतने की कोशिश करेगा या चुपचाप भालू का खाना बनना है, तो सांगवान ने कहा कि अब करना क्या है? उस जगह जहाँ हम खडे हुए थे एकदम घनघौर जंगल था मार्ग के नाम पर मुश्किल से दो फ़ुट की पगडंडी ही थी, सबसे पहले हमने एक लठ जैसी लकडी तलाश की, जो कि सांगवान को दे दी, साथ ही हम दोनों ने 5-5 पत्थर अपनी पतलून की जेब में भी भर लिये और जितने हो सकते थे उतने अपने-अपने हाथ में भी ले लिये। इतना सब करने के बाद हमने सामने दिखाई दे रहा लकडी का पुल पार किया, भालू जरुर यहाँ पर पानी पीने के लिये आया होगा, जिस कारण उसके पैरों के निशान यहाँ पुल के पास नजर आये थे। अब तक तो हम खूब धमाधम करते हुए आ रहे थे, लेकिन अब अचानक दोनों को जैसे साँप सूँघ गया हो। हम चुपचाप धीरे-धीरे चलते रहे, तेज ना चलने के दो कारण थे। पहला कि तेज चलने से हमें भालू की आवाज नहीं सुन पाती, दूसरा जंगली जानवर तेज चलने व डर कर भागने वाले प्राणी पर आसानी से हमला कर देते है। अगर आप हिम्मत करके जंगली जानवर के सामने डट जाओ तो जंगली जानवर ज्यादा देर मुकाबला नहीं कर पाता है, जल्दी मैदान छोड भाग खडा होता है। पुल से थोडा ही आगे बढे थे कि मार्ग से थोडा सा हटकर नीचे ढलान पर भालू कुछ तलाश कर रहा था अब हम एकदम चुपचाप लगभग आधा किमी शान्ति से चल रहे थे व बार-बार पीछे मुड कर देखते भी रहे थे कि कहीं भालू पीछॆ से हमला ना कर दे, भालू बहुत तेज जानवर होता है आप स्टेमिना व फ़ुर्ती में उसका मुकाबला नहीं कर सकते हो। जंगली जानवर हमेशा लापरवाह प्राणी पर हमला करते है।
स्वर्गरोहिणी पर्वत का आधार सामने दिखाई दे रहा है।
मैं पैदल यात्रा में कभी भी लाठी या डन्डा लेकर नहीं चलता हूँ लेकिन मेरे साथ एक छोटी सी डिब्बी में एक हथियार हमेशा रहता है। खासकर ऐसी भीषण जंगलों की यात्रा के समय तो हर हालत में होता ही है, पुल पर मैंने अपनी हथियार की डिब्बी भी निकाल ली थी ताकि हमारे लाख रोकने की कोशिश करने पर भी भालू हमारे नजदीक आता है तो अपना आखिर हथियार उस पर चलाना है। जाट देवता पर देवताओं का आशिर्वाद रहा है कि अब तक मुझे उस बेरहम हथियार प्रयोग करने की जरुरत नहीं पडी है। अब आप सोच रहे होंगे कि वो हथियार क्या है आपको वो भी बता देता हूँ उसका नाम है बारीक पीसी हुई लाल मिर्च का पावडर। अब आयी बात इसे चलाने की तो सबसे पहले कोशिश होने चाहिए कि इसकी जरुरत ही ना आये यदि आन ही पडे तो इसका प्रयोग कैसे करना है ये बता देता हूँ कि जब आपको ये अंदेशा हो कि अब कभी भी हमला हो सकता है तो ये मिर्च आपके हाथ में आ जानी चाहिए ताकि दुश्मन पर इसका हमला किया जा सके। ये मिर्च पावडर सिर्फ़ आँखों मे ही डालना, ये तभी कामयाब होगा हाँ हो सके तो इसे हवा में उडाकर आगे/ पीछे निकल जाये ताकि कोई आपका पीछा करे तो उसको इसका मजा मिल जाये। हम दोनों आसानी से बिना खतरे के हर की दून जा पहुँचे, लेकिन सुबह की एक बात बतानी तो याद ही नहीं रही थी, वो ये थी कि जब हम ओसला में सुबह ठीक पौने 6 बजे मैगी खाकर बाहर निकले तो देखा कि आसमान में ढेर सारे काले-काले बादल थे जिससे मौसम बहुत ही भयंकर दिखाई दे रहा था। रात की जबरदस्त ठन्ड देखने के बाद सोचा कि अगर-अगर बीच मार्ग में कहीं भी जोरदार वर्षा हो गयी तो फ़िर उस खतरनाक ठन्ड से कैसे बचेंगे। हम दोनों ने एक बार सोचा कि भलाई इसी में है कि यहीं (ओसला) से ही वापिस चलते है, फ़िर कभी आ जायेंगे। हम वापसी की बाते कर ही रहे थे कि वो दुकान वाला जहाँ हम मैगी खा रहे थे बोला कि यहाँ सुबह-सुबह मौसम खराब जरुर है लेकिन वर्षा होने की उम्मीद बिल्कुल नहीं है, हाँ शाम को वर्षा हर हालत में होकर रहेगी, अत: आपको शाम होने से पहले तो वापिस आना ही होगा। दुकान वाले की ये बात सुनकर अपना जोश बढा और हमने अपना एक बैग उठाया व हर की दून की ओर चल दिये थे।
वन विभाग का विश्राम भवनगढवाल निगम का भवन और हर्षिल का पवाँर,
वैसे हम दोनों को यहाँ तक आने में कोई खास परेशानी, दर्द, थकावट कुछ नहीं हुई। जब हम हर की दून पहुँचे तो देखा कि यहाँ सिर्फ़ दो ठिकाने रुकने के लिये थे पहला वन विभाग का, दूजा गढवाल निगम का। वैसे दोनों में कोई 200-250 मी का फ़ासला तो जरुर है। सबसे पहले हमने नदी के ऊपर से पत्थरों का बनाया हुआ पुल द्धारा ये नदी पार की थी, उसके बाद सीधे सामने दिखाई दे रहे वन विभाग के विश्राम भवन पर जा पहुँचे यहाँ जाते ही वन विभाग के रक्षक ने हमसे वो पर्ची माँगी जो हमने 150-150 रु देकर नैटवाड चैक पोस्ट से बनवायी थी, साथ ही ये भी मालूम किया कि अगर कोई बिना पर्ची के यहाँ तक आ जाये तो उस पर क्या जुर्माना होगा तो हमें बताया गया कि जो रु आपको वहाँ देने थे वो यहाँ पर देने होंगे। जब हम पर्ची दिखा रहे थे तभी एक बंदा हमारे पास आया और बोला कुछ खाओगे, धर्मेन्द्र सांगवान बोला "क्या खिलाओगे"? तो उसने कहा कि "परांठे", तो भाई ले आ दो-दो तो, दो खा के फ़िर बतायेंगे कि और चाहिए या नहीं। उसने कहा कि अभी आधा घन्टा लग जायेगा तब तक आप घूम आओ। जब तक उसने परांठे बनाने की तैयारी की हम गढवाल निगम के भवन की ओर चले गये, वहाँ जाकर देखा कि एक बंदा जो चुपचाप खडा हुआ था अचानक ऊपर की ओर भागा, हमें कुछ समझ नहीं आया कि इसको अचानक क्या हुआ है? हम भी उसके पीछे-पीछे चले गये तो देखा कि वो बन्दा सामने कुछ देख रहा था, मैने कहा क्या हुआ वो बोला चुप रहो सामने भालू है? अब भालू सुनते ही अपुन भी चुप की यार ये भालू आज अपना पीछा छोडेगा या नहीं, जब दो तीन मिनट हो गयी और भालू नहीं दिखा तो वो बोला लगता है कि भालू ने हमें देख लिया है जिससे वो उस चट्टान के पीछे छुप गया है उसके इतना कहते ही उस चट्टान की पीछे से एक काले रंग का बैल बाहर निकाला तो वो बडा खुश हुआ और बोला अरे! मैं इसी बैल को काले रंग व झाडी के कारण भालू समझ बैठा था। उसके बाद उस बन्दे से खूब बाते हुई और ये भी पता चला कि वो उतरकाशी में हर्षिल के पास का रहने वाला है और उसका नाम भी आखिर का पवाँर ही है। वो बन्दा गढवाल निगम के भवन का संचालन करता है।
दर्रे की ओर से आता हुआ नदी का स्वच्छ जल।ओसला की ओर जाता हुआ नदी का जल।
हमने वहाँ के ढेर सारे फ़ोटो लिये, फ़ोटो लेते समय हमें एक पत्थर के पास रात में गिरी हुई ताजा बर्फ़ दिखाई दी, मैंने वो बर्फ़ खायी व सांगवान को भी खिलायी व वापस आकर अचार के साथ दो-दो परांठे खाये। खाने के बाद यहाँ के बारे में पता चला कि यहाँ से सामने पास को पैदल मार्ग द्धारा पार करने पर हिमाचल की ओर जाया जा सकता है, सामने दिखाई दे रही बर्फ़ का ग्लेशियर जिसका नाम स्वर्गरोहिणी पर्वत है, जिसका आधार मुश्किल से दो-तीन किमी दूरी पर ही है। अगर किसी को यमुनौत्री जाना हो तो यहाँ से बर्फ़ का ग्लेशियर पार करते हुए दो-तीन दिन में ही बन्दर पुँछ होते हुए यमुनौत्री पहुँचा जा सकता है, यमुनौत्री के बारे में जिक्र करने पर एक बन्दे ने बताया कि सामने का ग्लेशियर काफ़ी ढलान वाला है जिससे इस पर उतरना व चढना दोनों खतरनाक है, बीते सितम्बर माह में(हमारे से मात्र दस दिन पहले) यमुनौत्री से आते हुए एक बंगाली ग्रुप जबरदस्त बर्फ़बारी में फ़ंस गया था और उस बर्फ़बारी के कारण ऊपर से चट्टान खिसकने से एक 19 वर्ष की उम्र के लडके के सिर में पत्थर लगने के कारण मृत्यु हो गयी थी, सबसे दुख की बात तो ये हुई कि ऐसी कठिन हालात में जहाँ से किसी का स्वयं बाहर आना ही मुश्किल होता है एक पार्थिव शरीर को कैसे साथ लाये, इसी मुश्किल में उन्होंने वही पर उसका दाह-संस्कार कर दिया था। परमात्मा उसकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे। वैसे एक आम इन्सान स्वर्गरोहिणी पर्वत के आधार तक आसानी से जा सकता है, बस स्वर्गरोहिणी पर्वत पर आरोहण करने की ना सोचे तो उसकी भलाई है।
सामने देखो वही से होकर आये थे।
अब कुछ देर मस्ती हो जाये, फ़िर तो चल-चला-चल रहेगी।
हम सबकुछ देखदाख कर ठीक दोपहर के 12 बजे वापिस चल पडे, हमारे साथ-साथ चार-पाँच लोग और चल पडे उनमें से तीन को तालुका तक जाना था, दो को ओसला जाना था मैंने भी सोच रखा था कि तीन घन्टे में ओसला व आगे फ़िर तीन में तालुका तक जाया जा सकता है? यहाँ पर फ़ोटो खींचने के कारण हम थोडा सा पीछे चल रहे थे, पहला वृक्षों का झुरमुट पार करने के बाद जो ढलान आती है वहाँ पर धर्मेन्द्र सांगवान अचानक भागने लगा, मैं भी बिना कुछ देखे उसके पीछे भागने लगा, जब तक कुछ समझ में आता तब तक देर हो चुकी थी। मैं समझा कि फ़िर से कोई जंगली जीव-जन्तु धर्मेन्द्र सांगवान को दिखाई दिया है लेकिन वैसा नहीं था। लेकिन ढलान पर धर्मेन्द्र सांगवान को भागना बहुत मंहगा पडा।
इस भागने के कारण वापसी बहुत बुरी बीती जिसके बारे में अगले लेख में बताऊँगा...................
हर की दून बाइक यात्रा के सभी लेखों के लिंक नीचे दिये गये है।
भाग-04-हर की दून के शानदार नजारे। व भालू का ड़र।
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हर की दून बाइक यात्रा-
36 टिप्पणियां:
भालू का आपने फोटो नहीं लिया लेकिन वह मुझे हर फोटो में दिखा- काले रंग का भालू. :))
जीवट का विवरण और बढ़िया फोटो.
’हिम्मते मर्दां मददे खुदा’ - इस पोस्ट का इंतज़ार वसूल हुआ, भालू देवता और जाट देवता जैसे सिकंदर और पौरस-दोनों ने एक दूसरे का सम्मान किया।
अब इस पोस्ट को भी सस्पेंस प्वाईंट पर लाकर छोड़ा, ढलान पर महंगाई दर क्या रही, देखेंगे अगली कड़ी में हम लोग:)
संदीप, विवरण पढ़ते समय ऐसा लगता है कि हम साथ साथ ही सफ़र कर रहे हैं। बहुत शानदार।
थकान और पराठें, पूरा साहित्य लिखा जा सकता है।
संदीप जी भालू को जीवंत देखने का अनुभव तो बस आप ही महसूस कर सकते हो
लेकिन आपका हथियार बहुत अच्छा लगा और मैं भी आगे से इसी हथियार को
अपने साथ रखूंगा,,, ये जानकारी बहुत काम की है धन्यबाद,,,,
बाकी यात्रा मैं अभी तक बहुत रोमांच आ रहा है
Eye catching as usual.Good to read this beautiful post .Congratulations for this feat.
Good to read this post .
भालू और सुन्दर चित्रों से भरी हुई रोचक पोस्ट पढवाने के लिए धन्यवाद. ....
संदीप जी आज तो जान बचाने का हथियार बता दिया आपने
आगे से मैं भी इसे अपने साथ रखा करूंगा
भालू की सूंघने की शक्ति बड़ी तेज होती है । कई किलोमीटर दूर से सूंघ कर पता लगा सकता है शिकार का ।
भाई मिर्चें आँखों में डालने के लिए तो आखिरी साँस का भी इंतजार करना पड़ेगा । यानि यदि चूके तो गए । फिर भी अच्छा हथियार है , शहर के भालुओं के लिए भी । :)
आज की पोस्ट में लग रहा है कि हर की दून पहुँच गए हैं । बहुत सुन्दर फोटोग्राफ्स हैं । मज़ा आ गया देखकर । और यादें भी ताज़ा हो गईं । टोंस नदी के किनारे टेंट गाड़कर हमने दो दिन बिताये थे । ग्लेसियर तक भी जाना हुआ था ।
वहां हमारे एक साथी के साथ वही हुआ था जो शायद सांगवान के साथ हुआ होगा ।
विश्राम भवन तब बन रहे थे । आप एक दो दिन रुके क्यों नहीं ? आनंद आ जाता रात में रूककर ।
अपने मोडरेशन बिना बात लगा रखा है । इसे हटा दीजिये ।
HIMMAT HO TO AISI.
like the narration
nice post
आज ११-११-११ है...और वादे के अनुसार आपकी पोस्ट आ गयी...मज़ा आ गया यात्रा-वृतांत पढ़ कर...स्वर्गारोहिणी तो बद्रीनाथ के आगे पड़ती है...
वाह जी...भालू जिन्दाबाद...घुमक्कड़ी जिन्दाबाद!!
मैंने कहा था ना कि स्वर्गारोहिणी तक पहुंचना हंसी खेल नहीं है। हां, स्वर्गारोहिणी के बेस तक पहुंच सकते हैं। आप क्यों नहीं गये? एक दिन तो वहां रुकना चाहिये ही था।
जाट देवता का ...रोचक और रोमांचक सफ़र...
अगले पढाव के लिए शुभकामनाएँ!
bahut badiya vivran sandeep ji.
lal mirch ka paryog insanon per to thik hai, per bhaloo per paryog karne se pehle ek bar kisi aur janvar per practical kar ke dekh lena sandeep ji, ki yeh actually work karta hai ya nahin. Otherwise lene ke dene pad jayenge.
Bahot hi badhiya pictures,Sandeep ji!:-)
very intresting......
interesting description with beautiful pictures.
रोचक और रोमांचक सफ़र...
अगले पढाव के लिए शुभकामनाएँ!
जादू बरकरार है इन वादियों का आपने संदीप भाई याद ताज़ा कर दी .जख्म कुरेद दिए .
Sandeep Bhai,
Many Many congratulations on being the "Featured Author of the month November 2011" on Ghumakkar.com.
Thanks.
बहुत अच्छे संदीप जी. लेख पढ़कर मज़ा आ गया.
धन्यवाद
संदीप जी
शुक्रिया संजीव भाई .माया की मार वेव एनर्जी से कम नहीं पड़ेगी राजकुमार पर .आप लगे हाथों लखनऊ हो आवो .
हर तरफ एतराज़ होता है ,मैं जहां रौशनी में आता हूँ .
What a gorgeous valley!
बहुत कुछ पठनीय है यहाँ आपके ब्लॉग पर-. लगता है इस अंजुमन में आना होगा बार बार.। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद !
अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर...........सही लिखा है आपने के घुमक्कड़ होना किस्मत की बात है!
रोमांचक रोमांचक रोमांचक रोमांचक रोमांचक
मजा आ गया, आपके साथ यात्रा का आनंद लिया।
बहुत सुंदर
समय मिले तो मेरे एक नए ब्लाग "रोजनामचा" को देखें। कोशिश है कि रोज की एक बड़ी खबर जो कहीं अछूती रह जाती है, उससे आपको अवगत कराया जा सके।
http://dailyreportsonline.blogspot.com
Ati sundar likha hain. Jagahon ka vivran parh ke aisa laga mano wahi khada hoke dekh raha hoon !
आपने बहुत अच्छा लिखा है! चित्र भी बहुत अच्छे हैं! बधाई! आपको शुभकामनाएं !
आपका हमारे ब्लॉग http://tv100news4u.blogspot.com/ पर हार्दिक स्वागत है!
इस नयनाभिराम दृश्यावली और विवरण के संग साथ आपके ब्लॉग पर आकर टिपियाने के लिए दिल से आपका शुक्रिया आपकी टिपण्णी हमारी धरोहर है .
वृतांत बड़ी रोचक शैली मे लिख रहे हैं। अच्छा है।
swargarohi is near to satopanth badrinath not near to yamunotri.
this was the place from where yudhisthir went to swarg.
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