किन्नर कैलाश यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
01- दिल्ली से पोवारी तक kinner Kailash trekking
KINNER KAILASH TREKKING-09 SANDEEP PANWAR
तंगलिंग गाँव की उतराई समाप्त होते ही सतलुज
नदी दिखायी देने लगी। हम बीते 5 घन्टे से लगभग
बिना रुके उतरते जा रहे थे बीच में एक जगह बड़े पत्थर पर कुछ देर बैठकर बिस्कुट
खाये थे। जहाँ से यह चढ़ाई समाप्त/आरम्भ होती है। उसके ठीक सामने लोहे का रस्सी
वाला झूला बना हुआ है। हमें पोवारी के दुकान वाले ने बताया था कि झूले की मरम्मत
चल रही है। मैंने इसके पास आते ही अपना बैग इसके सामने पटक दिया। कैमरा मेरे गले
में लटक ही रहा था जब तक राकेश आता मैंने सतलुज के व इस झूले के फ़ोटो ले लिये। जिस
जगह से किन्नौर कैलाश की चढ़ाई/ट्रेकिंग आरम्भ होती है उसके ठीक सामने यह झूला है।
राकेश भी नीचे आ गया। कुछ देर विश्राम किया गया। जिस जगह हम बैठे थे यह जगह सतलुज
समुन्द्र तल से 2000 मीटर ऊँची है सुबह हम वन
विभाग के जिस कमरे से चले थे वह वृक्ष रेखा समाप्त होने के बाद बनाया गया है आमतौर
पर वृक्ष रेखा समुन्द्र तल से लगभग 3500-4000 किमी के आसपास मानी जाती है। हमने सुबह से कोई 8-10 किमी की दूरी तय
की होगी।
जब कुछ देर रुक कर शरीर को आराम मिला तो उस
शांगटांग पुल की ओर चल दिये जिससे होकर हम यहाँ आये थे। अगर यह झूला सही होता तो
हमारे पैदल चलने के दो किमी बच जाते, वह पुल यहाँ से पूरे दो किमी दूर है। पुल की
ओर चले ही थे कि गाँव में पीने के पानी सप्लाई वाली टोंटी दिखाई दी। इसके ठीक
सामने एक दुकान थी। मैं पीने का पानी भरने के लिये इस नल पर रुक गया जबकि राकेश
दुकान पर पहुँच गया। पता नहीं उसे क्या खरीदना है यदि पहले पानी भर लेता तो दुकान
कही भागी तो नही जा रही थी। मैं अपनी बोतल में पानी भरकर आगे की ओर चलने लगा तो
राकेश बोला जाट भाई मेरी बोतल में भी पानी भर दो। राकेश को अपना बैग उतारकर व उसको
दुबारा कंधे पर चढ़ाने में आफ़त लग रही होगी। मैंने वापिस आकर उसकी बोतल पानी से
भरकर उसके बैग में घुसेड़ दी। अब यहाँ से कुछ आगे ही बढे थे कि वही दुकान आ गयी
जिसमें कार्य करने वाली महिलाओं से दो प्लेट चाऊमीन बनवा व पैक करवाकर दो दिन पहले
ऊपर लेकर गये थे।
इस दुकान के सामने ही वह नाला है जिसे हमने कई
बार इधर से उधर पार किया था। यहाँ पर इस नाले को पार करने के लिये अच्छा खासा पुल
बनाया हुआ है। इस पुल की फ़ोटो मैं पहले ही दूसरे लेख में दिखा ही चुका हूँ। इस पुल
के इस ओर उल्टे हाथ पर वह दुकान थी जहाँ से हमने अपने लिये बिस्कुट के पैकेट लिये
थे। अब हमें बिस्कुट लेने की आवश्यकता नहीं थी इसलिये पुल पार करने लगे। यहाँ पुल
पार करते ही ध्यान आया कि रामपुर वालों ने अपनी कार यही पुल के साथ हमारे सामने ही
तो पार्क की थी। हमें नीचे आते समय कही भी रामपुर वाले दिखायी नहीं दिये थे। यहाँ
उनकी कार दिखायी नहीं दी। हम सुबह सबसे पहले चले थे हो सकता है कि रामपुर वाले रात
को ही यहाँ आये हो या सुबह हमसे पहले यहाँ आ गये हो। खैर कुछ भी हो, रामपुर वाले
बन्दे भी मस्त नौजवान थे। उनके साथ हम लगभग डेढ दिन ट्रेकिंग पर आगे-पीछे चलते रहे
थे।
इस पुल से आगे निकलने के बाद मार्ग के उल्टे
हाथ सेब के बहुत सारे पेड़ सेब से लदे हुए दिख रहे थे। हमने ऊपर एक औरत से 100 रुपये के सेब खरीदे थे उसके बाद एक अन्य औरत से
भी सेब खरीदने के लिये कहा था लेकिन उसने लगभग 10-12 सेब बिना पैसे के ही दे दिये थे। मैं और सेब खरीदना नहीं चाहता था इसलिये मैं
आगे निकल आया था। जब राकेश से मैंने पूछा कि गाँव में नीचे वाली औरत ने कितने पैसे
सेब के लिये तो राकेश बोला उसने पेड़ के नीचे पक कर गिरे सेब मुझे दिये थे उसने
उनके बदले कोई पैसा नहीं लिया था। बीच में मेरे हाथ भी एक जगह कई सेब लग चुके थे
इस तरह हम दोनों के पास दो-दो किलो से ज्यादा सेब हो चुके थे। अब जो सेब के पेड़
हमें दिख रहे थे। उनपर सड़क किनारे होने के कारण धूल चिपकी हुई साफ़ दिख रही थी।
यहाँ से कुछ आगे चलने के बाद शांगटांग का बड़ा
वाला लोहे का पुल दिखाई देना शुरु हो गया था। नीचे सतलुज में नजर गयी तो सतलुज का
रौद्र रुप देखकर दिल दहल गया। जिस तूफ़ानी गति से सतलुज का जल आगे धमाल-चौकड़ी मचाता
हुआ बढ़ता जा रहा था उसे देख लगता था कि यदि यह जल दो-तीन मीटर और बढ़ जाये तो
किनारों का कबाड़ा करता हुआ चला जायेगा। हमने पुल तक का सफ़र सतलुज के पानी का भयंकर
रुप देखते हुए ही तय किया। आगे पुल के पास कुछ मजदूर कार्य कर रहे थे। पहाडों में
मजदूरी करने वाला ज्यादातर लोग नेपाली या बिहारी/झारखन्डी पाये जाते है। जब मैंने
इनका फ़ोटो निकालने के लिये कैमरा निकालकर इनकी ओर किया तो यह चारों फ़ोटो खिचाने के
तैयार हो गये। मजदूर लोग मेहनत का काम करते है उनके चेहरे पर हमेशा खुशी पायी जाती
है जबकि आरामदायक काम करने वाले लोग हमेशा रोते-धोते रहते है।
मजदूरों का फ़ोटो लेने के बाद आगे चले ही थे कि
वहाँ हमें देख सड़क पर खड़े दो लोग ऊपर देखकर बोल पड़े, रुको। रुको सुनते ही हमने ऊपर
देखा कि वहाँ पर किसी गाँव के लिये बनायी जा रही सड़क पर कार्य चल रहा है उस सड़क से
नीचे मलबा फ़ैंका जा रहा था नीचे दो बन्दे मलबे के दोनों किनारों पर इसलिये खड़े
किये गये थे कि आने जाने वाले को चोट ना पहुँचे। जब हमने मलबा गिरने का क्षेत्र
पार कर लिया तो उन्होंने फ़िर से मलबा गिराना शुरु कर दिया था। पुल के करीब पहुँचे
तो वहाँ एक पक्के मकान नुमा ठिकाने में नजर चली गयी। इसके अन्दर देखा कि वहाँ
सैकड़ों मुर्गियाँ भरी हुई है इन मुर्गियों को दो बन्दे काटने-छीलने में लगे हुए थे
जब हमारी नजर उनपर पड़ी तो उन्होंने तब तक दो-तीन फ़ुट ऊँचा ढेर मुर्गियों को काटकर
बना लिया था।
मांसाहारी लोग पहले इनके अन्ड़े खाते है जब यह
अन्ड़े देने में असमर्थ हो जाती है तो इन्हे काटकर खा लिया जाता है। इनकी हालत ठीक
उसी तरह है जैसे कथित हिन्दू लोग गाय-भैसों को तब तक पालेंगे जब तक वे दूध देती
रहेंगी। जैसे ही पालतु पशुओं ने दूध देना बन्द किया। यही लोग इन्हे कसाईयों को
बेचकर अपना लाभ कमा लेंगे। जब कही गौहत्या करते हुए कथित रुप से शांतिप्रिय धर्म
(कटुवे) के लोग पकड़े जाते है तो यही लोग सबसे ज्यादा हाय-तौबा मचाते है। मैं बीते
तीन साल से देख रहा हूँ कि समाज के ठेकेदार के घर में यदि भैस ने नर बच्चा दे दिया
तो उसको साल भर का होते-होते कसाई को बेच देंगे। यदि गाय पाली है तो उसके नर बच्चे
को गौहत्या के ड़र से बेचेंगे तो नहीं लेकिन उसको सड़क पर आवारा पलने के लिये खुला
छोड़ देंगे। फ़िर इन आवारा घूमते पशुओं को कथित रुप से पुन्य़, दान, धर्म का दिखावा
करने के नाम पर गली मोहल्ले में भटकते हुए देखा जा सकता है लेकिन यहाँ मैं जिस बात
को कहने जा रहा हूँ जरा उस पर गौर करना, दुनिया का एक कथित रुप से बेहद ही शांत
धर्म है हमारे यहाँ इन्हे कटुवे कहा जाता है। इनका एक खास त्यौहार आता है इनके
त्यौहार से ठीक पहले यह सड़क पर पलते आवारा पशु रातो रात गायब हो जाते है इनके खास
बलि वाले उस त्यौहार के बाद गायब हुए पशु दुबारा दिखायी नहीं देते है। सच क्या है? ये जानवर कहाँ गायब होते है? माँस का व्यापार सभी धर्मों के लोग करते है, सुना है बलि देने के लिये जानवर खरीदना या पालना पड़ता है। मैं बीते
तीन सालों से ध्यान से यह बात देखता आ रहा हूँ। अगले साल के लिये फ़िर से धर्म के
नाम पर नयी पौध सड़कों पर आवारा भटकने/पलने के लिये छोड़ दी जाती है।
छोडिये धर्म-कर्म की बाते
खासकर हिन्दू धर्म
जिस पर कथित रुप से चन्द प्रभावशाली बामणों का कब्जा है। मुझे कई बार पुजारी व
भिखारी के बारे में लिखते हुए देखा होगा। एक मन्दिर का पुजारी कम दान मिलने के कारण
जीवन भर गरीबी में व्यतीत करता है जबकि उसी भगवान के दूसरे मन्दिर का पुजारी
ज्यादा दान मिलने के कारण मौज से ऐशो आराम से पूरा जीवन निकाल जाता है बल्कि पीढी
दर पीढी यह अमीरी बढ़ती जाती है। यदि भगवान है तो गरीब पुजारी के साथ यह अन्याय क्यों? आज के दौर में भारत में कई मन्दिर बहुत अमीर है
जैसे तिरुपति मन्दिर इन मन्दिर में मिली धन राशि का कितना हिस्सा हिन्दू धर्म की
भलाई में लगता है और कितना हिस्सा हिन्दू धर्म के खिलाफ़ कार्य करने वालों को दे
दिया जाता है। मुझसे मत पूछना, नेट पर खोजिये बहुत जानकारी मिल जायेगी। हिन्दू
धर्म को कुछ लोग सबसे महान कहते है मैं भी ऐसा ही मानता हूँ लेकिन जहाँ से हिन्दू
धर्म समाप्त होता है वहाँ मुस्लिम धर्म का कब्जा होता जा रहा है। जैसे
अफ़गानिस्तान-पाकिस्तान, बंगला देश। धर्म को व्यापार बनायेंगे तो और क्या होगा? चलो
बहुत भाषण बाजी हो गयी अब अपनी यात्रा पर लौट चलते है।
पुल पर पहुँचकर हमने अपने बैग एक किनारे रख
दिये। यहाँ पर एक दो जीप आयी लेकिन उन्होंने हमसे नहीं पूछा कि कहाँ जाना है? हमने
उन्हे नहीं बताया। इस बीच दो-तीन ट्रक भी वहाँ से होकर निकले तो मन में विचार आया
कि क्यों ना ट्रक में रामपुर की ओर चला जाये। आधा घन्टा बस की इन्तजार करने की
सोची यदि तब तक बस नहीं आयी तो फ़िर ट्रक से रामपुर की ओर निकल जायेंगे। मुश्किल से
10-15 मिनट ही हुए होंगे कि कल्पा-चन्ड़ीगढ का बोर्ड़
लगी एक बस आती दिखायी दी। हमने बस को रुकने का ईशारा किया तो बस रुकी, लेकिन जैसे
ही बस रुकी और हमने उसका दरवाजा खोलकर अन्दर देखा तो वहाँ बैठने के लिये कोई सीट
खाली नहीं मिली। यहाँ से रामपुर जाने में कम से कम तीन घन्टे का समय लगना तय था।
अगली बस पता नहीं कितनी देर में आयेगी इस बात की जानकारी नहीं थी इसलिये उसी बस
में खड़े होकर आगे की यात्रा करते रहे। परिचालक जब टिकट देने आया तो राकेश ने चन्ड़ीगढ़
की टिकट कटवानी चाही लेकिन उसने कहा कि यह बस रामपुर तक ही जायेगी। चल भाई रामपुर
तक की टिकट दे दे। मैंने राकेश को पहले ही बोल दिया था कि मैं आज रामपुर ही
रुकूँगा। मैं एकदम ठीक था मैं सो रहा था कि एक छोटा-मोटा ट्रेक और करता हुआ जाऊँ,
राकेश के पैर में छाले थे इस कारण वह दिल्ली जा रहा था। मेरे मन में कई जगह जाने
के विचार आ रहे थे। राकेश ने पूछा भी था कि कहाँ जाओगे? पता नहीं सुबह देखूँगा।
जहाँ की बस पहले मिलेगी वहाँ निकल जाऊँगा। ज्यूरी से पहले किन्नौर के सड़क मार्ग के
उस हिस्से की यात्रा के दर्शन होते है जिसे फ़ोटो में देख मैं समझता रहा कि यह
खतरनाक सड़क कहां की है?
यहाँ आते समय मैं सड़क पर पत्थरों के बीच से व
नीचे से अपनी बस निकलती हुई देखी थी। वापसी में मैं उस पत्थर के फ़ोटो लेने के लिये
उतावला था जहाँ बस बड़े से पत्थर नुमा सुरंग जैसी जगह से निकलती है। मैंने बस चालक
से पहले ही बोल दिया था कि जब सड़क पर वह पत्थर आयेगा तो बता देना मुझे उसका एक
फ़ोटो लेना है। बस चालक के पास एक बन्दा बैठा हुआ था वह शायद निजी गाड़ी चलाने वाला
था। जब सड़क पर वह पत्थर आया तो चालक ने उसे पार करते ही बस रोक दी। मैं बाहर जाकर
उसका फ़ोटो ले आया। चालक बोला इतनी जल्दी, हाँ बस पत्थर का फ़ोटो ही लेना था चालक
बोला मैं सोच रहा था कि आप अपना फ़ोटो खिचवाना चाहते हो। ना भाई, अपने फ़ोटो हजारों हो
चुके है यह शौक तो अपने राकेश भाई को बचा हुआ है। राकेश पैर में छाले के कारण फ़ोटो
खिचवाने को तैयार ना हुआ।
कोई 20 किमी जाने के
बाद करछम बाँध आया, यह वह जगह है जहाँ से चीन की सीमा नजदीक है छितकुल नामक गाँव
इस ओर भारत का अंतिम गाँव है यह वही छितकुल है जहाँ सांग्ला की शानदार घाटी से
होकर पहुँचा जाता है यहाँ हम अपनी बाइक से इस यात्रा के एक माह बाद ही गये थे
जिसके बारे में इस यात्रा के बाद बताया जायेगा। छितकुल से ट्रेकिंग करते हुए हर की
दून पहुँचा जा सकता है मैं दो साल पहले हर की दून की यात्रा करके यात्रा था। हर की
दून से स्वर्गरोहिणी पर्वत दिखायी देने लगता है। अपनी इच्छा है कि एक बार हर की
दून से छितकुल का ट्रेक किया जाये। करछम डैम पर बस की आधी से ज्यादा सवारियाँ उतर
गयी। हम समझे कि बस यहाँ कुछ देर रुककर जायेगी। लेकिन जब बस सवारियाँ उतारकर आगे
बढ़ चली तो हमने खाली सीट पर कब्जा जमा लिया। यहाँ से रामपुर तक बस में ज्यादा
मारामारी नहीं मची।
जगह का नाम याद नहीं रहा, एक जगह जाकर बस चालक
ने भोजन के लिये बस एक भोजनालय के आगे रोक दी। परिचालक ने कहा कि ठीक आधे घन्टे
बाद बस चलेगी तब तक सभी खा-पी कर बस में बैठ जाये। जिस दुकान पर हमारी बस रुकी थी
यहाँ राकेश ने भोजन के लिये एक थाली का आर्ड़र दिया जबकि मैंने शाकाहारी मोमो देने
के लिये कहा। दुकान वाली भोजन के पैसे खाने से पहले ही जमा करवा रही थी ताकि कोई
बाद में बिना पैसे दिये ना भाग जाये। यहाँ राकेश के पास खुले पैसे नहीं बचे थे
मैंने दुकान वाली को राकेश की थाली भर भोजन के 50 रुपये दे दिये।
राकेश की रोटी सब्जी वाली थाली तो जल्दी ही आ गयी लेकिन मेरी मोमो वाली प्लेट आने
में पूरे 10 मिनट लगे। मैं सोचने लगा
था कि कही दुकान वाली मेरे पैसे हजम ही ना कर जाये, तीन बार बोलने पर मोमो आये
लेकिन मोमो के साथ दिया गया सूप बहुत स्वादिष्ट बना था मैंने पूरे तीन कटोरी चट कर
दिया था। भोजन के उपराँत हमारी बस आगे बढ़ चली। आगे चलकर ज्यूरी नामक जगह भी आयी,
जहाँ से सराहन का भीमा काली मन्दिर जाने का मार्ग अलग होता है। बाइक यात्रा में हम
इस भीमाकाली मन्दिर भी गये थे। उसके बारे में भी स्पीति बाइक यात्रा में ही
बताया जायेगा।
रामपुर पहुँचकर हमारी बस नये बस अड़ड़े पहुँच
गयी। यहाँ बस अड़ड़े से राकेश ने दिल्ली जाने वाली बस के बारे में पता किया। यहाँ से
दिल्ली जाने वाली कई बसे थी। सबसे पहले जाने वाली बस हिमाचल सरकार की वातानूकुलित
बस सेवा थी जिसका समय शाम 04:45 बजे का था। उसके
बाद शाम 5
बजे हरियाणा रोड़वेज की बस
दिल्ली जाने वाली थी। हरियाणा रोड़वेज की दो बसे वहाँ खड़ी थी दूसरी बस पहली बस के
घन्टे भर बाद जायेगी। राकेश ने हिमाचल वाली AC बस में बैठने का
फ़ैसला किया। अगर मुझे राकेश के साथ दिल्ली जाना होता तो मैं कभी उसके साथ AC बस में नहीं जाता। जब साधारण बस उससे 250 रु कम में दिल्ली लेकर जा रही हो तो फ़िर 250 रु क्यों बेकार करने? लेकिन राकेश पैसे वाली
पार्टी है उससे इससे फ़र्क नहीं पड़ता। जबकि मैं घुमक्कड़ी में जितना हो सके, उतना
खर्चा कम करता हूँ।
राकेश की बस जाने में अभी आधा घन्टा था। इस समय
का उपयोग हमने अपना हिसाब-किताब करने में किया। मैं अपने साथ किसी यात्रा में जाने
वाले साथी को अपना अनुमानित खर्चा देते रहने को बोल देता हूँ। जब हमारा मार्ग अलग
होने की बारी आती है तब मैं उसकी पाई-पाई का हिसाब चुका देता हूँ। यहाँ हिसाब
चुकता करने में राकेश के पास कोई 50 रुपये ज्यादा हो
रहे थे। राकेश के पास खुले नहीं थे। इसका समाधान निकला कि चलो आम के रस वाली बोतल
पीते है लगे हाथ अपनी पसन्दीदा वस्तु आइसक्रीम भी दिखायी दी। हम दोनों ने एक-एक
बोतल आम रस की व एक-एक आइसक्रीम खायी। जो आइसक्रीम हमने खायी थी उसके बारे में
राकेश ने बताया था कि यह हिमाचल की सबसे ज्यादा बिकने वाली आइसक्रीम है। अपना
एक-एक पैसे का हिसाब भी हो गया था।
राकेश अपनी बस में जा बैठा, इधर मैं बस अड़ड़े
में बने डोरमेट्री में रात काटने के इरादे से जा पहुँचा। अपना बैग मैं पहले ही
डोरमेट्री में रखकर आ चुका था। डोरमेट्री में उस दिन बिजली के तारों की मरम्मत का
कार्य चल रहा था जिससे मुझे अपना कैमरा चार्ज करने के लिये डोरमेट्री संचालक के
कमरे में जाना पड़ा। बाद में पैसे (150 रु) देते समय
संचालक ने मुझसे पूछा कि आप कहाँ से आ रहे हो? मैंने उसे किन्नर कैलाश ट्रेकिंग के
बारे में बताया। कैमरा तब तक चार्ज हो चुका था मैंने कैमरे में फ़ोटो उसको दिखायी।
वह और उसकी पत्नी फ़ोटो देखकर बहुत खुश हुई। उन्होंने चलते समय बताया कि किन्नर
कैलाश की ट्रेकिंग से जयपुर के रहने वाले पति-पत्नी भी एक कमरे में ठहरे हुए है।
यह वही होंगे जो कल की रात गुफ़ा में ठहरे थे।
डोरमेट्री में गर्म पानी का भी प्रबन्ध था।
तीसरे दिन नहाने को मिला। गर्मा-गर्म पानी में नहाकर शरीर को काफ़ी सुकून मिला।
सुबह शिमला की सबसे ऊँची चोटी जाखू पर स्थित हनुमान मन्दिर देखते हुए दोपहर वाली
खिलौना लोकल ट्रेन (SHIMLA TOY TRAIN) से कालका जाने का इरादा बना लिया था। बस अड़ड़े पर
पता लगा कि शिमला जाने वाली पहली बस सुबह 04:45 मिनट पर जायेगी। रात को मोबाइल में 04 बजे का अलार्म
लगाकर सो गया। सुबह अलार्म बजते ही पैकिंग कर ली, रात को नहाया ही था अब सुबह
नहाने की जरुरत नहीं थी। फ़्रेश होकर अपना सामान उठाया और बस अड़ड़े पर अपनी बस में
बैठ गया। इस बस में बहुत ज्यादा भीड़ नहीं हुई।
सड़क पर एक जगह काफ़ी लम्बा जाम मिला। लेकिन आधा
घन्टा अटकने के बाद पुलिस वालों ने बसों को आगे जाने दिया जबकि ट्रकों को लाईन में
लगाये रखा। यह बस शिमला में बाई पास से होकर नहीं गयी। ढली होकर विधानसभा के आगे
से होते हुए उस जगह पहुँची जहाँ से जाखू चोटी पैदल आसानी से पहुँचा जा सकता था। बस
से उतरकर मैंने एक मजदूर से पूछा कि जाखू मन्दिर वाला मार्ग कौन सा है। वह मजदूर
बोला “आओ मेरे पीछे चलते रहो” वह मजदूर थोड़ी दूर चलकर सीधे हाथ दिखायी दे रही
सीढियों पर चढ़ने लगा। आज चढ़ने में मजा आ रहा था। लेकिन कल उतराई में आफ़त आ रही थी।
आड़े-तिरछे मोड़ चढ़ते हुए मैं रिज के पास चर्च के सामने पहुँच गया यहाँ से आगे का
मार्ग मुझे मालूम था। क्योंकि मैं शिमला वाली ट्राय ट्रेन व जाखू मन्दिर सन 2007 में आ चुका था। (यात्रा अभी जारी है।)
"लेकिन मोमो के साथ
जवाब देंहटाएंदिया गया सूप बहुत स्वादिष्ट
बना था मैंने पूरे तीन कटोरी चट
कर दिया था"
भाई जी पूरे पैसे वसूल करते हो
जाट भाई काम चटोरे नहीं है बस कभी कभी बताते है क्यों जाट भाई मिले तो कुछ नहीं छोड़ना ... ऑलवेज .....☺
हटाएंSandeep Bhai, Ye baat bilkul galat hai tyohar se ek din pehle sadkon se jaanwar gayab ho jate hein, ye main isliye keh raha hoon hamare dharam mein aise jaanwaron ki qurbani jaayaz nahi hai. Is behtar ye hai ke qurbani ki hi na jaye. Kyonki be faltu mein gunah kamane se kya fayda.
जवाब देंहटाएंसन्दिप भाई जय श्रीराम.यात्रा का पुरा लुफ्त उठाया जा रहा है राकेश भाई को अकेले नही आना चाहिए था यह मेरा मत है.समान लाने लेजाने वाली ट्राली पहाडो पर काफी दिख जाती है मणीक्रऩ वाले रास्ते पर तो बहुत दिखती है.जाखु मन्दिर मे बजरगंबली के दर्शन जल्द कराए.
जवाब देंहटाएंभाई बहुत सही बात कही.. धर्म के ठेकेदार सबसे ज्यादा ढोंग करते हैं... गोशालाएं गायों से अटी पड़ी हैं...एक भी गाय यदि दूध देने लग जाए तो उसका मालिक ढूंढते ढूंढते गोशाला आ पहुँचता है .... और मुस्लिम धर्म में इस प्रकार के आवारा पशुओं की कुर्बानी नहीं दी जाती... ये तो जिनके गाय भैंस दूध देना छोड़ देते हैं, वो ही कसाई को बेच आते हैं की कम से कम चमड़े का भाव तो मिलेगा....
जवाब देंहटाएंमोमो का सूप तो हमें कभी नहीं मिला, इस बार अवश्य पूछेंगे। पहाड़ों का सौन्दर्य स्पष्ट करते दृश्य।
जवाब देंहटाएंI would love to experience this.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चित्र हैं ...शुभकामनायें आपको
जवाब देंहटाएंमोमो के साथ सूप ...पहली बार सुना है ...डलहोजी में मोमो खाये थे अबी तक स्वाद जीभ पर है हा हा हा हा ...
जवाब देंहटाएंशिमला में हम भी जाखू टेम्पल देखने चर्च वाले रस्ते से ही गए थे ..जहा काफी बंदरो ने हमारा स्वागत किया था ...
रोचक वर्णन तथा मोहक चित्र संदीप भाई। जाखू मंदिर देखने का इंतज़ार ........
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