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01- दिल्ली से पोवारी तक kinner Kailash trekking
KINNER KAILASH TREKKING-04 SANDEEP PANWAR
तंगलिग गाँव के नाले से जो तीखी धार शुरु हुई
थी उसका पीछा ठीक 5/6 घन्टे बाद वन विभाग के
कमरे पर जाकर ही छूट पाया था। स्थानीय लोग वन विभाग के कमरे को सराय कहकर पुकार
रहे थे। यहाँ आने से पहले मैं सोच रहा था कि सराय नाम है तो जाहिर है रहने के लिये
दो-चार कमरे तो बने ही होंगे लेकिन नहीं। जब हम इस कमरे के पास पहुँचे तो चारों ओर
पहले से ही घुप अंधेरा छाया हुआ था। शुक्र था कि मेरे पास टार्च थी, इस यात्रा में
मेरे पास जो मोबाइल था उसमें टार्च नहीं थी। रात के करीब 9 बजे हम यहाँ पहुँच पाये थे। अगर देखा जाये तो
हम अंधेरे में लगभग डेढ़ घन्टे तो चले ही होंगे। चलते समय शरीर गर्म रहता है इसलिये
ठन्ड़ का पता नहीं लग पा रहा था लेकिन जैसे ही यहाँ आये और शरीर ठन्ड़ा होना शुरु
हुआ तो ठन्ड़ का असर दिखना आरम्भ हो गया। सिर पर ठन्ड़ से बचने के लिये गर्म टोपी भी
नहीं पहनी थी। बदन के ऊपरी हिस्से पर एक आधी बाजू की टी शर्ट मात्र थी। जैसे ही
शरीर में ठन्ड़ के कारण झुरझुरी होनी शुरु हुई तो हम कमरे में घुस गये।
वन विभाग के कमरे से सुबह का नजारा |
कमरे के अन्दर जाकर टार्च की रोशनी में देखा कि
वहाँ तो पहले से ही 8-10 लोग डेरा जमाये हुए है। यहाँ
वन विभाग ने सिर्फ़ एक ही कमरा बनाया हुआ है। कमरे के साथ लगती हुई रसोई है। कमरे
के मुकाबले रसोई काफ़ी छोटी थी इसलिये मैंने उसे रसोई कहा है अब असलियत में वन
विभाग वाले जाने कि वह क्या है? रामपुर वाले सारे बन्दे उस रसोई में ही घुस गये।
हमने बड़े कमरे में अपने लायक स्थान देखा। हमें दरवाजे के ठीक सामने वाली दीवार के
सहारे कोने में जगह मिल गयी थी। हमने अपना बैग उतारा और अपना स्लिपिंग बैग व मैट
खोलने में लग गये। तभी एक बन्दे ने आवाज दी, अरे दरवाजा तो बन्द कर दो, बाहर से
ठन्ड़ आ रही है। दरवाजा हमने ही खोला था। बैग छोडकर पहले दरवाजा बन्द किया ताकि
बाहर की ठन्ड़ अन्दर ना प्रवेश करने पाये।
सबसे पहले अपने मैट को बिछाया। उसके बाद उसपर
बैठकर बैग से स्लिपिंग बैग निकाला। जूते तो पहले ही निकाल दिये थे। फ़टाफ़ट स्लिपिंग
बैग में घुसकर बैठ गये। ऐसे मौके पर ठन्ड़ से बचने के लिये मैं अपने साथ एक गर्म चददर
हमेशा रखता हूँ। मैं चाहे कितने भी गर्म या ठन्ड़े इलाके की यात्रा पर जाऊ, लेकिन
यह गर्म चददर हमेशा मेरे बैग में मौजूद रहेगी। यह वही चददर है (चाददर ट्रेक नहीं)
जिसे लेह-खारदूंगला-चाँगला वाली बाइक यात्रा में विशेष मलिक ओढे रखता था। पैर बैग
में घुसेड़े हुए थे ऊपर का शरीर अपनी प्यारी सी गर्म चददर में लपेटा हुआ था। वैसे
मन तो कर रहा था कि पूरा का पूरा शरीर स्लिपिंग बैग में घुसेड़ दूँ, लेकिन टी-शर्ट
बता रही थी कि पीठ की तरफ़ पसीने की मेहरबानी से थोड़ी सी गीली है। इसलिये गीली टी-शर्ट
के साथ कुछ देर बाहर रहना ही ठीक है।
जब कुछ देर इसी मुद्रा में बैठे रहने से हमें
ठन्ड़ से राहत मिली तो राकेश बोला जाट भाई चाऊमीन निकालो ना। अरे हाँ रात के खाने
के लिये हम नीचे तंगलिंग से ही चाऊमीन बनवाकर लाये थे। चाऊमीन हमने दिन के तीन बजे
बनवायी थी अब रात के नौ बज रहे थे। यहाँ चाऊमीन खाने के लिये प्लेट आदि के चक्कर
में नहीं पड़ना था। चाऊमीन का लिफ़ाफ़ा निकाला और केले खाने वाली स्टाइल में चाऊमीन
खानी शुरु कर दी। अब आप सोच रहे होंगे कि केले वाली स्टाइल में चाऊमीन कैसे खायी
जायेगी। चलो बताता हूँ। सबसे पहले मैंने बैग से चाऊमीन के पैकेट निकाले, एक पैकेट
राकेश को दे दिया, दूजा मैंने ले लिया। पैकेट लेने के बाद उसका ऊपर का उतना हिस्सा
फ़ाड़ दिया, जितना खाली था। जब चाऊमीन दिखायी दी उसमें अपनी मुन्ड़ी घुसेड़ दी। जितनी
चाऊमीन खायी गयी उतनी खायी, उसके बाद लिफ़ाफ़े को नीचे से भींच दिया जिससे बाकि
चऊमीन ऊपर निकल आयी। अब लिफ़ाफ़े से ऊपर निकली चाऊमीन देख अपुन के दाँत तैयार बैठे
थे। दाँतों को उनके काम पर लगाने के लिये ईशारे की आवश्यकता ही नहीं थी मेरे दाँत
बचपन से होशियार है अब सिर्फ़ खाना खाने के काम आते है बचपन में पडौसियों के हमउम्र
बच्चों को काटने के काम आते थे। हा हा हा हा
चाऊमीन धीरे-धीरे करते गायब हो गयी। चाऊमीन
खाते समय मैंने महसूस किया था कि 6 घन्टे लिफ़ाफ़े में
बन्द रहने के बाद चाऊमीन में कुछ खटटा पन महसूस हो रहा था। मैंने कहा “राकेश भाई
चाऊमीन खराब तो नहीं हो गयी है” राकेश ने कहा नहीं जाट भाई इसमें सिरका ड़ला होता
है यह खटटापन उसी का असर होगा। अरे हाँ हो सकता है। अब कुछ भी हो चाऊमीन तो गयी
पेट के अन्दर, जो होगा सुबह देखा जायेगा। अपनी बोतलों का लगभग सारा पानी हम यहाँ
तक आते-आते सटक चुके थे। मेरी छोटी सिलवर वाली बोतल में हो सकता था कि आधी बोतल
पानी बचा था। हमने दरवाजे के साथ रखी पानी की एक कैनी देख कर अपने साथ लेटे बन्दे
से पूछा कि यहाँ पीने का पानी कहाँ मिलेगा? जब उसने कहा कि दरवाजे के पास जो कैनी
रखी है उसमें पीने का ही पानी है तो हमें बड़ी राहत मिली। नहीं तो सोच रहे थे कि
रात को पीने का पानी कहाँ से लाना पडेगा?
खा-पीकर सोने की तैयारी होने लगी। अपुन की सुबह
जल्दी उठने की आदत है इसलिये राकेश को बोला कि सुबह उजाला होते ही आगे की ट्रेकिंग
पर चलना है। यह सुनते ही राकेश बोला जाट भाई आप रात को तीन बजे भी बोल दोगे तो भी
मैं तैयार हो जाऊँगा। राकेश की यह बात सुनकर दिल को इतना सुकून मिला कि लगा चलो
जवान छोरे में साहब वाले गुण नहीं है नहीं तो बिना राकेश को साथ लिये मैं आगे जाने
वाला नहीं था। वो अलग बात होती कि बीच में कही राकेश पक के टपक जाये और कहने लगे
कि बस जाट भाई अब मेरे बसकी नहीं। आगे आप अकेले जाओ, मैं यही इन्तजार करता हूँ।
हमेशा याद रखो साहब लोगों के साथ ट्रेकिंग पर सोच समझ कर जाना चाहिए, नहीं तो बहुत
परेशान होना पड़ता है। मैं तो कई बार देख चुका हूँ। साहब लोगों के साथ ट्रेन-बस की
यात्रा ही ठीक रहती है।
रात को साढे नौ बजे तक खा पी कर हम सोने की
अवस्था में पहुँच चुके थे। हमारे स्लिपिंग बैग में घुसने के बाद रात साढे नौ बजे
के बाद तीन चार बन्दे और आ गये। जब हम यहाँ कमरे में घुस रहे थे तो ऊपर पहाड़ से
तीन टार्च की रोशनी चमक रही थी लगता है कि ये तीनों वही लोग है। उन्होंने भी जगह
देखकर कमरे में दरवाजे के सामने अपना डेरा ड़ाल दिया था। मैंने अपनी गर्दन बैग से
बाहर ही निकाली हुई थी सिर व छाती पर गर्म चददर लिपटी हुई थी। रात में कब नीन्द
आयी। नही पता। सुबह जब मोबाइल का अलार्म बजा तो आँख खुली। सुबह 5 बजे का अलार्म लगाया था। मोबाइल नेटवर्क ने तो
अंधेरा होने से पहले ही साथ छोड़ दिया था। इसलिये मोबाइल पहले ही बन्द कर दिया था।
अलार्म बजाते हुए मोबाइल ने सूचित किया कि मैं
जागू या सो जाऊँ। मैने मोबाइल को सोया ही रहने दिया, जब नेटवर्क ही नहीं था तो बे फ़ालतू
में उसकी बैट्री खराब क्यों करनी? यहाँ वैसे भी परसो तक मोबाइल चार्ज करने का
जुगाड़ मिलेगा नहीं। अपने साथी राकेश के पास चार्जिंग की समस्या से छूटकारा दिलाने
वाला एक यंत्र देखा जिसमें लगभग 8000 mah बैट्री जमा की जा
सकती है। यह बैट्री ट्रेकिंग मार्ग पर होने वाली दिक्कत को बिल्कुल समाप्त कर देती
है। मेरे कैमरे की बैट्री भी इस यंत्र से चार्ज हो जाती है यह जुगाड़ मैं करेरी
यात्रा में पहले ही अपने कैमरे पर आजमा कर देख चुका हूँ।
सुबह उठते ही आगे चलने की तैयारी के लिये
पैकिंग करनी शुरु कर दी। राकेश को सोते से उठा तो दिया था लेकिन उसे देख लग रहा था
कि वहाँ की ठन्ड़ देखकर अभी चलने के मूड़ में नहीं है। जब मैंने अपना स्लिपिंग बैग
मैट आदि पैक कर बैग में भर दी तो राकेश भी उठकर खड़ा हो गया। मैंने अपना बैग उठाकर
कमरे से बाहर रख दिया। मुझे बाहर खड़े हुए पाँच मिनट से ज्यादा हो चुके थे लेकिन
राकेश का बाहर आने का इरादा नहीं लग रहा था। कमरे का दरवाजा ठन्ड़ के कारण बन्द
किया हुआ था। अन्दर जाकर देखा तो राकेश अपना सामान समेटने में लगा पड़ा था। मैंने
अपनी टार्च की रोशनी कमरे में फ़ैलाकर राकेश की मदद की।
रात में मेरे साथ एक पंगा हो गया था। जिस कोने
में मैं सोया था। उसी कोने में इस कमरे में रंगाई-पुताई वाले पेन्ट के डिब्बे रखे
हुए थे। मैंने सोते समय यह ध्यान नहीं दिया था कि पेन्ट के डिब्बे नीचे से लीक है
कि नहीं। सुबह जब अपना मैट समेटने लगा तो देखा कि मैट पर सफ़ेड पेन्ट चिपक गया है।
यदि पेन्ट काला होता तो शायद दिखायी भी नहीं देता। मैंने अपने बैग से कागज के
टुकड़े निकाल कर मैट से रगड़े, ताकि मैट बाग में बांधने से चिपके नहीं। स्लिपिंग बैग
के कवर पर भी यह सफ़ेद पेन्ट लग गया था। मैट तो बाहर रहना था लेकिन स्लिपिंग बैग तो
रकसैक के अन्दर रखना था। स्लिपिंग बैग के उस हिस्से पर कागज चिपकाना पड़ा, जहाँ
पेन्ट चिपका था। थोड़ी देर में राकेश भी कमरे से बाहर आ गया। हम दोनों अपने रकसैक
उठाकर आगे की मंजिल पर चल दिये।
वन विभाग के कमरे से चलने के बाद लगभग आधा किमी
की दूरी तक का मार्ग काफ़ी सरल है। यहाँ से कोई डेढ किमी दूरी तक लगातार चढ़ाई वाला
मार्ग है उसके बाद बताया जाता है कि आधा-एक किमी ढ़लान वाला मार्ग मिलेगा। रात में
आने वाले बन्दे बता रहे थे कि यदि किसी को आगे वाले ठिकाने गुफ़ा में रात को रुकना
हो या खाना बनाना हो तो लकड़ी यही से लेकर जानी पडेगी। वन विभाग के कमरे सराय से
आगे पेड़ ही नहीं है तो लकड़ी भी कहाँ से मिलती? मैंने एक बड़ी सी कोई 7-8 फ़ुट लम्बी लकड़ी उठाली। यह लकड़ी यह सोचकर उठायी
कि रात को यदि वापसी में गुफ़ा तक पहुँचने मॆं ही अंधेरा हो गया तो इस लकड़ी से वहाँ
खाना बना लेंगे।
ऊपर से वापिस आने वाले बन्दे बता रहे थे कि
गुफ़ा में खाने का काफ़ी सामान रखा हुआ है लेकिन उसे बनाने के लिये लकड़ी नहीं है। यह
सामान आया कहाँ से? इसके बारे में हमें पता लगा कि बीते सप्ताह यहाँ गुफ़ा से पहले
झरने के पास एक संस्था भन्ड़ारा लगाने पहुँची थी। इस संस्था ने बीते साल भी यहाँ
भन्ड़ारा लगाया था। अब जाहिर सी बात है जो संस्था भन्ड़ारा लगायेगी तो वहाँ पूजा-पाठ
करने के लिये भगवान का स्थान भी बनायेगी जहाँ भगवान का स्थान होगा वहाँ दान देने
की छूट भी होगी। दूसरे लोगों के बारे में तो में ज्यादा नहीं कह सकता हूँ। मैं
अपनी बताता हूँ यदि मैं किसी संस्था के भन्ड़ारे में रहता व खाता हूँ तो कम से कम 100 रुपये दान करके आता हूँ। यदि केवल खाता हूँ तो 50 से कम तो फ़िर भी नहीं ड़ालता हूँ। शुल्क देकर
उनका अहसान चुका देता हूँ। जिन मन्दिरों व गुरुद्धारों में रहने व खाने की सुविधा
है मैं वहाँ रहने व खाने के बदले शुल्क अवश्य देकर आता हूँ।
धर्म के प्रति निष्टा रखने वाले लोगों की भक्ति
व हिम्मत का ही काम है की ऐसी दुर्गम स्थलों पर भी भन्ड़ारे लगाने पहुँच जाते है।
मुझे तंगलिंग गाँव वाले उन मुट्ठीभर लोगों की यह बात बहुत बुरी लगी थी जिन्होंने
देवता के नाम पर नौटंकी करके यहाँ भन्ड़ारा लगाने वाले लोगों से बहुत बुरा बर्ताव
किया। बात गाली गलौज तक ही सीमित रहती तो अलग बात थी यह बात झगड़े सिर फ़ोड़ने जैसी
घटना में बदल गयी। भन्ड़ारा लगाने वालों ने गाँव वालों की सिर्फ़ एक बात नहीं मानी
कि उन्होंने भन्ड़ारा लगाने के बदले कुछ 3-4 हजार रुपये की
माँग देवता मन्दिर के नाम पर भन्ड़ारे वालों से की थी। लेकिन भन्ड़ारे वालों ने
उन्हे वो पैसे देने से मना कर दिया।
चूंकि भन्ड़ारा लगाने वाले दूर के रहने वाले थे
इसलिये गाँव वालों ने योजनानुसार पहले तो उनका सारा सामान ऊपर गुफ़ा के पास भन्ड़ारा
स्थल तक पहुँचने दिया। यदि गाँव वालों के मन में कोई मैल ना होता तो वे पहली बात
तो भन्ड़ारे का सामान ऊपर ही ना पहुँचने देते। जब भन्ड़ारे वालों ने कई दिन की मेहनत
से मजदूर लगाकर अपना भन्ड़ारा वहाँ शुरु किया तो योजनानुसार गाँव वाले वहाँ पहुँच
गये। गाँव वालों ने भन्ड़ारे के टैन्ट सहित सभी कपड़ों को आग के हवाले कर दिया।
भन्ड़ारे वालों का छोटा सा जनरेटर भी खाई से नीचे नदी/नाले में धकेल दिया गया। जब
भन्ड़ारे वालों ने विरोध किया तो उनके साथ मारपीट कर दी। भन्ड़ारे वालों ने मुकाबला
किया होगा लेकिन संख्या में कम रहने के कारण वे अपने सिर फ़ुड़वा कर अपना सामाना
जलवाकर, वहाँ से जान बचाकर भाग खड़े हुए। अब गाँव वालों ने इस घटना में कानूनी पचड़े
से बचने के लिये स्थानीय देवता की आड़ ली। मैं खुलेआम कहता हूँ कि देवता कभी ऐसा कह
ही नहीं सकता जैसा गाँव वालों ने देवता के नाम पर कहा है? अगर इन गाँव वालों के
पास ऐसा कोई सबूत है तो दिखाये कि यह देवता ने कहा है?
देवता की आड़ में आतंक फ़ैलाने वाले ऐसे ही लोगों
के चक्कर में कभी इस्लाम का उदय हुआ था। मेरी नजर में ऐसी हरकते उन लोगों से भी
गयी गुजरी है जो मन्दिरों के बाहर कटोरा लेकर बैठते है। मेहनत करके कोई खाना नहीं
चाहता है। यदि गाँव वालों उन लोगों में इतनी शर्म व भक्ति होती तो भन्ड़ारा वालों
को वहाँ से हटाकर उनके सामान से खुद भन्ड़ारा चला कर दिखाते। अब कहते है कि अगले
साल से गाँव वाले खुद भन्ड़ारा लगायेंगे। बात भक्ति की नहीं लूट की है। झगड़ा करने
वाले लोगों की नजर यहाँ भन्ड़ारे वालों यात्रियों से दान में मिलने वाले कथित "लाखों
रुपये" पर नजर थी। कहते है कि गाँव के कुछ लोग मिलकर यहाँ भन्ड़ारा लगायेंगे। चलो
अच्छा है, भन्ड़ारा लगाये तो सही। लेकिन नहीं लगता कि जिन लोगों की औकात नहीं मेहनत
से कमाने की वे क्या भन्ड़ारा लगायेंगे? नीयत में पहले से ही खोट है वे कष्ट उठाकर
आने वाले यात्रियों को कुछ सुविधा दे भी पायेंगे। बीते साल भन्ड़ारे में मिली खाने
व रहने की सुविधा के चलते यहाँ आने वाले यात्रियों/ट्रेकरों का आंकड़ा 5000 पार गया था। इस साल 1000 भी पूरे नहीं हो पायें होंगे। चलो आगे, भिखमंगों
के चक्कर में अपनी यात्रा बीच में अधूरी पड़ी है।
लगभग डेढ किमी की हल्की चढ़ाई के बाद इस धार का
समापन हुआ। जहाँ हम रात में रुके थे वहाँ धार समाप्त नहीं हुई थी। यहाँ कुछ देर
विश्राम करने के बाद हम दोनों ढलान की ओर उतरने लगे। जहाँ चढ़ते समय परेशानी नहीं
हो रही थी वही उतरते समय आने वाली आधा किमी की बेहद ही तीखा ढलान बता रही थी कि इस
ट्रेक में चढ़ाई हो या उतराई दोनों नानी याद दिलाने वाली है। ढलान समाप्त होने के
बाद वही पहाड़ी नाला फ़िर आगे आ गया जिसे तंगलिंग गाँव में पार किया था। यहाँ से अपनी
पानी की बोतले भरकर आगे बढे। यदि जुलाई में यहाँ आया जाये तो यहाँ नाले को पार
करने के लिये बर्फ़ के ऊपर चलकर जाना पडेगा। लेकिन अगस्त में एक जगह थोड़ी सी बर्फ़
दिखायी दे रही थी अन्यथा सारी बर्फ़ बह चुकी थी। रामपुर वाले भी हमारे साथ ही चल
रहे थे। ढलान पर वे आगे निकल गये जबकि हम फ़ोटो लेने के चक्कर में पीछे रह गये।
नाला पार कर सामने दिखायी दे रही पगड़न्ड़ी पर चढ़
गये। यहाँ जाकर देखा कि भन्ड़ारे स्थल पर लोगों ने क्या तांड़व मचाया होगा? उसका हाल
इतने दिन बाद भी पूरी तरह बचा हुआ है। तहस-नहस किये गये भन्ड़ारा स्थल के कई फ़ोटो
लिये गये। उसके बाद वही कुछ देर बैठकर इस बात पर चर्चा करते रहे कि ऐसे लोग ही
धर्म का सत्यानाश करते है। हिन्दू धर्म वैसे भी बहुत उदारशील धर्म है उसी का लाभ
यह लालची लोग उठाते है। भन्ड़ारा स्थल से ऊपर जाने वाली पगड़न्ड़ी दिखायी दे रही थी।
यहाँ से गुफ़ा लगभग आधे किमी की दूरी पर रही होगी। हम कुछ देर रुकने के बाद गुफ़ा की
ओर बढ़ चले। कैमरे का जूम प्रयोग कर देखा कि कुछ लोग गुफ़ा में हलचल करते दिख रहे
है। लेकिन जब तक हम वहाँ पहुँचे तो वे वहाँ से आगे जा चुके थे। मैंने वन विभाग के
कमरे से अपने साथ एक बड़ी सी लकड़ी लाया था। गुफ़ा पहुँचते ही मैंने वह लकड़ी एक
किनारे पटक दी। वहाँ पहले से कुछ दो-तीन छोटी-छोटी लकड़ी बची हुई थी।
हम दोनों पहले से ही तय करके आये थे गुफ़ा से
आगे अपने बड़े बैग लेकर नहीं जायेंगे। इसलिये अपने बड़े बैग गुफ़ा में रख दिये और आगे
दिन भर की यात्रा में खाने के लिये बिस्कुट व पानी की बोतल रखने के लिये छोटा सा पतला
थैला निकाल लिया। राकेश के पास पोलीथीन बैग था उसने वही ले लिया था। राकेश भूख से
ज्यादा चिंतित था। इसलिये उसने बिस्कुट के साथ सेब भी रखे थे। गुफ़ा पर पहुँचने के
बाद देखा कि वहाँ भन्ड़ारे वालों का बचा थोड़ा सा खाने का सामान गांव वालों के कहर
से बचाकर यात्रियों ने गुफ़ा में लाकर रखा हुआ था। रामपुर वाले साथी राकेश के साथ
मिलकर चाय बनाने लग गये। चाय बनाने के बाद खाने की तैयारी होने लगी। कहाँ तो हम
सोच रहे थे कि आज पूरे दिन खाने को नहीं मिलेगा। और अब देखो भन्ड़ारे वालों का बचा
सामान काम आ रहा था। (यात्रा अभी जारी है)
यह धार की चोटी के बाद खतरनाक उतराई है |
जहाँ jatdevta लिखा है उसके नीचे गुफ़ा दिख रही है। |
जूम के बाद गुफ़ा का फ़ोटो है |
झरने/नाले में अब बर्फ़ बेहद कम बची है |
राकेश पीने के लिये पानी भर रहा है |
भन्ड़ारा स्थल |
दूर से देखो धार की उतराई का जूम के बाद का फ़ोटो |
यह फ़ोटो बिना जूम का है jatdevta लिखा है वहाँ से उतराई है |
रामपुर वालो की टोली |
रामपुर वालों के साथ मेरा फ़ोटो |
वही से दिखते दो पर्वत |
भन्ड़ारा वालों का बनाया कूड़ादान |
भन्ड़ारे का तहस-नहस किया गया हाल देख लो |
ऊपर से रिकांगपियो का नजारा |
गुफ़ा में चाय बनायी जा रही है |
चाय के बाद दाल गर्म की जा रही है |
पराँठा |
जरा हटकर लिया गया फ़ोटो |
दुर्गम स्थलों पर नाजुक व प्यारे फ़ूल मिल ही जाते है। |
y sahi nahi hua bhandara walo ke sath.
जवाब देंहटाएंghumakkar k saath sandeepji ap photographer bhi hote ja rahe.. badhiya photo..
जवाब देंहटाएंशानदार, जानदार.
जवाब देंहटाएंBhut sunder.... kanha se laate ho ese shabad "Hindu dharm bhut udarsheel dharam hai,uska laabh laalchi log utthate hai"bhut sahi..koi ab gaun waalo ko samjhe, ki yaatri badege jabi to vikas hoga,warna rahna J&K ki traha bheek maangne mein,esa karenge tou royenge jeevan bhar.Baki parantha bhut accha banate ho.bhai-bhabhi jee ko koi problam nahi aati hogi...agle link ka besabri se intzaar hai
जवाब देंहटाएंSandeep ji Ram-Ram.......... jaisa ki is lekh me lagaye photo se dikh hi raha hai ki gaon walo ke kaminepan ne yahan aane walo ke saath bhandare walo ka bahiut nuksaan kiya hai, Devta Temple me hajiri bhi inhi lalchi logon ne Rupee lutne ke liye start karayi hogi........Aise logon ko 1 paisa bhi nahi dena chahiye.
जवाब देंहटाएंधर्म तो अब चंद सिक्को का मोहताज़ हो गया है ..पैसा फेको तमाशा देखो ..बहुत गजब की सीनरी है ..ऊँचे पहाड़ ! बल खाती उतराई ..क्या बात है ... गुफा तो देखने काबिल है
जवाब देंहटाएंगज़ब नज़ारे हैं देवता ! ऐसी जगह की चाय में बड़ा मजा आता है !!
जवाब देंहटाएंपर देवता चाय पीते कहा है ये नज़ारे तो हमने ही लिए थे
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