BIKE YATRA WITH WIFE-02
ऋषिकेश से
उत्तरकाशी का मार्ग कई बार देखा जा चुका है इसलिये पता रहता है कि अब कौन सी जगह
आयेगी? ऋषिकेश से चलते ही चढाई आरम्भ हो जाती है यह चढाई नरेन्द्रनगर होते हुए
नागनी, फ़कोट जैसी जगहों से होती हुई आगे बढती है। चम्बा जाकर ही इस लगातार चढाई से
छुटकारा मिल पाता है। चम्बा में हर सुविधा उपलब्ध है। चम्बा से आगे का मार्ग ढलान
वाला है पहले यह मार्ग टिहरी डैम के निर्माधीन इलाके से होकर जाता था। जहाँ अब
टिहरी झील का पानी होने से वह मार्ग पानी के नीचे समा चुका है। मैंने पुराना टिहरी
शहर कई बार देखा है। शुरु की कुछ यात्रा बस की थी जिससे मुझे पुरानी टिहरी में
गंगा पार बने बस अडडे तक जाने का मौका लगा था।
इस यात्रा के तीनों लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
01- दिल्ली से हरिदवार व ऋषिकेश यात्रा।
02- उत्तरकाशी से यमुनौत्री मन्दिर तक
03- कैम्पटी फ़ॉल, मसूरी देहरादून दिल्ली तक
इस यात्रा के तीनों लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
01- दिल्ली से हरिदवार व ऋषिकेश यात्रा।
02- उत्तरकाशी से यमुनौत्री मन्दिर तक
03- कैम्पटी फ़ॉल, मसूरी देहरादून दिल्ली तक
अगर किसी के
पास अपना वाहन होता था तो उसे टिहरी जाने की आवश्यकता नहीं होती थी। टिहरी शहर
मुख्य मार्ग से करीब 5 किमी अन्दर
जाने पर आता था। जिस कारण निजी वाहन या जीप वाले पुरानी टिहरी नहीं जाया करते थे।
बसों को टिहरी जाना ही पडता था जिसमें उनका एक घन्टा खराब हो जाया करता था। इस
यात्रा में हम पुराने टिहरी नहीं गये थे लेकिन माताजी के साथ वाली यात्रा में मैं
टिहरी तक गया था। ऊँचाई से मैंने टिहरी शहर का एक फ़ोटो लिया था जो उस लेख में
लगाया भी है। उस लेख का लिंक उत्तराखण्ड वाले पेज में मिल जायेगा।
टिहरी डैम
वाली जगह आजकल पानी ही पानी दिखायी देता है। आजकल जो नई सडक बनी है उसपर एक जगह से
झील का अच्छा व्यू दिखायी है। अंधेरा होने से पहले-पहले हम उत्तरकाशी पहुँच चुके
थे। उत्तरकाशी में भाई पुलिस लाइन के पास ही रहता था। हमारी बाइके भाई के कमरे तक
पहुँच गयी। भाई के घर के सामने हरे भरे खेत देखकर काफ़ी अच्छा लग रहा था। थोडी सी
दूर पर भागीरथी शोर मचाते हुए जा रही थी। बीते साल इसी भागीरथी नदी ने उत्तरकाशी
में बहुत कहर बरपाया था। आज भी वह त्रासदी देखी जा सकती है। आने वाले कई सालों तक
उसके निशान दिखायी देते रहेंगे।
रात में
खाने के दौरान अगले दिन का कार्यक्रम तय हो गया था। नितिन और उसकी मैडम को कल
गंगौत्री जाना था। जिसके लिये सुबह उजाला होने से पहले से निकलना था। हमने बीते
वर्ष गंगौत्री यात्रा की ही थी इसलिये हम घर पर ही रहे। सुबह चार बजते ही नितिन को
उठाया गया। वे दोनों तैयार होकर गंगौत्री के लिये चले गये। नितिन के पास मोबाइल था
लेकिन मोबाइल सिर्फ़ उत्तरकाशी में ही कार्य करता था। नितिन को आगे का मार्ग समझाकर
रात होने से पहले वापिस आना था। चार घन्टे जाने व चार घन्टे आने के मिला दे तो दिन
में चार घन्टे का समय अलग से बचा हुआ था। हम उम्मीद कर रहे थे कि नितिन अंधेरा
होने तक ही आ पायेगा लेकिन नितिन शाम को छ: बजे तक ही वापिस आ गया। नितिन बाइक का
अच्छा चालक है जिस कारण उसने समय की बचत की।
नितिन जैसे
ही उत्तरकाशी पहुँचा तो मैंने देखा कि उसकी बाइक के अगले पहिये में पेंचर हो गया है
जिस कारण अगले पहिये में हवा काफ़ी कम थी। पेंचर की दुकान दो किमी दूर थी बिना देर
किये पेंचर की दुकान पर पहुँचे। शुक्र रहा कि नितिन की बाइक में बीच में कही पेंचर
नहीं हुआ। नहीं तो बेचारा बुरा फ़ँसता। पेंचर में दो बाइक साथ होती है तो लाभ रहता
है। अगले दिन हम दोनों अपनी-अपनी बाइक पर अपनी-अपनी वाइफ़ को लाधकर यमुनौत्री के
लिये चल दिये। यमुनौत्री से सीधे दिल्ली जाना था। इसलिये अपना सामान साथ ले लिया
था। इस यात्रा के बाद आज तक नितिन दुबारा उत्तकाशी नहीं जा पाया है।
उत्तरकाशी
से यमुनौत्री जाने के लिये लगभग 32 वापिस
धरासू बैन्ड तक आना पडता है। धरासू बैन्ड से यमुनौत्री का मार्ग गंगा का किनारा
छोडकर अलग हो जाता है। इस मार्ग चलते ही चढाई उतराई लगी रहती है। इस मार्ग से
बडकोट पहुँचा जाता है। धरासू से बडकोट के बीच राडी टॉप नामक जगह को इस मार्ग का
सबसे ऊँचा स्थल कहते है। जबकि उत्तरकाशी से गंगौत्री वाले मार्ग पर सुक्खी टॉप
सबसे ऊँचा स्थल है। राडी टॉप के बाद बडकोट तक ढलान ही ढलान है। चीड का घना जंगल
पार करते हुए जाना होता है।
बडकोट से
कोई दो किमी पहले एक तिराया आया जिस पर लिखा था यमुनौत्री सीधे हाथ जाना है। अभी
सुबह के 10 भी नहीं बजे थे। इस तिराहे से यमुनौत्री
के लिये चल दिये। हनुमान चट्टी तक सडक अच्छी हालत में मिलती है। यहाँ पर पुलिस का
एक बैरियर है। जहाँ प्रत्येक वाहन को अपना नम्बर आदि लिखवाना होता है। लेकिन हमारे
पास बाइक थे जिस कारण हमें किसी ने नहीं रोका-टोका। यमुनौत्री से कोई 14 किमी पहले अच्छी सडक अचानक समाप्त हो गयी। इस जगह का नाम जानकी चटटी या
हनुमान चटटी था। सडक किनारे छोटी सी मार्किट थी। इस मार्किट में जरुरत का लगभग सभी
सामान बिकता है। बडी बसे यहाँ से वापिस मुड जाती है। आने वाले समय में बडी बसे आगे
तक जाया करेंगी। आगे वाली सडक का निर्माण कार्य प्रगति पर था। हो सकता है कि अब तक
बडी गाडियाँ आगे तक जाने भी लगी होगी।
बाजार से
आगे चलते ही लोहे का एक पुल आया। पुल पार करते ही पहाड की तरफ़ सीधे हाथ एक बोर्ड़
दिखायी दिया। उस पर लिखा था डोडी ताल ट्रेकिंग मार्ग। डोडीताल पैदल मार्ग पार करते
हुए उत्तरकाशी पहुँचा जा सकता है। स्थानीय लोग एक दिन में उत्तरकाशी पहुँच जाया
करते थे। आजकल वाहन उपलब्ध है प्रतिदिन यमुनौत्री से उत्तरकाशी/गंगौत्री के लिये
एक बस सीजन में चलती है। जिस कारण स्थानीय लोग अब डोडीताल पैदल यात्रा नहीं करते
है। डोडीताल के ऊपर एक दर्रा भी है जहां तक ट्रेकर पहुँच जाते है।
लोहे के पुल
से आगे का मार्ग एकदम कच्चा था। पूरी सडक पर पत्थर भी नहीं डले थे। इस मार्ग पर
चढाई अच्छी खासी थी जिस कारण बाइक पहले या दूसरे गियर में ही चलायी जा रही थी। कुछ
जगह कीचड से होकर भी निकलना पडा। एक जगह कच्ची सडक के पार पानी की एक नाली बह रही
थी। बाइक किनारे लगाकर उस ताजे चमचमाते शीशे जैसे जल से बाइक को स्नान कराया गया।
पानी बेहद साफ़ था उस पानी से अपनी हाथ मुँह धोकर तरोताजा हो गये। सारी थकावट गायब
हो गयी।
हनुमान चटटी
पहुँचकर काफ़ी बडे मैदान में बसा एक गाँव दिखायी दिया। यहाँ से पैदल यात्रा आरम्भ
होती है। अपनी बाइक आधा किमी आगे तक चली गयी। गढवाल मण्डल विकास निगम के रेस्ट
हाउस के सामने जाकर बाइक रोकी। बाइक खाली जगह देखकर रोक दी। हैल्मेट बाइक पर बान्ध
दिये। कपडे वाले बैग कंधे पर लाध लिये। पैदल यात्रा शुरु हो गयी। लगभग एक किमी तक
समतल सी भूमि पर चलने के बाद जोरदार चढाई के दर्शन हुए। चढाई बडी भयंकर दिख रही
थी।
सामने जितना
दिख रहा था उसे देख लगता था कि हम गलती से यमुनौत्री की जगह यमलोक वाले मार्ग पर
तो नहीं आ गये है। सामने तीन-चार तीखे बैन्ड थे। किसी तरह ये बैन्ड पार कर आगे बढे
ही थे कि अब सात-आठ बैन्ड दिखायी देने लगे। सामने जो चढाई उसके सामने पीछे छूटी
चढाई कुछ भी नहीं थी। वैसे भी पहाड की चढाई ऐसी ही लगती है। पीछे छूटने वाली चढाई
आसान होती है जबकि आगे वाली कठिन लगती है।
यमुनौत्री
की पैदल दूरी मुश्किल से 6 किमी है
जिसमें से 4 किमी जिग-जैक वाली चढाई है। जो सभी यात्रियों को
पस्त करने के लिये काफ़ी रहती है। यात्री किसी तरह इस चढाई को पार कर मंजिल के
नजदीक पहुँचते है तो लगभग आधे किमी दू से दिखायी देने वाले यमुनौती मन्दिर को
देखकर जोश भर जाता है। आखिरी में समतल मार्ग आता है। जिससे यात्रियों को काफ़ी राहत
मिलती है।
मन्दिर के
बराबर में कुदरती गर्म पानी उपलब्ध है जिसमें स्नान कर सभी यात्री अपनी थकान उतार
देते है। औरतों के स्नान करने के लिये अलग से स्थान बनाया हुआ है। हमारे देश में
भक्ति वाले स्थानों पर अधर्म के काम अत्यधिक हुआ करते है। मन्दिर के बराबर में
गर्म पानी निकल रहा था। जबकि ऊपर पहाड पर मन्दिर से कोई दस मीटर दूर बर्फ़ के नीचे
से यमुना नदी निकल कर इस गर्म पानी में मिल रही थी।
यमुनौत्री
मन्दिर की समुन्द्रतल से ऊँचाई मीटर
है। यमुनौत्री बन्दरपूँछ पर्वत के सप्तऋषि कुन्ड से निकलती है। इसके पीछे
स्वर्गरोहिणी पर्वत है। यमुनौत्री वाला पहाड पार कर हर की दून जाया जा सकता है।
अगर बर्फ़ कम हो तो वहाँ जाना ज्यादा कठिन भी नहीं है। यात्रियों की अधिकता के कारण
हमें बाहर खुले में स्नान करना पडा। औरतों के लिये खुले में कपडे बदलने की समस्या
थी। उसका समाधान साडी व पहाड की ओट बनाकर जुगाड किया गया। कुछ भक्त लोग स्नान करती
औरतों को ताकने की नीयत से ही आये थे जिन्हे सिर्फ़ अपनी आँखों को सुख पहचाने से
मतलब था किसी को हुई परेशानी से उनका कोई लेना देना नहीं था। एक बुजुर्ग ने ऐसे एक
बन्दे को जमकर सुनायी थी।
यमुनौत्री
के गर्म पानी के कुन्ड में कपडे में चावल बान्धकर डालने से चावल थोडी देर में पक
जाते है। जिन्हे मन्दिर में चढाया जाता है। औरते ठहरी तो बिना पूजा-पाठ मानने वाली
नहीं थी। कुछ देर रुकना पडा। यमुना को यमराज की पुत्री कहा जाता है। शनि महाराज व
सूर्य महाराज इनके भाई है। इस तरह देखा जाये तो यमुना मैया की फ़ैमिली सबसे ताकतवर
हुई। इनके सामने तो देवताओं के किसी समूह की हिम्मत ही नहीं होती होगी। सत्यार्थ प्रकाश पढने के
बाद तो सभी प्रकार के देवी, देवता, भगवान, अल्ला, जीसस आदि पर विश्वास करने को मन
ही नहीं होता है। यह सब धर्म के ठेकेदारों के बनाये हुए प्रतीत होते है।
दोनों
जाटनियों का पूजा-पाठ निपट चुका तो हम चारों वापिस चलने लगे। अभी थोडा ही चले थे
कि एक बन्दा पराँठे बनाता दिखायी दिया। पराँठे की महक से मन मचल उठा। दो-दो परांठे
खाने के बाद ही वहां से आगे बढ सके। अब वैसे भी मार्ग में चढाई नहीं के बराबर ही
थी। उतराई पर हमें बेहद सावधानी से चलना पडा। पगडन्डी पर मुश्किल से 4-5 फ़ुट की जगह थी जिस पर खच्चर व पालकी के
साथ पैदल यात्रियों को चलना पड रहा था। एक तरह पहाड था तो दूसरी तरफ़ गहरी खाई थी।
अपनी साइड में खाई थी जिस कारण सावधानी बरतने के अलावा कोई उपाय नहीं था। कुछ जगह
तो पगडन्डी बेहद खतरनाक थी।
उतराई में
चढाई के मुकाबले आधा समय लगा। चढाई शुरु होते ही पहले वाले बैन्ड पर चढते ही नितिन
की मैडम बोली थी। आप जाओ। मैं यही मिल जाऊँगी। नितिन उसे धकेल-धकेल कर चढाई पर ले
गया था। वापसी में उसने एक बार भी यह नहीं कहा था कि आप लोग जाओ। बाइक के पास
पहुँचते ही बाइक पर सवार होकर देहरादून के लिये चल दिये। पहली मंजिल बडकोट थी।
समय देखा
शाम के 4 बजे थे। दो घन्टे में बडकोट पहुँच सकते थे।
कच्ची सडक पार कर बाइक ने गति पकडी। इस सडक पर यमुना नदी के साथ-साथ सडक बनी है
जिससे लगातार ढलान मिलती रहती है। हम बडकोट से लगभग 27 किमी
दूर थे कि मेरी बाइक के अगले पहिये में फ़ुस की आवाज हुई। बाइक रोककर देखा कि उसमें
एक कील घुस गयी है। सबसे पहले टायर से कील निकाली गयी। अब तक टायर की सारी हवा
निकल चुकी थी। सामने दो-तीन दुकाने थी। दुकान वालों से पेंचर की दुकान के बारे में
जानकारी लेनी चाही। दुकान वालों ने उपहास जैसा उडाते हुए कहा। पेंचर की दुकान तो
बडकोट जाकर मिलेगी।
वैसे पेंचर
की दुकान हनुमान चटटी में जरुर होगी। हनुमान चट्टी 7 किमी पीछे जा चुकी है। अगर वहाँ पेंचर लगवाने गये तो कम से कम 14 किमी फ़ालतू में चलना होगा। जिसमें समय भी खराब होगा। अभी शाम के 6 बज चुके है। अंधेरा हनुमान चट्टी में ही हो जायेगा। दुकान वाले हमारी
स्थिति पर मजे ले रहे थे। ज्यादा देर ना करते हुए तय किया कि बडकोट चला जाये। ढलान
होने के कारण दूसरी बाइक पर तीन सवारियाँ ले जाने में समस्या नहीं आयेगी। दोनों
मैडम नितिन की बाइक पर सवार हो गयी। (यात्रा जारी है।)
माफ कीजिएगा उत्तराखंड मैं बाढ शायद मन्दाकिनी नदी मैं आई थी, आपने गलती से भागीरथी लिख दिया हैं।
जवाब देंहटाएंयात्रा काफी मनोरंजक हैं।