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सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

Tangling Nala To Forest room तंगलिंग गाँव के नाले से वन विभाग के कमरे तक

किन्नर कैलाश यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।

KINNER KAILASH TREKKING-03                                         SANDEEP PANWAR
पिछले लेख में आपको बताया गया था कि तंगलिंग गाँव के शीर्ष पर पहुँचने के बाद उसके आगे बढ़ते ही एक पहाड़ी साफ़ पानी के नाले की गहराई में उतरना पड़ता है। अब उससे आगे चलते है- किन्नर कैलाश यात्रा में पीने के पानी की भयंकर कमी बतायी गयी थी इसलिये हम पहले ही अपनी बोतले भर कर चले थे। पानी की इतनी कमी रहेगी इस बात को जानने के बाद, मैं दिल्ली से ही पानी की दो बोतले लेकर चला था। वैसे भी मुझे भूख से तो बहुत ज्यादा परेशानी नहीं होती, यदि किसी मजबूरी से दो-एक दिन खाने को ना भी मिले तो चल जायेगा लेकिन पानी की कमी पड़ेगी तो समस्या मेरे लिये भी दिक्कत करेगी। दो-चार घन्टे तक तो पानी की कमी झेली भी जा सकती है लेकिन यदि पानी 8-10 घन्टे बाद मिले और अपने पास पानी हो ही ना तो फ़िर मामला गंभीर हो सकता है। यह नाला किन्नर कैलाश यात्रा में आने वाली पार्वती कुन्ड़ के किनारे से होकर आता है। यहाँ आने वाले लोगों ने बताया भी कि इस नाले की शुरुआत पार्वती कुन्ड़ से होती है लेकिन मुझे ऐसा बिल्कुल नहीं लगा। 





नाले को पार कर हमें ऊपर तीखी धार पर चढ़ते जाना था। गाँव के आखिरी घर से ही यह धार दिखने लगी थी लेकिन उस समय हमें यह अंदाजा नहीं था कि हमें इसी सामने वाले पहाड़ पर चढ़ना पड़ेगा। अब तक हम शांगटांग पुल से लगभग चार से पाँच किमी की दूरी तय कर चुके थे। इस बीच पानी की बोतल से कुछ पानी पीने के कारण बोतल में पानी की मात्रा कम हो गयी थी। हमने यहाँ पहाड़ी साफ़ नाले में अपनी-अपनी बोतली ताजे मिनरल वाटर जैसे पानी से भर ली। अभी तक अपने साथ चल रहे रामपुर के बन्दे बराबर साथ निभाते चले आ रहे थे लेकिन नाले के किनारे एक बड़ा सा पत्थर देखकर रामपुर वाले विश्राम करने बैठ गये। उन्हे शायद भूख लगी थी इसलिये उन्होंने अपने बैग से बिस्कुट के पैकेट निकाल कर खाने भी शुरु कर दिये। तंगलिंग गाँव की जोरदार चढ़ाई ने बता दिया था कि उनके साथ दो बन्दे धीमी गति से चलने वाले है।

राकेश को मैंने आँखों ही आँखों मॆं चलने का इशारा किया और हम अपना रकसैक अपनी पीठ पर लादकर नाले को पार करने लगे। वैसे नाले में बहुत ज्यादा पानी नहीं था अगर नाले के पानी की गहराई नापी जाती तो मुश्किल से एक फ़ुट से ज्यादा नहीं मिलने वाली थी। नाले में पानी की चौड़ाई भी बहुत ज्यादा नहीं थी मुश्किल से 7-8 फ़ुट चौड़ाई में ही पानी बह रहा था। पानी की तेज गति थी पानी के बीच में भले ही बड़े से पत्थर दिख रहे थे लेकिन यह एक फ़ुट पानी भी जूते पहन कर बिना भीगे पार नहीं किया जा सकता था। नाले को जूते निकाल कर पार करने की सोच ही रहे थे कि नाले में बिना भीगे पानी पार करने के लिये टूटे हुए पेड़ के तने ड़ाले हुए दिख गये। हमने अपने जूते निकाले बिना उन तनों के ऊपर से वह नाला आसानी से पार कर लिया। नाला पार करने के लिये पेड़ के टूटे तने/शाखा भन्ड़ारे वालों ने ड़लवाये थे। नाला पार करने के बाद सामने वाली पहाड़ी पर चढ़ने का रास्ता तलाशने में काफ़ी परेशानी हुई।

नाले को पार कर हम सामने वाले पहाड़ पर जाने वाली कच्ची या पक्की पगड़न्ड़ी तलाश कर रहे थे। लेकिन हमें पहली नजर में पगड़न्ड़ी दिखायी ही नहीं दी। तभी मेरी नजर सामने वाले पहाड़ से खिसक कर आयी मिटटी की ओर गयी। उस मिट्टी के पास जाकर ध्यान से देखा तो वहाँ आने-जाने वाले लोगों के पैरों के निशान दिखायी दे गये। राकेश भी पीछे-पीछे आ रहा था। मैंने यह सोचकर उस बारीक मिट्टी के ढेर पर चढ़ना आरम्भ कर दिया कि हो सकता है कि पगड़न्ड़ी इसी मिट्टी के नीचे दब गयी हो। गाँव के शिखर से नाले की गहराई तक जितनी ढ़लान हमने उतरी थी अबकी बार उससे ज्यादा चढ़ाई हमें चढ़नी पड़ गयी थी। गाँव की तरफ़ से नाले तक फ़िर भी पक्की सीढियाँ बनी हुई थी लेकिन नाला पार तो मिट्टी के ढेर पर चलकर चढ़ना पड़ा था।

कई मिनटो की जोरदार मेहनत के बाद नाले की धार से बेड़ा-पार हो सका। नाले की चढ़ाई पार होते ही आगे का मार्ग कुछ दूरी तक हल्की चढ़ाई वाला दिख रहा था। आगे मार्ग सरल देखकर जान में जान आयी। नाले की चढ़ाई को चढ़ते ही राकेश बोला “जाट भाई पानी की बोतल निकालना तो“। राकेश की बात सुनकर मैंने कहा कि अभी 5 मिनट पहले ही तो नाले के किनारे पानी पिया था। इतनी जल्दी प्यास लग गयी। राकेश बोला इस चढ़ाई चढ़ने में उस पानी का पता नहीं लगा कि कहाँ गया? अच्छा भाई ठीक है थोड़ा सा और आगे चलो फ़िर किसी बैठने लायक जगह जाकर पानी पीने व साँस लेने के लिये बैठते है। यह कहकर मैं आगे बढ़ता रहा। लगभग आधा किमी तक मार्ग लगभग सीधी लेकिन कम चढ़ाई वाला मिला। यहाँ से एक मोड़ मुड़ते ही आगे जोरदार चढ़ाई दिखायी देने लगी तो एक जगह बैठकर हमने अपने-अपने बैग उतार कर एक और रख दिये। पहले पानी पिया उसके बाद राकेश बोला जाट भाई अपना चाकू देना, चाकू का नाम सुनते ही मैं समझ गया कि सेब का काम तमाम करने के लिये चाकू की बात हो रही है।

मैंने अपना चाकू राकेश को दिया, उसने अपनी जेब से एक सेब निकाल कर मुझे भी दिया। यहाँ हमने सेब खाते हुए एक दूसरे के फ़ोटो भी खींचे थे। राकेश का फ़ोटो पिछले लेख में सबसे आखिर वाला दिखा चुका हूँ। सेब खाने के बाद राकेश बोला, “जाट भाई एक-एक पैकेट बिस्कुट का भी खा लेते है। अरे बिस्कुट का नाम मत लेना यह पैकेट कल के लिये लिये है यदि इन्हे आज ही खा जाओगे तो कल किन्नर कैलाश तक क्या खाओगे? मेरी बात सुनकर राकेश उस समय तो चुप हो गया। सेब खाने के बाद हम वहाँ से आगे बढ़ने लगे। अभी तक रामपुर वालों की टोली का कुछ पता नहीं था कि वे नाले से निकल चुके है या वही अटके बैठे है।

सेब खाने वाली जगह से आगे चलते ही वहाँ से आगे दिखने वाली चढ़ाई को देखकर पहले ही पसीने आने लगे। सामने वाली तीखी धार वाली चढ़ाई में हमारी ऊपर चढ़ने की गति घटकर बेहद कम हो गयी थी। इस तीखी धार पर धीरे-धीरे चलते हुए लगभग 15-20 मिनट होने को आये होंगे कि पगड़न्ड़ी के किनारे सीधे हाथ एक बड़ा सा सफ़ाचट पत्थर दिखायी दिया। इस पत्थर को देखते ही बैठने का मन कर आया। हमने एक बार फ़िर अपने बैग उतार कर एक किनारे रख दिये।

यहाँ रुकते ही सबसे पहले पानी की बोतल का कुछ वजन कम किया। जिस गति से पानी की बोतल से उसका का भार कम होता जा रहा था वह हमारे कंधे के लिये तो अच्छी बात थी लेकिन यदि सारा पानी बीच में समाप्त हो गया तो आफ़त आनी भी तय थी। यहाँ इस बड़े से पत्थर पर बैठते ही राकेश ने अपना एक बिस्कुट निकाल लिया। मैंने अबकी बार भी उसे मना किया तो बोला “जाट भाई कल की कल देंखेंगे अभी जोर की भूख लगी है पहले अबकी चिंता तो समाप्त करुँ।“ राकेश की भूख वाली परेशानी तो मैं करेरी व कांगड़ा में पहले ही देख चुका था। इसलिये उसे खाने के बारे में ज्यादा कहना बेकार था। यहाँ इस बड़े पत्थर पर बैठे-बैठ हमें 10 मिनट हो गये थी। हम चलने की तैयारी कर ही रहे थे कि रामपुर वालों की टोली भी ऊपर आती दिखायी दी। जैसे ही रामपुर वाले हमारे पास पहुँचकर उस बड़े से पत्थर पर अपना डेरा जमाने लगे, वैसे ही हमने अपने बैग उठाकर आगे चलना शुरु कर दिया।

अब जैसे-जैसे आगे का मार्ग ऊपर चलता जा रहा था वैसे ही मार्ग में कठिनाई भी बढ़ती ही जा रही थी। इस चढ़ाई को देखकर अपना 8-10 किलो का रकसैक बहुत भारी लगने लग गया था। चूंकि इस यात्रा में गांव वालों की या किसी भी संस्था की तरफ़ से किसी किस्म की कोई सहायता नहीं थी इसलिये हमारे बैग हमारे बहुत काम आने वाला था। हमारे पास सोने के लिये मैट व स्लिपिंग बैग के साथ खाने को बिस्कुट व गर्म कपड़े साथ थे। यदि सोने व खाने का सामान साथ नहीं होता तो हमें यह ट्रेकिंग बीच में छोड़कर वापिस आनी पड़ती।

मार्ग में हमें ऊपर किन्नर कैलास से आने वाले तीन-चार बन्दे भी मिले, उनसे ट्रेकिंग मार्ग के बारे में जानकारी ली। उन्होंने बताया कि पगड़न्ड़ी सिर्फ़ एक ही है अत: मार्ग भटकने की नौबत नहीं आने वाली, अगर रात में चलते रहोगे तो भी कोई दिक्कत नहीं। राकेश ने कहा “ऊपर रहने व खाने की कोई उम्मीद है” उसके बारे में उन्होंने बताया कि गुफ़ा से दो किमी पहले इस पहाड़ की धार के एकदम शीर्ष पर वन विभाग का नया बना हुआ एक कमरा है जिसे हम लोग फ़ोरेस्ट सराय कहते है। चूंकि वन विभाग का कमरा अभी पूरी तरह तैयार नहीं हुआ है जिस कारण अभी वन विभाग वाले उसमें रहने नहीं आये है इसलिये रात को रुकने के लिये उसमें काम चल सकता है। हमारे लिये वन विभाग का नया कमरा अच्छी खबर थी जिसमें हमारे लिये आज रात को रुकने की समस्या समाप्त हो गयी थी।

नीचे सड़क से जब हमने यह यात्रा शुरु की थी उस समय दिन के तीन बजने जा रहने थे हमें पूरी उम्मीद थी कि हम यह धार चार घन्टे में चढ़ ही जायेंगे लेकिन अब जब वास्तव में इस धार की तेज चाकू जैसी धार से मुकाबला कर ऊपर जा रहे थे तो लग रहा था कि हमारी ऊपर चढ़ने की गति एक किमी प्रति पौना घन्टा के आसपास चल रही है। अगस्त माह का आखिरी सप्ताह चल रहा था। वैसे भी 23 जून सबसे बड़ा दिन होता है उसके बाद 21 सितम्बर तक दिन रात बराबर होने तक दिन घटता ही जाता है। यह दिन घटना दिन 22 दिसम्बर तक लगातार घटता ही जाता है। 25 दिसम्बर को दिन बढ़ने की शुरुआत हो जाती है जिस कारण 25 दिसम्बर को भारत में बड़ा दिन कहते है। जून में जहाँ दिन रात 8 बजे छिपता है तो दिसम्बर में अंधेरा शाम को 5:30 बजे से पहले ही हो जाता है।

शाम के लगभग सवा सात बजे हमें अंधेरा होने लगा। अभी तक हम इस तीखी धार की खतरनाक ढाल चढ़ उससे आगे निकल आये थे। लेकिन अंधेरा होने के कारण हमें टार्च का सहारा लेना पड़ा। बीच में तो रामपुर वाले और हम आगे पीछे होते रहे लेकिन अंधेरा होने के बाद तय हुआ कि सभी साथ चलेंगे। अभी जंगल समाप्त नहीं हुआ है, अगर इस जंगल में कोई जंगली जानवर हुआ तो अकेले बन्दे पर हमला कर सकता है सभी साथ चलेंगे तो जानवर आसपास नहीं आयेगा। जानवर वाली बात सुनकर हर कोई लाइन के बीच में रहने की कोशिश करने लगा। रामपुर वालों का एक साथी था जो बहुत धीमा चल रहा था। मैंने और उस धीमे साथी ने आखिरी के दो किमी साथ ही पार किये थे। अंधेरे में यह तो पता ही नहीं लग रहा था कि हम कितना आ चुके है और कितना जाना बाकि है?

रामपुर वालों के दो-तीन साथी पहले भी यहाँ आ चुके है। अंधेरे में उनमें से एक ने कहा कि अब इस धार का समापन होने वाला है। धार समाप्त होने की बात सुनकर सबको जोश आ गया था। टार्च की रोशनी से जितना देखा जा सकता था उतनी दूर तक देखकर अंदाजा लगाया कि अब हम वृक्ष रेखा पार कर उसके ऊपर आ गये है। वृक्ष रेखा भी कम से कम 11000 हजार फ़ुट से ज्यादा ऊँचाई आने पर मानी जाती है। सतलुज नदी और तंगलिंग गाँव की समुन्द्र तल से ऊँचाई मुश्किल से 2000 मीटर रही होगी। हमने मात्र 5-6 घन्टे में ही यह अन्तर पार कर लिया था। कुछ लोगों को अचानक इतनी ऊंचाई पर आने से चक्कर आने लगते है। ऐसे लोगों में माऊंटेन सिकनेस बीमारी के लक्षण पाये जाते है। यह बीमारी धीरे-धीरे ठीक हो जाती है।

रामपुर वालों ने बताया था कि यह धार समाप्त होने वाली है लेकिन 10 मिनट चलने के बाद भी धार समाप्त होने का निशान नहीं मिल रहा था। रामपुर वालों ने फ़िर कहा कि पहली बार अंदाजा लगाने में गड़बड़ी हो गयी थी अब इस धार का समापन आने वाला है अब दो तीन बैन्ड़ और मिलेंगे उन्हे पार करते ही यह धार समाप्त हो जायेगी। इस धार के समाप्त बिन्दु पर एक छोटा सा मन्दिर भी बना हुआ है। उस मन्दिर के सामने ही फ़ोरेस्ट सराय बनायी गयी है। रात को ठीक नौ बजे के करीब हमारी टोली वन विभाग के कमरे पर पहुँच गयी। चलते समय ठन्ड़ नहीं लग रही थी लेकिन रुकने के बाद ठन्ड़ ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया। हमने कमर में टार्च की रोशनी से देखा कि वहाँ तो पहले ही 8-10 लोग सोये हुए है। हमने भी एक कोना देखकर अपना डेरा जमा दिया। रात्रि विश्राम के बाद कल गुफ़ा-पार्वती कुन्ड़ होकर किन्नर कैलाश की यात्रा की जायेगी।

तंगलिंग नाला

नाले के ठीक सामने चढ़ाई

धार जिसे देख श्रीखन्ड़ हल्का लगे

पेड़ पर डिजाइन


सामने पहाड़ पर दिखती बर्फ़


जबरदस्त धार

ऊपर से दिखता सतलुज का पुल

जूम के बाद का फ़ोटो

लगे रहो,
अरे यही से आये है

धार का फ़ोटो

भयंकर ढ़्लान है।

हालत खराब है।


पीछे देखो कहाँ से आये है?

चढ़ते रहो

चढ़ते जाओ



वो रहा फ़ोरेस्ट वालों का कमरा

5 टिप्‍पणियां:

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