BIKE YATRA WITH WIFE-01
सन 2005 के जून माह की शुरुआत में एक बार मैडम
जी के साथ उत्तराखन्ड के पहाडों की यात्रा का बाइक कार्यक्रम बना था। इस यात्रा
में हमारे साथ श्रीखण्ड महादेव यात्रा में बीच से लौटकर आने वाले नितिन व उसकी नई
नवेली मैडम जी अपनी TVS विक्टर बाइक पर हमारे साथ गयी थी। इस
यात्रा के समय तक अपने पास हीरो होन्डा की पैसन बाइक ही हुआ करती थी। इसी साल के
अन्तिम माह में आज वाली नीली परी हीरो होन्डा की एमबीसन बाइक अपने बेडे में शामिल
हो गयी थी। इस यात्रा में हमने दिल्ली से हरिदवार से नीलकंठ से उतरकाशी से (गंगौत्री
नितिन ही गया था) यमुनौत्री से मसूरी से देहरादून से दिल्ली तक की यात्रा की थी जिसका
विवरण इस यात्रा में बताया जा रहा है।
इस यात्रा के तीनों लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
01- दिल्ली से हरिदवार व ऋषिकेश यात्रा।
02- उत्तरकाशी से यमुनौत्री मन्दिर तक
03- कैम्पटी फ़ॉल, मसूरी देहरादून दिल्ली तक
इस यात्रा के तीनों लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
01- दिल्ली से हरिदवार व ऋषिकेश यात्रा।
02- उत्तरकाशी से यमुनौत्री मन्दिर तक
03- कैम्पटी फ़ॉल, मसूरी देहरादून दिल्ली तक
सन 2005 के मई माह में नितिन की शादी हुई थी।
नितिन उम्र में भले ही मुझसे 8-9 साल छोटा हो लेकिन बाइक
चलाने के मामले में उसका जूनून मुझसे किसी तरह कम नहीं है। मेरी तरह नितिन पूरे
दिन बाइक चला लेता है। नितिन की शादी को महीना भर भी नहीं हुआ था कि एक दिन नितिन
मुझे अपने घर के बाहर बाइक की घुलायी करता हुआ दिखायी दिया। मैंने नितिन से कहा,
शादी के बाद हनीमून मनाने कहाँ गये थे? नितिन बोला कही नहीं? क्यों? मम्मी कही दूर
जाने नहीं देती। अच्छा ऐसी बात है। चलो तुम्हारी मम्मी से बात करते है।
नितिन की
मम्मी घर के अन्दर ही थी। नमस्ते आदि औपचारिकता पूर्ण होते ही मैंने अपनी मिसाइल
दाग दी। मिसाईल का निशाना सही जगह जाकर बैठा। मेरे कहते ही नितिन की मम्मी ने कहा।
इन्हे अकेले नहीं जाने दूँगी। किसी को साथ भेज दो। कोई साथ जाने वाला नहीं मिलता।
मैं तैयार हूँ। मेरे हाँ कहने से नितिन की मम्मी धर्म संकट में फ़ँस चुकी थी। मेरी
हाँ उनके गले में अटकी हडडी बन चुकी थी जिसे निगलते बन रहा था ना उगलते बना। आखिरकार
उन्होने कह दिया कि यदि तुम साथ जा रहे हो तो ठीक है जाओ।
कितने दिन
में वापिस आओगे? दो-तीन महीने तो लग ही जायेंगे! इतने दिन तक मैं अकेली दुकान कैसे
सम्भालूँगी। उस समय नितिन अपने घर में STD व प्रचून की दुकान किया करता था। आजकल नितिन लोनी बिजली घर में शायद
अनुबंधित आधार पर कार्य कर रहा है। जिन दिनों यह यात्रा की गयी थी मेरी अपने उच्च
अधिकारी से खटपट चल रही थी। जिस कारण मैं वहाँ से स्थानांतरण कराने के चक्कर में
था। इसलिये जानबूझ कर ऐसा काम करता था जिससे अधिकारी नाराज होकर मेरा तबादला वहाँ
से कही भी करा दे।
अधिकारी की
मजबूरी यह थी कि मैं अकेला ही दो बन्दों का कार्य करने के बाद भी खाली दिखायी देता
था। एक बार अधिकारी ने मुझे बोल भी दिया कि खाली क्यों बैठे हो? अपना काम जल्दी
निपटा कर बैठा हूँ। दूसरे के जैसे टुलक-टुलक लगे रहना अपनी फ़ितरत नहीं है। मेरे
यही तुरन्त जवाब अधिकारी को अखरते थे। मेरे साथ कार्य करने वाले एक सीनियर बन्दे
ने मुझे सलाह भी दी थी कि अफ़सरों के मुँह नहीं लगा करते। मैंने उनसे पूछ ही लिया
यदि अफ़सरों के मुँह लगेंगे तो क्या हो जायेगा? उन्होंने कहा कि तुम्हारा तबादला हो
जायेगा। तबादला शब्द सुनकर आलसी मक्कार लोगों की नीन्द उड सकती है। लेकिन मुझे
तबादला शब्द अच्छा लगता है। तबादला सुनते ही मुझे लगता है कि जैसे कही नई जगह
घूमने के लिये जा रहे हो।
अपनी नौकरी
ही ऐसी है कि दिल्ली से बाहर कोई माई का लाल अपना तबादला कर ही नहीं सकता है? रही
बात दिल्ली की तो दिल्ली है ही कितनी बडी? एक कोने से दूसरा कोना पूरे सौ किमी भी
नहीं पूरा कर पाता। अधिकारी जहाँ भी तबादला करेंगे। वही नजदीक ही सरकारी आवास मिल
ही जायेगा। अपनी आदत समय रहते काम करने की है अत: अधिकतर अधिकारी मुझे झेल ही लेते
है। वर्तमान में बीते दो साल से अपने अधिकारी बहुत अच्छी आदत वाले मिल रहे है। जब
तक इन अधिकारियों का अपनी तरफ़ स्नेह बना रहेगा। अपनी भी पुरजोर कोशिश कोशिश रहेगी
कि अपनी तरफ़ से कोई गलती ना हो।
मैंने अपने
अधिकारी को अपनी छुट्टी के बारे में सूचित भी नहीं किया था। मुझे पता था कि इस
अधिकारी से अभी बात बिगडी हुई है जिससे यह छुट्टी मन्जूर नहीं करेगा। इसलिये मैंने
एक डाक्टर से मेडिकल बनाने के बारे में पहले ही बात कर ली थी। असलियत में उस समय
मुझे खांसी हो रखी थी जिसका इलाज एक डाक्टर के पास चल रहा था। उन्होंने ही मेडिकल
ही हाँ भरी थी। वो अलग बात है कि मैं यात्रा के बाद कार्यालय गया तो किसी ने मुझे
कुछ नहीं कहा। पता लगा कि जिस अधिकारी से पंगा चल रहा है उसका तीन दिन पहले तबादला
हो गया है। यह कैसे हो गया? पत्ता तो मेरा कटने वाला था? परमात्मा यदि कही है तो
जो करता है सही ही करता होगा। वैसे भी परमात्मा अधिकतर काम उल्टे-पुल्टे ही करता
है जिससे जनता परेशान ही रहती है।
हम चारों दो
बाइक पर सवार होकर घूमने चल दिये। दिल्ली से चलकर हरिदवार व नीलकंठ देखते हुए एक
दिन में उत्तरकाशी पहुँचना बेहद कठिन था। इसलिये तय हुआ कि पहले दिन शाम को चलते
है जिससे मैं अपने मामाजी के यहाँ बावली गाँव बडौत से आगे आता है। नितिन अपनी मौसी
के यहाँ बिजरोल गाँव में रुक जायेंगे। अंधेरा होते-होते हम दोनों बडौत पहुँच चुके
थे जहाँ से हम दोनों अलग-अलग हो गये। कल सुबह उजाला होने पर आगे की यात्रा पर चलेंगे।
रात को मैं और श्रीमती जी मामाजी के यहाँ ठहरे, जबकि नितिन अपनी मौसी के यहाँ चला
गया।
आज छोटे
मामाजी नहीं है। कई साल पहले बडौत में एक दुर्घटना में उनका देहांत हो चुका है।
गांव में सबसे छोटे मामाजी अजीत तोमर ही रहते थे। आज मामाजी व उनका एकलौता लडका
गाँव में रहते है। सबसे बडे मामाजी भी गाँव में अन्दर रहते है लेकिन हमारा उनसे
कोई वास्ता नहीं है। दूसरे नम्बर के मामाजी दी देहरादून में रहते है। उनके यहाँ
साल-दो साल में एक आध चक्कर लग जाता है। मौसी भी देहरादून में ही रहती है। वापसी
में मौसी के यहाँ कुछ देर रुककर दिल्ली की ओर आये थे।
बावली से
उजाला होते ही चल दिये थे। नितिन उजाला होते ही आ पहुँचा था। हमारा पहला लक्ष्य
शामली-मुजफ़्फ़रनगर होते हुए हरिदवार पहुँचने का था। सुबह का समय होने के कारण शामली
में कोई भीड दिखायी नहीं दी। मुजफ़्फ़रनगर में हल्की-फ़ुल्की भीड मिली। बाइक होने के
कारण इस भीड में आसानी से पार हो गये। मुज्फ़्फ़रनगर से आगे हाईवे पर वाहनों की काफ़ी
भीड थी जबकि अब तक हम लगभग खाली सडक पर चले आ रहे थे। उन दिनों
बडौत-बुढाना-शाहपुर-मुजफ़्फ़रनगर मार्ग की हालत खस्ता थी। नहीं तो वह मार्ग तो और भी
छोटा पडता है। आजकल बडौर-शामली वाला मार्ग कबाडा हुआ पडा है। आगामी दो साल बाद ही
यह सुधर पायेगा।
रुडकी जाकर
हमारी बाइक की गति घटकर दस से बीस के बीच आयी थी। रुडकी पार होने के बाद खुली सडक
मिली जिस पर हरिदवार पहुँचने में ज्यादा समय नहीं लगा। हरिदवार बाईपास पर सीधे
चलते रहे। हर की पैडी, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे वाला मार्ग पुराना मार्ग है। पुराने
मार्ग पर जाने का मतलब था कि बिन बुलाये जाम में जा घुसना। हरिदवार में कुछ देर
रुककर ऋषिकेश की ओर बढ गये।
ऋषिकेश में
नीलंकठ मन्दिर देखने जाना था। इसलिये सोचा कि बैराज से गंगा पार करते हुए नीलकंठ
चलते है। बैराज पार वाला मार्ग पहाडों से होकर जाता है जिस कारण यह मार्ग लम्बा
है। सडक की हालत ठीक-ठाक है। इस मार्ग पर पहली बार यात्रा हो रही थी। जब हमें पैदल
यात्रा वाली पगडन्डी दिखायी दी तो याद आया कि इस पर मैं जा चुका हूँ। इस सडक पर एक
बार अल्टो गाडी चलाते हुए मैंने सन 31 अक्टूबर को 2008 में यात्रा हो चुकी है। सडक मार्ग
से पहली बार नीलकंठ जाना हो रहा था। पहाडी सडकों पर बाइक यात्रा करने में अपुन को
बडी खुशी मिलती है। मन करता है कि पूरा जीवन पहाडी मार्गों में बाइक चलाता रहूँ।
गंगा का
किनारा छोडने के बाद नीलकंठ तक 26 किमी
की दूरी तय करनी पडती है। पहाडी मार्ग व चढाई होने के कारण बाइक सीमित गति में
भगायी गयी। आगे जाकर सडक किनारे सीधे हाथ एक झरना दिखायी दिया। यहाँ पर कुछ लोग
स्नान कर रहे थे। इच्छा तो हमारी भी थी लेकिन सुबह घर से नहाकर चले ही थे। अभी समय
भी ज्यादा नहीं हुआ था। अत: तय हुआ कि वापसी में गंगा जी में स्नान करते हुए
उत्तरकाशी की ओर जायेंगे। सबसे पहले नीलकंठ मन्दिर पहुँचना था।
नीलकंठ
मन्दिर से पहले एक बैरियर आता है यहाँ पार्किंग के नाम पर शुल्क लिया जाता है।
नितिन को शुल्क देना पडा। जबकि अपनी बाइक को “पुलिस स्टाफ़” कहने से बिना शुल्क आगे
जाने दिया गया। यहाँ से मन्दिर कई किमी दूर है। कुछ देर बाद नीलकंठ मन्दिर भी आ
जाता है। बाइक किनारे खडी कर मन्दिर दर्शन करने पहुँच गये। अपुन तो पक्के ठेठ
नास्तिक है (मूर्तिपूजक नहीं) मन्दिर के बागर कुछ दुकान वाले गिलास में बन्द गंगा
जल नीलकंठ पर चढाने के लिये बेच रहे थे। गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है। जिस
कारण मुझे भी गिलास बन्द गंगा जल नीलकंठ महादेव पर चढाने के लिये लेना पडा।
मन्दिर में
कोई भीड नहीं थी। सब कुछ खाली था। जाते ही हमारी बारी आ गयी। वहां बैठा एक
बन्दा/पुजारी प्लास्टिक के गंगा जल वाले गिलासों को एक कील जैसी पैनी छड से सुराख
करता जाता था जिसके बाद श्रदालु लोग उस गंगा जल को महादेव पर अर्पण कर रहे थे। दिन
पता नहीं कौन सा था? कुछ लोग कह रहे थे कि अगर सोमवार होता तो यहाँ लम्बी लाइन में
लगना पडता। अच्छा हुआ सोमवार नहीं है। मुझे लगता है कि शायद उस दिन रविवार था। लोग
भगवान से कुछ ना कुछ माँगने जाते है। मैंने बहुत यह बात जान ली थी कि भगवान बिन
माँगे बहुत कुछ दे देता है। इसलिये मैं कभी कुछ नहीं माँगता। जितना अपने पास है
उसमें संतुष्ट होना ही सबसे बडा सुख है। कटोरा लेकर माँगने की ज्यादा ही इच्छा हो
तो मन्दिर के बाहर लाईन लगाकर बैठे लोगों के साथ बैठ जाना चाहिए।
नीलकंठ
महादेव दर्शन करने के उपराँत एक बार अपनी बाइक पर सवार हो गये। घन्टे भर में
लक्ष्मण झूले पर पहुँच चुके थे। कैमरा निकाल कर गिने चुने फ़ोटो लिये। उनमें दो-चार
स्कैन कर यहाँ लगाये गये है। गंगा पार नहाने का स्थान तलाशने लगे। अपनी बाइक गंगा
किनारे पहुँच गयी। काफ़ी लोग वहाँ स्नान कर रहे थे इसलिये हम थोडा आगे चलकर नहाने
लगे। एक सनकी नहाती औरतों को देखने के चक्कर हमारे पास आकर बैठ गया। हो सकता है वह
सामान उठाने वाला चोर उच्चका हो। नहाना छोडकर पहले उसे भगाया। उसके बाद कुछ पत्थर
जमा कर लिये ताकि अगर वह या कोई दुबारा सामान के पास फ़टके तो उस पर अपना निशाना
आजमाया जा सके।
स्नान करने
में घन्टा भर लग गया। गंगा का पानी बेहद ठन्डा लग रहा था। एक मिनट भी पानी के
अन्दर नहीं ठहरा जा रहा था। शरीर कांपने लगता था। जिसके बाद धूप सेकने के लिये
बैठना पडता था। दोपहर के करीब एक बजे ऋषिकेश से उत्तरकाशा जाने के लिये बाइक पर
सवार हो गये। इस यात्रा में नितिन गंगौत्री गया था जबकि हमने एक दिन उत्तरकाशी में
बिताया था जिसके बाद अगले दिन यमुनौत्री जा पहुँचे थे जिसके बारे में अगले लेख में
बताया जा रहा है। यमुनौत्री की यह यात्रा मेरी पहली यात्रा थी जिसमें पता लगा कि
यमुनौत्री की चढाई बहुत कठिन है। (यात्रा जारी है।)
ache vichar hain
जवाब देंहटाएं"मैंने यह बात जान ली थी कि भगवान बिन माँगे बहुत कुछ दे देता है। इसलिये मैं कभी कुछ नहीं माँगता। जितना अपने पास है उसमें संतुष्ट होना ही सबसे बडा सुख है।"
जवाब देंहटाएं.......शत प्रतिशत सहमत |