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गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

forest house to Tangling Village वन विभाग के कमरे से तंगलिंग गाँव तक खतरनाक ढलान

किन्नर कैलाश यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।

KINNER KAILASH TREKKING-08                                         SANDEEP PANWAR

अंधेरा होते-होते हम वन विभाग के उसी कमरे तक पहुँच गये थे जहाँ कल वाली रात बितायी थी। आज पूरे दिन की खतरनाक लेकिन यादगार ट्रेकिंग करने के उपराँत कल वाली जगह पहुँचना राहत की बात थी। यहाँ से सुबह ठीक 6 बजे चले थे आगे के जटिल मार्ग को देखते हुए हमने सोचा था कि हमें रात गुफ़ा तक आने में ही हो जायेगी, लेकिन हम उम्मीद से ज्यादा चले। तेज चलने के सिर्फ़ दो कारण मेरी समझ में आते है कि इस यात्रा में हम सिर्फ़ दो ही बन्दे थे यदि ज्यादा होते तो शायद गुफ़ा पर ही रुकना पड़ सकता था। लेकिन पैदल चलते समय राकेश की हिम्मत की जितनी सराहना की जाये कम है मैं अपनी बात नहीं कर रहा हूँ मैं एक अलग खोपड़ी का प्राणी हूँ पता नहीं, परमात्मा ने मुझे क्या सोच समझ कर बनाया था। बात हो रही थी राकेश की, मैंने राकेश की हिम्मत देख कर पूछ ही लिया कि राकेश भाई यह बताओ अपनी दैनिक जिन्दगी में अपने आप को फ़िट रखने के लिये कुछ कसरत आदि करते हो या नहीं। राकेश बोला जाट भाई मैं रोज सुबह 5 बजे बिस्तर छोड़ देता हूँ। कई किमी साईकिल चलाकर एक बड़े से पार्क में हल्की-फ़ुल्की कसरत करने जाता हूँ। 


साईकिल का नाम सुनते ही मैं समझ गया कि बन्दा पैरों से मजबूत है। लेकिन यह क्या? पैरों से मजबूत होने के बावजूद तुम्हारी ऐड़ी में छाले पड़ने आरम्भ हो गये है। आखिर छाले पड़ने का क्या कारण रहा होगा। वैसे तो राकेश इससे पहले भी कई ट्रेक कर चुका था लेकिन लगता था कि यहाँ की पथरीली चट्टानों में चलने के कारण राकेश के पैरों में छाले पड़ने शुरु हो गये है। मैं तो शाम को ही रात में उतराई उतरने की सोच कर बैठा था लेकिन राकेश के छाले के चक्कर में हमें उसी कमरे में पुन: रुकना पड़ा। रात में यही रुकना एक सही फ़ैसला था। अगर हम रात को चलते तो पहली बात राकेश को पूरे दिन चलने के बाद बिना आराम किये आगे की यात्रा छालों के साथ करनी पड़ती जो बहुत कष्टदायक होती। दूसरी बात हमें इस मार्ग में फ़ोटो लेने का मौका नहीं मिलता। फ़ोटो मेरे लिये उतने महत्वपूर्ण नहीं रहते है मेरा जोर फ़ोटो पर कम व ट्रेकिंग का आनन्द लेने में ज्यादा रहता है।

कमरे में अन्दर पहुँचकर देखा कि वहाँ तो आज भी 8-10 बन्दे अपना डेरा जमाये हुए है। हम कल जिस कोने में सोये थे वह कोना आज भी खाली पड़ा हुआ था। हमने एक बार फ़िर कल वाली जगह ही अपने मैट बिछा दिये। पैदल चलते हुए ठन्ड़ नहीं लग रही थी लेकिन थोड़ी देर रुकने के बाद शरीर ठन्ड़ा पड़ना आरम्भ हुआ तो ठन्ड़ ने असर दिखाना शुरु कर दिया। अपना रकसैक खोलकर उसमें से अपने-अपने स्लिपिंग बैग निकल लिये। अभी ज्यादा समय नहीं हुआ था इसलिये स्लिपिंग बैग में घुसकर नहीं लेटा जा सकता था। अपनी यादगार गर्म चददर निकाल ली। चददर ओढने से जल्द ही ठन्ड़ से छुटकारा मिल गया। राकेश को भूख लगने की बीमारी है इसलिये उसने भूख की दवाई तलाशनी शुरु कर दी। राकेश ने वहाँ लेटे हुए बन्दों से पूछा कि क्या कोई खाना बनाने की तैयारी कर रहा है?

कमरे के बाहर कई बन्दे लकड़ी जलाकर कुछ बनाने की तैयारी में अन्दर आते समय दिखायी दे रहे थे। राकेश बोला जाट भाई खाने के बारे में पता करो ना, मैंने मना कर दिया कि ना भाई मुझे इतनी भूख नहीं है कि जो रात में सो ना सकू। तुम्हे भूख लगी है तो जाओ बाहर, पता करके आओ। हमारी बाते सुनकर राकेश के बराबर में लेटे हुए बन्धु बोले कि मेरे पास एक परांठा है लेकिन परांठा दोपहर का बना हुआ है, यदि आप खा सको तो अब समस्या यह कि परांठा एक, खाने वाले दो। राकेश बोला इससे क्या होगा? जहाँ परांठा रखा हुआ था वही मैगी का बड़ा पैकेट भी रखा हुआ था। राकेश बोला यह मैगी का पैकेट किसका है? मैगी का पैकेट भी परांठे वाले बन्धु का ही था। उन्होने कहा कि यदि आप बाहर जाकर मैगी बनवा सकते हो बनवा लो।

राकेश मैगी का पैकेट लेकर बाहर गया। बाहर जाकर पता लगा कि वहाँ पर अभी किसी और का भोजन बन रहा है। राकेश फ़िर से कमरे के अन्दर आ गया। तभी एक बन्दे ने वहाँ मौजूद लोगों को एक-एक केला देना शुरु कर दिया। मुझे केला मिल गया था लेकिन राकेश कमरे से बाहर था उसका नम्बर आते-आते केले समाप्त हो गये। बात में पता लगा कि केले बाँटने वाले वही लोग है जो सुबह हमारे से पहले ऊपर गये थे। यह अपने साथ खाने-पीने का काफ़ी सामान लाये थे। मैंने राकेश से बोला कि परांठा खाओगे या केला? राकेश ने सूखा परांठा खाने से मना कर दिया। कुछ देर देखने के बाद मैंने सोचा कि परांठा मेरे पेट में जाने को आतुर है, मैंने परांठा लिया और उसे चट कर गया। राकेश को केला दे दिया। राकेश केला खाकर मैगी बनवाने के लिये फ़िर कमरे से बाहर चला गया। मैंने परांठा खाने के बाद पानी की आधी बोतल पी ही थी कि ठन्ड़ा पानी पीते ही शरीर में झुरझुरी होने लगी।

ठन्ड़ से बचने के मैंने गर्म चददर ओढी हुई थी लेकिन ठन्ड़ा पानी पीने व ठन्ड़े मौसम के कारण शरीर कपकपा रहा था। मैंने अपना शरीर स्लिपिंग बैग ने अन्दर घुसेड़ दिया। इस यात्रा में मैं सिर्फ़ एक पैन्ट एक पाजामा, एक विन्ड़ शीटर व दो टी-शर्ट ही लेकर आया था। विन्ड़ शीटर मैंने पहले से ही पहनी हुई थी। स्लिंपिंग बैग में घुसने के काफ़ी देर बाद शरीर को ठन्ड़ से राहत मिली। राकेश बाहर मैगी बनवाने में लगा हुआ था। राकेश मैगी बनवा व खाने के बाद ही कमरे में आया। इसी बीच लेटे हुए पास वाले बन्दों से बातचीत होने लगी। जिस बन्दे ने राकेश को मैगी दी थी, वह ढली शिमला का रहने वाला था। जब मैंने उससे पूछा था कि आप कहाँ रहते हो? उसने ढली कहा तो मुझे लगा कि दिल्ली बोला है, मैंने कहा दिल्ली में कहाँ? दिल्ली नहीं, ढली, यह कहाँ है? शिमला में है जहाँ से बाइपास शुरु होता है अरे हाँ बस में व बाइक पर आते-जाते देखा तो है।

रात में बातचीत करते-करते कब नींद आयी हमें नहीं पता लगा। दिन भर की हाड़-तोड़ ट्रेकिंग से शरीर थकावट के कारण आराम के लिये उतावला हुआ जा रहा था। रात को कोई 9 बजे के करीब एक बन्दे ने पीने के पानी के लिये सबको बहुत तंग किया। पीने के पानी की इस ट्रेकिंग में बहुत कमी होती है। यहाँ दिन में नीचे आधा-पौने किमी दूर नदी किनारे जाकर ही पानी भरकर लाया जा सकता था लेकिन ठन्ड़ी अंधेरी रात में कौन आफ़त में अपने पैर घुसेड़ता। पानी माँगने वाले बन्दे ने पानी की एक बोतल लेने के बाद ही सबको चैन से सोने दिया। स्लिपिंग बैग में गर्मायी मिलते ही नींद ने आ घेरा। मोबाइल में मैं हमेशा 5 का अलार्म लगाये रखता हूँ। मैं घर पर हूँ या यात्रा पर मेरे उठने के समय में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। सुबह अलार्म बजा तो आँख खुली। वैसे ऐसा बहुत कम ही होता है कि अलार्म बजने के बाद आँख खुले, नहीं तो ज्यादातर अलार्म बजने से पहले ही आँखे खुल जाती है।

अलार्म बजते ही राकेश को उठाया। बाहर देखा तो अभी अंधेरा ही था। तय हुआ कि कुछ उजाला होने दो तब आज की उतराई आरम्भ की जायेगी। जिन लोगों को ऊपर जाना था उन्होंने उजाला होने की प्रतीक्षा भी नहीं की थी। ऊपर जाने वाले लोगों में ढली शिमला वाला बन्दा भी था। कई लोग उजाला होने से पहले ही अपनी यात्रा पर ऊपर की ओर चले गये। रामपुर वाले वे बन्दे जो हमारे साथ ऊपर गये थे। वापसी में वे भी इसी कमरे में छोटी रसोई वाली जगह में सोये होंगे। बाद में पता लगा कि रामपुर वाले बन्दे तो रात में ही नीच उतर गये थे। कमरे पर उन्होंने खाने-पीने की तैयारी की होगी। वैसे गुफ़ा में जयपुर वालों को मैं बोल कर आया था कि रामपुर वाले 5 बन्दे आयेंगे उनके लिये भी भोजन बना लेना। रामपुर वाले मुझे मिले ही नहीं इसलिये यह पता नहीं लग पाया कि रामपुर वालों ने रात का भोजन कही किया था भी या रात में भूखे ही नीचे उतर गये थे।

हल्का-हल्का उजाला होता देख मैंने अपना सामान बाँधना शुरु कर दिया था। धीरे-धीरे मैने अपना सारा सामान पैक कर लिया। राकेश को बोला मेरा सामान पैक हो चुका है मैं नीचे जा रहा हूँ यदि तुम्हे आना है आते रहना, मैं तंगलिंग में तुम्हारा इन्तजार करता हुआ मिल जाऊँगा। मेरे जाने की बात सुनकर,  राकेश को जैसे जोर का करन्ट लगा। राकेश भी फ़टाफ़ट स्लिपिंग बैग से बाहर निकल आया। कमरे में उजाला करने के लिये मैंने दरवाजे के बाहर रखे अपने बैग के ऊपर अपनी टार्च जलाकर रख दी। टार्च की रोशनी में राकेश ने अपना सामान लपेटा और अपना बैग लेकर बाहर आ गया। जब तक राकेश बाहर आया तब तक मैंने कमरे के आसपास से कई फ़ोटो ले लिये।
हम दोनों अपने रकसैक लादकर नीचे कई घन्टे की ढलान पर चल दिये। 

रात में कमरे तक आते समय राकेश की ऐड़ी में छाले होने से जो दर्द होना शुरु हो गया था। छालों के चक्कर में हमें यहाँ रुकना पड़ा था। अब वन विभाग के कमरे से उतराई करते समय लगभग दो किमी की दूरी तक का मार्ग कुछ सरल उतराई वाला है अन्यथा उसके बाद जो तीखी उतराई आयेगी उसमें राकेश के छाले वाले पैर की फ़िर से वाट लगने वाली है। यहाँ आते समय हमें पहले दिन अंधेरा हो गया था इसलिये ठीक से फ़ोटो भी नहीं ले पाये थे, अब दिन का उजाला बढ़ता जा रहा था जिससे फ़ोटो लेने में मजा आने लगा था। राकेश की चाल छालों के कारण उतराई में भी चढ़ाई जैसी ही हो गयी थी। चढते समय हम भले ही साँस फ़ूलने के कारण थोड़ी-थोड़ी दूरी पर खड़े होकर आराम करते रहते थे, किन्तु उतराई में हम धीरे-धीरे ही सही, बिना रुके लगातार उतरते जा रहे थे।

चढ़ाई में थकान के कारण हमने कुदरती वातावरण का पूरा आनन्द नहीं उठाया लेकिन उसकी भरपाई उतराई में पूरी तसल्ली से की। राकेश के पैर के छाले के कारण हमें यह उतराई चढ़ने में पूरे 5 घन्टे का समय लग गया था। जबकि इसी तीखी चढ़ाई को चढ़ने में पूरे 6 घन्टे का समय लगा था। पीने के पानी की आधी बोतल हमारे पास रात की ही बची हुई थी इस आधी बोतल के सहारे से ही तंगलिंग गाँव के नाले तक की उतराई पार करनी थी। सुबह का ठन्ड़ा मौसम हमारे लिये बहुत फ़ायदेमन्द रहा था जब तक धूप ने असर दिखाना शुरु किया था तब तक हम घने जंगलों के बीच पहुँच चुके थे। उतराई में शुरु के दो किमी आसान रहे, किन्तु उसके बाद फ़िसलने के ड़र से मुझे भी आराम-आराम से उतरना पड़ा। मैं एकदम ठीक था जबकि राकेश पैरों में छालों के कारण थोड़ा पीछे रह जाता था। राकेश के पीछे रहने का लाभ मुझे फ़ोटो लेते समय मिलता था।

वापसी में हमने पहला विश्राम उस बड़े पत्थर पर किया था जिस पर हम ऊपर जाते समय बिस्कुट खाकर व कुछ मिनट बैठने के बाद गये थे। यहाँ से आगे का एक किमी मार्ग अत्यधिक तीखी ढलान वाला है यहाँ इस दूरी में कोई बन्दा अगर तेजी से उतरने की कोशिश करता है तो कच्चे मार्ग पर फ़िसलकर पिछवाड़े के बल गिरने की शत-प्रतिशत सम्भावना बन जाती है। इस एक किमी की पगड़न्ड़ी में मैं दो बार ओये-हाय कहता-कहता बच गया। मुझे फ़िसलने वाले झटके खाते देख राकेश तुरन्त बोलता था जाट भाई आराम से चलो ना, क्या जल्दी लगी है। मैं इस ढलान पर थोड़ा तेजी से इसलिये उतर रहा था कि मेरे पंजों में भी दर्द होने लग गया था। उतराई में सारा जोर पंजों पर आ जाता है यदि सारा जोर ऐड़ी पर ले जायेंगे तो फ़िसलने की पूरी उम्मीद हो जाती है।

इस यात्रा में पानी की कमी से शरीर की जैविक घड़ी ने बताया दिया था कि तुम्हारा सुबह वाला जरुरी दैनिक कार्य एक दिन देरी से चल रहा है। पानी की कमी से मुझे कब्ज हो गया था लेकिन कल शाम को नदी पर जमकर पानी पिया था आज सुबह से ही प्रेशर बना हुआ था जिसे हल्का करने के लिये हमें तंगलिंग वाले नाले तक जल्द पहुँचना था। राकेश शायद छाले से व प्रेशर से भी परेशान था लेकिन उसके माथे पर कोई शिकन नहीं थी। तंगलिंग नाले तक पहुँचते-पहुँचते राकेश काफ़ी पीछे रह गया था जब मैंने नीचे नाले को पारकर उस पार जाकर ऊपर देखा तो राकेश एकदम चोटी पर दिख रहा था। जब-तक मैं फ़्रेश हुआ तब-तक राकेश भी नाला पार कर आ चुका था। नहाने का इरादा बनाया था लेकिन रात को रामपुर कमरा लेकर रुकना ही था इसलिये नदी में नहाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया।

मैं कुछ देर तक नाले के ऊपर आकर धूप सेकने के लिये बैठ गया तब तक राकेश भी फ़ारिग होकर आ पहुँचा। मेरे बैग में अभी तक बिस्कुट का पैकेट बचा हुआ था जब तक राकेश आया मैंने उसे निपटा दिया। यहाँ मुश्किल से 100 मीटर की चढ़ाई चढ़नी होती है चढ़ाई पार करने के बाद अगले दो किमी से ज्यादा दूरी में आधी दूरी में सीढियों वाली ढलान है। राकेश बोला जाट भाई किन्नौर के सेब भारत में सबसे अच्छे माने जाते है। यहाँ से दो-चार किलो सेब दिल्ली लेकर चलते है। हम गाँव के लगभग हर उस घर में सेब बेचने के बारे में पता कर रहे थे जिसके घर में सेब के पेड़ थे। हमने लगभग 7-8 घरों में पता किया था लेकिन हमें कोई सेब देने को तैयार नहीं हुआ। जब हम गाँव के ऊपरी हिस्से के आखिर में पहुँच गये तो एक घर के बाहर बैठी एक महिला सेब देने को तैयार हो गयी। हमने उस महिला को 100 रु के सेब देने को कहा। वह महिला हमारे लिये 8 सेब ले आयी।

सेब लेकर हम आगे बढे, दो सेब बाहर रख बाकि बैग में ड़ाल लिये। जो दो सेब बाहर रखे थे उन्हे खाते-खाते सतलुज की ओर बढने लगे। उस महिला के घर से आगे निकलते ही लोहे के तार रस्सी वाली  वो ट्राली दिखायी दी, जिसके सहारे गाँव के लोग अपने सेब की पेटियों को नीचे सड़क तक पहुँचाते है। थोड़ा सा आगे जाते ही सीढियों वाली उतराई आरम्भ हो गयी थी। अब शरीर पर इतनी थकान हावी हो रही थी कि इन सीढियों से उतरना बहुत बुरा लग रहा था। मन करता था कि छलाँग लगाकर सीधे सतलुज किनारे पहुँच जाऊँ। ताकि इस सीढियों की उतराई से पीछा छूटे। लेकिन सीधा छलाँग लगाने में हाथ पैर टूटने का खतरा था। किसी तरह यह सीढियों वाला पक्का मार्ग उतरने के बाद उस पुल किनारे पहुँचे जहाँ से हमने लोहे के पुल को पार कर गाँव के मन्दिर में 100 रुपये दान कर, व मन्दिर के रजिस्ट्रर में अपना नाम लिख कर इस ओर आये थे।

मैं आगे चल रहा था जब यह पुल आया तो मैं पुल की ओर ना मुड़कर सीधा चलता रहा, राकेश मुझे आगे जाता देख जोर से चिल्लाया, जाट भाई आप रास्ता भूल रहे हो। हम इस पुल से होकर आये थे। हाँ मुझे पता है। राकेश फ़िर बोला कि मन्दिर वालों ने कहा था कि वापसी में मन्दिर में होकर जाना, अपने साथ अपना कूड़ा करकट वापिस लाकर दिखाना। हमारे पास कुछ कूड़ा फ़ैलाने का सामान ही नहीं था तो कूड़ा कहाँ से आये? हमारे पास सिर्फ़ बिस्कुट थे जिनके रेपर हमारी जेब में रखे है जिन्हे सड़क पर कूड़े के ढेर में ड़ाल देंगे। (बिस्कुट के रेपर रामपुर ही निकाले गये) चाऊमीन वाली थैली हमने वही आग में जला ड़ाली थी। मन्दिर में दान भी हम जाते समय दे ही चुके है अत: अब मन्दिर जाकर क्या करेंगे। मैं मन्दिर में जाकर पूजा करने वाला भक्त नहीं हूँ। अगर मन्दिरों में ही भगवान मिलते तो मन्दिरों में हत्या, बलात्कार जैसे घिनौने कर्म ना होते है। मन्दिर व मूर्ति तो एक बहाना है जिसके सहारे लोगों की सोई आत्मा को जगाना भर है।

राकेश फ़िर बोला अगर यह मार्ग आगे सतलुज तक ना पहुँचा तो? पहुँचेगा कैसे नही? किन्नर कैलाश जाने का पुराना मार्ग यही है मन्दिर में देवता की हाजिरी बजाने का पंगा तो इस साल ही गाँव वालों ने बनाया है वो भी भन्ड़ारे वालों से झगड़े के बाद। अब से पहले लोग पोवारी तक बस से आते थे वहाँ से लोहे की रस्सी वाले झूला पुल के जरिये सतलुज पार करते थे। जब हम बस से उतरे थे तो चाय वाले ने क्या कहा था कि अभी झूला पुल टूटा हुआ है। उसकी मरम्मत चल रही है। यह पगड़न्ड़ी उसी झूला पुल के ठीक सामने जाकर निकलेगी। मैंने यहाँ आने से पहले किसी लेख में यही बात पढी थी। इस मार्ग पर आगे चलकर गाँव के बीचो-बीच पहुँच गये।


सेब के पेड़ देखकर और सेब लेने का मन कर गया। अबकी बार एक बुजुर्ग महिला को सेब के लिये कहा तो उसने पेड़ से पककर गिरे हुए सेब उठाकर राकेश को दे दिये। थोड़ा और आगे चलने पर पगड़न्ड़ी किनारे एक सेब का पेड़ इतना नजदीक था कि मैंने उसके कई सेब तोड़ लिये। यहाँ इतने शानदार सेब दिखायी दे रहे थे कि मन कर रहा था कि सेब के अलावा और कुछ खाया ही ना जाये लेकिन 4 सेब खाने के बाद पेट व मन सेब से भर चुका था। गाँव में रुकते-रुकाते हुए चल रहे थे इसलिये शरीर को आराम मिल गया था। यहाँ कुछ मजदूर अपने सिर पर लकड़ी लादकर ऊपर ला रहे थे हमने उनसे पूछा कि नदी कितनी दूर है? उन्होंने बताया कि बस दो मिनट का मार्ग बचा है। दो मिनट चलते ही सतलुज दिखायी देने लगी। (यात्रा अभी जारी है।)  

























5 टिप्‍पणियां:

  1. भाई जी बुढिया ने 50 रुपये किलो सेब दिये...वहाँ तो और भी सस्ते मिलने चाहिए थे।

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  2. खतरनाक उतराई, बड़ा कष्ट होता है घुटनों में।

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  3. भाई व्यापारियों का इतना प्रकोप है की कोई अपनी इच्छा से फल बेच ही नही सकता... वो भले ही इनसे 5 रु. किलो में सेब लेकर हम तक 50 रु. किलो में पहुंचाते हों...

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  4. उतराई भी इतना कष्ट दे सकती हे यह रास्ता देखकर पता चलता है.सुबह के फोटो वाकई खुबसुरती संजोए हुए है.

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  5. मुझे चढाई से ज्यादा उतराई में डर लगता है ...हेमकुंड साहेब चढ़ तो गई पर उतरने में नानी याद आ गई हाहा हा हा ....किन्नर के सेव हे तो लाजवाब पर १ ० ० रु . में खासा महंगे पड़े ----

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